इश्क़ बेपरवाह Rajan Singh द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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इश्क़ बेपरवाह

सूरज की रौशनी पड़ते ही ओस की बूंद विलुप्त हो जाया करती, दूब कुम्हलाने लगते, रंग सुर्ख गेरुआ हो उठती। रश्मि-रथी मुस्कुराते हुये एक नई सुबह की आगाज़ कर देता हैं। कुछ पुराने पन्ने पलट चुका होता है और नए पन्नों पर हस्ताक्षर जारी हो जाया करती। और इन्हीं कशमकश में ज़िन्दगी की रेलगाड़ी एक नई स्टेशन को रवाना हो जाती है।।

वक्त का पहिया घूमते हुये एग्जाम डेट को भी नज़दीक ले आयी। लखनऊ सेंटर पड़ा था ज़नाब का। शामों-सुबह का फ़लसफ़ा मिट चुका था। शिक्षा के समुंद्री लहरें साहिल से लिपट-चिपट कर मझधार तलाशने लगा।। निर्धारित डेट पर लखनऊ पहुँचने के लिए तैयार थे ज़नाब....। इश्क़ में हारे ज़रूर थे पर ज़िन्दगी में हारना मंज़ूर न था। कोशिस तो जीत की उमंग की ही थी। बांकी रब ही राखे।

अब वो दिन भी आ ही गया जब एग्जाम के लिए लखनऊ जाना था। पहले ऑटो फिर बस और उसके बाद मेट्रो का सफर तय कर पहुँच गये रेलवे स्टेशन। चार बजे शाम का ट्रेन था गोमती एक्सप्रेस। अपने निर्धारित समय से दो घंटा लेट। वैसे भी भारतीय रेल अपने निर्धारित समय पे चलने लगी तो वेल्यू ही क्या रहेगा। लेकिन लेट होते हुए भी सबको मंज़िल पे जरूर पहुँचाने को बाध्य है। चाहे जितना समय ले ले।

रुद्र की धड़कने बेहिसाब धड़के जा रहा था। मन में अनेकों विचार ऊमड़-घुमर कर तेज़ हवा के झोंके में इधर-से-उधर उड़ाए जा रहा था। जाने कितने ही प्रश्न मन में उमड़ रहा था?? क्या टाईम पे पहुँच तो जाऊंगा?? एग्जाम में क्या पूछेगा?? कैसा क्वेश्चन होगा?? मैं पास तो हो जाऊंगा न?? और भी न जाने कितने सवाल जिसका कोई हल नहीं था अभी?? वक्त के गर्भ में पलने वाले प्रश्न और उसके उत्तर।

इन्हीं उधेड़-बुन में रेलवे टिकट काउंटर पे पहुँचा। काफी लंबी कतारें थी। हिम्मत न जुटा पाया लाइन में लगने का। वैसे भी यू०पी० बिहार को जाने वाली ट्रेन और भीड़ न हो सम्भव ही नहीं। उसमें भी वीकेंड। कुछ कहना ही गलत होगा। मन मसोस कर रुद्र पहुँच गया रिजर्वेशन काउंटर पर। थोड़े पैसे ज्यादा लगा कर एक टिकट कन्फर्म हो गया।।

भारतीय रेल के जैसे भारतीय छात्रों का भी एक अनोखा ही नियम रहा है। जहां मिले चार यार मिलकर मचा देते हुरदंगल। चाहे एक-दूसरे को जानते हो या नहीं। सब का मूल- गोत्र-जाति-बिरादरी-धर्म सब एक हो जाता है और वो है परीक्षार्थी-विद्यार्थी। खैर इंतज़ार का लम्हा खत्म हुआ। ट्रेन चार बजे के बजाय साढ़े चार बजे प्लेटफॉर्म पे खड़ी हो गई। रुद्र भी अपने वोगी में प्रवेश कर सीट तलाश कर बैठ गया। अपना सीट था वो भी कॉन्फॉर्म। लेकिन गोमती ट्रेन के नियमों से अनभिज्ञ सोच के दरिया में गोते लगाते खिड़की के पास बैठ विचारों में तैरने लगा।।

गाड़ी खुलने का समय होते ही टिकट धारी, बिना टिकट वाले सब के सब जेनरल बोगी के भाँती रेल में रेलमरेल करने लगे। लेकिन सब आराम से जिसको जहाँ जगह मिला बैठ गया। गाजियाबाद, अलीगढ़, कानपुर के पैसेंजरों का मेला था।। ट्रेन हॉर्न बज उठी। गाड़ी स्टेशन छोड़ने को तैयार थी। और छुक-छुकाते हुए प्लेटफॉर्म से निकल पड़ी।।

बातों का सिलसिला प्रारम्भ हो गया। कोई सरकार को कोसता तो कोई रेलवे डिपार्टमेंट को। पर सबको गाड़ी खुलने की खुशी भी था। बातों-बातों में कई लड़के लखनऊ, कानपुर एग्जाम देने वाले निकल गये। कुछ दिल्ली से फर्स्ट और सेकण्ड शिफ्ट का एग्जाम देकर लौट रहे थे। सहपाठियों से बात कर के मनोबल कुछ बढ़ा था रुद्र का। गाड़ी अपनी गति से चलते हुए न जाने कब गाजियाबाद स्टेशन के प्लेटफॉर्म पे खड़ी हो गयी पता ही नहीं चला।।

बहुत से उतरने वाले पैसेंजर थे जो उतरने लगे वहीं कुछ चढ़ने वाले भी थे। जो अपनी-अपनी लगैज लिए वोगियों में एक अदद सीट तलाश रहे थे। जहाँ जी चाहा बैठना मुश्किल हो जाता है अगर आपकी टिकट कॉन्फॉर्म न हो तो। और उसमें भी गाड़ी खुलने की स्टेशन को छोड़ दिया जाए तो आगे आने वाले स्टेशनों पे चढ़ने वाले पैसेंजरों के लिए ज्यादा मुश्किल है। कारण पहले से बैठे लोगों को अपनी जागिरी जो लगती है।

खैर आगे बढ़ते है ये सब तो लगा ही रहता है। लेकिन जो नहीं होता है वो शुरू यहीं से होता है। यानी जिला गाजियाबाद से। एक गोल्डन यादें जो हमेशा याद आने पे मन गुदगुदा दे। जी हाँ.......... तो साहिबानों, कद्रदानों दिल थाम के बैठिए क्योंकि अब शुरू होती है कहानी का असली रंगारंग कार्यक्रम और प्रवेश करती हैं सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तान हमारा की नायिका।

सुनहरी और कर्ली बालों वाली, आखों के नूर को काले चश्मे के पर्दे में छुपाये। गेहुआँ रंग पे गुलाब की पंखुरियों जैसी होंठ तो नहीं कह सकते लेकिन गुड़हल की कली जैसी जरूर थी। उस पर से करीने से सजी नाक। किसी फिल्मी नायिका से कतय कम नहीं। वस्त्र आभूषण का बात करे तो साक्षात ऐश्वर्या रॉय "ताल" फ़िल्म की शूटिंग पे आयी हो ऐसा ही प्रतीत हो रहा था। स्किन कलर के लेंगी बॉडी टचिंग में ऊपर से मिनी स्कर्ट में सुडौल लम्बी टाँगों का मुआयना करते जाने कितनों का नज़र। उसके ऊपर टीशर्ट और खुली हुई बण्डी से झांकती नारीत्व मंज़र।। कान में ईयर फोन पे थिडकती बदन। हाय क्या क़हर ढाह रही थी।।

कम्पार्टमेंट में बैठे लौंडो का तो देखते ही मन के इंजन में जोर-जोर से भोपू बजने लगा था। हर एक का दिल दुआओं में उसे अपने नज़दीक बैठाना चाह रहा था। पर हाय रे किस्मत वो बैठती भी तो किसी एक के पास ही।

"एक्सक्यूज़ मी, केन आई सीट हियर"??? रुद्र के बगल में थोड़ी सी खाली जगह पे इशारा करते हुए बोली।

"ओह्ह, श्योर"!! खुद को थोड़ा एडजस्ट करते हुए रुद्र ने जवाब दिया।

आराम से बैठ....................! पहले तो थोड़ी देर न जाने किस से मोबाईल पे बतियाते रही। कभी हँसती, कभी मुस्कुराती और कभी गरियाने लगती। इधर कंपार्टमेंट में बैठे लौंडो के कलेजे पे जाने हज़ारों की संख्या में दतैया डंक मार रहा था। दिल के ट्रेन का कोयला धुँधुँआँ कर जल रहा था। ट्रेन के ब्रेक के दौरान निकलती स्मेल यहाँ भी महसूस किया जा सकता था।

ईंजन में ड्राईवर आ चुका था बचे-खुचे पैसेंजर जो या तो कुछ लेने के लिए प्लेटफॉर्म पे गये थे या जो अभी तक गाड़ी में चढ़ ही नहीं पाये थे सब पहुँच गये।। हरी झंडी दे दी गयी थी। ट्रेन हॉर्न देने लगा पूऊऔऔऔऔ..........। ईंजन आगे-पीछे करते हुए एक झटके के साथ चल पड़ी।

गाड़ी धीरे-धीरे अपनी रफ़्तार में चलने लगा। छुक-छुक छुक धरक-धरक धरक पिप-पिप पीईईईईई............।

शाम का सूरज सिंदूरी चादर ओढ़े कभी इस खिड़की से तो कभी उस खिड़की से झांकती लुका-छिपी खेल रहा था। आसमान गेरुआ हो चूका था। चाँदनी भी घुँघट में मुँह छुपाये शर्माते हुए ताका-झांकी शुरू कर चुकी थी।।

गाड़ी अपने रफ़्तार में चलने लगा। न जाने क्या हुआ खातून अपनी मोबाईल को बंद कर सबसे ऐसे मिलने लगी मानो "कब के बिछुड़े हुए हम आज यहाँ आ कर मिले"। रुद्र थोड़ा सा असहज महसूस करने लगा। एक अंजान लड़की........। एक तो वैसे ही साधारण ट्रेन का सफ़र उसमें उसकी मदमस्त नज़र। लिबासों से तंग यूँ इतना फ़्रैंक "हाऊ"?? सोच के तंद्रा को तोड़ने के लिए जनावेआली का एक स्पर्श ही काफी था। जो रुद्र के बगल में बैठे होने के कारण ट्रेक बदलते ही ट्रेन का पूर्ण स्पर्श दे जाती।।

"हाय, लखनऊ जा रहे हो"?? हीरे सी चमकती दाँतों को दिखाती हुई रुद्र से पूछने लगी।।

अचानक हुए इस प्रश्न से रुद्र का ज़ुबाँ लड़खड़ाने लगा। सिर्फ सर हिला कर हाँ का बोध करवा पाया।।

"मैं भी लखनऊ ही जा रही, कल मॉर्निंग शिफ्ट में मेरा टीईटी का एग्जाम है। और तुम क्यों"?? दुसरी प्रश्न भी कर दी।।

"सीजीएल का मेरा है कल मॉर्निंग शिफ्ट में ही। गोमती नगर सेंटर है"। धीमे स्वर में रुद्र ने प्रतिउत्तर दिया।

बातों का सिलसिला चल पड़ा। कुछ और लड़के भी शामिल होने लगे इस बहती दरिया में हाथ धोने के लिए।। सामने के बर्थ पर आन्ध्र-प्रदेश की महिला प्रोफ़ेसर बैठी हुई थीं। वे बस इन सब के मस्ती को एंजॉय कर रही थी। शायद अपनी पुरानी दिनों को नये अंदाज में देख रही थी। कॉर्नर के आरएसी सीट पर एक रिटायर्ड बुजुर्ग बैठे थे। जवानों के चहलकदमी से खुद को रिचार्ज करने की कोशिश में कुछ अल्फ़ाज़ वे भी बोल देते।। मज़ा तो तब आया जब आदरणीय बुजुर्ग महोदय बालिके को भोजपुरी सिनेमा की अभिनेत्री समझ सम्बोधित करने लगे। इस उम्र में भी दिल को दिलरुबा मिलने का था यकीं।। ऐसे ही व्यक्तित्व के लिए आम मुशायरा बना है-

कौन कहता है कि बुड्ढ़े इश्क़ नहीं करते
अजी करते है पर उनपे शक नहीं करते।।

लौंडो ने जैसे ही टोंट कशा बादशाह निढ़ाल हो गये। बेगम के बिना ही बारात लौट गई। "भाई यहाँ सैयां से फुर्सत नहीं और देवर मांगे चुम्मा वाली बात हो गयी"। जवान तंबू गाड़े जाने कब से जमे मैदान में और बादशाह बिन देखे-बोले ही बाज़ी मार ली शाहनशाहत की वाह जी वाह....।

बातों और मजाकों में अलीगढ़ तक का सफ़र तय हो चुका था। रात भी अपनी बाहें फैलाने लगी थी। भूख भी लगने लगा था सबको। रुद्र प्रोफेसर आन्टी और मलिकयें अभिनेत्री के लिए समोसे ले आया। संग में जो समय बिता उसे दिल के समोसे में लपेट इश्क़ का आलू भर पड़ोस दिया।

आलीगढ़ स्टेशन पे न जाने कहाँ से तीन लड़को की टोली एक पैकेट में कुछ सामान मैडम को पहुँचा गया। मजाकों का दौड़ चल पड़ा। भीड़ में उनकी मजाकों को किसी ने ध्यान नहीं दिया। हर कोई कुछ-कुछ खाने-पीने का सामान लेने में व्यस्त हो गये। किसी ने भी रुख़सार से हटे चश्में नज़र पे ध्यान ही नहीं दिया। लेकिन भय्ये अपना रुद्र तो पहले से ही अनुभव गेन कर चुका था। हर एक शै पे निगरानी जमाये हुए था। समझ तो खूब रहा था यहां प्यार की पींगे नहीं बढ़ सकती। लेकिन इस जले हुए दिल पे मरहम तो लगा ही सकता था। और फिर सफर भी तो सुहाना बनाना था। हर शख्स के लिए यादगार बनना था।आख़िर उसका काम भी तो सबको मनोरंजन प्रदान करना ही था जिसे झुठलाया नहीं जा सकता।

रेल बिना हॉर्न के ही आगे पीछे होने लगा। यात्रीगण धरफर में अपने-अपने डिब्बे में घुसने लगे। सीट पर बैठ सुकून मिला सबको। गाड़ी चल चूकी। और इधर स्टेशन छोड़ते ही प्रोफेसर आंटी की तबियत बिगड़ने लगी साथ में कोई था भी नहीं जो उनका ध्यान रख सके। इंसानियत के नाते रुद्र आगे बढ़ा साथ में हुस्न पड़ी भी सहयोग करने लगी। कुछ लड़के और भी सहयोग करने लगा।

आंटी ने कहा मेडिसीन उनके बेग में है लेकिन उसे गर्म पानी या गर्म दूध के साथ ही लेना है। पेंट्री कार्ट छः डिब्बा आगे था पैंट्री बॉय से संपर्क किया गया तो बताया। जा कर लाना होगा। इतना वक्त कहाँ था आते-आते ही पानी ठंडा हो जाता इसलिए रुद्र अपना दिमाग लगाया। अपने बैग से तीन इंच का इलेक्ट्रॉनिक रॉड जो अक्सर अपने साथ सफर में लेकर चलता था निकाल अपने थर्मस से दूध गर्म कर आंटी को मेडिसीन दिया। पूरे रास्ते का शुक्रगुजार हो गई आदरणीय प्रोफेसर महोदया।

इन सब अचानक से आई मुसीबतों की नॉटंकी में रुद्र खाना ऑर्डर करना भूल गया। लेकिन मेडम-ए-हुस्न को अलीगढ़ में जो थैली आया था उसमें खाना ही था। मैडम ने जब खाने का अनुरोध किया तो पहले तो रुद्र झेंप गया लेकिन भूख था कि मानता कहाँ?? पॉकेट खुला स्पार्क सैंडिल का किट-बॉक्स निकला। अब क्या मैडम सैंडल बदलेगी?? दिमाग सोचना हीं चाह रहा था कि उसमें से तो सोयाबीन बिरयानी निकला। पहले तो चप्पल के बॉक्स का खाना मन नहीं कर रहा था लेकिन ज़िद करने पर चुन-चुन कर सोयबीन खाने लगा। आखिर मना भी कैसे कर सकता था। किसी को नसीब नहीं और उसके मुंह फालूदा जो लगा था। भला कोई ऐसे मौके को भी हाथ से जाने दे सकता है क्या??

खाना हो चूका था। गाड़ी अपने रफ्तार में बढ़ती जा रही थी।रजनीचर शीतलता बिखेरते गगन भ्रमण में लीन थे। मोहतरम अपने कानों में ईयर फोन लगा गानों में लीन हो गई लेकिन एक लीड रुद्र के भी कानों में दे दी गाने का बोल था - "अगर तुम मिल जाओ ज़माना छोड़ देंगे हम" फ़िल्म ज़हर श्रेया घोषाल की सुमधुर आवाज़ और ये रात का समाँ।

गाड़ी शू शू .... पू...पूप करते बियावान जंगल मे रुक गयी। शायद राजधानी की क्रॉसिंग थी। पटरी के एक तरफ गन्ने का खेत तो दूसरी तरफ पानी का जमावड़ा। मेडम को गन्ना चबाने का दिल हो गया। साहबज़ादे ने आउ देखा न ताऊ पहुँच गये गन्ने के खेत में और ले आये चार-पांच गन्ने का छड़क्का पकड़ा दिया मैडम के हाथों में साथ में ज़ेब भर मूंगफली फ्री में। गेट के पास किसी व्यपारी ने मूंगफली का बोरी रखा था। दूसरे दिन खेत का किसान किन नवरत्नों से नवाजेगा उसकी चिंता किये बिना ही रुद्र को देख आधे डिब्बे के लोगो ने गन्ना रस-पान का आनंद उठाने लगे।

हां!!! राजधानी का ही क्रॉसिंग था। तेज़ तूफान की रफ्तार से हवा की तरह आई और बिहाइर की तरह निकल गई। गोमती भी पिपियाते हुए वहाँ से छुक-छुकाते चल दी। गन्ना खत्म, लाईट बंद और दोनों के कानों में मोबाईल "छैयां-छैयां" करने लगा। गाड़ी रफ्तार में भागती रही और इनके छनिक इश्क़ का ईंजन कोयला से डीज़ल ईंजन में तब्दील हो चुका था। दिल धड़कने लगा था। एहसासों का जलकुम्भी फैलने लगा था।और इतने में गाड़ी कानपुर स्टेशन नज़रे दीदार कराने लगा।

रात साढ़े बारह बज चूके थे। स्टेशन पे सन्नाटों का पहरा। गाड़ी रुकने पे वही कोई दो-चार डिब्बा बंद खाना और नमकीन गुटखा सिगरेट वाले दौड़े जो ही दो-चार बिक जाए। लेकिन मानना पड़ेगा मैडम के खिदमतगारों को इतनी रात को भी आशिकों की टोली ज़र्रानवाज़ी को हाज़िर थे। हाय रे किस्मत "मिले मियाँ को मांड न और पिबे मियाँ ताड़ी" वाली बात हो गई। राजधानी जैसी फ़ास्ट लड़की को सब दौड़ कर पकड़ने की ख्वाहिश रखने वालों की तदाद कुछ ज्यादा ही लम्बी होने लगी थी। हर स्टेशन पे पहचान.....। किसी अभिनेत्री से कम थी क्या शान। लड़को की टोली ने यहां भी एक थैली थमाया हुस्ने जहाँ के हाथों में। और गाड़ी चल पड़ी।

रुद्र भी प्लेटफॉर्म से डब्बे में आ चुका था। मोबाईल पे "चार बोतल वोडका काम मेरा रोज का" दोनों के कानों में झूमने लगा। महानशीं पैकेट खोलने लगी और रुद्र सोचने लगा वहां तो स्पार्क का पैकेट निकला यहां लगता है जूतों में ही होगा कुछ। लेकिन ये क्या यहां तो गानों के बोल अनुसार सच मे चार बोटल वोडका निकल गया?? ऑफर किया गया रुद्र के साथ कुछ और लड़कों को भी। सब तो पहले से ही तैयार बैठे थे। मानो स्वाती नक्षत्र के बून्द का इंतज़ार सीप को सदियों से हो। चातक चाँद से मिलन को पंख फैलाये उड़ान भर रही हो सूर्य के प्रकाश से झुलस कर ज़मीन पे आ गिरी हो। कुछ ऐसा ही मंज़र था इन तमाम लड़कों में।

पहले तो रुद्र ने नाकुड़-नुकूड़ किया फिर बाद में मान गया। अब समस्या गिलास की आन पड़ी पैंट्री बॉय से मांगा तो मना कर दिया पैसा लेकर भी नहीं देने को राजी। अपने फ़िजिक्स वाला दिमाग लगा सात-आठ बिसलेरी और रेल नीर के बॉटल को काट गिलास बना लिया गया। मोबाईल पर "अभी तो पार्टी शुरू हुई है" गाना माहौल को पार्टिमय करने लगा। जाम होठों से छलकने लगी और ट्रेन भागती-दौड़ती रही।

ट्रेन का स्पीड रात का मौसम और लाईट बंद। दो युगल किशोर युवक-युवती आपस में चिपक कर बैठे उसपर सूरा पान का मय और आंखों में शरारत। मखमली तन का घर्षण रुद्र के टूटे दिल पे रफ़ू का काम कर रहा था। इश्क़ का ईंजन डीजल से इलेक्ट्रॉनिक हो चला था। दिल के वायरों से चिंगारियां निकलने लगी। हवा की झोंकों की मन्द-मन्द छुअन दिल को सहलाये जा रही थी। मोबाईल पे "रात बांकी, बात बांकी होना है जो हो जाने दो........" आसा ताई की नशीली आवाज़। उफ्फ्फ...... जानलेवा। और शुरू हो गया एक नये अनुभव का अध्याय प्रारम्भ। पहले तो मन हिचकौले खाने लगा ये सब गलत है लेकिन जब लड़कियों को शर्म हीं नहीं रही तो फिर मैं तो लड़का हूँ सोच दिल को तसल्ली दे खुद को राजी कर लिया इस पाठ के अध्ययन हेतु।

नशे से बेज़ार मदहोशियों में किये जा रही थी रुद्र के गालों पे होंठों के चुम्बन बरसात। लबो की गुस्ताखी इस कदर बढ़ चुकी थी कि तन-मन-अंग के एक-एक रोयां खड़ा हो सलामी दे रही हो। मन के अंदर पुष्प वर्षा प्रारम्भ था। तन की चिंगारी दहकता हुआ शोला बन चुका था। सावन की पहली रासा बदड़ी को चीर धरा पे गिरने को थी। मन की पुरवईयाँ रमक-झमक कर चित को सुलगाये जा रही थी। और दोनों एक-दूसरे में ऊपरी आलिंगन में लीन हो गए।

और ईधर ट्रेन भी लखनऊ पहुँच चुकी। दिल्ली से मिलन को लखनऊ की चश्में नज़र बेताब निगाहें गड़ाए बाट जोह रही थी। मोबाईल पे "देर-न-हो जाये कहीं देर-न-हो जाये" से बदल कर "मिलन अभी आधा-अधूरा है" बजने लगा। प्लेटफॉर्म पे इश्क़ का ईंजन रुक चुका था। सब लोग उतरने लगे। लगभग साढ़े तीन बज चुका था। मलिकाये हुस्न को यहां भी ड्रॉप करने वालों की लड़ी लगी हुई थी। लेकिन रुद्र को पूरी लखनऊ का बायोडाटा दे गई।

ट्रेन का ईंजन ट्रैक छोड़ फ्रेश होने चल दिया और इन दोनों का रात का प्यार भी अपनी-अपनी मंज़िल को रवाना हो चले। उफ्फ्फ.... ये आधुनिक "अंग्रेजी बीट" पे इश्क़ का इंजन कैसे चले।।।।।।।।


©-राजन-सिंह