स्वाभिमान - लघुकथा - 54 Krishanlata Yadav द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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स्वाभिमान - लघुकथा - 54

तिलमिलाहट

नौकर के रूप में काम पाने आए युवक से नियोक्ता ने प्रश्न किया, ‘तुम्हारा नाम ?’

‘दीनदयाल।’

‘दीनदयाल यानी दीनू ?’

‘दीनू नहीं, सर, दीनदयाल।’

‘सर नहीं, मालिक बोलो। नौकरों की ज़ुबान पर एक यही शब्द ठीक जँचता है।’

‘सर, आप सेवा खरीद रहे हैं, मैं बेच रहा हूँ। खरीदने-बेचने वाले के बीच ‘मालिक’ शब्द कोई मतलब नहीं रखता।’

‘बहुत खूब ! वैसे तुम क्या-क्या काम करना जानते हो ?’

‘घर-गृहस्थी के सभी काम।’

‘हुँह ! गिड़गिड़ाना भी जानते हो ?’

‘जी नहीं, इसकी कभी जरूरत नहीं पड़ी।’

‘बच्चों के कुम्हलाये चेहरे, बीवी की फरमाइशें और अपने सपनों पर नजर डालोगे तो अक्ल ठिकाने आ जाएगी और गिड़गिड़ाना भी सीख जाओगे। अब अपना काम समझ लो और हाँ ध्यान रखना थोड़ी-सी भी लापरवाही तुम्हारी नौकरी पर भारी पड़ेगी।’

दीनदयाल ने हाँ में सर हिलाया और काम में जुट गया। एक दिन सफाई करते समय एक फूलदान गिरकर टूट गया। आवाज सुनकर गृहस्वामी ने आवाज लगाई, ‘दीनू.....।’ कोई उत्तर न पाकर वह चीख-सा पड़ा, ‘दीनू… ओ… दी.… नू.....।’

‘सर, आप जानते हैं कि मेरा नाम दीनदयाल है, दीनू नहीं,’ स्वर में दृढ़ता थी।

‘अरे! कान को इधर से पकड़ो या उधर से, बात एक ही है। ठीक इसी तरह दीनू या दीनदयाल में कोई फ़र्क नहीं। वैसे अपनी सुविधा के लिए मैं तुम्हें दीनू ही कहूँगा।’ कथन में दर्प साफ़ झलक रहा था।

‘यह ठीक नहीं है, सर।’

‘समझा! हेकड़ी लगाने में ज्यादा ही माहिर हो।’

‘आप जैसा मरजी समझें, इसमें मेरा कोई दोष नहीं।’

‘हाँ, हाँ, हम ही रोजगार दें और हम ही दोषी ....! अच्छी तरह सोच लो, सिर पर सवार होने की कोशिश तुम्हें बहुत महंगी पड़ेगी। एक दिन तुमने मुन्ने से भी तू-तड़ाक से बात की थी।’

‘अभी लांछन बाकी रहता था! वैसे मैं इज्जत करना और करवाना अच्छी तरह जानता हूँ।’

दीनदयाल के चेहरे के भाव पढ़कर नियोक्ता ने अपनी जेब से बटुआ निकालते हुए कहा, ‘अपनी बीस दिन की पगार लो और दफा हो जाओ। फिर कभी इस घर की ओर मुँह करके भी नहीं देखना।’

दीनदयाल ने रुपये माथे से लगाये और एक शब्द भी कहे बिना कहे निकास-द्वार की ओर बढ़ गया। नियोक्ता आँखें फाड़-फाड़ कर उसे तब तक देखता रहा जब तक वह आँखों से ओझल नहीं हो गया।