रक्षाकवच...
पहले कुछ धुंधला-सा दिख रहा था लेकिन अब सब स्पष्ट दिख रहा है। एक औरत को बीच सड़क पर बाँधकर खड़ा किया गया है। वह मुँह झुकाए खड़ी है। उसका 'माथा' लहुलुहान है। उसके 'गले' के पास से रक्त बह रहा है जिससे आस-पास की जमीन लाल हो चली है। उसका स्वाभिमान छिन्न-भिन्न हो चुका है। अब वह लाचार हो अपने दोनों हाथ फैलाकर सहायता की गुहार लगा रही है।
तभी कोई चिल्लाया, "हमें इसका 'दाहिना हाथ' चाहिए।"
".....और हमें बाँया।" दूसरे ने गरजते हुए कहा।
"लेकिन… इसका हाथ लेकर तुम क्या करोगे!" किसी ने समझना चाहा, "इससे अलग होकर इसका हाथ किसी काम का नहीं रहेगा।"
"परवाह नही। हमें इसके हाथ चाहिए... मतलब चाहिए।" वे दोनों एक सुर में बोले।
अचानक ‘दूर’ से एक चीख सुनाई पड़ी, "हमें इसका 'सर' चाहिए।" यह सुनते ही मैं सकते में आ गया।
फिर वही आवाज़ गूंजी, "शराफत से 'सर' दे दो वर्ना बाखुदा, हमें सर कलम करना बखूबी आता है।"
मैंने अब उस औरत के पैरों की ओर देखा। उसके पैर तो सही सलामत थे लेकिन जगह-जगह से छिले हुए थे। वह लड़खड़ा रही थी। कभी भी गिर सकती थी। इससे पहले कि उसके पैर भी कोई मांग लेता, मैं उसकी ओर चिल्लाते हुए बढ़ा, "इस तरह मैं तुम्हारे अंग भंग नही होने दूँगा। नहीं ...मैं...मैं तुम्हे...”
"क्या हुआ बेटा! तू चिल्ला क्यों रहा है?" माँ की आवाज़ से मैं नींद से उठ बैठा।
"बेटा, आज गणतंत्र दिवस है न। भारत माँ को सलामी देने का समय हो रहा है। चल, जल्दी से तैयार हो जा।"
"हाँ माँ, सिर्फ सलामी ही नही....” मैं सर ऊँचा करते हुए बोला, "....बल्कि भारत माँ का रक्षाकवच बनने का भी समय आ गया है।" इतना कह अनायास ही मेरी आँखें माँ के चेहरे पर कुछ ढूंढने लगीं। माँ का चेहरा मुझे उस औरत जैसा लगने लगा लेकिन अब उस पर खौफ नही बल्कि..... स्वाभिमान के साथ-साथ एक विश्वास झलक रहा था।
***
जागृति...…
पहला दृश्य-
मंच पर हर तरफ खून के धब्बे। चारों ओर से चलती गोलियों की आवाज़ें।
पीछे पर्दे पर - हवा में उड़ती लाशें। छोटे-छोटे बच्चों को बारूद बाँधकर चिमनियों से घरों में फेंकने से होते धमाके। बच्चियों, औरतों का सरेआम रास्ते पर घसीटा जाना। वहशियत अपने चरम पर लेकिन मीडिया कहीं नही।
मंच घूमता है।
दूसरा दृश्य-
मंच पर बड़े उद्योगपति की पोती का जोर-शोर से मनाया जा रहा जन्मदिन। देश का पूरा मीडिया उन खुशी के पलों को अपने कैमरे में कैद करने के लिए बेतहाशा दौड़ लगता हुआ...
पहला प्रवक्ता-
"पोती के जन्मदिन पर नाचते दादाजी। देखिए..... सबसे पहले यह खबर हमारे चैनल पर।"
दूसरा प्रवक्ता,-
"पोती को जन्मदिन पर दिया सोने का जड़ाऊ फ्रॉक। फ्रॉक का वजन बच्ची के वजन से ज्यादा। 'सबसे तेज सबसे आगे।' देखते रहिये। हमारा चैनल, सबका चैनल।"
तभी मंच फिर घूमता है।
पहले दृश्य के स्थान से आती छोटी-छोटी बच्चियों के चीखने की आवाज़ें। दूधमुँहे बच्चे का कर्णकटु स्वर....
थियेटर में बैठा मैं पसीने से लथपथ हो उठा। अपनी जेब से कलम निकाली और घर पर रखी पत्रकारिता की डिग्री, जिसे उदास हो मैंने खुद ही संदूक में बंद कर दिया था, लेने घर की ओर निकल पड़ा तभी पीछे से माँ की आवाज़ आई, "क्या हुआ बेटा ! नाटक छोड़ कहाँ चल दिये?"
"अपना कर्तव्य पूरा करने माँ। भ्रष्ट पत्रकारिता को आइना दिखाने। कलम के सिपाहियों का स्वाभिमान पुनः एक बार जागृत करने...." और मेरे पैर तेजी से अपने गंतव्य की ओर बढ़ने लगे।
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पानी..
एक तार पर तरह-तरह के कपड़े टंगे थे। उनमें एक सफ़ेद कुर्ता-पजामा था जिसके ऊपर लगे 'धब्बे' कुछ समय पहले ही घिसकर निकाले गए थे। उसके साथ ही एक काला कोट भी टँगा हुआ था। उन दोनों का ही 'पानी' भाप बनकर उड़ चुका था और अब वे तनकर चलती हवा के साथ लहरा रहे थे।
पास ही एक सतरंगी साड़ी टँगी थी जो अपनी खूबसूरती पर इतरा रही थी। उसके साथ टंगा मैचिंग ब्लाउज, जो पीछे से मात्र एक डोरी से बंधा था, उसे देख खींजकर बोला, "तुम क्यों इतना इतरा रही हो? कल तुम नहीं बल्कि मैं पार्टी की शान था। मेरे ही कारण सब तुम्हारी ओर खिंचे चले आ रहे थे।"
उनकी बातें सुन वहाँ पर टँगी जींस कुत्सित हँसी हँसते हुए बोली, "अरे 'यह' तो बिन पेंदी के लोटे समान है। जिस ओर फायदा दिखता है उसी ओर लुढ़क जाती है।"
तभी वहाँ कहीं से उड़ता हुआ, मिट्टी में सना एक गमछा आ पहुँचा। उसमें से दुर्गंध उठ रही थी। सबने अपनी नाक भौं सिकोड़ ली।
सबकी ऐसी प्रतिक्रिया और अपनी हालत देख, गमछे ने नज़रें झुका दीं लेकिन पास ही टंगी छोटी-सी घाघरा चोली की बांछे खिल गईं।
वह नतमस्तक हो गमछे से बोली, "कल यदि तुम समय पर आकर मुझे न ढकते तो न जाने मेरा क्या....," कहते हुए वह सुबक उठी।
गमछा उसे देखते हुए गर्व से बोला, "मैं छोटा जरूर हूँ लेकिन कमज़ोर नहीं। मैं तो अपने मालिक का अभिमान हूँ। मैं मेहनत के पसीने से महकता हूँ और वक्त आने पर...किसी अबला की इज्जत भी ढंक सकता हूँ क्योंकि... न तो मैंने अपनी हिम्मत खोई है और ना ही अपना.... स्वाभिमान।
अब शर्मिंदगी से नजरें झुकाने की बारी बाकी सबकी थी।
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