खाने को नहीं मिला Neetu Singh Renuka द्वारा रोमांचक कहानियाँ में हिंदी पीडीएफ

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खाने को नहीं मिला


दीवार पर स्टाफ सलेक्शन कमीशन द्वारा सालाना जारी इम्तहानों की टेप से चिपकाई लिस्ट थी और उस दीवार से चिपके टेबल पर एक ओर आर.एस. शर्मा, अरिहंत और अग्रवाल की किताबों का ढेर था, तो दूसरी ओर पैरामाउंट कोचिंग क्लासेस के नोट्स का ढेर था, जिन्हें आदेश पूरी तरह चाट चुका था। टेबल की दूसरी ओर दीवार से सटकर एस.एस.सी. पोर्टल से निकाले सैम्पल पेपर्स थे जिन्हें आदेश कई बार लगा चुका था।   
आदेश ने कुर्सी पर बैठते हुए इतनी ज़ोर से पैर हवा में मारा कि वो टेबल के पाये के नीचे लगे पत्थर को लगा और पत्थर अपनी जगह से खिसक गया। टेबल का संतुलन बिगड़ गया और टेबल डोल गया। टेबल पर आई भू-स्खलन जैसी स्थिति से वहाँ रखा लैम्प झटका खाकर औधें मुंह उलट पड़ा। 
पर आदेश का कोई ध्यान नहीं। उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता अब, चाहें इतनी मेहनत से जुटाए लैम्प का बल्ब टूट ही क्यों न जाए। उसकी मेहनत पर पानी फिर गया था। कड़ी मेहनत और दिन-रात के जूनून के बावजूद वह रह गया वरना आज उसके हाथ में उर्वरक मंत्रालय में सहायक अनुभाग अधिकारी की नियुक्ति पत्र की जगह सीमा शुल्क बोर्ड में कस्टम इंस्पेक्टर का नियुक्ति पत्र होता। 
उसने टेबल पर एक मुक्का और मारा कि रही-सही चीज़ें भी भड़भड़ाकर गिर जाएं। यह मुक्का उसने सेक्शन ऑफिसर बन जाने के दु:ख में नहीं मारा था बल्कि उससे भी बड़ा एक दु:ख था जिसे वह मुक्के के वार से निकालना चाह रहा था। उसे दु:ख था कि प्रेम प्रसाद भला उससे कम नंबर पाकर भी कस्टम ऑफिसर की पोस्ट कैसे पा गया? उसे दु:ख था कि सारी ज़िंदगी मलाई खाने वाला  प्रेम प्रसाद क्रीमी लेयर से बाहर कैसे हो गया? उसे दु:ख था कि प्रेम अब बांग्लादेश बार्डर पर ख़ूब मलाई खाएगा और वह उसका मुँह ताकेगा। और उसे यह भी दु:ख था कि वह आदेश झा क्यूँ है, आदेश माँझी, आदेश टोपनो, आदेश राम, आदेश मरांडी या आदेश प्रसाद ही क्यूँ नहीं?
इस गुस्से की आवाज़ माँ तक भी पहुँची। कैसे न पहुँचती, मुक्के की चोट से जो टेढ़े हुए टेबल की किताबें भड़भड़ाईं, तो किसे न सुनाई देतीं। माँ रसोई से हड़बड़ाती हुई ये देखने आईं कि क्या गिरा, तो पाया कि आदेश वहीं है, मगर गिरी हुई किताब उठाने की बजाय चुपचाप दीवार घूरे जा रहा है।
“क्या हुआ? ऐसे चुपचाप क्यों बैठा है? कुछ हुआ है क्या?” 
“क्या बताऊँ अम्मा?” 
माँ ने हाथ में सरकारी पत्र जैसा देखा।
“नहीं हुआ क्या? कोई बात नहीं। मेहनत तो कर ही रहे हो। आज नहीं तो कल, हो ही जाएगा। बस समय का फेर है।”
“नहीं अम्मा। हुआ तो है, मगर....” 
“अरे! हो गया। तो फिर क्या दु:ख है?” 
“जिस पद के लिए कोशिश कर रहा था, वह नहीं मिला। वह मिल जाता तो हमारे सारे दु:ख दूर हो जाते। मैं आपको सोने से लाद देता।”
“सोना-चाँदी लेकर क्या करना है पगले। तू खुश रहे। मुझे और क्या चाहिए। तुझे नौकरी लग गई। अपने पैरों पर खड़ा हो गया। मेरा जीवन सफल हो गया।”
“अम्मा! बाबूजी तो खाली दुखों का पहाड़ तेरे लिए छोड़ गए। मैंने सोचा था कि कम से कम मैं सारी दुनिया का ऐशो-आराम तेरे कदमों में लाकर रख दूँगा। पर अब कलेजे को चैन नहीं पड़ रहा। उस पर वो प्रेम...” 
“क्या किया प्रेम ने?” 
“कुछ नहीं। जिस पद के लिए मैं यह लंबी लड़ाई लड़ रहा था, वह ले गया।”
“तो क्या हो गया? तूने भी तो लड़ाई जीती है न। और याद रखना बेटा! भगवान जो करता है भले के लिए ही करता है।”  
******
गली के मुहाने पर खड़ा प्रेम प्रसाद का घर दो तल्ले से तीन तल्ला और फिर चार तल्ला हो गया। आदेश के लिए गली में घुसना भी खून के घूँट पीने जैसा मुश्किल था। जब भी छुट्टियों में आता तो घर क्या, गली में घुसने से पहले ही उसकी छुट्टियाँ बरबाद हो जातीं। 
दोनों चाहें जहाँ भी पोस्टेड हों, परिवार तो घर पर ही रखते थे। वैसे तो आदेश को प्रेम के घर आने का पता हो तो वह अपनी छुट्टी रद्द कर देता। मगर इस बार उसे अंदाज़ा नहीं था कि एयरपोर्ट कस्टम के एक बड़े कंसाइनमेंट में बड़ा हाथ मारने के बाद प्रेम सीधे घर पहुँचा था।  
नवंबर में अभी आठ ही दिन गए थे कि गुलाबी ठंड ने पसरना शुरू कर दिया था। गली में घुसते हुए आदेश उस चार तल्ले मकान से नज़र बचाकर निकल रहा था। उस पर पुते लेटेस्ट डिजाइन के प्लास्टिक पेंट को आँखों से ऐसे बचाकर निकल रहा था जैसे पेंट, पेंट न होकर चिंगारी हो। 
गली के उबड़-खाबड़ रास्ते में किसी परिवर्तन की कोई उम्मीद न करते हुए, आदेश अपना बैग टाँगे अपने उस पुराने मकान के दरवाज़े पर खड़ा था जिसकी मरम्मत के लिए उसने अभी-अभी ऋण लिया। दरवाज़ा खटखटाते हुए उसने सोचा कि कुछ नहीं तो ऊपर एक और मंजिल तो बन ही जाएगी। फिर न चाहते हुए भी प्रेम के मकान को देख ही लिया। रोशनी में नहाया उसका मकान ही एक ऐसी चीज़ था जो इस इलाके में कुछ नया-नया लग रहा था। 
सुनयना ने दरवाज़ा खोला। आदेश ने सुनयना को देखकर मुस्कुराना चाहा मगर उसकी नज़र पीछे चली गई। पीछे हॉल ही में सोफा लगा था जिसके ऊपर अपना एक बच्चा और नीचे दूसरा बच्चा पढ़ता हुआ दिखाई दिया। इस बार दो नहीं, तो कम से कम एक स्टडी टेबल खरीदना पड़ेगा। नहीं तो इंटरनेशनल स्कूल में पढ़ने वाले प्रेम के बच्चों के साथ ये के.वी. में पढ़ने वाले बच्चे मुकाबला कैसे कर पाएंगे? आख़िर आई.ए.एस. के लिए अभी से ज़ोर नहीं लगाएंगे तो इस कम्पटीशन के ज़माने में कहाँ टिक पाएंगे?
वह और अंदर आया। उसने इस मकान में बस फर्नीचर की सुविधा ही अब तक जुटाई है और कुछ नए मॉडल के यंत्र-उपकरण भी हैं। ज़्यादातर तो रसोईघर में ही हैं।   
“हाथ मुँह-धो लीजिए। मैं चाय रखती हूँ।”
ये सुनयना थी।
आदेश जब गीला हाथ-मुँह तौलिए से पोंछता हुआ सोफे पर बैठा तो बगल में बैठी माँ ध्यान से उसका चेहरा देख रही थी। आदेश को माँ की बढ़ती झुर्रियाँ देखकर दु:ख हो रहा था। 
“माँ तुम तो बूढ़ी हो चली।”
“मैं तो बूढ़ी हो रही हूँ। पर हूँ तो तेरे साथ न। आजकल कितने दिन जीते ही हैं लोग। इतना जी गई बहुत है।”
आदेश ने याद किया कि इन कुछ सालों में सभी दोस्तों के माँ-बाप गुज़र गए हैं, प्रेम के भी तो हार्ट अटैक और किडनी फैल्योर से गुज़र गए। आदेश के तो ख़ैर, पिताजी बचपन में ही चल बसे, पर माँ तो है, साथ निभाने के लिए।
“जो होता है अच्छा ही होता है।”
“अब इसमें अच्छा क्या है?” 
“अरे बूढ़े होने पर देख कितना आराम है।”
इतने में सुनयना चाय लेकर पहुँची। प्याला लेकर माँ आगे बोली।
“कोई काम नहीं करना पड़ता। एकदम मज़े में हूँ।”
सुनयना ने बीच में टोका। 
“दिनभर किसी न किसी काम में तो लगी ही रहती हैं। काहे का मज़ा।”
आदेश ने भी समर्थन किया।
“और नहीं तो क्या? प्रेम जैसे कोई गाड़ी-बंगले में तो रख नहीं पाया।”
माँ ने प्याला सेंटर टेबल पर रखा।
“जो होता है अच्छे के लिए ही होता है। गाड़ी-बंगले में होती तो चर्बी चढ़ाकर हार्ट अटैक से मर जाती। और तू अब तो मलाल बंदकर। प्रेम की ख़तरनाक नौकरी से तो तेरी सुकून भरी ज़िंदगी कहीं अच्छी है।”
“पर माँ मैं अभी-अभी सुनकर आई हूँ कि प्रेम दो बड़े-बड़े सूटकेस भरकर एक-एक हज़ार के नोट लाया है। कहीं पोर्ट पर कुछ लफड़ा हुआ। दफ़्तर नहीं गया। सीधे गाँव आ गया है। यहाँ से जाकर छुट्टी लगाएगा। या शायद हाज़िरी ही लगा देगा। और तो और विमला कह रही थी कि प्रेम के बेडरूम में बेड के नीचे नोट ही नोट बिछे हैं।”
“तो बेटा ऐसे नोट किस काम के। तू भी काग़ज़ बिछा ले। ढेर सारे।”  
सुनयना अपनी चंचलता पर झेंप गई। 
“नहीं माँ! मैं तो बस यूँही, बात बता रही थी।”
सुनयना जूठे कप उठाकर किचन में चली गई। माँ रेंगनी से कपड़े उठाने चल दी और आदेश ने रिमोट उठा लिया।
अभी सुनयना ने सिंक में प्याले रखे थे और माँ आँगन तक पहुँची ही थी कि आदेश ने ज़ोर-ज़ोर से हँसना शुरू कर दिया। हँसी इतनी भयंकर थी कि सुनयना किचन से बाहर आ गई, माँ भी वापस लौट पड़ी और बच्चों के हाथ से पेंसिल छूट गई। 
सब आदेश की ओर मुँह फाड़कर देख रहे थे और आदेश की हँसी रुक ही नहीं रही थी। वह बोलना चाह रहा था मगर बोल नहीं पा रहा था। फिर थोड़ा-थोड़ा साँस ले-लेकर उसने बात पूरी की। 
“माँ! तू ठीक ही कहती थी। जो होता है, अच्छे के लिए होता है।”
उसने टी.वी. की ओर उँगली उठा दी। टी.वी. पर प्रधानमंत्री का देश के नाम भाषण आ रहा था। उन्होंने देश में लगभग आपातकाल सा लाते हुए पाँच सौ और हज़ार के नोटों के बंद किए जाने की घोषणा की। 
“माँ! मुझे हमेशा दु:ख था कि मुझे खाने वाले पद क्यों नहीं मिले। मगर अब मुझे इत्मीनान है कि भगवान ने मेरी लोलुपता भरी प्रार्थना नहीं सुनी। यह ख़बर सुनकर पहले तो मैं काँप गया कि मैं भी अगर रिश्वतखोर होता तो इस वक्त.....। मगर फिर समझ आया कि मेरे पास ऐसा कुछ नहीं है जो मुझे हमेशा से चाहिए था।”
*****
उसी शाम प्रेम ने आदेश के दरवाज़े पर दस्तक दी। 
प्रेम के प्रति आदेश का द्वेष अब मिट चुका था। उल्टे उसे सहानुभूति थी कि इतनी जोखिम से इकठ्ठा पैसा अब खाक होने जा रहा है। उसे इस बात से भी उस पर दया आ रही थी कि कुछ साल पहले तक वो भी ऐसी स्थिति को प्राप्त होने के सपने देखा करता था और हो जाता तो अब उसी की तरह दयनीय अवस्था को प्राप्त होता।
बहुत सहानुभूति होने पर भी आदेश ने प्रेम का कोई रुपया अपने खाते में रखने से मना कर दिया। कोई भी मना कर देगा। भला कौन ख़तरा मोल लेगा और किसी और के पाप की गठरी ढोएगा।
प्रेम ने एक और उपाय सुझाया और आधे रोशन और आधे बुझे हुए गाँव में आदेश प्रेम के साथ सुनार की दुकान पर भी गया। मगर इस कस्बे के सुनार के पास सोना ही कितना था जो प्रेम खरीद सकता। सुनार भी नोटबंदी की खबर सुनकर इतना दहशत में था कि उसने हज़ार के नोट लेने से मना कर दिया।
अब कुछ नहीं सूझ रहा था। दोनों ने काफ़ी सर फोड़ा, टिकट खरीदने जाएं, तो गाँव से कितनी ट्रेनें जाती हैं, पेट्रोल भरवाएं तो कितना, और है क्या इस समय जो खरीद सकें। शहर पहुँचने तक दिन ख़तम और नोटों की हैसियत भी। प्रेम हताश-निराश अपने घर लौट गया। जाने उसे नींद भी आई होगी या नहीं। जाने उसे कोई उपाय सूझा भी होगा या नहीं। इस समय सबसे बड़ी उत्सुकता का विषय ही यही था कि प्रेम अपने नोटों का क्या करेगा? न कहीं लगा सकता है और न घर पर ही रख सकता है।
अगले दिन सुबह आदेश जागा तो खिड़की से झाँककर उसने गली के नुक्कड़ पर नज़र घुमाई। प्रेम के घर की सारी बत्तियाँ जल रही थीं। जाने रात में बुझी भी थीं या नहीं। आदेश को उत्सुकता तो थी कि आख़िर प्रेम क्या करेगा नोटों का, वो खुद होता तो क्या करता? इसी उत्सुकता में तो आज जल्दी उठ गया। सुनयना और बच्चे तो अभी तक सो रहे हैं। माँ नहीं हैं घर में। अरे वो तो घाट गई होंगी, नहाने।
आदेश बेचैनी में टहलता रहा था। सोचा जाकर पूँछूँ। पर नहीं, अच्छा नहीं लगेगा। पूछेगा तो क्या कि कल तक करोड़ों रुपयों की हैसियत रखने वाले रद्दी नोटों का क्या कर रहे हो, यह बताओ। चाय मिल जाती तो थोड़ी राहत मिलती मगर सुनयना को क्या उठाएं?
इतने में माँ नदी से नहाकर लौटी और बताया कि नदी नोटों से पटी हुई है।  
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