स्वाभिमान - लघुकथा - 27 डॉ. कुमारसम्भव जोशी द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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स्वाभिमान - लघुकथा - 27

11.2 (इलेवन पॉईंट टू)

"अरे! चाय आज ही आएगी या इनको अपनी चाय खुद के घर से ही लाने का बोल दूँ."

चाय लाने में जरा सी देरी होने पर ही अजय ने अपने दोस्त मानव की उपस्थिति की परवाह किए बगैर रचना को बुरी तरह लताड़ दिया.

"10.9 ....!"

एक बहुत ही मद्धम, अस्फुट सी आवाज़ से मानव चौंका.

उसने टेबल पर चाय-बिस्कुट करीने से रखती रचना की ओर देखा.

"कोई इतना सहनशील कैसे हो सकता है?" उसके निर्विकार, शांत चेहरे को देखते उसने सोचा.

"यार! कुछ तो ख़याल किया करो. यूँ गैर आदमी के सामने बीवी को डाँटा जाता है क्या?" रचना के किचन में जाते ही उसने अजय से कहा.

"अरे हम मर्द हैं. जूती को जूती की जगह ही रखना चाहिए." अजय का पौरूषीय अहं बोल रहा था.

रचना टेबल पर स्नैक्स रख कर लौट गई.

"11 ...!"

मानव ने पुन: कुछ अस्पष्ट सा सुना.

"और अगर कभी भाभी ने नाराज होकर कोई कड़ा कदम उठा लिया तो?" उसने अजय को समझाना चाहा.

"गुरुत्वाकर्षण के बारे में सुना है ना तूने? वैसे ही औरत कितना भी उड़ने की सोच ले, माँ-बाप की इज्जत का डर- असुरक्षा की भावना- स्थायित्व की चाह आदि उसे पति के घर की ओर खींच ही लाते हैं. यह बात मैने इसे शुरू में ही समझा दी थी." अजय ने जानबूझकर मुँह पोंछकर रुमाल रचना के चेहरे पर फैंका.

"11.1 .....!"

फिर वही अस्फुट, मद्धम सा स्वर उभरा.

"ये क्या नौटंकी है? पिछले एक साल से देख रहा हूँ, जब भी मैं कुछ हल्का-भारी कहता हूँ तू जाने ये क्या गिनती गिनने बैठ जाती है." अजय भड़क कर बेतहाशा फट पड़ा.

रचना खामोश रही.

मानव कुछ-कुछ समझ चुका था, उसने अजय को रोकना चाहा.

मगर अजय को रचना का खामोश रहना बर्दाश्त नही हुआ और उसने उसे एक तमाचा जड़ दिया.

"11.2 ....!" रचना ने तेज आवाज़ में कहा और पहले वाले से कहीं तेज कड़कता तमाचा अजय के गाल पर छप गया.

"एस्केप वेलोसिटी के बारे में सुना है? यदि किसी वस्तु को '11.2 किमी प्रति सैकण्ड' का बल लगा दिया जाए तो वह हमेशा के लिए गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र के बाहर चली जाती है."

रचना अपना सामान लिए घर छोड़कर जा रही थी, और अजय गाल पर हाथ रखे सदमे की हालत में था.

मानव समझ गया था कि रोज़ थोड़ा-थोड़ा करते आज उसने 'एस्केप वेलोसिटी' प्राप्त कर ली थी.

***

किरचें

योगेश को आज पूरे पीरियड क्लास में खड़े रहना पड़ा.

स्कूल से लौटते हुए सब उसका मज़ाक बना रहे थे.

"और बन ओवरस्मार्ट! निकल गई न सारी." नितिन ने हँसी उड़ाई.

"मुँह तो देखो, हीरो का." ये प्रज्ञा थी.

"बहुत बेइज्जती हो गई यार. इज्ज़त का कचरा हो गया. निखिल सर ने इज्ज़त ही लूट ली, रेप कर दिया भरी क्लास में." योगेश खीझ कर बोला, तो सारे बच्चे खिलखिलाकर हँस पड़े.

शुभ्रा को बड़ा बुरा लगा. खासकर कि जब इस हँसी में लड़कियाँ भी शामिल थी.

घर पहुँची, तो देखा आज पापा जल्दी आ गए थे. वे बड़े परेशान लग रहे थे.

"एक बहुत बड़ा प्रोजेक्ट मेरी चूक के कारण हाथ से निकल गया." मम्मी ने पूछा तो उन्होने बताया.

"बॉस ने खूब खरी खोटी सुनाई. बड़ी भद्दी भाषा में जो न कहना था वो भी कह डाला. कह रहा था कि नौकरी से न निकाल कर अहसान कर रहा हूँ. सारे स्टाफ के सामने रेप कर डाला कमीने ने." पापा बहुत गुस्साये हुए थे.

शुभ्रा फिर कसमसाई.

कमरे में जाने लगी तो हॉल में लगे टीवी पर अपने फेवरेट फिल्मी सुपरस्टार को देखकर रूक गई, जो अपनी नवीनतम फिल्म का प्रमोशन कर रहा था.

"इस फिल्म के दौरान पहलवानों से कुश्ती के दृश्य फिल्माने के बाद जब शाम को घर लौटता था तो बदन ऐसे टूटता था, जैसे किसी ने रेप कर दिया हो." सुपरस्टार कह रहा था.

शुभ्रा ने भड़ाक से अपने कमरे का दरवाज़ा बन्द किया.

उसका मन किया कि जोर से चिल्लाऐ.

"यह रेप नहीं है..... इसे रेप नहीं कहते. रेप जब होता है ना... जिस पर रेप होता है .... तो.. "

उसने टेबल पर रखा फूलदान उठा कर पूरी ताकत से ड्रेसिंग टेबल पर दे मारा. शीशे की किरचें किरचें बिखर गई.

***

जेण्डर

सरकारी बस में उसका पहला दिन था. गले में बैग लटकाये दूसरे हाथ से बस की हैण्डल बार पकड़े उसे बड़ी घबराहट सी हो रही थी.

मौसी ने तो पहले ही कह दिया था कि यह कोई महिलाओं के करने लायक काम है क्या.

बस पूरी तरह खचाखच भरी थी. उसे लगा जैसे सारी निगाहें उसी को घूर रही हों.

किसी तरह खुद को व्यवस्थित करने का प्रयास कर ही रही थी कि एक तेज झटका लगा और वह सीट पर बैठे युवक पर जा गिरी.

"वो आ के गिरे हम पे, खुदा की कुदरत... " युवक ने तुरन्त अभद्रता से शायरीनुमा टिप्पणी कर डाली.

बस में हँसी की एक लहर सी दौड़ गई.

वह सिटपिटा सी गई.

एकबारगी उसे कुछ सूझा नहीं कि क्या करे.

वह सँभली और पैर उठा कर जोर से युवक के पैर के पंजे पर दे मारा.

युवक के मुँह से जोर की 'आह' निकली और उसने अपना पैर पकड़ लिया.

युवक ने जैसे ही आँखें तरेर कर देखा, उसने उसी के अंदाज़ में जवाब दिया- "वो फिर से गिरे हम पर, खुदा की कुदरत."

"कभी हम उनको, तो कभी अपने टूटे पैर को देखते हैं." बगल सीट पर बैठी आंटी ने शेर मुकम्मल कर दिया.

इस बार का ठहाका पहले से तेज़ था.

उसे अपना आत्मविश्वास काफी बढा हुआ लगा.

उसने बैग से टिकटिंग मशीन निकाली.

"काम तो काम है, काम का कोई जेण्डर थोड़े ही होता है." उसने मन ही मन मौसी को जवाब दिया और 'टिकट.... टिकट' कहते आगे बढ गरई.

(डॉ. कुमारसम्भव जोशी)