स्वाभिमान - लघुकथा - 15 Bhagwan Vaidya द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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स्वाभिमान - लघुकथा - 15

भगवान वैद्य ‘प्रखर’ की 3 लघुकथाएँ:

1. अभिमान

‘‘अब और विचार न करो, परबतिया। मनीष और बहू कल लौटनेवाले हैं, नागपुर। तुम पारंबी को बैग लेकर तैयार रखना। मैं रामदीन को भेज दूँगी लेने के लिए।’’

‘‘मैं एक शब्द पारंबी से पूछ लेना चाहती हूँ, मालकिन।’’

‘‘अरी, क्या मैं जानती नहीं ? तुम्हारे बच्चे तुमसे अलग थोड़े ही हैं?...चार-छह माह बाद वहीं की कोई बाई मिल गयी तो पारंबी वापिस भी आ सकती है।’’

‘‘हमारे यहाँ झाड़ू-पोछा, बर्तन आदि सब कामों के लिए नौकर हैं। पारंबी को केवल बच्चों की देखभाल करनी है।... बहुत बड़ा फ्लैट है। एक पूरा कमरा पारंबी को दे देंगे रहने के लिए। कभी आप आयीं दो-चार दिन के लिए तो आप भी रह सकेंगी, पारंबी के साथ।... और ये लीजिए, ये एक हजार रुपये और रखिए। ये मैं हर माह आपको अलग से दिया करूँगा।’’

‘‘ये काहे के भैया! मालकिन ने पांच हजार रुपये एडवान्स तो दे ही दिया है।’’

‘‘ये पारंबी के ब्राह्मण बनने के हैं।... बाकी मम्मी समझा देगी आपको, तफसील से ।’’ कहकर मनीष भीतर चला गया।

पंडिताइन ने अपनी कुर्सी परबतिया के समीप खींची और बोली, ‘‘क्या है परबतिया, ये लोग जहाँ रहते हैं न, वहाँ अड़ोस-पड़ोस में सब हमारी बिरादरीवाले ही रहते हैं। उनको जब पता चलेगा कि इनके घर में दिन भर रहनेवाली ये लड़की ब्राह्मण नहीं है तो वे पानी भी नहीं पीयेंगे, इनके हाथ का। इसलिए तुम पारंबी को समझा देना कि उससे जब कोई उसकी जाति पूछे तो वह कहे कि ‘ब्राह्मण’ है। बस, इतनी-सी बात है। हम लोग तो नहीं मानते ये सब पर अब दुनिया में रहना है तो ये सब तो करना ही पड़ेगा न, परबतिया !’’

अगले दिन रामदीन पारंबी को लेने गया तो परबतिया ने कहा,‘‘ पारंबी नहीं आयेगी, रामदीन। कह देना पंडिताइन से।’’

"क्यों, क्या पैसे कम दे रहे हैं ?"

"नहीं रामदीन। बल्कि कहना चाहिए कि पैसे अधिक दे रहे हैं ...इस कारण।"

"मैं समझा नहीं, मौसी।"

"रामदीन, उनके रुपयों के लिए मैं अपनी जाति नहीं बदल सकती। कहने-सुनने के लिए भी नहीं। हम जो हैं, सो हैं और डंके की चोट पर हैं। हमें उसका अभिमान है। किसी को नहीं पसंद तो न बुलाए हमें या न रखे अपने घर काम पर।"

"तो आपने कल ही क्यों न मना कर दिया मौसी !"

"कल नहीं कह पायी, रामदीन। कल मेरी जुबान उनके एहसानों तले दबी थी। घर आकर रातभर हिसाब किया । उनके एहसान हैं तो मैंने भी उनके बच्चों-कच्चों का, उनके घर के बुजुर्गों का गू-मूत किया है। .... सारी रात एकेक बात याद करती रही तब जाकर यह फ़ैसला करने का साहस जुटा पायी हूँ।... ये लो, उनके छह हजार रुपये। लौटा देना उन्हें। "

रामदीन ने परबतिया की जुबान में इस प्रकार की तल्खी पहले कभी नही देखी थी। ❏

2. गैरत

बकाराम, मेरा बाल सखा। बेटी की शादी का निमंत्रण लेकर आया तब मैं स-पत्नीक भोजन कर रहा था। मैंने कहा, ‘’तुम मुँह- हाथ धो लो और भोजन करने आ जाओ। बाकी बातें बाद में हो जायेगी।“

भोजन के बाद उसने विनयपूर्वक निमंत्रण-पत्रिका दी। मैंने पूछा, “क्या अमरावती में कोई और भी काम है?”

“नहीं, मैं सिर्फ तुम्हारी निमंत्रण-पत्रिका लेकर आया हूँ।...चाहता हूं, आप लोग जरूर आएं। इसी कारण रामटेक से खुद पत्रिका लेकर आया हूँ।”

‘‘ये तुम्हारी तीसरे नंबर की बेटी है न ! इसके बाद चौथी की होगी ..!’’

‘‘चौथी की पिछले वर्ष हो गयी। यह तीसरे नंबर वाली है। एक हाथ से अपाहिज है। बड़ी मुश्किल से एक लड़का तैयार हुआ। ...एक लाख रुपये दहेज कबूला है। साठ हजार की व्यवस्था हो चुकी। चालीस जुटाने हैं।’’

मुझे आशंका हुयी, ‘बकाराम मुझसे कुछ रुपये मांगने तो नहीं आया!’

“तुम्हारे रिटायरमेंट-ड्यूज तो सेटल हो ही गये होंगे?”

“कुछ हुए...कुछ बाकी हैं।” आशंका विश्वास में बदलती देख मैं सतर्कता बरतता हूँ।

“भाभी जी की नौकरी कैसे चल रही है?” बकाराम ने दोबारा जाल फेंका है!

“निजी संस्था है। चार-छह माह में निकलती है तनख्वाह। वह भी आधी-अधूरी।” अबकी मैं साफ झूठ बोल जाता हूँ।

‘‘शाम चार बजे की शेगांव- रामटेक बस का रिजर्वेशन करके आया हूँ।’’

“ऐसे कैसे भाई...! मेरे इस नये मकान में पहली बार आये हो। दो-एक दिन तो रहना ही पड़ेगा। तभी इजाजत मिलेगी, लौटने की।”

“रहने के लिये फिर कभी आ जाऊँगा। अभी कई काम बाकी हैं।”

‘‘फिर भी, ...कुछ समय तो आराम करो।’’

बकाराम दीवान पर लेट गया । उसे गहरी नींद आ गयी।

“क्या उम्मीद लेकर आये हैं आपके बाल -सखा?” पत्नी ने इशारे से मुझे भीतर बुलाकर प्रश्न किया।

“लगता है, चालीस हजार की उम्मीद लेकर आया है, बकाराम।’’

“आप क्या सोचते हैं?”

“अगर वह अपने मुँह से मांगता है, तब सोचेंगे।... आखिर उसके भी कई अहसान हैं मुझपर।’’

“मेरा ख्याल है, वे मांगेंगे नहीं...।”

“देखते हैं...उठने के बाद। छोटी-मोटी रकम होती तो दे भी देते। पर चालीस हजार...!”

शाम की चाय पीकर बकाराम ने अपनी बैग संभाली। मैं उसे बस में बिठा आया। बस छूटते तक मेरे मन में आशंका थी,बकाराम पैसों के लिए कुछ बोलेगा।

हम लोग शादी में गये थे। पता चला, बकाराम ने चालीस हजार में अपना मकान गिरवी रख दिया है।

***

3. भीख

“गैस-बर्नर ...सिगड़ी साफ करवा लो ऽ ऽ....।”

सड़क पर आवाज सुनी तो मैं आंगन में निकल आया। “अरे भाई सुनों, कितने पैसे लेते हो सिगड़ी साफ करने के ?"

“कितने बर्नर की सिगड़ी है, साहब ?”

“चार बर्नर की।”

“चार बर्नरवाली के अस्सी रुपये।”

“साठ में नहीं कर दोगे?”

“नहीं साहब, मोलभाव की कोई गुंजाइश नहीं है।” उसने कहा और साइकिल पर सवार होकर जाने लगा तो श्रीमती जी कहा, “करवा लेते हैं, अस्सी देकर। बहुत दिन हो गये , बर्नर साफ करवाये।”

मैंने बर्नर साफ करवा लिये। सौ की नोट थमाते हुए कहा, “बीस छुट्टे हैं तुम्हारे पास?”

“देखता हूँ” कहकर वह कंधेपर लटकायी अपनी बैग... एक के बाद दूसरी जेब... में छुट्टे खोजने लगा। इस बीच श्रीमती जी ने इशारे से मेरा ध्यान उसकी टूटी टांग की ओर आकर्षित किया।

“छोड़ो... रहने दो। रख लो सौ रुपये ।”

उसने मेरी बात अनसुनी कर दी और काख में दबी लठिया का सहारा ले बीस रुपयों की खोज जारी रखी।

मैं फिर अपनी बात दोहराता हूँ, “अरे भाई, अब रहने भी दो। रख लो सौ- रुपये।”

लेकिन वह कहाँ सुननेवाला था! उसने एक जेब से दस की नोट, दूसरी जेब से पांच की तो कहीं और से पांच का सिक्का जुटाया और मुझे बीस-रुपये थमाते हुए कहने लगा, “सा’ब, पाँव कट गया था, रेल के नीचे आकर । कई दिन भूखा पड़ा रहा, रेल्वे-पुल के नीचे। लोग अपाहिज समझकर कुछ पैसे छोड़ जाते थे। पर, मैंने वे पैसे कभी नहीं उठाए। वहाँ बैठे भिखारियों में बाँट दिया करता था। वे पैसे ले लेता तो मुझे भी ‘भीख’ की आदत पड़ जाती। ...अब तो अपने पेट के लिए जितने जरूरी हैं उतने कमा लेता हूँ। तब ...अपनी मजदूरी से अधिक भला क्यों लूँ?”

जवाब में मैं कुछ कहूँ इसके पूर्व उसने साइकिल पर लठिया लटकायी और ‘गैस-बर्नर... सिगड़ी साफ करवा लोऽऽ...’ की आवाज लगाता हुआ आगे बढ़ गया।

***

-भगवान वैद्य ‘प्रखर’