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कुचक्

          ? कुचक्र ?
  अजय श्रीवास्तव अपनी ही धुन के पक्के पर सरल स्वभाव के एक स्वाभिमानी इंसान थे। परिवार में दो बेटियां इंदू और सुधा और एक बेटा मुकुल था। पत्नी शील गृह कार्य में निपुण और धर्मभीरु थीं। अजय आयकर विभाग में इंस्पेक्टर के पद पर कार्यरत थे। पैंतालीस की आयु हो चली थी। 
यही वो वक्त है जब घर परिवार की आकांक्षाए व जिम्मेदारियां सबसे अधिक होती हैं। इस उम्र में अक्सर व्यक्ति बहुत महत्वकांक्षी हो जाता है। और फिर उन्हें साधने में शेष जिंदगी खप जाती है। तब लगता है कि हम ठगे गये। बहुत करने पाने की धुन में इतना सोंचने समझने का अवसर नहीं मिल पाता कि अंतत: क्या खोया क्या पाया ? 
   अजय, नौकरी को धर्म समझ कर निर्वाह कर रहे थे। जिस कार्यालय में, अमूमन फा़इलें बिना दक्षिणा के, एक से दूसरी टेबल तक  नहीं पहुंचा करती, वहीं अजय, किसी की एक चाय का भी अहसान नही लेते थे। ठीक वैसे ही जैसे "जिमि दशनन महुं जीभ बिचारी" की तरह बच बचा कर चल रहे थे।  बहुत अवसर आये जब अजय को हज़ारों से लेकर लाखों की रिश्वत का लोभ दिया गया। हर बार उन्होंने नम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया। उनका यह गुण अन्य लोगों के लिए बाधा थी। कोशिश रहती थी कि तरह अज़य भी रिश्वतखोरी के गोरखधंधे में शामिल हो जायें। पर साथी कर्मचारियों की कोई चाल, कोई सिखावन अथवा पहल कारगर नहीं हुई। 
  दिन गुज़रते रहे। जिंदगी इम्तिहान लेती है। और अब अजय की परीक्षा की घडी़ आई। इन दिनों अजय की बडी़ बेटी इंदु की शादी की उम्र हो चली और छोटी सुधा ने मेडिकल प्रवेश परीक्षा में सफ़ल हो गयी। दोनो ही प्रयोजनों में काफी़ धन की आवश्यकता थी। गाहे बेगाहे अजय इस बाबत अपने साथियों से सलाह मशविरा कर लेते थे। 
ऐसा भी नहीं था कि अजय में पैसा उड़ाने, बर्बाद
करने का कोई ऐब नशा आदि की कोई लत थी। हम सभी लोग इस बात से वाकिफ़ हैं कि ईमानदारी से सरकारी सेवा में कोई बडी़ सम्पत्ति नहीं जोड़ सकता। वो भी इतनी कि शिक्षण संस्थानों के डोनेशन और दहेज रूपी सुरसा का मुंह भर सके। इन्हीं कुरीतियों के चलते एक सरकारी अधिकारी के लिये तनख्वाह के आसरे अपनी आर्थिक जिम्मेदारियां भलीभांति पूरी कर पाना प्राय:, आज के समय में असंभव होता जा है। मित्रों ने मौके की नजा़कत भांप ली और अजय को ऊपरी आमदनी के गुर बताने लगे। अजय के अंदर एक द्वंद मचा था। बहुत सोचने बिचारने व पत्नी से संवाद करने के बाद इस निश्कर्ष पर वे पहुंचे कि जरूरतभर की ऊपरी आमदनी कर ली जाय। और इसके साथ ही एक नये अजय का जन्म हुआ। रिश्वतखो़री को भी ईमानदारी से साधते, दामन बचाकर अजय चल  रहे थे। दो वर्ष देखते देखते बीत गये। इस दौरान अजय की बेटी इंदु की शादी होगई। छोटी सुधा मेडिकल में प्रवेश ले चुकी। अजय का जीवनस्तर भी लछ्मी की कृपा से अब बढ़ गया था। उधर बेटी के ससुराल वालों की किसी न किसी बहाने मांगें खत्म नही हो रही थीं।वो लोग समझ रहे थे कि आयकर विभाग में अजय बाबू की अच्छीखा़सी ऊपरी आमदनी होगी। ये कुछ मजबूरियां थीं कि अजय असमंजस में थे कि कैसे रिश्वत के धंधे से किनारा करें। उनकी अंतरआत्मा में एक अपराधबोध घर कर गया था जबसे उन्होनें रिश्वत में हांथ डाला। वे चाह रहे थे कि इससे छुटकारा पाए लें। पर कैसे ? उनसब का क्या करें, कैसे समझाये अपने लोगों को कि ये सब किस तरह से उनपर भारी पड़ रह है। आफि़स में भी बुझे बुझे से रहने लगे। लेनदेन वाले मामलों से भरसक दूर रहने की कोशिश करते। अधिकांश सहकर्मी समझाने का यत्न करते कि "जो जैसा आफि़स में चल रहा है वैसे ही बरतना चाहिए। फिर ऊपर भी बनाकर चलना है।" पर अजय क्या करें उनकी अंतरात्मा उन्हें चैन नहीं लेने देती। समय ही कुछ ऐसा चल रहा है जहां अधिकांशत: लोग परोपकार के पर्दे की आड़ में अपना मतलब साधते हैं। भटके को कौन राह दिखाता। सहकर्मी व अच्छे मित्र रगंन गुप्ता उनकी इस दुविधा व परेशानी को काफी समय से देख व समझ रहे थे। वे स्वयं भी इस दल दल में बहुत संभल कर और बहुत घेरे जाने पर ही रिश्वत लेते वो भी कम से कम। मौका देखकर रंगन ने अजय से बात चलाई। दोनों में विचार विमर्श हुआ। अजय चाहते थे कि वे बिलकुल ही रिश्वत न ले। नियमानुसार काम हो। परंतु वे यह भी समझ रहे थे कि एकबार हांथ काले करने के बाद यह आसान नहीं होगा। पुराने मामले उठाकर कोई कभी भी फंसा सकता है। पूर्व में दो एकबार मना करने पर उन्हें धमकियां मिल चुकीं थी। ऐसी दुविधाजनक परिस्थिति में रंगन का साथ और परामर्श उनका मनोबल बनाए रखे थी। यह संबल अधिक दिनो तक नहीं मिला। रंगन रिटायर हो गये। अजय फिर अकेले पड़ गये। इसी बीच एक बडा़ केस की जांच का जिम्मा अजय को दिया गया। मामला एक बडे़ रसूख़ वाले धनबली व बाहुबली से संबंधित था। जांच शुरू होने से पहले ही अजय पर दबाव आने लगा। जांच परिणाम मन माफि़क करवानेके लिये मुंहमांगी रकम का प्रस्ताव भी आया। परंतु अजय ने सभी प्रलोभनों व धमकियों के आगे झुकना स्वीकार नहीं किया। उच्च अधिकारियों ने भी इशारा दिया। कहते हैं कि मन के आगे अक्सर हम सभी मज़बूर हो जाते हैं। बिल्कुल अकेले पड़ चुके अजय ने किसी की नहीं 
सुनी। परिणाम भयावह हुआ। सुबह की सैर के दौरान उन पर प्राणघातक हमला हुआ। गनीमत इतनी रही कि जान बच गई। अस्पताल में एक महीने के इलाज के बाद थोड़ा बहुत चलने फिरने के लायक हुये। 
इस दौरान आफि़स में अधिकारियों ने अजय की बाबत विचारविमर्श किया। कमिश्नर श्री निवास ने सभी लोगों से आग्रह किया कि वे सब एकजुट हो कर अजय और उनके जैसे अन्य सभी के साथ खडे़ हों। विभाग की प्रतिष्ठा पर आंच नहीं आनी चाहिए। साथ ही उन्होंने सबको अपने पूरे समर्थन के प्रति आश्वस्त किया। 
अजय डेढ़ माह के पश्चात आफ़िस आये और कार्यभार ग्रहण कर लिया। स्वास्थ्य के अलावा उनका मन भी गिरा हुआ था यह सोच कर कि कार्यालय में लोग उन्हें एक अकुशल अधिकारी 

समझ रहे होंगे जिसने अपनी जिद्द के चलते स्वयं और परिवार को एक बड़ी मुसीबत में डाल दिया।
परंतु इसबार वो गलत साबित हुए। कार्यलय में लोगों की बातचीत व व्यवहार से उन्हें महसूस हुआ कि लोग उनसे सहमत है। इस बदलाव का कारण उनकी समझ में नहीं आया जबतक कि कमिश्नर श्री निवास ने उन्हें अपने चैम्बर में  बुलवाया। उनकी हौसलाअफ़जाई की उसी प्रकार जिम्मेदारी से काम करने की सलाह दी। सारा माज़रा अजय की समझ में आ गया। एक अच्छे व स्वस्थ माहौल में काम करने का यह उनका  पहला अवसर था।दो वर्ष कैसे बीत गये पता ही नहीं चला।
आज कार्यालय में अजय का अंतिम दिन था। कल से वे अवकाशप्राप्त हो जायेंगें। अवकाशप्राप्त होने में एक ओर खुशी वहीं दूसरी तरफ़ दुख भी था कि चालीस वर्षों का कार्यालय का साथ छूट रहा था। परंतु मन में संतोष व सुखद अहसास था
कि अपने कार्यकाल में जिम्मेदारियों का भरसक समर्पित व उचित निर्वहन किया।
कितना अच्छा होता कि अजय जैसे ईमानदार व कर्मठ व्यक्ति को अपनी ज़मीनी जरूरतों के लिये समझौता न करना पड़ता।
        ♦️♦️  समाप्त ♦️♦️

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