स्वाभिमान - लघुकथा - 40 Seema Bhatia द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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स्वाभिमान - लघुकथा - 40

1. अब और नहीं

रात के बारह बजे थे। बिस्तर के दो कोनों दूर दूर पर पड़े दोनों मन से भी निरंतर दूर होते जा रहे थे। मोहन के दम्भी स्वभाव के आगे सरल सविता बेबस हो जाती थी। जरा जरा सी बात पर नुक्स निकालना, औरत को दबाकर रखने की प्रवृत्ति शायद संस्कारों की ही कमी थी। पर उस दिन तो हद हो गई जब अपने दोस्त की जन्मदिन की पार्टी से बेटे के घर जरा सी देरी से आने की जरा सी बात पर वाद विवाद को बढ़ाते हुए मोहन ने गालियों के साथ साथ हाथ उठाने की कसर भी पूरी कर दी। बेटे के दुर्व्यवहार को देखते हुए भी सास ससुर की खामोशी ने सविता को तोड़कर रख दिया था।

पिछले चार दिन से चल रहा वाक्युद्ध मोहन को अपनी मर्दानगी पर चोट लग रहा था। नींद कोसों दूर थी। सविता भी अपने बुजुर्ग माँ बाप से अपनी पीड़ा कह सकने की वजह से बहुत व्यथित थी। अचानक जिस्म पर हाथ रेंगता महसूस कर सविता चौंक पड़ी।

"दूर हटिए, सोने दीजिए मुझे।"

"हो गई बात खत्म, मिट्टी डालो। भी जाओ।"हवस का भूत सवार था मोहन पर।

"मन नहीं है मेरा।"

"अब इतनी भी अकड़ मत दिखाओ, अपनी औकात मत भूलो। मेरा हक है, जब मर्जी करूँ।पत्नी हो, पत्नी की तरह ही रहो,समझी।"मोहन के हाथ जिस्म से खेलने को कुछ ज्यादा ही व्याकुल हो रहे थे। पीड़ा से कसमसा उठी सविता, शारीरिक से ज्यादा मानसिक बलात्कार लग रहा था यह। अचानक पता नहीं कहाँ से हिम्मत गई कि धक्का मार पीछे धकेल दिया मोहन को और जोर से दो थप्पड़ जड़ दिए। अपने कपड़े सही किए और बेटे के कमरे में सोने चली गई।

***

  • जी एस टी
  • मन को कठोर कर वह काम पर चली आई थी। साहब के घर आज दीपावली की पार्टी जो थी। मना भी कैसे कर सकती थी। रेनू मेमसाब ने पहले ही चेतावनी दे रखी थी कि आज आई तो पूरे महीने की पगार काट लेगी और दीपावली की बख्शीश भी नहीं मिलेगी। ये बड़े लोग भी , जाने कब समझेंगे कि हम लोगों का भी दिल करता त्योहार की खुशी मनाने का जैसे तैसे घर की साफ सफाई कर बच्चों के लिए रोटी बनाकर रख आई कपड़े में लपेटकर। पूजा आकर कर लेगी यह सोचकर काम पर फटाफट हाथ चला रही थी गीता। पर ये साब लोगों की पार्टियां भी , पहले पूजा, फिर खाना पीना और अब ये ताश की बाजियाँ, खत्म होने का नाम ही नहीं लेती। बड़ी हिम्मत कर चली गई मेहमान कक्ष में। शराब के दौर के साथ साथ ताश की बाजी चल रही थी, झिझक कर एक कोने में ही खड़ी हो गई कि कब मेमसाब उसकी ओर देखें और वह अपनी बात कहे और कुछ बख्शीश ले घर जाए।

    "यार सक्सेना, आज तो तेरी किस्मत बुलंद है, सारी बाजियाँ तू ही जीते जा रहा। देटस नोट फेयर, जरूर चीटिंग कर रहा है तू।"

    "अरे कमाल है मिस्टर गुप्ता, मैं अपने मेजबान के साथ क्यों चीटिंग करूँगा? अरे इतना बढ़िया दोस्त है तू मेरा। क्या हो गया एक लाख की छोटी सी रकम हार गया, तो क्या फर्क पड़ता तेरे को?"

    "अरे नहीं यार ,आजकल मंदी चल रही यह जी एस टी के बाद....त्योहारों का मजा ही फीका कर दिया इसने तो। अब तो ऐसा लगता कंगाल हो गए हम यार।"

    "अरी गीता, तू यहाँ खड़ी क्या कर रही अब तक? गई नहीं घर? कुछ चाहिए क्या? " अचानक दरवाजे पर नजर पड़ने पर रेनू ने पूछ लिया।

    "जो खुद कंगाल हुए पड़े, वो मुझे क्या दीवाली की बख्शीश देंगे भला?" हिकारत से सब पर नजर डाल मन ही मन बुदबुदाती गीता के कदम अपने घर की ओर चल पड़े लक्ष्मी पूजन के लिए।

    ***

    3.भ्रमजाल

    दफ्तर में जरा-जरा से काम के बहाने अपने केबिन में उसे बुलाना, घंटों इधर उधर की बातों में समय का बीत जाना। हर विषय पर उनकी मजबूत पकड़, सौम्य और सह्रदय। प्यार का एहसास-सा जगा था।

    कल दफ्तर के बाद रात के खाने के लिए होटल चलने का न्योता दिया था। वह खुश थी क्योंकि यह उसकी पहली डेट होगी।

    वक्त से पहले ही आज अच्छे से तैयार हो दफ्तर पहुँच, साधिकार बिना दरवाजा खटखटाए सीधा केबिन में चली गई। सर अपनी रिवालविंग कुर्सी पर दूसरी तरफ मुँहकर बैठे फोन पर व्यस्त थे।

    "अरे सक्सेना साब, एक टेबल बुक कर दीजिए .. हाँ हाँ.. अरे नहीं मान्यता को नहीं ला रहा साथ। प्रोजेक्ट के लिए आजकल बंग्लोर में है वह तो...अररे नहीं अकेले नहीं रहा, साथ है असिस्टेंट मेरी.. हाहा.. अररे मानयता कहाँ भाग रही? मंगनी की अंगूठी पहना चुका हूँ, यह तो जरा टाइम पास..."

    आगे कुछ और कहते, रिधी टेबल पर रखे पेपर वेट को उठा कर टेबल को हल्के-हल्के ठोकने लगी। चौंक कर सर ने रिवाल्विंग चेयर को घुमाया। सकपकाए, फोन हाथ से गिरते-गिरते बचा।

    रिधी बिलकुल शांत थी। उसने सर की ओर अधिक ध्यान से देखा। चेहरा बेरौनक, बीमार, सुस्त, राह चलते वे किसी टटपुंजिया-से लग रहे थे।

    वह मुस्कुराई, "सर चलिए, टाईम पास करने का टाईम हो गया है!"

    "सॉरी!" लाचार स्वर में सर ने इतना कहा और नजरें नीचे झुका लिया।

    "इट्स ओके!" कहकर बाहर निकल, अपने सीट पर बैठ, फाइल सामने रख सुलझे मन से आज का काम निपटाने लगी।

    - सीमा भाटिया