अनुभूति Vk Sinha द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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अनुभूति

ऐसा तो आज तक नहीं हुआ कभी कि इतने समय तक हमारे बीच, थोड़ा बहुत ही सही, संवाद

न हुआ हो। इसी उधेड़बुन में न जाने कब हमारे कदम उस तरफ़ अनजाने ही मुड़ गये, जहाँ मैं और जयंती अक्सर ,समय मिलते ही, साथ मिल बैठने, आ जाते थे। ये हमारे लिए सबसे प्रिय समय होता था। हम भविष्य की रूपरेखाओं पर बातचीत करते। आने वाले सुखद दिनों के स्वप्नों मे खो जाते थे। इससे बिल्कुल बेखबर कि नियति ने कुछ और ही फ़ैसला हमारे लिए कर लिया है।

मुंगेर का गंगा घाट। सूर्य अपनी रश्मियों को समेट कर अस्त होने को तत्पर। मोतियों सा झिलमिल ग॓गा का पानी। इस बीच, न चाहते हुए भी मैने स्वयं को, दो वर्ष पूर्व के कालखंड में, विस्मृत होते हुए पाया।

मैंने और जयंती ने पत्रकारिता मे स्नातक पाठ्यक्रम के लिए एक ही समय, लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया था। पढाई के दो वर्ष के दौरान हम दोनों काफ़ी समय तक, अन्य सभी की तरह, एक सामान्य परिचय के दायरे तक ही सीमित थे। ऐसा कुछ भी हमारे मध्य नहीं था जिसे गंभीरता से लिया जाता।

प्रथम वर्ष के सत्र के समापन के उपलक्ष्य में स॔स्थान में एक नाटक मंचन का कार्यक्रम था। सभी पात्रों का चयन विभागीय सदस्यों और प्रशिक्षुओं के बीच हुआ। यहीं पर एक इत्तिफ़ाक गुजरा। मैं और जयंती भी इस मंचन के लिये

चुने गये।

यहीं से शुरूआत हुई हमारे बीच रिश्ते में रवानगी की। भावी प्रगाढ़ स॔ब॓धों के गुणसूत्र, इसी एक सप्ताह के दौरान अंकुरित हुए। स्टेज़ का मेरा अच्छा खासा अनुभव, स्कूल-कालेज के समय का, यहां बहुत काम आया। जबकि जय॓ती काफ़ी विचलित हो रही थी। हमारे स॔वाद आमने-सामने के थे। अत: मैं जब तब उसे उत्साहित करता। संवाद डिलेवरी में सलाह भी दे देता। जय॓ती की जिस बात ने मुझे उन दिनों अधिक प्रभावित किया वो थी उसकी सादगी व स्पष्टवादिता। साधारण कदकाठी और नयननक्श की होकर भी उसकी आँखें निर्मलता एवं शन्ति का अहसास कराती सी लगती थी। इसका अनुभव व प्रभाव मुझे अपनी मां के सानिध्य में भी मिला था। और संभवतः इसी वजह से मैं जयंती की ओर आकर्षित हुआ।

मैं, नवीन श्रीवास्तव और वो, जयंती सिन्हा। समान

वर्ण के नाते हम दोनों के बीच सहज सांमजस्य

होने में कोई विशेष अड़चन न थी। परिणामस्वरूप हमलोगों मे संकोच और झिझक जल्दी समाप्त हो गये। और हम परस्पर सहज हो चले थे।

वो पटना से थी। मैं मुंगेर से। हमदोनों को अपने स॓वाद संम्प्रेशण में व लहज़े पर विशेष ध्यान देने की जरूरत थी। इस दौरान हमें मिलने जुलने के अनेकानेक अवसर मिले।

यह पहला मौका था जब मैने जंयती को, साथ कहीं चलने का इसरार किया। शुरुवाती झिझक के साथ उसने हांमी भरी। "समय से पहले हम होस्टल वापस आ जायेंगे न" जय॓ती ने कहा।" मैनें उसे आश्वस्त किया साथ ही मुझे बहुत अच्छा लगा। संबंधों में अनावश्यक खुलापन हम दोनों के संस्कारों में नहीं था। मार्च का महीना, खुशगवार मौसम, दोपहर तीन बजे के आस-पास हम ई रिक्शा से रेजेडेंसी गये। मेरे पास मोटरसाइकिल थी। पर जय॓ती को संकोच हो रहा था। इसीलिए मैने भी ज़ोर नहीं डाला।

कोलाहल से दूर ,रेजेडेंसी का सुरम्य माहौल, हलकी सी तपिश वातावरण में, हम लोगों ने अपने दिलों के और एक दूसरे के मन के स्प॓दनों को महसूस किया। लगने लगा कि हमें प्यार हो चला है। ये अहसास कितना कोमल व आनन्ददायक हो सकता है कि शाब्दिक सीमाओं से परे चला जाता है। आगे जब तक हम संस्थान में रहे, हमारे कदम दिनोंदिन प्रगाढ़ता की ओर बढ़ते रहें। हमारे मध्य यह मन का अनकहा अनुबंध हो गया था कि हम जीवन साथी बनेगें।

अंतत: प्रशिक्षण समाप्त हुआ। विदा बेला आई।

भरे मन से हम, अपने अपने घरों को प्रस्थान

कर गये। मन में संतोष था कि हम फिर मिलेंगे।

और मंजिल पा लेंगें।

पटना और मुंगेर यानि कि जयंती और मेरे बीच

बातचीत का सिलसिला, फोन से य फिर कभी कभी पत्रों से बराबर बना रहता। हम अभी भावी कार्यक्रम पर सलाह मशवरा कर ही रहे थे कि उसके पिता के देहावसान की सूचना मिली।

घर का कर्णधार असमय चला गया। मां के साथ साथ जयंती इस सदमें से अंदर तक टूट गई।

मैं उसके घर पटना गया। एकमात्र पुत्री के नाज़ुक कंधों पर नियति ने कितना बड़ा बोझ डाल दिया। मन क्षोभ से भर गया। पूरी मदद देने के आश्वासन के साथ मैं वापस लौट आया।

समय की अपनी गति होती है और वो अपनी रूपरेखा, निर्णय, कार्यक्रम स्वयं ही तय करता है। बिल्कुल एक निरंकुश तानाशाह की तरह। मुझे इधर कुछ समय से अनुभव हो रहा था कि जंयती अब उस तरह खुल कर बातें नहीं करती, "जैसा कि मैं अपेक्षा करता था।" उसकी आवाज में विषाद अक्सर उभर आता। ऐसा लगता कि "उसने मां के दुख को ओढ़ लिया है"। मैं समझ रहा था कि नौकरी, घरबार की जिम्मेदारियों, मां की देखभाल में ,"उसने खुद को पूरी तरह से खपा दिया है"। मुझे दूर होती जयंती का वियोग भरमाने लगा।

पिता की अकाल मृत्यु पर मैं उसके घर गया था उसे सम्हालने और अब दोबारा जा रहा हूं, खुद को सम्हालनें। यहां आकर जयंती एक नये ही रूप मे मिली। शांत, गंभीर और पूरी जिम्मेदारियों को दिल से निबाहती। बातचीत के दौरान उसने कहा" नवीन, तुम हमारा पहला प्यार हो और अंतिम भी। इससे पृथक कभी अन्यथा मत सोचना।" आगे जो कुछ उसने कहा उसे सुन कर, उसके प्रति मेरा मन, प्रेम और श्रद्धा से अभिभूत हो गय। उसने कहा " नवीन मां, मेरा सहज प्यार है। मैं इन्हें इनके हाल पर नहीं छोड़ सकती। मैं इनके दिल के उतने ही करीब हूँ जितने कि तुम्हारे। मां को हम दोनों के संबंधों के बारे में ज्ञात नहीं है। वे तुम्हें कालेज का सहपाठी जानती हैं । ज्यादा सोंचने समझनें की स्थिति से परे हैं। वो अपने बस में नहीं है। इन हालात में मैं उन्हें वह सब बताना अभी नहीं चाहती। उन्हें यह अहसास नहीं होने देना चाहती कि उनके कारण बेटी का घर नहीं बसा। उन्हें पीड़ा होगी।" उसने आगे कहा कि हम और तुम एक दूसरे के मन में बस चुके हैं ,ईंट-गारे का घर न सही। तुम आते रहना। मां स्वयं ही जब अनुकूलता होगी, तुम्हारे बारे में पूंछेंगी- बात चलायेंगी। हम मिल बैठ कर तब फ़ैसला लेंगे।

मेरे सारे प्रश्नों का समाधान हो गया था। आज मुंगेर लौटा हूँ। वही गंगा घाट, अस्त होता सूर्य, गंगा की लहरों पर रश्मियों का खेल और बसेरे की ओर लौटते प॓क्षियो के शोर से, मन आल्हादित है और हल्का भी पंखों की तरह। मुझे अपना वलेनटाइन उपहार मिल गया।

प्यार ,मन में मिलन है,

मकान में नहीं

एकसार हों तो फ़ासले

कुछ भी नहीं

अंतर रहे जो मन में

कुरबत भी किसी काम की नहीं