टू टू Saadat Hasan Manto द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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मैं सोच रहा था।

दुनिया की सब से पहली औरत जब माँ बनी तो कायनात का रद्द-ए-अमल किया था?

दुनिया के सब से पहले मर्द ने किया आसमानों की तरफ़ तिमतिमाती आँखों से देख कर दुनिया की सब से पहली ज़बान में बड़े फ़ख़्र के साथ ये नहीं कहा था। “मैं भी ख़ालिक़ हूँ।”

टेलीफ़ोन की घंटी बजना शुरू हुई। मेरे आवारा ख़यालात का सिलसिला टूट गया। बालकनी से उठ कर मैं अंदर कमरे में आया। टेलीफ़ोन ज़िद्दी बच्चे की तरह चिल्लाए जा रहा था।

टेलीफ़ोन बड़ी मुफ़ीद चीज़ है, मगर मुझे इस से नफ़रत है। इस लिए कि ये वक़्त बेवक़्त बजने लगता है....... चुनांचे बहुत ही बद-दिली से मैंने रीसीवर उठाया और नंबर बताया “फ़ोर फ़ोर फाईव सेवन।”

दूसरे सिरे से हेलो हेलो शुरू हुई। मैं झुँझला गया। “कौन है”

जवाब मिला। “आया।”

मैंने आयाओं के तर्ज़-ए-गुफ़्तुगू में पूछा। “किस को मांगता है?”

“मेम साहब है।”

“है....... ठहरो।”

टेलीफ़ोन का रीसीवर एक तरफ़ रख कर मैंने अपनी बीवी को जो ग़ालिबन अंदर सो रही थी, आवाज़ दी “मेम साहब....... मेम साहब।”

आवाज़ सुन कर मेरी बीवी उठी और जमाईआं लेती हुई आई। “ये क्या मज़ाक़ है... मेम साहब, मेम साहब!”

मैंने मुस्कुरा कहा। “मेम साहब ठीक है....... याद है, तुम ने अपनी पहली आया से कहा था कि मुझे मेम साहब के बदले बेगम साहबा कहा करो तो उस ने बेगम साहबा को बैंगन साहबा बना दिया था!”

एक मुस्कुराती हुई जमाई लेकर मेरी बीवी ने पूछा। “कौन है।”

“दरयाफ़्त करलो।”

मेरी बीवी ने टेलीफ़ोन उठाया और हेलो हेलो शुरू कर दिया....... मैं बाहर बालकनी में चला गया....... औरतें टेलीफ़ोन के मुआमले में बहुत लंबी होती हैं। चुनांचे पंद्रह बीस मिनट तक हेलो हेलो होता रहा।

मैं सोच रहा था।

टेलीफ़ोन हर दो तीन अलफ़ाज़ के बाद हेलो क्यों कहा जाता है?

क्या इस हेलो हेलो के अक़ब में एहसास-ए-कमतरी तो नहीं?....... बार बार हलो सिर्फ़ उसे करनी चाहिए जिसे इस बात का अंदेशा हो कि उस की मोहमल गुफ़्तुगू से तंग आकर सुनने वाला टेलीफ़ोन छोड़ देगा....... या हो सकता है ये महिज़ आदत हो।

दफ़अतन मेरी बीवी घबराई हुई आई। “सआदत साहब, इस दफ़ा मुआमला बहुत ही सीरियस मालूम होता है।”

“कौन सा मुआमला।”

मुआमले की नौइय्यत बताए बग़ैर मेरी बीवी ने कहना शुरू कर दिया। “बात बढ़ते बढ़ते तलाक़ तक पहुंच गई है....... पागलपन की भी कोई हद होती है... मैं शर्त लगाने के लिए तैय्यार हूँ कि बात कुछ भी नहीं होगी । बस फुसरी का भगन्दर बना होगा... दोनों सरफिरे हैं।”

“अजी हज़रत कौन?”

“मैंने बताया नहीं आप को?....... ओह....... टेलीफ़ोन, ताहिरा का था!”

“ताहिरा.......कौन ताहिरा?”

“मिसिज़ यज़्दानी।”

“ओह!” मैं सारा मुआमला समझ गया “कोई नया झगड़ा हुआ है?”

“नया और बहुत बड़ा....... जाईए यज़्दानी आप से बात करना चाहते हैं।”

“मुझ से क्या बात करना चाहता है?”

“मालूम नहीं....... ताहिरा से टेलीफ़ोन छीन कर मुझ से फ़क़त ये कहा। भाबी जान, ज़रा मंटो सहब को बलाईए!”

“ख़्वाह-मख़्वाह मेरा मग़्ज़ चाटेगा।” ये कह कर मैं उठा और टेलीफ़ोन पर यज़्दानी से मुख़ातब हुआ।

उस ने सिर्फ़ इतना कहा “मुआमला बेहद नाज़ुक होगया है....... तुम और भाबी जान टैक्सी में फ़ौरन यहां आ जाओ।”

मैं और मेरी बीवी जल्दी कपड़े तबदील करके यज़्दानी की तरफ़ रवाना होगए....... रास्ते में हम दोनों ने यज़्दानी और ताहिरा के मुतअल्लिक़ बेशुमार बातें कीं।

ताहिरा एक मशहूर इश्क़ पेशा मूसीक़ार की ख़ूबसूरत लड़की थी। अता यज़्दानी एक पठान आढ़ती का लड़का था। पहले शायरी शुरू की, फिर ड्रामा निगारी, इस के बाद आहिस्ता आहिस्ता फ़िल्मी कहानियां लिखने लगा.......ताहिरा का बाप अपने आठवीं इश्क़ में मशग़ूल था और अता यज़्दानी अल्लामा मशरिक़ी की ख़ाकसार तहरीक के लिए “बेचला” नामी ड्रामा लिखने में...

एक शाम परेड करते हुए अता यज़्दानी की आँखें ताहिरा की आँखों से चार हुईं। सारी रात जाग कर उस ने एक ख़त लिखा और ताहिरा तक पहुंचा दिया....... चंद माह तक दोनों में नामा-ओ-पयाम जारी रहा और आख़िर कार दोनों की शादी बग़ैर किसी हील हुज्जत होगई। अता यज़्दानी को इस बात का अफ़सोस था कि इन का इश्क़ ड्रामे से महरूम रहा।

ताहिरा भी तबन ड्रामा पसंद थी....... इश्क़ और शादी से पहले सहेलीयों के साथ बाहर शोपिंग को जाती तो उन के लिए मुसीबत बन जाती... गंजे आदमी को देखते ही इस के हाथों में खुजली शुरू हो जाती “मैं उस के सर पर एक धूल तो ज़रूर जमाऊँगी, चाहे तुम कुछ ही करो।”

ज़हीन थी....... एक दफ़ा उस के पास कोई पेटीकोट नहीं था। उस ने कमर के गर्द इज़ारबंद बांधा और इस में साड़ी उड़िस कर सहेलीयों के साथ चल दी।

क्या ताहिरा वाक़ई अता यज़्दानी के इश्क़ में मुबतला हुई थी? इस के मुतअल्लिक़ वसूक़ के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता था। यज़्दानी का पहला इश्क़िया ख़त मिलने पर उस का रद्द-ए-अमल ग़ालिबन ये था कि खेल दिलचस्प है क्या हर्ज है, खेल लिया जाये। शादी पर भी उस का रद्द-ए-अमल कुछ इसी क़िस्म का था। यूं तो मज़बूत किरदार की लड़की थी, यानी जहां तक बाइस्मत होने का तअल्लुक़ है, लेकिन थी खलनडरी। और ये जो आए दिन उस का अपने शौहर के साथ लड़ाई झगड़ा होता था, मैं समझता हूँ एक खेल ही था। लेकिन जब हम वहां पहुंचे और हालात देखे तो मालूम हुआ कि ये खेल बड़ी ख़तरनाक सूरत इख़्तियार कर गया था।

हमारे दाख़िल होते ही वो शोर बरपा हुआ कि कुछ समझ में न आया। ताहिरा और यज़्दानी दोनों ऊंचे ऊंचे सुरों में बोलने लगे। गले, शिकवे, ताने मने....... पुराने मुर्दों पर नई लाशें, नई लाशों पर पुराने मुर्दे....... जब दोनों थक गए तो आहिस्ता आहिस्ता लड़ाई की नोक-पलक निकलने लगी।

ताहिरा को शिकायत थी कि अता स्टूडीयो की एक वाहीयात ऐक्ट्रस को टैक्सियों में लिए लिए फिरता है।

यज़्दानी का बयान था कि ये सरासर बोहतान है।

ताहिरा क़ुरआन उठाने के लिए तैय्यार थी अता का उस ऐक्ट्रस से नाजायज़ तअल्लुक़ है। जब वो साफ़ इंकारी हुआ तो ताहिरा ने बड़ी तेज़ी के साथ कहा। “कितने पार्सा बनते हो....... ये आया जो खड़ी है। क्या तुम ने उसे चूमने की कोशिश नहीं की थी... वो तो मैं ऊपर से आगई... ”

यज़्दानी गरजा “बकवास बंद करो।”

इस के बाद फिर वही शोर बरपा होगया।

मैंने समझाया। मेरी बीवी ने समझाया मगर कोई असर न हुआ। अता को तो में ने डाँटा भी “ज़्यादती सरासर तुम्हारी है....... माफ़ी मांगो और ये क़िस्सा ख़त्म करो।”

अता ने बड़ी संजीदगी के साथ मेरी तरफ़ देखा “सआदत, ये क़िस्सा यूं ख़त्म नहीं होगा....... मेरे मुतअल्लिक़ ये औरत बहुत कुछ कह चुकी है, लेकिन मैंने इस के मुतअल्लिक़ एक लफ़्ज़ भी मुँह से नहीं निकाला....... इनायत को जानते हो तुम?”

“इनायत?”

“प्लेबैक सिंगर....... इस के बाप का शागिर्द!”

“हाँ हाँ”

“अव्वल दर्जे का छठा हुआ बदमाश है....... मगर ये औरत हर रोज़ उसे यहां बुलाती है....... बहाना ये है कि....... ”

ताहिरा ने उस की बात काट दी। “बहाना वहाना कुछ नहीं....... बोलो, तुम क्या कहना चाहते हो?”

अता ने इंतिहाई नफ़रत के साथ कहा। “कुछ नहीं।”

ताहिरा ने अपने माथे पर बालों की झालर एक तरफ़ हटाई। “इनायत मेरा चाहने वाला है....... बस!”

अता ने गाली दी....... इनायत को मोटी और ताहिरा को छोटी....... फिर शोर बरपा होगया।

एक बार फिर वही कुछ दुहराया गया। जो पहले कई बार कहा जा चुका था....... मैंने और मेरी बीवी ने बहुत सालिसी की मगर नतीजा वही सिफ़र। मुझे ऐसा महसूस होता था जैसे अता और ताहिरा दोनों अपने झगड़े से मुतमइन नहीं। लड़ाई के शोले एक दम भड़कते थे और कोई मरई नतीजा किए बग़ैर ठंडे हो जाते थे। फिर भड़काए जाते थे, लेकिन होता होता कुछ नहीं था।

मैं बहुत देर तक सोचता रहा कि अता और ताहिरा चाहते क्या हैं मगर किसी नतीजे पर न पहुंच सका....... मुझे बड़ी उलझन होरही थी। दो घंटे से बकबक और झक झक जारी थी। लेकिन अंजाम ख़ुदा मालूम कहाँ भटक रहा था। तंग आकर मैंने कहा “भई, अगर तुम दोनों की आपस में नहीं निभ सकती तो बेहतर यही है कि अलाहिदा हो जाओ।”

ताहिरा ख़ामोश रही, लेकिन अता ने चंद लमहात ग़ौर करने के बाद कहा। “अलाहिदगी नहीं... तलाक़!”

ताहिरा चिल्लाई “तलाक़, तलाक़, तलाक़....... देते क्यों नहीं तलाक़....... मैं कब तुम्हारे पांव पड़ी हूँ कि तलाक़ न दो।”

अता ने बड़ी मज़बूत लहजे में कहा। “दे दूंगा और बहुत जल्द।”

ताहिरा ने अपने माथे पर से बालों की झालर एक तरफ़ हटाई। “आज ही दो।”

अता उठ कर टेलीफ़ोन की तरफ़ बढ़ा। “मैं क़ाज़ी से बात करता हूँ।”

जब मैंने देखा कि मुआमला बिगड़ रहा है तो उठ कर अता को रोका “बेवक़ूफ़ न बनो....... बैठो आराम से!”

ताहिरा ने कहा। “नहीं भाई जान, आप मत रोकीए।”

मेरी बीवी ने ताहिरा को डाँटा। “बकवास बंद करो।”

“ये बकवास सिर्फ़ तलाक़ ही से बंद होगी।” ये कह कर ताहिरा टांग हिलाने लगी।

“सुन लिया तुम ने” अता मुझ से मुख़ातब हो कर फिर टेलीफ़ोन की तरफ़ बढ़ा, लेकिन मैं दरमयान में खड़ा होगया।

ताहिरा मेरी बीवी से मुख़ातब हुई “मुझे तलाक़ दे कर उस चडद ऐक्ट्रस से ब्याह रचाएगा।”

अता ने ताहिरा से पूछा। “और तू?”

ताहिरा ने माथे पर बालों के पसीने में भीगी हुई झालर हाथ से ऊपर की। “मैं....... तुम्हारे इस यूसुफ़-ए-सानी इनायत ख़ान से!”

“बस अब पानी सर से गुज़र चुका है....... हद होगई है... तुम हि जाओ एक तरफ़” अता ने डाईरेट्री उठाई और नंबर देखने लगा। जब वो टेलीफ़ोन करने लगा तो मैंने उसे रोकना मुनासिब न समझा। उस ने एक दो मर्तबा डायल किया। लेकिन नंबर न मिला। मुझे मौक़ा मिला तो मैंने उसे पुरज़ोर अल्फ़ाज़ में कहा कि अपने इरादे से बाज़ रहे। मेरी बीवी ने भी उस से दरख़ास्त की मगर वो न माना। इस पर ताहिरा ने कहा। “सफिया। तुम कुछ न कहो....... इस आदमी के पहलू में दिल नहीं पत्थर है....... मैं तुम्हें वो ख़त दिखाऊँगी जो शादी से पहले इस ने मुझे लिखे थे....... उस वक़्त में इस के दिल का फ़रार इस की आँखों का नूर थी। मेरी ज़बान से निकला हुआ सिर्फ़ एक लफ़्ज़ इस के तन मुर्दा में जान डालने के लिए काफ़ी था....... मेरे चेहरे की सिर्फ़ एक झलक देख कर ये बखु़शी मरने के लिए तैय्यार था....... लेकिन आज उसे मेरी ज़र्रा बराबर पर्वा नहीं।”

अता ने एक बार फिर नंबर मिलाने की कोशिश की।

ताहिरा बोलती रही “मेरे बाप की मोसीक़ी से भी उसे इश्क़ था....... इस को फ़ख़्र था कि इतना बड़ा आर्टिस्ट मुझे अपनी दामादी में क़बूल कररहा है... शादी की मंज़ूरी हासिल करने के लिए इस ने उन के पांव तक दाबे, पर आज इसे उन का कोई ख़याल नहीं।”

अता डायल घुमाता रहा।

ताहिरा मुझ से मुख़ातब हो। “आप को ये भाई कहता है, आप की इज़्ज़त करता है... कहता था जो कुछ भाई जान कहेंगे मैं मानूंगा....... लेकिन आप देख ही रहे हैं... टेलीफ़ोन कररहा है क़ाज़ी को....... मुझे तलाक़ देने के लिए।”

मैंने टेलीफ़ोन एक तरफ़ हटा दिया। “अता, अब छोड़ो भी।”

नहीं ये कह कर उस ने टेलीफ़ोन अपनी तरफ़ घसीट लिया।

ताहिरा बोली “जाने दीजीए भाई जान....... इस के दिल में मेरा क्या, टूटू का भी कुछ ख़याल नहीं!”

अता तेज़ी से पलटा। “नाम न लो टूटू का!”

ताहिरा ने नथुने फुला कर कहा। “क्यों नाम न लूं उस का।”

अता ने रीसीवर रख दिया। “वो मेरा है!”

ताहिरा उठी खड़ी हुई। “जब मैं तुम्हारी नहीं हूँ तो वो कैसे तुम्हारा हो सकता है....... तुम तो उस का नाम भी नहीं ले सकते।”

अता ने कुछ देर सोचा। “मैं सब बंद-ओ-बस्त करलूंगा।”

ताहिरा के चेहरे पर एक दम ज़र्दी छा गई। “टूटू को छीन लोगे मुझ से?”

अता ने बड़े मज़बूत लहजे में जवाब दिया। “हाँ।”

“ज़ालिम।”

ताहिरा के मुँह से एक चीख़ निकली। बेहोश कर गिरने वाली ही थी कि मेरी बीवी ने उसे थाम लिया....... अता परेशान होगया। पानी के छींटे। यूडी कलोनम। सम्मलिंग सालट। डाक्टरों को टेलीफ़ोन....... अपने बाल नोच डाले, क़मीज़ फाड़ डाली....... ताहिरा होश में आई तो वो उस का हाथ अपने हाथ में लेकर थपकने लगा। “जानम टूटू तुम्हारा है....... टूटू तुम्हारा है।”

ताहिरा ने रोना शुरू कर दिया। “नहीं वो तुम्हारा है।”

अता ने ताहिरा की आँसूओं भरी आँखों को चूमना शुरू कर दिया। “मैं तुम्हारा हूँ। तुम मेरी हो....... टूटू तुम्हारा भी है, मेरा भी है!”

मैंने अपनी बीवी से इशारा किया। वो बाहर निकली तो मैं भी थोड़ी देर के बाद चल दिया... टैक्सी खड़ी थी, हम दोनों बैठ गए। मेरी बीवी मुस्कुरा रही थी। मैंने उस से पूछा “ये टूटू कौन है?”

मेरी बीवी खिखला कर हंस पड़ी। “उन का लड़का”

मैंने हैरत से पूछा। “लड़का?”

मेरी बीवी ने इस्बात में सर हिला दिया।

मैंने और ज़्यादा हैरत से पूछा “कब पैदा हुआ था....... मेरा मतलब है....... ”

अभी पैदा नहीं हुआ....... “चौथे महीने में है।”

चौथे महीने, यानी इस वाक़े के चार महीने बाद, मैं बाहर बालकनी में बालकी ख़ाली अलज़हन बैठा था कि टेलीफ़ोन की घंटी बजना शुरू हुई। बड़ी बेदिली से उठने वाला था कि आवाज़ बंद होगई। थोड़ी देर के बाद मेरी बीवी आई। मैंने उस से पूछा। “कौन था।”

“यज़्दानी साहब।”

“कोई नई लड़ाई थी?”

“नहीं....... ताहिरा के लड़की हुई है....... मरी हुई” ये कह कर वो रोती हुई अन्दर चली गई।

मैं सोचने लगा। अगर अब ताहिरा और अता का झगड़ा हुआ तो उसे कौन टू टू चुकाएगा।