Chhattisgarh ke Vismrut kavi - Sva. Shishupal Baldev books and stories free download online pdf in Hindi

छतीसगढ़ के विस्मृत कवि, स्व. शिशुपाल बलदेव यादव मुकुंद दुर्ग

मैं अपने बाबूजी स्व श्री शिशुपाल सिंह यादव 'मुकुंद' की कुछ रचनाएँ प्रस्तुत कर रहा हूँ | उनका जन्म दुर्ग छतीसगढ़, में 18 अप्रेल 1898 में तथा अवसान अक्टूबर 1976 को हुआ | वे शिक्षक थे | उनकी लिखी कुछ रचना प्राप्त हो सकी है, जिसे सहेजने का काम आरंभ किया है | वे अपने समय के ओज कवि थे | उनके नाम के साथ गूगल सर्च में यह पाया कि सन 1933, 22 November, को राष्ट्रपिता के दुर्ग आगमन पर उनके सम्मान में दो कवियों ने काव्य-पाठ किया था, एक थे स्व. श्री उदय प्रसाद उदय, दूसरे मेरे बाबूजी स्व. श्री शिशुपाल सिंह यादव 'मुकुंद' |

उनकी कुछ रचनाये, अग्रज श्री अरुण यादव के आलेख सहित, प्रकाशनार्थ प्रेषित हैं |

सुशील यादव दुर्ग

9408807420

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बाबूजी, जीवन और कर्म की संघर्ष यात्रा

( श्री शिशुपाल सिंह यादव, १८ अप्रेल १८९८ - ४ अक्टूबर १९७६ )

अरुण यादव |

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पारिवारिक पृष्ठ भूमि

विप्पन्नता से घिरा एक छोटा परिवार था | दादी मालती थी | दो नन्हे बच्चे थे | पीला और बिलटू | बड़े पिताजी जिन्हें हम दद्दा कहते थे, जिनका नाम गोपाल था | खपरैल वाला सीलन भरा घर था | घर से लगा हुआ कोठा और उस कोठे पर दो -चार धेनु गायें थी |

तुलसी का चौरा था | जहां प्रतिशाम दीप प्रज्वलित होती थी | नन्हे दो बच्चो को पिता का आशीष मिला ही नहीं | बाबूजी अपने संस्मरणो की श्रुति से कभी कहा करते थे, पिता बलदेव संस्कृत के अच्छे ज्ञाता थे और कद काठी पहलवान जैसी थी |

बाबूजी का नामकरण शिशुपाल उनके बड़े पिताजी बहोरन ने रखा था | शिशुपाल और हरपाल मालती की आखों क्र दो तारे थे, और उनके दोनों पुत्रों ने अपने संघर्ष और सामर्थ से परिवार की विपन्नता की श्रुति को संघर्ष के पूण्य श्लोको का अनुवाद करते हुए सही यंत्रों में परिणित किया |

सचमुच वे अपनी पीढ़ी के जुझारू पुरुष थे | दद्दा गोपाल की शिक्षा प्रायमरी कक्षाओं तक थी मगर विद्यानुरागी होने की वजह से विद्या की महिमा और गरिमा को भलीभांति जानते थे | अक्सर उन्हें रामचरित मानस का पाठ करते हुए मैंने देखा | वे गाय चराने सुबहै चार बजे निकल जाते थे | हाथ में चोंगी और चकमक पत्थर तथा सूखा हुआ सोल उनकी बंडी की जेब का हिस्सा हुआ करती थी| बारिश से बचने को खुमरी पास होती थी |

उस पीढ़ी की संघर्ष यात्रा का आदिपुरुष सौम्य और शांति की प्रतिमूर्ति थे | समय के थपेडों से लड़ाते और अपने नन्हे-नन्हे दो सौतेले भाइयों को पितृवत स्नेह -दुलार देते हुए समय के साथ ताल ठोककर लड़ने में वे सदा तत्पर रहे |

तेजपुंज लघु तापस : बाबूजी संस्मरण :

उस संस्मरण यात्रा की संघर्ष-गाथा लेकर निकला हूँ, जिसमे आग है, आंच है | आग कहने से जहां विध्वंश की भूमिका नजर आती है, मगर यहां निर्माण की आहुति है, स्वाहा है | पूरा का पूरा बाबूजी का जीवन एक होम -यज्ञ की तरह तो था |

राष्ट्रीय चेतना के कवि थे बाबूजी | उनका जन्म १८ अप्रेल १८९८ को हुआ था |वे महज दो साल के थे, तब उनके पिता परलोक सिधार गए | माता मालती विदुषी महिला थी उन्होंने पाला, पोसा, सँवारा और पढ़ाया-लिखाया |

घर में गरीबी का एक बिरवा था तुलसी चौरे पर, विपन्नता की महक लिए, मगर उसकी भी रोज पूजा होती थी, दिए की आरती उतारकर |

पिताजी प्राइमरी पास हुए और चार रूपये की मासिक छात्रवृत्ति मिली | ये चार रूपये, जिसकी लंबाई-चौड़ाई और आयतन, समय के हिसाब से और विपन्नता के पासंग, बहुत बड़ा था |

लघु तापस की यह पहली फलीभूत साधना थी | उस साधना का तेज-पुंज दिव्य था | तब से लेकर जीवन पर्यन्त बाबूजी परिवार की लता को नैतिक संबल देते रहे | परिवार के सदस्यों से लिया कुछ भी नहीं | लघु तापस बना यह शिशु संघर्ष यात्रा में निकल पड़ा, अपने जीवन के की पडावों पर और समय के विलोम पक्षों पर

प्रहार करते हुए सामर्थवान शिशुपाल बने |

विपन्नता के कारण रायपुर में जाकर हाईस्कूल में भर्ती नहीं हो सके | वे अपने छात्र जीवन में मेघावी थे | कक्षा में प्रथम उत्तीर्ण होते थे | समय और सामर्थ के बन्द दरवाजे को स्वयं खोलते हुए सन १९१६ में बाबूजी नार्मल स्कूल में दाखिल हुए और वहां से थर्ड ईयर ट्रेंड शिक्षक होकर १९१९ में निकले और शिक्षक पदस्थ हो गए | १९१९ में ट्रेनिंग के बाद दुर्ग में वे हेडमास्टर हो गए तथा पढाने के साथ स्वयं भी अध्ययनशील रहे | वेदांत, उपनिषद और पुराण सभी कुछ पढ़ डाला | मनन और चिंतन उनका नित्य का काम बन गया था | धर्म भाषा और राजनीति की गहरी पकड़ तथा अध्ययन का सुफल युवा शिशुपाल के मानस से कविता के रूप में प्रस्फुटित हुआ, वैसे भी कविता मनोविकारों की सजीव प्रतिमा, होने के साथ लोकोत्तर आनन्द की जननी भी तो है |

साहित्योदय का प्रथम सूर्य बाबूजी ने १९१९ में देखा जब उनकी रचना का प्रकाशन 'सुकवि' जैसे तत्कालीन यशस्वी पत्रिका में हुआ |

समय के शिलालेख पर

वे गुरूजी बने | घर की विपन्नता कुछ थमी और सम्पन्नता की सुरभि भीनी-भीनी महकने लगी | साथ ही उस महक में साहित्यानुरागी की रागात्मकता छंदों में, कवित्त में और घनाखारी में बिखरने लगी | बाबूजी कुशल वक्ता, कवि और लेखक थे |शिक्षक थे इसलिए छात्रोंपयोगीपुस्तकों की रचना की, जिसमे दुर्ग जिले का भूगोल, रचनादर्श और गणित की पुस्तक प्रकाशित हुई | ये पुस्तकें जिले के पाठ्यक्रम में शिक्षा विभाग द्वारा अनुशंसित रही |

मूल रूप से मैं बाबूजी को राष्ट्रीय चेतना का कवि मानता हूँ | आजादी के कुंकुमी भोर के पहले, चेतना का अलाव जलाने वाले और जन-जीवन में जागरण -गीत गाकर सजग प्रहरी तैय्यार करने वाले कवियों की श्रेणी में बाबूजी दुर्ग जिले के अग्रगण्य कवियों की पंक्ति के सशक्त हस्ताक्षर थे |

सन १९३० में सेठ गोविन्ददास जी की अध्यक्षता में नमक कानून तोड़ने के सन्दर्भ में उनकी कविता प्रकाशित हुई और बाबूजी ने नमक कानून तोड़ने के इस राष्ट्रीय यज्ञ में भी भाग लिया | उनकी कविता लोकमत में प्रकाशित हुई |

स्वतन्त्रता संग्राम के दिनों में :

उनकी कविता की दो पंक्तियाँ पढ़ कर स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी जेल-यात्रा करते थे | बाबूजी की इन पंक्तियों को राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने अनुशंसित किया था और स्वतन्त्रता संग्राम के सेनानियों को इसके पाठ करने की अनुशंसा भी की थी, कालजयी-यशस्वी की वे पंक्तियाँ थी,

ब्रिटिश यद्ध पर्यटन में, जन-धन देना भूल है |

सकल युद्ध अवरोध कर, स्तय अहिंसा मूल है ||

महात्मा की अनुशंसा के बाद मात्र ये पंक्तियाँ नहीं रह गई, लोक-चेतना का आग्रह करने वाली एक ज्योति शलाका साबित हुई |

बाबूजी दुर्ग नगर के ऐसे अक्षय -वट थे जिसे शिवनाथ के पानी ने, यहां की उर्वर मिटटी ने, यहां के स्वच्छंद आकाश ने अपने शब्दों की ऊर्जा देकर गढ़ा था | आज भी नगर में जो साहित्यिक हरीतिमा दिखाई देती है, उसके वे पुरखे थे | दुर्ग नगर में सर्वप्रथम श्री उदय प्रसाद जी उदय, श्री शिशुपाल सिह यादव एवं श्री पतिराम जी साव द्वारा हिंदी साहित्य समिति की स्थापना की गई |

इस भाव-प्रवण उर्वर धरती पर एवं पूण्य-सलिला शिवनाथ की करुणार्द्र धारा से यहां के काव्य क्षितिज में जिस हरीतिमा का निर्माण हुआ और उन पुरखे वट -वृक्षों की शाखाओ-प्रशाखाओं के संबल ने न जाने कितनी काव्य वल्लरियों को संबल मिला, प्रोरसाहन मिला, प्रेरणा मिली मार्ग-दर्शन प्राप्त हुआ, पता नहीं ...? मगर सच ये है की इन प्रयासों की वजह से यहां की काव्य-सलिला सदानीरा बनी रही |

साहित्य के प्रति बाबूजी की स्पष्ट स्वीकारोक्ति उनके एक लेख में यूँ झलकती है, "मैं अपने को साहित्यकार की श्रेणी में नहीं गिनता हूँ | कभी-कभी ऐसी इच्छा होती है कि जितनी रचना मेरे द्वारा हुई हैं वे सब जला दी जाएँ | क्यों मैं लोगों को ठगू कि मैं कवि हूँ, लेखक हूँ | मुझे वास्तव में कुछ नहीं आता, सच पूछा जाय तो मैंने नकल नहीं की, चोरी नहीं की | बस थोड़ा सा भाषा ज्ञान ठीक हो गया था, उसके आधार पर चला था कवि और लेखक बनने पर यह कैसे संभव हो सकता है ..? इसके लिए संस्कार और प्रतिभा चाहिए मुझमे दोनों का आभाव था|"

"-हाँ, मुझमे बड़ा ऐब है कि मैं अपने को तीसमारखाँ समझता हूँ, मैं अपने जीवन में किसी भी बड़े साहित्यकार से कभी साक्षात्कार न कर सका | मैं उनसे कभी नहीं मिला | यह मेरी कूप-मण्डूकता रही | या यूँ कहूँ अज्ञानता थी | मेरी सोच थी, मिलकर भी करता क्या .. सिवा खुशामद के ....?"

"-जो कुछ होता है सब अच्छे के लिए होता है ', इस बात का मैं कायल हूँ, इससे अधिक सन्तोष के लिए मैं क्या कहूँ " ? ( 'मैं और मेरा चेहरा', बाबूजी ले आलेख से )

बाबूजी अपने रचना संसार में कितने मौलिक हैं, कितने उदात्त हैं | कवि अपने सत्य के प्रति कितना आग्रह रखता है, अपनी क्षमता में विनम्रता और मानसी उदात्तता को व्यापक भाव से जन-मानस के बीच परोसना किसी कला से कम नहीं ..| एक और, वे अपने प्रति अधिक विनम्र से लगते हैं वहीं दूसरी तरफ स्वयं की ऊर्जा को पहचानने वाले दिनकर भी दिखाई देते हैं | वे कहते हैं ;-

"काव्य कला में भूषण सा, हो भाषा का विज्ञानी

मूछें ऐंठ उठे सुन जिसकी, ओज भरी नव-वाणी

जिसके काव्य-कलापो से हो, झंकृत कोना-कोना

आज हमारे भारत खातिर, ऐसा ही कवि होना "

बाबूजी दुर्ग नगर के भूषण थे | जो ओज, कवि भूषण ने शिवा- क्षितिज में बोई थी वही ओज, वही दीप्ति और वही काव्य-विभा का अनुशरण, पिता ने दुर्ग की माटी में किया | उन्हें अपनी जन्म-भूमि से जो लगाव था उसके प्रति कहते हैं कि, मुझे मेरा दुर्ग अति प्रिय है, परन्तु खेद है भगवान ने मुझे इतना छोटा और असमर्थ बनाया कि इसे बढाने और सँवारने में सहयोग दे न सका | स्वार्थी और समझदार तो दुर्ग में बहुत हैं, मगर सही पहरा देने वाला

सैनिक एक नहीं (बाबूजी-लेखनी २.१०. ६८. )

वे दुर्ग के प्रहरी थे, उनकी रचनाओं में ललकार थी, दृष्टव्य हैं ये पंक्तियाँ

अपनी बाहों में भर तुझको, विहँस हिमालय तौल उठे |

सागर पड़-प्रक्षालन दौड़े, उसमे अमृत घोल उठे ||

नभ के मूल निवासी भी तब, गद-गद हो जय बोल उठे

ऐसी क्रांति मच दे कवि तू, धरनी डगमग डोल उठे

(कवि के प्रति कविता से )

स्थूल रूप से देखा जाए तो बाबूजी पर महात्मा गांधी जी के विचारों का सर्वाधिक प्रभाव दृष्टिगोचर होता है | राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम के उस युग में सभी का ध्येय स्वतन्त्रता का सर्वोदय देखना ही था |

22 नवम्बर, १९३३ को दुर्ग में राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी जी का आगमन हुआ | मोती-तालाब मैदान में एक विशाल जन-सभा का आयोजन किया गया था | गांधी जी के भाषण के पूर्व गांधी जी के स्वागत और अम्मान में दुर्ग के कवि श्री शिशुपाल सिह यादव एवं बोडग़ांव वाले श्री उदय प्रसाद उदय जी का कविता पाठ हुआ |

(आजादी के सिपाही -लेखक श्री जमुना प्रसाद कसार)

बापू के प्रति,

बापू तुम आधार सभी के, इस युग के अवतार तुम्ही

हो गलहार गरीबो के तुम, सार तुम्ही संसार तुम्ही

अभिलाषा हो दीं दुखी की, मूक जनो की भाषा हो

पराधीन आरत-भारत की, एक मात्र तुम आशा हो

निर्बल के बल तुम्ही जगत में, तुम स्वातंत्र पुजारी हो

चर्खा-चक्र सुदर्शन धारी, सेवाग्राम बिहारी हो

(लेखक : श्री अरुण यादव सुपुत्र श्री शिशुपाल सिंह यादव )

दुश्मन दावादार है

१.

तानाशाही शासन जन का, पा सकता क्या प्यार है

कभी छिपाए छिप ना सकता, बोझिल पापाचार है

पाकिस्तान हिन्द से लड़कर, आज हुआ नापाक है

सिंह साथ लड़ना गीदड़ का . सचमुच बेकार है

२.

निराधार है यवन सैन्य अब, रहा न कुछ भी सार है

न तो बुद्धि है और न बल है, खाता रह-रह मार है

लानत मिया अय्यूब शान पर, चोरी वह करवाता है

चोरो की नजरों में दिखता, हरदम कारागार है

३.

सान दिया है खुद भारत ने, तलवारों पर धार है

मस्ती मिटी पाक की अब तो, सभी तरह बेजार है

हैरत में है ब्रिटिश- अमरीका, लख भारत बेजोड़ है

बच्चा- बच्चा भारत मां का, सच्चा पहरेदार है ४,

४.

कहाँ शत्रु की वः हस्ती है. उसकी कहाँ बाहर है

कहाँ हजार बरस लड़ने की, भुट्टो की ललकार है

पाकिस्तान लिए कर झोली, दर-दर मारा फिरता है

त्राहिमाम अब त्राहिमाम अब, इसकी यही पुकार है

५,

लुटा चुका अय्यूब खान निज . खुशियों का त्यौहार है

गुमसुम सुस्त कराची एकदम, ठप्प सभी कारोबार है

चीन बेशर्म के झांसे में . पाक हुआ वीरान है

वतन -परस्ती यवन भूलते, वे तो सब गद्दार है

स्व. शिशुपाल सिंह यादव 'मुकुंद'

रण-भेरी ....

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काश्मीर घाटी में हलचल . झेलम में तूफान उठा |

गगन भेद बंगाल देश में, प्रलनयनकारी तूफान उठा ||

यवन- उपद्रव घोर भयावह, सीमा पर उनकी फेरी |

बुला रहा समरांगण युवको, बाजी देश में रणभेरी ||

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चंचल लहार उठी सागर में, धरती डगमग डोल उठी |

सन पैसठ शहीद की आत्मा, कानो में यह बोल उठी ||

कर में निज बन्दूक सम्हालो, करो नहीं क्षण -भर देरी |

बुला रहा समरांगण युवको, बाजी देश में रणभेरी ||

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बाँध-बांध हथियार विहंसते, गाते गीत किसान चले |

मातृभूमि की रक्षा खातिर, हिन्दू और पठान चले ||

पाक -चीन -अमरीका से ही, आई विपदा बहुतेरी |

बुला रहा समरांगण युवको, बाजी देश में रणभेरी ||

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गुरूद्वारे की कसम उठाकर, कर ले सिख्ख कृपाण चले |

जाट, गोरखे, गूजर- छत्रिय, साज-साज धनु बाण चले ||

अरि के शीश कटे रण भीतर, लगे हजारों की ढेरी ||

बुला रहा समरांगण युवको, बाजी देश में रणभेरी ||

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भुट्टो तथा याहया के सर, भारी गाज गिराना है |

बने अखण्ड हिन्द यह फिर से, पाकिस्तान मिटाना है ||

शेख मुजीब छुड़ा लो तरुणों, दुनिया रीझ बने चेरी |

बुला रहा समरांगण युवको, बाजी देश में रणभेरी ||

स्व. शिशुपाल सिंह यादव 'मुकुंद'

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दुनिया बे-ईमान की ....

सिसक झोपडी चुप सोती है

मानवता कराहती रोती है

सेठो की है महल अटारी

चले सड़क पर मोटर गाडी

कीमत नहीं अन्नदाता उस -निस्पृह दीन- किसान की

सम्हल -सम्हल कर पग रखना है, दुनिया बे-ईमान की

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स्वार्थी भूले भगत सिंह को

आजादी के चरण -चिन्ह को

कौन चन्द्रशेखर न जानना

निज स्वार्थ को बड़ा मानना

स्मृति में नहीं दिखती है, कथा शुद्ध बलिदान की

सम्हल -सम्हल कर पग रखना है, दुनिया बे-ईमान की

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खाओ -पियो मौज करो बस

निचोड़ लो चालाकी से रस

कल-पुर्जो का कलयुग ठहरा

यन्त्र -भावना निहित गहरा

पूजा होती नहीं ह्रदय से, कभी यहां भगवान की

सम्हल -सम्हल कर पग रखना है, दुनिया बे-ईमान की

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सतत युद्ध की है विभीषिका

शांत न चीन, पाक-अमरिका

विश्व -शांति की धुंधली रेखा

कब मिट जावे शंकित लेखा

नहीं कुशलता भाषित होती, मानव -पावन प्राण की

सम्हल -सम्हल कर पग रखना है, दुनिया बे-ईमान की

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था सुकरात हेतु विष- प्याला

ईसा हेतु क्रास की माला

गांधी की छाती पर गोली

यहाँ सत्य की हरदम होली

कौड़ी की इज्जत न यहाँ है, सच्चे शुचि इंसान की

सम्हल -सम्हल कर पग रखना है, दुनिया बे-ईमान की

स्व. शिशुपाल सिंह यादव 'मुकुंद'

उदय प्रसाद उदय के निधन पर :: शोकांजली

संसृति के संस्कृत नियम उदय, अस्त, युग तथ्य

उदय अस्त जनु एक है, गहन दार्शनिक सत्य

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उदय हुए थे ओ नक्षत्र क्या, आज डूबने ही को

आये ही क्या धराधाम में, मचल रूठने ही को

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तुम साहित्य गगन पर चमके, अस्त हुए कुछ देकर

स्वर्ग-लोक में उदय रहोगे, अमर- कीर्ती को लेकर

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स्व. शिशुपाल सिंह यादव 'मुकुंद'

माटी की इस मूरत पर ...

मैं कौन हूँ ? आया कहाँ हूँ ? करना यहाँ है क्या मुझे

सोचा कभी एकाग्र चित्त से, फिर भरम हुआ कैसे मुझे

कहाँ ज्ञान को फेका तूने, क्यों असत्य पर ध्यान धरे

माटी की इस मूरत पर ..तू क्यों अधिक गुमान करे

पके केश सिर, नख रव टूटे, माया ममता तदपि बढ़ी

बोल रही मुस्काती मृदु-मृदु, ईर्ष्या नागिन शीश चढ़ी

ब्रम्हामृत को त्याग मूढ़ तू, विषय जहर क्या पान करे

माटी की इस मूरत पर ..तू क्यों अधिक गुमान करे

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क्या पहिचान गरीबो से है, अरे स्वार्थ का व्यापारी

तुझे स्वर्ग ही अतिशय प्रिय है, तव सिर पर गठरी भारी

कब-कब है बन पाया जग में, कह तो तू इंसान खरे

माटी की इस मूरत पर ..तू क्यों अधिक गुमान करे

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मैं हूँ मेरा महल बनेगा, खूब जमीदारी होगी

समय बहुत जीने का मेरा, सुन्दर फुलवारी होगी

रह जाएंगे इस दुनिया में, तेरे विविध -विधान धरे

माटी की इस मूरत पर ..तू क्यों अधिक गुमान करे

***

यह प्रासाद धनद का, धन यह, यह मेरा सुत प्यारा है

तेरे हित ज्यों मीन फंसाने, यह बंशी का चारा है

क्या बटोर कर मूर्ख कब तक, इठलायेगा मान मरे

माटी की इस मूरत पर ..तू क्यों अधिक गुमान करे

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चेतावनी

इधर शांति के गीत मुखर हो, उधर शत्रु पर वार दो

इधर मिलाओ हाथ सभी से, उधर कठोर कुठार दो

बाजू इधर सम्हालो अपना, उधर शत्रु की हार है

एक हाथ में शांति भार हो एक हाथ तलवार हो

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परम अहिंसक रो इधर पर, उधर चित्त खूंखार हो

इधर प्यार हो हर प्राणी पर, उधर घोर ललकार हो

गौतम हो गांधी हो तुम सब, कायर नहीं न विद्रोही

एक हाथ में शांति भार हो एक हाथ तलवार हो

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इधर मृदुल कृत्य अगर तुम, उधर कड़ा व्यवहार हो

इधर सुधरती गर कुछ बातें, उधर रो हुशियार हो

बहुत ठगाए अब न ठगाना, दुश्मन दावेदार है

एक हाथ में शांति भार हो एक हाथ तलवार हो

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इधर धर्म निरपेक्ष राज्य तो, बर्तो उधर अंगार हो

इधर ह्रदय में देशप्रेम हो, उधर कडा झनकार हो

तुम्हे विदेशी तौल रहे हैं, हलके कि वजनदार हो

एक हाथ में शांति भार हो, एक हाथ तलवार हो

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मानवता गर इधर मरी तो, तेज उधर हुंकार हो

पंचशील का यज्ञ इधर तो, उधर शस्त्र पर धार हो

कौन पाक-नापाक परखना, हर मौका यही पुकार हो

एक हाथ में शांति भार हो एक हाथ तलवार हो

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स्व. शिशुपाल बलदेव यादव 'मुकुंद'

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कवि के प्रति ...

काव्य कौशल की छटा है, धीरता के शब्द हैं

ओजमय वाणी तुम्हारी, वीणा के छंद हैं

शत्रु को तुमने भगाया, एक ही ललकार में

तुमने जगाया है देश-कवि, एक ही हुँकार में

सीमा सजी काश्मीर की, सैनिक खड़े रण बाँकुरे

सुन-सुन तुम्हारे राग मारू, युद्ध से न कदापि मुरे

आ चरण में पाक लौटा, एक ही फुफकार में

तुमने जगाया है देश-कवि, एक ही हुँकार में

भूषण हमारे देश के, तुम वक्त के बलिदान हो

तुम सैन्य सपना से सेज, तुम देश के आव्हान हो

डगमगाया शत्रु का बल, शस्त्र की झनकार में

तुमने जगाया है देश-कवि, एक ही हुँकार में

है चिंता तुम्हे निज देश की, तुम महा गंभीर हो

इतिहास में ठाव नाम उज्वल, तुम सहज ही वीर हो

खुद को निछावर कर दिया है, मातृ-भू के प्यार में

तुमने जगाया है देश-कवि, एक ही हुँकार में

वाणी तुम्हारी कड़कती है, दामिनी सरीखी रोष में

तुम चमकते तेज होकर, काव्य-गाथा जोश में

धार कर दी सैनिको की, जूझती तलवार में

तुमने जगाया है देश-कवि, एक ही हुँकार में

स्व. शिशुपाल बलदेव यादव 'मुकुंद'

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मजदूर

तन पर केवल हड्डी दिखती, है कहाँ लहू किसने चूसा

तुम बिखरे हो, हो एक नहीं, बल-हींन तभी तेरा घूसा

तुम आज एक जो जाओ तो, धनिको की लाली उड़ जाए

टूटी सी कुटिल भाग्य रेखा, तब आज अचानक जुड़ जाए

इस धरती पर पावन महान, तव कर्म श्रेष्ट नव निर्झर हैं

भगवान कहाँ तुम खोज रहे, भगवान तुम्हारे दो कर हैं

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मजदूर तुम्हारे हाथो से, प्रासाद बने हैं इठलाते

तुमने क्या सुना विभोर हुए, वे प्रशस्ति गीत न गाते

तुम जिसे बना सकते पल में, उसको बिगाड़ सकते भी हो

पर हो सहिष्णु सन्तुलन साथ, हँस-हँस कर तुम रखते भी हो

क्या कहें युगल क्र की महिमा, वे ब्रम्हा विष्णु तथा हर हैं

भगवान कहाँ तुम खोज रहे, भगवान तुम्हारे दो कर हैं

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कर में विधान ऐसे तेरे, क्षण में दृढ हिम-गिरि डोल उठे

तस्वीर सृष्टि की एक-एक, मुस्कान लिए झट बोल उठे

कर कर्मनिष्ठ तेरे महान, मजदूर महान तू योगी है

तू शब्दकोश में अमराक्षर, तू विश्व बीच उपयोगी है

नर तू निश्चय का महारथी, तू कर्मो का नर -नाहर है

भगवान कहाँ तुम खोज रहे, भगवान तुम्हारे दो कर हैं

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इस नारकीय दुनिया में तो, राह सच है टुक इमान नहीं

मजदूर तुम्ही इंसान भले, तुम पत्थर के भगवान नहीं

तुमने ही ताजमहल गढ़कर, दुनिया को चकित कर डाला

निज खून सीच कर तुमने ही, अपने भारत को है पाला

है नियति चक्र निर्देश यही, तेरे कर में सचराचर है

भगवान कहाँ तुम खोज रहे, भगवान तुम्हारे दो कर हैं

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भाखरा बांध का सृजन आज, हाथो से हुआ तुम्हारे ही

दुल्हिन है यह बानी भिलाई, इएसमे है हाथ तुम्हारे ही

मजदूर तुम्हारी शान अजब, दुनिया तुमसे चकराती है

यह प्रकृति तुम्हारे आन-बान, के गीत मनोहर गाती है

यह दुनिया अजब दुरंगी है, वश करो उसे वः बे-डर है

भगवान कहाँ तुम खोज रहे, भगवान तुम्हारे दो कर हैं

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मजदूर तुम बहुत, बहुत बड़े, तुम जग में अपर विधाता हो

तुम स्वयं बने हो जन्मे हो, निज दुखों के तुम त्राता हो

काली -काली शची तेज देह, दिखती है शालिगराम महज

माटी से सना कलेवर है, सुन्दर है हर्षोत्फुल सहज

फावड़ा -कुदाली पास रहे, बस यही तुम्हारे प्रभु घर हैं

भगवान कहाँ तुम खोज रहे, भगवान तुम्हारे दो कर हैं

स्व. शिशुपाल बलदेव यादव 'मुकुंद'

शिव स्तवन

आदि-देव, महादेव . शांति शुद्ध नीलकण्ठ, चन्द्र-भाल, जटा-जूट गंग बलिहारी है

उर में जनेऊ सर्पराज का सुशोभित है, विकत स्वरूप की अखण्ड ज्योति जारी है

निज -जन पर अभिनव नव नेह युत, आशुतोष की कृपा अतुलनीय भारी है

शंकर सहानुभूति सहज मुकुंद आज, डम-डम डमरू का शब्दतोषकारी है

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ब्रम्ह हो अजेय निराकार महाकाल तुम, अलख-अभेद किन्तु घट-घट बासी हो

वन्द्य विश्वनाथ ! कोटि सूर्य की प्रभा से युक्त, विश्व रूप शंकर विमल अविनाशी हो

कली काल बीच निज लीला दिखलाने हेतु, मेरे भगवान तुम गंगा और काशी हो

राम-उर बासी प्रेम पावन प्रकाशवान धन्य है, 'मुकुंद' तुम सहज उदासी हो

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खोल दे त्रिनेत्र कली-काम जल क्षार होवे, दीन-बंधु !दीनानाथ !! दैन्य दुःख वर दे

भीरुता भगा दे देव !वीरता जगा दे उर, भोले नाथ ! प्रचण्ड भावना भव्य भर दे

शंकर भवानी -पति दीन निज- सेवक के, शीश पाए वरद- हस्त नाथ !निज भर दे

विषम कराल-काल कंटक सा भासता है, शूल पाणि!जन के 'मुकुंद' शूल हर दे

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भूतनाथ संग खेल- खेलने को रात दिन, कामना पवित्र मम भूत बन जाऊ मैं

काशीपति विश्वनाथ साथ रह संयम से चारु चरणोंदक को बार-बार पाऊ मैं

भूल के प्रवंचना सकल जग ती तल की, वेद के स्वरूप शिव नित्य उर लाऊं मैं

हर -हर घोष से 'मुकुंद' तोश पाऊ और, शंकर का सेवक सदैव ही कहाऊ मैं

शंकर सहज धन, शंकर सहज मन, शंकर भजन बिन सब सुख बाद है

आज भूत -भवन की पावन कृपा से मिला, बहुत दिनों बाद जीवन का स्वाद है

देख लो तरंग सत संग का समीप ही में, कैसा उठा एकाएक अनहद नाद है

शंम्भू पूण्य प्रेम में सुदीक्षित सरल मन, आज तो मुकुंद यह ब्रम्ह का प्रसाद है

स्व. शिशुपाल बलदेव यादव 'मुकुंद'

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लौह युवक

समृद्धि देश की अति होवे

जन सभी ह्रदय से दुःख खोवे

कोई न बड़ा हो छोटा हो

कार्य न कोई भी खोता हो

स्वार्थी, मदान्ध, अवसरवादी, एरिक दल दलने वाला हूँ

मैं युवक लौह का ढाला हूँ, युग अभी बदलने वाला हूँ

मजदूर कृषक का राज रहे

जनता मन में सुख शांति लहे

हर्षित स्वतन्त्र समीर बहे

भारत ऊंचा पद शीघ्र गहे

नित सत्य तत्व की खातिर मैं, काटों पर चलने वाला हूँ

मैं युवक लौह का ढाला हूँ, युग अभी बदलने वाला हूँ

रोटी खातिर गरीब तरसे

सेठो के घर सोना बरसे

लघु दीन धनिक का पद परसे

उन्मादपूर्ण धनपति हर्षे

मैं सृष्टि बदलकर छोडूंगा, मैं खूब मचलने वाले हूँ

मैं युवक लौह का ढाला हूँ, युग अभी बदलने वाला हूँ

गिर पड़े गाज सर पर मेरे,

क्रोधित हो मौत मुझे हेरे

दे कालचक्र निशिदिन फेरे

यमराज क्रूर नर्क अँधेरे

मैं अमर राष्ट्र का अमनदीप, आफत सम्हलने वाला हूँ

मैं युवक लौह का ढाला हूँ, युग अभी बदलने वाला हूँ

मैं अपना भाग्य विधाता हूँ

मैं पुण्य राष्ट्र निर्माता हूँ

मैं भारतीय कहलाता हूँ

मैं सत पर बलि-बलि जाता हूँ

अन्यायी का जगती तल से, मैं ताज उलटने वाला हूँ

मैं युवक लौह का ढाला हूँ, युग अभी बदलने वाला हूँ

स्व. शिशुपाल बलदेव यादव 'मुकुंद'

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किसान

मैं स्वत: अन्न उपजाता हूँ

पर खुद न पेट भर खाता हूँ

मैं कृष हूँ दुर्बल काला हूँ

पर बहुत बड़ा मन वाला हूँ

सबकुछ सब को देता हूँ, मुझसे ही सबकी आन-बान

अत्यंत उपेक्षित फिर भी मैं, भारत का हूँ निर्धन किसान

है आज किसे मेरी चिंता

मुझको है कौन मनुज गिनता

क्या कोई लखता मम मिहनत

मैं तो सतत श्रम में ही रत

किसने देखा सच्चे दिल से, हैं कितने मेरे विकल प्राण

अत्यंत उपेक्षित फिर भी मैं, भारत का हूँ निर्धन किसान

पैसो से मेरा घर सूना

क्या उपजाऊ कृषि में दूना

अब कौन नीति मैं अपनाओ

किस्से जाकर मैं गुहराऊ

ठग रहे नुझे मेरे भाई, मैं हूँ अबोध बिलकुल अनजान

अत्यंत उपेक्षित फिर भी मैं, भारत का हूँ निर्धन किसान

देहाती हूँ अनपढ़ गंवार

किन्तु न समझो मुझको भार

मैं खुद ही दुःख उठाता हूँ

मै सबका जीवन दाता हूँ

मेरी अवनति से सोचो तो, जावेगी आज किसकी शान

अत्यंत उपेक्षित फिर भी मैं, भारत का हूँ निर्धन किसान

है लगा ताज में मेरा धन

धन लगाया है भाखरा में

भिलाई से इस्पात ढालने

मोती ढूढे थे जर्रा में

तभी पसीने कीमत आंकी, तभी निकली कुछ बोल जुबान

अत्यंत उपेक्षित फिर भी मैं, भारत का हूँ निर्धन किसान

स्व. शिशुपाल बलदेव यादव 'मुकुंद'

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कृष्ण का व्यामोह

वृन्दावन की कुञ्ज गली में, मुरली मधुर बजाई थी

विमल गोपियों के संग मैंने, लीला रास रचाई थी

द्वापर में क्रीड़ा करने को, अब भी जी ललचाता है

अरे जरा ! मंगल हो तेरा, कृष्ण धारा से जाता है

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दुर्योधन के घोर दुराग्रह से, जन-धन की हानि हुई

गत जीवन के अवलोकन से, मन में भारी ग्लानि हुई

मुझे महाभारत का दारूण, शाप दौड़ कर खाता है

अरे जरा ! मंगल हो तेरा, कृष्ण धारा से जाता है

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रण में शास्त्र न धरने मम प्रण गांगेय ने तोड़ दिया

लज्जा से पानी पानी हो, सकुच सहित मुख मोड़ लिया

गांधारी का समाधान क्या, मेरा मन कर पाता है

अरे जरा ! मंगल हो तेरा, कृष्ण धारा से जाता है

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ब्रम्ह स्वयं लघु जीव बना मैं, यही प्रबल मेरी माया

तेजहीन हो गया आज मैं, कुंठित है मेरी काया

पार्थ -सखा कहलाने में अब, मेरा मन कतराता है

अरे जरा ! मंगल हो तेरा, कृष्ण धारा से जाता है

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बाण पैर से दे निकाल तू, ब्याध! व्यर्थ क्यों रोता है

जो होना है सब अच्छे के, लिए जगत में होता है

मन्द-मन्द मुस्कान लिए यह, कलियुग सम्मुख आता है

अरे जरा ! मंगल हो तेरा, कृष्ण धारा से जाता है

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स्व. शिशुपाल बलदेव यादव 'मुकुंद'

३.४.७२

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कवि तू चल उस ओर

नर पिशाच बढ़ते जाते हैं

सोम भाग वे ही पाते हैं

वे स्वच्छन्द गीत गाते हैं

भाग्य बड़ा लख इतराते हैं

छंद सृजन कर पाप नाश हित, कवि गतिब हृदय धड़कन है

कवि तू चल उस ओर जिधर, अतिशय पीड़ा उर तड़फन है

बंधू भाव के सब सुख सपने

देख रहे हैं सब अपने -अपने

लगे स्वार्थ से पैसा जपने

सकल ऐब निज प्रतिपल ढपने

गीत न दुबे चाटकर में, अनाचार-मय कण-कण है

कवि तू चल उस ओर जिधर, अतिशय पीड़ा उर तड़फन है

#

सीमा पार गई मंहगाई

विकट राक्षसी घर में आई

कर में एक नहीं है पाई

देती युक्ति न एक दिखाई

मुक्तक तेरा दूर करे दुःख, जग में जो दुःख जन-जन है

कवि तू चल उस ओर जिधर, अतिशय पीड़ा उर तड़फन है

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बड़े-बड़ों के घर भरते हैं

दीं कृषक भूखो मरते हैं

सेठ सकल सोना धरते हैं

तस्कर बने अहं करते हैं

तव दोहा चौपाई हर ले, जन में जो कुछ अन-मन है

कवि तू चल उस ओर जिधर, अतिशय पीड़ा उर तड़फन है

#

सुख पाते हैं सभी मिनिस्टर

बंगलाजिनका लक्ष्मी का घर

फूटा रंक भाग्य अति जर्जर

फूस झोपडी भी है बदतर

गायक हर ले मीत-भीति सब, सरकारी गठबंधन है

कवि तू चल उस ओर जिधर, अतिशय पीड़ा उर तड़फन है

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स्व. शिशुपाल बलदेव यादव 'मुकुंद'

१६.४.७२

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तलवारो पर धार करो ...

शांति नहीं कोलाहल है, घर -घर जन-जन वाणी में

त्यागो झूठी परंपरा को, आग लगा दो पानी में

गौतम -गांधी की सन्तानो, शस्त्रों पर अधिकार करो

समय पुकारता है युवको, तलवारों पर धार करो

***

शौर्य तुझे लख रूप तुम्हारा, अरि की छाती दहल उठे

ललकारो- हुँकारो वीरो ! शत्रु सैन्य दल विचल उठे

रग-रग में अपने अटूट दृढ, साहस का संचार करो

समय पुकारता है युवको, तलवारों पर धार करो

***

भारत के प्रहरी अब चेतो, मर्यादा की शान रखो

तुम प्रताप, तुम वीर शिवाजी, निज पानी का ज्ञान रखो

मातृभूमि रक्षा खातिर, मर -मिटना स्वीकार करो

समय पुकारता है युवको, तलवारों पर धार करो

***

समझा था दुर्जेय हिमालय, अब उस पर विश्वास नहीं

बीमार लगे, है सिंधु न सक्षम, उनसे भी कुछ आस नहीं

पाक-चीन दुश्मन सा जानो, अरि सा ही व्यवहार करो

समय पुकारता है युवको, तलवारों पर धार करो

***

युग बदला, जीवन को बदलो, किन्तु तनिक ये ध्यान रहे

अपनी प्रखर तेज प्रतिभा में, भारत -भाल सम्मान रहे

कोटि-कोटि अभिमन्यु हिन्द के, रण में ललक प्रहार करो

समय पुकारता है युवको, तलवारों पर धार करो

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स्व. शिशुपाल बलदेव यादव 'मुकुंद'

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