स्वाभिमान - लघुकथा - 38 Savita Indra Gupta द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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स्वाभिमान - लघुकथा - 38

1. डस्टबिन

टिंग टोंग .... टिंग टोंग ....

सुहासिनी चौंकी," इस समय रात के दस बजे कौन हो सकता है ?"

दरवाजे पर पंकज को देख, पल भर को आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। खड़ी की खड़ी रह गयी ... नि:शब्द, हतप्रभ। सात फेरों के बंधन के बावजूद, पिछले तीस वर्षों से दोनों के बीच में अबोला था। इस बीच नारी सुलभ भावनाओं की लता सूख कर निष्प्राण हो चुकी थी। सुहासिनी का मन हुआ कि फटाक से दरवाजा बंद कर आराम से सोने चल दे लेकिन स्त्री का संवेदनशील मन जाने किस धातु का बना है, चोट पर चोट खाने के बाद भी धड़कना नहीं छोड़ता।

"अंदर आने को नहीं कहोगी ?"

"आओ लेकिन ... अतीत का कोई जिक्र नहीं।" भावहीन चेहरे पर तूफ़ान आने जैसे कोई चिन्ह थे।

"एक कॉफी मिलेगी ... ब्लैक फीकी ... ?"

"कैसे भूल सकती हूँ, तुम्हारी गंदी चॉयस। तुम्हे कॉफी और औरत दोनों काली पसंद हैं।"

कहते हुए वह कॉफी बनाने किचेन की ओर चल दी। उबलते हुए पानी की उठती हुई भाप ने जीवन के उस दोराहे की याद दिला दी, जब एक तरफ पंकज के साथ उपेक्षित पत्नी की तरह बेबस साँसें थीं और दूसरी ओर निपट एकाकी पगडंडी पर उदास यायावरी। मन कसैला हो गया; कैसी विडंबना थी अंग्रेज सी गोरी सुंदर पत्नी के होते हुए पंकज काली कीचड़ में जाकर डूबा।

बीच में कॉफी के दो कप रखे थे और चारों ओर सन्नाटा पसरा था। शायद दोनों पर ही बोलने को कुछ था। अत्यंत बोझिल पल साँय -साँय कर ठहरे हुए थे। सुहासिनी ने पंकज की आँखों में आँसू देखे। वह लेशमात्र भी विचलित हुई। उसने तो वर्षों आँसू बहाए हैं। पंकज ने बहुत कुछ बोलना चाहा था, शायद माफी की गुहार भी, लेकिन सुहासिनी की आँखों में घृणा का सैलाब और स्वाभिमान से तनी गर्विता को देख कर, एक झटके से उठ कर बाहर चला गया। सुहासिनी ने राहत की एक गहरी साँस ली। दरवाजा बंद कर लौटी। ठंडी काली कॉफी के दोनों कप वाश बेसिन में उंड़ेल कर उसे बड़ी राहत महसूस हुई।

तभी मेज पर निगाह पड़ी। पंकज अपने कुछ कागज छोड़ गया था। देखा तो वसीयत थी, "सुहासिनी के नाम सब कुछ लिख दिया था।" उसने वसीयत को बिना देर किये डस्टबिन में फेंक दिया, ठीक उसी तरह जैसे पंकज की याद दिलाती सभी चीजों को फेंकती आई थी।

***

2. सौ नंबर

विवाह समारोह की रौनक चरम पर थी।

मंडप में दूल्हा-दुल्हन फेरों पर बैठ चुके थे। पंडित जी सभी रस्में पूरे विधि-विधान से करा रहे थे।

पंडित जी ने मन्त्र बोले और दूल्हे से कहा ,

"अब आप दुल्हन की मांग में सिन्दूर भरें।"

दूल्हे ने चुटकी में सिन्दूर भरा और दुल्हन से बोला,

"मुझे तुम्हारे पापा से कार या पाँच लाख रुपये चाहिए,

तभी

तुम्हारी माँग में सिन्दूर भरूँगा

"आप प्लीज ऐसी बात करें। मैं भी जॉब करती हूँ, हमारे जीवन में पैसे की कमी नहीं रहेगी। सबके सामने फजीहत करना क्या आपको आपको शोभा देता है ? "

दूल्हे ने यह सुनते ही दुल्हन पर हाथ उठा दिया। वह अपमान से तिलमिला उठी और खड़े हो कर गुस्से में चिल्लाई -

"मुझे नहीं करनी यह शादी।" उसने अपने गले की जयमाल खींच कर तोड़ डाली।

दूल्हे का पिता गिड़गिड़ाया,"बेटी, विवाह संस्कार पूरा होने दो, हमारी कोई डिमांड नहीं है। इज्जत का सवाल है।"

"और मेरी इज्जत ? आपका बेटा मेरी इज़्ज़त बचाने के संकल्प की बजाय, खुद हिंसा पर उतारू हो गया। "

"यह तो मूर्ख है, इसकी बात भूल जा बेटी।"

लड़के की दादी बोली, "बेटी, तेरा मर्द है, हाथ उठा भी दिया तो क्या हुआ ? अब मान भी जा।"

दोनों तरफ के रिश्तेदार लड़की को मना रहे थे लेकिन लड़की सौ नंबर डायल कर रही थी।

हवनकुंड में लपटें तेज हो गयीं।

***

3. कसौटी

"डेढ़ लाख ... " रवि ने तनिक सोचा, फिर बोला," ठीक है, मिल जाएँगे। तू चिंता मत कर।"

"रवि, मान गए तुम्हें। सचमुच, दोस्ती सब रिश्तों से आगे है।"

दोनों बचपन से पक्के दोस्त थे लेकिन रवि आर्थिक रूप से इतना समृद्ध हो गया था कि विनोद उससे जब भी बात करता, हीन भावना से ग्रस्त रहता। आज भी घर में प्रवेश कर रहा था तब उसे लग रहा था जैसे वह जमीन में धँसा जा रहा है। पिता के दिल के बाय-पास ऑपरेशन के लिए अचानक डेढ़ लाख का इंतज़ाम, लाख कोशिश करने पर भी हो पाया था। लाचारी और परेशानी ने उसे रवि के पास धकिया दिया था।

"मेरे जैसे से दोस्ती का यही तो लाभ है। देता हूँ अभी, तू भी क्या याद रखेगा।" अहंकार से भीगा हर शब्द विनोद को शीशे की किरिच सा चुभ गया। अपने स्वाभिमान को सहेजते हुए बोला,

"जल्दी लौटा दूँगा। घर को गिरवी रख, लोन मिलने में एक माह लग जाएगा।"

"जब बोलेगा घटिया बात बोलेगा। कम से कम बातों में तो शेरदिली दिखाया कर।"

विनोद का गला भर आया। दिल तो हुआ कुछ कहे लेकिन चुप्पी लगा गया।

"ठीक है, ठीक है। ले, चैक कर ले, पूरा डेढ़ है। बन पड़े तो लौटा देना वरना मत देना।"

"देख, इसे उधार समझना। इतनी ही हेल्प बहुत है कि संकट के समय दे रहे हो।" आँखें भीग गयीं,

तभी पत्नी ने रवि को अंदर बुलाया,"जरा सुनना।"

फिर तिक्त स्वर में बोली,

"रवि, जब देखो कोई कोई हाथ फैलाए जाता है। यहाँ कोई पैसों का पेड़ नहीं लगा है कि हिलाया और रूपये बरस पड़े। मैं तुम्हें ऐसे खैरात नहीं बांटने दूँगी। "

आवाज़ धीमी थी लेकिन विनोद के कान उधर ही लगे थे। दिल में गहरे कहीं चोट पहुँची थी,रूपये वहीं मेज पर छोड़, बिना कुछ कहे घर से बाहर निकल गया।

परेशानी में भी उसे बड़ा हल्का महसूस हो रहा था।

"कुछ भी हो जाए, अब इस दहलीज पर कभी पैर नहीं रखूँगा।"

***

-सविता इन्द्र गुप्ता