स्वाभिमान - लघुकथा - 19 Divya Sharma द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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स्वाभिमान - लघुकथा - 19

  • औकात
  • "क्या कर लोगी तुम इस नौकरी से, कितना कमा लोगी ?"

    " अगर तुम चाहो तो लाखों मे खेल सकती हो"

    ~"मैं समझी नहीं सर क्या कहना चाह रहे है आप?"

    "समझना क्या है कभी ध्यान से खुद को देखा है आईने मे ? बला की खूबसूरत हो ,तुम चाहो तो प्रमोशन मिल सकता है तुम्हें"।

    ~"प्रमोशन ! लेकिन अभी मुझे ज्वान किये कुछ ही महीने हुए है और इसके लिए मुझे खुद को आईने में क्यों देखना है?"

    "हाँ प्रमोशन, तुम्हें सिर्फ इतना करना होगा कि जो भी मेरी मीटिंग्स क्लाईंट के साथ होती है तुम्हें मेरे साथ वहां चलना होगा"

    ~"लेकिन आपके साथ मैं ऑफिस मिटिंग्स तो अटेंड करती हूं और जहां तक मुझे पता है कम्पनी की कोई ऐसी पालिसी नही है जहां मुझे आउटडोर मिटिंग्स के लिए आपके साथ जाना पडेगा।और मैने यह भी सुना है आपकी बेटी बला की खूबसूरत है और देखा भी है मैने, आप ऐसा क्यों नहीं करते उसे साथ ले जाये और अमीर बन जायेंगे आप"

    ~"और सुनिए यह मत समझ लेना मैं नौकरी छोड़ कर चली जाऊंगी यहीं रहूंगी और इज्ज़त से अपनी मेहनत की कमाई ल़ुगी"

    ***

  • बाजार
  • “सर आप प्लीज थोड़ा पीछे रहिए, मैं दिखा रही हूं ना!”

    “इट्स ओके मैम, आप कीजिए अपना काम मैं ड्रेस खुद पंसद करूंगा।”

    “ओके सर।”

    इतना कहकर आर्या कपडों को हैंगर में टाँगने लगी। तभी कंधे पर किसी ने छुआ।पलट कर देखा तो एक आदमी उसके ठीक पीछे सट कर खडा था।

    “समस्या क्या है आपकी?”

    “मैड़म वो लाल ड्रेस दिखाना।”

    “नहीं बेचनी” आर्या ने रुखा सा जवाब दिया।

    “अरे बेचनी नहीं तो सजा क्यों रखी है दुकान में?”

    “बेचनी हैं लेकिन आपको नहीं बेचनी निकलो यहाँ से आप ।”

    “क्या बदतमीजी हैं!सड़क पर बैठी ठेले पर समान बेच रही हैं, और इतनी अकड़?कौन खरीदेगा तुझ बदतमीज लड़की से कपड़े ।सही बात है ऐसे छोटे लोगों के मुँह नहीं लगना चाहिए।”

    “चुपचाप निकल लो अगर मार नहीं खानी।”

    आर्या की आँखों के जलते अंगारे देख वह चुपचाप सरक लिया।

    “क्यों मुँह लगती हो दीदी ऐसे लोगों के?और सबको ऐसे भगाती रही तो कपड़ें नहीं बिक सकते।”

    “ना बिके कुछ भी, लेकिन आज अगर ऐसे लोगों को यहाँ ठेले पर खड़ा होने दिया तो एक दिन खुद बिकने लगेंगे।हर माल बिकाऊ नहीं होता।"

    ***

  • इज्ज्त की रोटी
  • “दो किलों सेब तोल दें जरा, और देख कर कहीं सड़े गले न डाल देना!”गाड़ी में बैठे बैठे वह बोला।“साहब हम तो अपनी तरफ से ठीक ही डालेंगे। बाकी अंदर कैसा हो पता कैसे चलेगा।” रघु ने विनम्रतापूर्वक जवाब दिया।

    “खूब समझता हूँ ज्यादा बातें नहीं बनाना । चालाकी करते हो सामान देने में।” झिडकते हुए गाड़ीवाले ने कहा।

    “आप खुद ही छांट लीजिए फल जब आपको यकीन नहीं।”

    “औकात में रह कर बात कर लें और चुपचाप फल निकाल कर तोल दे।”

    “औकात कोई कम तो है नहीं हमारी।”तेज आवाज में रघु बोला।

    “ज्यादा सियाणा बन रहा है और जगह नहीं मिलेंगे क्या? रख अपने सेब।इतनी अकड़ वो भी एक मामूली सब्जीवाले की!”हिकारत और अहम से गाड़ीवाले ने कहा।

    “चोरी चकारी नहीं करता, किसी से रिश्वत नहीं खाता।अपनी मेहनत से इज्जत की दो रोटी कमाता हुँ।तो अकड़ तो होगी ना!जाइए साहब आगे से ही ले लीजिएगा।”रघु ने स्वाभिमान के साथ जवाब दिया।

    रघु का मेहनत और ईमानदारी की चमक से भरे चेहरे को देखकर गाड़ीवाले की नजर बगल की सीट पर रखें लिफाफे पर चली गयी जो उसे उस केस को रफादफा करने के एवज में मिला था जहाँ कई जाने चली गयी थी इमारत ढहने से। गाड़ी के शीशे में उसे अपने चेहरे पर मवाद नजर आने लगा।घृणा से उसने चेहरा हटा लिया और गाड़ी दौड़ा दी।

    दिव्या राकेश शर्मा

    देहरादून।

    परिचय

    नाम-दिव्या शर्मा