सर हिमालय का हमने झुकने न दिया (यादगार युद्धकथाएं) MB (Official) द्वारा रोमांचक कहानियाँ में हिंदी पीडीएफ

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सर हिमालय का हमने झुकने न दिया (यादगार युद्धकथाएं)

सर हिमालय का हमने ना झुकने दिया (यादगार युद्धकथाएं)

सर हिमालय का हमने ना झुकने दिया1

भारत माँ का वीर सपूत : आदित्य विक्रम पेठिया8

भूली-बिसरी वीरांगनाएँ13

राजा दाहिर सेन25

वीरों की गाथा30

शूरवीर पृथ्वीराज चौहान35

हल्दी घाटी की लड़ाई40

सर हिमालय का हमने ना झुकने दिया

आशीष कुमार त्रिवेदी

देश को आज़ाद हुए अभी केवल पंद्रह वर्ष ही हुए थे। यह आज़ादी अपने साथ देश के विभाजन की त्रासदी भी लेकर आई थी। विभाजन के कारण उत्पन्न हुई विकट परिस्थितियों को काबू करने तथा विभिन्न रियासतों में बंटे भारत को एक राष्ट्र के रूप में संगठित करने के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ी। कश्मीर पर कब्ज़े के लिए किए गए पाकिस्तानी हमले का भी डट कर सामना किया।

एक लंबे संघर्ष के बाद मिली स्वतंत्रता के प्रारंभिक दिन उथल पुथल से भरपूर रहे। हमारी आँखों में एक ऐसे देश के निर्माण का सपना था जहाँ सभी को समानता का अधिकार मिले, सबके लिए शिक्षा के समान अवसर हों। राष्ट्र में मूलभूत सुविधाओं का विकास हो। 26 जनवरी 1950 को हमें एक गणतंत्र के रूप में पहचान मिली। हमने अपने सपने की तरफ कदम बढ़ाना शुरू कर दिया।

अपने सपने को पूरा करने के लिए सबसे बड़ी आवश्यक्ता थी कि देश कई मामलों में जल्द से जल्द आत्मनिर्भर बने। उद्योग जगत में आत्मनिर्भर बनने के लिए ज़रूरी था कि कल कारखाने लगाए जाएं। सड़कों तथा पुलों का निर्माण हो। कृषि जो हमारे देश का प्रमुख पेशा रहा है उसके विकास के लिए जल संसाधनों के समुचित प्रयोग हेतु डैम बनाने, खेती की नई तकनीकि का विकास करने आदि मुद्दों पर ध्यान दिया जाना आवश्यक था।

हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू भारत को एक आधुनिक राष्ट्र बनाना चाहते थे। यही कारण था कि उन्होंने विज्ञान तथा तकनीकि के महत्व को समझते हुए इस दिशा में भी भारत को आगे ले जाने के पूरे प्रयास किए।

नेहरू जी विश्व पटल पर भारत की छवि एक शांतिप्रय देश के रूप में स्थापित करना चाहते थे। एक ऐसा राष्ट्र जो अपनी सांस्कृतिक विरासत 'वसुधैव कुटुंबकम' पर यकीन करते हुए सभी को अपना मित्र समझता हो। अपनी कोशिशों से नेहरू जी इसमें कामयाब भी रहे थे।

भारत की आज़ादी के ठीक दो वर्ष बाद पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के नाम से एक साम्यवादी राष्ट्र अस्तित्व में आया। किंतु भारत से उलट चीन की नीति विस्तारवाद की थी। वह अपनी सीमा को बढ़ाना चाहता था। अतः 1950 में चीन ने अपने तथा भारत के बीच स्थित तिब्बत पर हमला कर उस पर अपना अधिकार कर लिया। तिब्बत की भौगोलिक स्थिति ऐसी थी कि चीन के उस पर अधिकार के बाद भारत की सुरक्षा भी खतरे में पड़ गई।

तत्तकालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने इस संबंध में नेहरू जी को इस विषय में एक चिठ्ठी लिख कर चीन के गलत मंसूबों के विषय में चेतावनी दी थी। उन्होंने लिखा था कि चीन आसाम के कुछ क्षेत्रों पर नज़र गड़ाए है। वह हमारे साथ धोखा कर सकता है। किंतु नेहरू जी का मानना था कि जब तक चीन सीमा के संबंध में कोई बातचीत नहीं करता हमें भी शांत रहना चाहिए।

अरुणांचल प्रवेश की सीमा जो चीन से सटी है 'मैकमोहन लाइन' के नाम से जानी जाती है। इसका निर्धारण 1914 में ब्रिटिश सरकार, तिब्बत और चीन ने मिलकर किया था। भारत के स्वतंत्रत होने के बाद से इस सीमा को लेकर चीन ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी। इस संबंध में चीन का रुख जानने के लिए 1952 में भारत और चीन के बीच इस मामले को लेकर मीटिंग हुई। चीन की तरफ से कुछ ना कहे जाने पर भारत ने यह मान लिया कि इस लाइन को लेकर चीन की कोई आपत्ति नहीं है।

मानव कल्याण तथा विश्वशांति के आदर्शों को स्थापित करने के लिए राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक रूप से भिन्न देशों के बीच पारस्परिक सहयोग वाले पाँच आधारभूत सिद्धांतों पर सहमति हुई। इन सिद्धांतों को पंचशील सिद्धांत कहा जाता है। इस संधि पर 29 अप्रैल 1954 को हस्ताक्षर किए गए।

यह पाँच सिद्धांत निम्न हैं।

(1) सभी देशों द्वारा अन्य देशों की क्षेत्रीय अखंडता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना

(2) दूसरे देश के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना

(3) दूसरे देश पर आक्रमण न करना।

(4) परस्पर सहयोग एवं लाभ को बढावा देना।

(5) शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की नीति का पालन करना।

इस संधि पर हस्ताक्षर के बाद भारत और चीन के बीच तनाव काफी कम हो गया। पूरे विश्व में इस समझौते की तारीफ की गई। भारत में 'हिंदी चीनी भाई भाई' के नारे लगने लगे। परंतु पंचशील समझौते के तहत भारत ने तिब्बत को चीन का एक क्षेत्र स्वीकार कर लिया। इस तरह उसने 1914 की Anglo-Tibetan Treaty के तहत उसे तिब्बत के संबंध में मिले अधिकार छोड़ दिए।

1962 में तिब्बत में चीन के खिलाफ असंतोष उत्पन्न हो गया। चीन ने शिंज़ियांग प्रांत से तिब्बत तक एक सड़क का निर्माण किया जो अक्सई चीन से होकर गुजरती थी। अक्सई चीन भारत के अधिकार में था। भारत ने वहाँ अपनी चौकियां बनानी शुरू कर दीं। यही भारत और चीन के बीच विवाद का कारण बना।

तिब्बत के सबसे बड़े धर्म गुरु दलाई लामा भी तिब्बत में चीन की नीतियों से परेशान थे। अपनी जान पर खतरा देख कर वह भारत में आ गए। भारत का उन्हें शरण देना भी चीन को अच्छा नहीं लगा। यह भी विवाद का कारण बना।

पंचशील समझौता केवल आठ वर्षों के लिए हुआ था। इस अवधि के पूरा होते ही 20 अक्टूबर 1962 को चीन ने लद्दाख और मैकमोहन लाइन के पार हमला कर दिया। भारत इस हमले के लिए तैयार नहीं था। विश्वबंधुत्व व शांति की कामना करने वाले भारत के पास सही हथियार भी नहीं थे। यह युद्ध बहुत ही कठिन हालात में लड़ा गया। अधिकांश युद्ध 4250 मीटर (14,000 फीट) से अधिक ऊंचाई पर लड़ा गया। इस प्रकार की परिस्थिति में दोनों पक्षों के सामने रसद और अन्य लोजिस्टिक की समस्याएँ उत्पन्म हुईं। इस युद्ध में चीनी और भारतीय दोनों पक्ष द्वारा नौसेना या वायु सेना का उपयोग नहीं किया गया था।

भारत को इस बात का यकीन था कि पंचशील ट्रीटी पर हस्ताक्षर होने के कारण चीन कभी सीमा पार करने की चेष्ठा नहीं करेगा। नेहरू जी का मानना था कि हम विश्वबंधुत्व के आदर्श को लेकर चल रहे हैं। हमें अन्य देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाने में अधिक ध्यान देना चाहिए। इसलिए सैन्य शक्ति को सुदृढ़ बनाने के लिए अधिक ध्यान नहीं दिया गया। अतः सही तैयारी ना होने के कारण भारत इस युद्ध में बुरी तरह हार गया। 29 नवंबर 1962 को युद्ध विराम की घोषणा हुई।

भारत और चीन के बीच हुए इस युद्ध में भले ही हमें हार मिली हो किंतु इस युद्ध का एक अध्याय ऐसा है जिसे पढ़ कर हम गर्व से फूल उठते हैं। जो भारतीय सैनिकों के शौर्य और पराक्रम की अनूठी दास्तान है।

यह अध्याय है रेज़ांग ला दर्रे में मुठ्ठी भर भारतीय सैनिकों एवं चीनी फौज के बीच हुए युद्ध का इतिहास।

यह कहानी है 13 कुमाऊं रेजिमेंट करीब 120 वीर बहादुर सिपाहियों की जिन्होंने विकट परिस्थितियों में भी जान की बाज़ी लगा कर देश के सम्मान की रक्षा की। जो देश पर बलिदान हो गए किंतु विशाल चीनी फौज के सामने घुटने नहीं टेके।

रेज़ांग ला (Rezang La) भारत के जम्मू और कश्मीर राज्य के लद्दाख़ क्षेत्र में स्थित एक दर्रा है। जिसके ज़रिए चुशूल घाटी में प्रवेश किया जाता है। यह 2.7 किमी लम्बा और 1.8 किमी चौड़ा है और इसकी औसत ऊँचाई 16000 फ़ुट है।

चुशुल सेक्टर सीमा से सिर्फ पंद्रह मील दूर था। यहाँ 13 कुमाऊं रेजिमेंट की चार्ली यूनिट तैनात थी। इसकी कमान ब्रिगेडियर टी.एन रैना के हाथ में थी। वह अंबाला से जम्मू कश्मीर पहुँचे। वादी बर्फ से ढकी हुई थी। चुशुल घाटी में सर्द हवाओं का कहर था। ठंड इतनी थी कि धमनियों का रक्त भी जम जाए। परिस्थितियां अनुकूल नहीं थीं। भारतीय सेना को इससे पूर्व कभी भी इतनी विकट परिस्थितियों में युद्ध करने का अनुभव नहीं हुआ था।

दूसरी तरफ चीनी सेना इन हालातों में युद्ध कर सकने के लिए प्रशिक्षित थी। वातावरण की चुनौती के अलावा भारतीय सैनिकों की एक और समस्या थी। युद्ध के लिए सही हथियारों की कमी। चीनी सेना के पास आधुनिक शस्त्र व गोला बारूद थे। वहीं भारतीय सैनिकों को द्वितीय विश्वयुद्ध के समय की राइफलों से काम चलाना था। इन सबके बावजूद भारतीय सैनिकों के हौंसले में कोई कमी नहीं थी।

13 कुमाऊं रेजिमेंट की चार्ली यूनिट के मेजर शैतान सिंह भाटी को पूरा यकीन था कि हालात चाहें जैसे हों हम ज़रूरत पड़ने पर दुश्मनों के दांत खट्टे कर देंगे। यही जोश वह अपने सैनिकों में भी भर रहे थे। वह एक वीर योद्धा थे। मेजर शैतान सिंह का जन्म जोधपुर राजस्थान में 1 दिसंबर 1924 को हुआ था। पिता हेमसिंह भी सेना में लेफ्टिनेंट कर्नल रह चुके थे। देश की सेवा तथा उसके सम्मान की रक्षा करने का भाव उन्हें विरासत में मिला था। अतः ना तो वह स्वयं ही परिस्थितियों से घबराए ना ही अपने सैनिकों के हौंसले टूटने दिए। मरते दम तक वह उन्हें युद्ध के लिए प्रेरित करते रहे।

चुशुल घाटी बर्फ की मोटी चादर ओढ़े सोई हुई थी। 18 नवंबर की उस सर्द सुबह में करीब 3.30 बजे घाटी चीनी फौज के द्वारा किए गए हमले से थर्रा उठी। पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी के करीब 5000 से 6000 जवानों ने चुशुल घाटी में धावा बोल दिया था। सभी सिपाही ऑटोमैटिक हथियारों से लैस थे।

चीनी सैनिकों की तादाद बहुत अधिक थी। जबकी चुशुल घाटी में तैनात भारतीय सैनिकों की संख्या कम थी। जिस चोटी पर कुमाऊं रेजिमेंट के जवान तैनात थे वहाँ किसी भी तरह की त्वरित सहायता पहुँचाना संभव नहीं था। हनारे सैनिकों के पास दो ही रास्ते थे। या तो हार मानकर घुटने टेक दें या वीरता दिखाते हुए लड़ें। हमारे सैनिकों ने लड़ना स्वीकार किया।

चीनी फौज ने मोर्टार तथा रॉकेट से भारतीय बंकरों पर गोलियां बरसानी शुरू कर दीं। हमारी फौज के कई बंकर ध्वस्त हो गए। मोर्टार के हमले से आगे की पंक्ति पूरी तरह से तबाह हो गई। अब चीनी फौज का ध्यान पलटन के मध्य पर केंद्रित था। मेजर शैतान सिंह जानते थे कि उनकी सेना पूरी तरह से घिर चुकी थी। लेकिन घबराए बिना उन्होंने अपनी टुकड़ी को संगठित किया। सैनिकों को उनके ठिकाने पर तैनात कर वह उनमें जोश भरने लगे।

भारतीय सैनिक बहादुरी के साथ अपने पार मौजूद हथियारों से चीनी फौज से टक्कर लेने लगे। उन्होंने कई चीनी सैनिकों को मार गिराया। मेजर शैतान सिंह भी पूरी हिम्मत के साथ दुश्मनों से भिड़ रहे थे। हालात विपरीत होने पर भी सैनिकों के उत्साह में कोई कमी नहीं थी।

हर भारतीय सैनिक के दिल में अपनी मातृभूमि के लिए प्यार का सागर हिलोरे मार रहा था। अपने घर अपने परिजनों से दूर वह सभी केवल एक ही मकसद के लिए अपनी जान की बाज़ी लगा रहे थे। वह मकसद था अपने वतन का मस्तक ऊँचा रखना। तिरंगे की आन को बनाए रखना।

हमारे जवानों ने अपनी बहादुरी से बड़ी तादाद में चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। लेकिन चीनी सेना लगातार अपने सैनिकों की मदद के लिए रि-इनफोर्समेंट भेज रही थी। जबकी हमारी फौज को किसी भी तरह की सहायता नहीं मिल पा रही थी। भारतीय सैनिकों का मनोबल बना रहे इसके लिए मेजर शैतान सिंह खुद कंपनी की पांचों प्लाटून पर पहुंचकर अपने जवानों की हौसला-अफजाई कर रहे थे। वह अपनी सूझबूझ और उत्साह से बड़ी चतुरता से युद्ध का संचालन कर रहे थे।

दोनों तरफ से गोलियां चल रही थीं। एक गोली आकर मेजर शैतान सिंह की बांह में लगी। अपने दर्द की परवाह किए बिना मेजर शैतान सिंह ने लड़ना जारी रखा। एक और गोली आकर उनके पैरों पर लगी। जिसने उन्हे धराशाई कर दिया। सैनिकों की संख्या कम थी। फिर भी उन्होंने मेजर शैतान सिंह को उठा कर सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने का प्रयास किया। लेकिन ऐसा करने से सैनिकों को खतरा हो सकता था। अतः मेजर शैतान सिंह ने उन्हें आदेश दिया कि वह उन्हें वहीं छोड़ कर अपनी लड़ाई जारी रखें।

मेजर शैतान सिंह के घायल हो जाने से भारतीय सैनिकों में उत्तेजना फैल गई। वह अपने मेजर की इस हालत का बदला लेना चाहते थे। वह और भी अधिक उग्र रूप से चीनी सैनिकों पर टूट पड़े। सैनिकों के शरीर लहूलुहान थे। लेकिन उन्हें अपना दर्द भी महसूस नहीं हो रहा था। अपनी बंदूकों से वह चीनी सैनिकों को मार रहे थे। सबके सर पर एक जुनून सा सवार था। हर एक भारतीय सैनिक अधिक से अधिक चीनी सैनिकों को मार गिराना चाहता था।

उनके इस जुनून की मिसाल थे नाइक राम सिंह। राम सिंह एक पहलवान भी थे। जब बंदूक की गोलियां खत्म हो गईं तो उन्होंने अपने हाथों से ही चीनी सैनिकों को मारना शुरू कर दिया।

रेज़ांग ला की लड़ाई खत्म होने पर सभी भारतीय सैनिक मारे गए। 6 भारतीय सैनिकों को चीनी फौज ने घायल अवस्था में बंदी बना लिया। बाद में यह सैनिक भी चीनी फौज की कैद से भाग निकले।

इन्हीं में से एक कैप्टन रामचंद्र यादव हैं। उनका मानना है कि ईश्वर ने उन्हें इसलिए जीवित रखा ताकि वह अपने साथियों की वीरता और अदम्य साहस के बारे में लोगों को बता सकें।

13 कुमाऊं रेजिमेंट के अधिकांश जवान यादव थे जो कि हरियाणा, गुड़गांव, रेवाड़ी, नारनौल और महेंद्रगढ़ जिलों से ताल्लुक रखते थे। इसलिए 13 कुमाऊं रेजीमेंट का एक नाम वीर-अहीर भी है। इन वीर योद्धाओं ने विषम परिस्थितियों में उन चीनी सैनिकों से लोहा लिया जो ना सिर्फ संख्या में उनसे अधिक थे बल्कि आधुनिक हथियारों से लैस भी थे। अपनी वीरता से उन्होंने अपनी संख्या से लगभग दस गुनी संख्या में चीनी सैनिकों को मार गिराया। देश उन सभी वीर सैनिकों का ऋणी है जिन्होंने हमारी रक्षा के लिए अपने प्राण गंवाए।

युद्ध समाप्त होने के तीन महीने बाद मेजर शैतान सिंह का शव रेज़ांग ला दर्रे से लाया गया। उनको उनकी वीरता के लिए सेना के सर्वोच्च सम्मान परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया। अपनी सेना का नायक होने के नाते उन्होंने अपने दायित्व को बखूबी निभाया। यदि चीनी फौज की संख्या बल देख कर वह घबरा कर पीछे हटे होते तो स्थिति और भी भयावह हो जाती। मृत्यु तो तब भी निश्चित ही थी। सैनिकों का मनोबल टूट जाता। वह बिना लड़े मारे जाते। किंतु ना सिर्फ उन्होंने स्वयं धैर्य रखा बल्कि अपने जवानों का हौसला भी बनाए रखा। घायल हो जाने के बावजूद भी वह सेना का मार्गदर्शन करते रहे।

इसके अलावा पाँच जवानों को वीर चक्र और चार को सेना के पदक से सम्मानित किया गया।

लद्दाख के रेज़ांग-ला में भारतीय सैनिकों और चीनी सैनिकों के मध्य लड़ा गया युद्ध विश्व भर की सेनाओं के लिए एक मिसाल है। यह युद्ध हमें सिखाता है कि भारतीय सैनिक विषम परिस्थितियों में भी बहादुरी से लड़ना जानते हैं। यह वीर जवान ना सिर्फ अपनी जान तक देश की सीमाओं की रक्षा के लिए न्यौछावर करते हैं बल्कि दुश्मन के दांत भी खट्टे करना बखूबी जानते हैं।

रेज़ांग ला की लड़ाई में शहीद हुए सैनिकों को हर भारतीय का सलाम।

जय हिन्द..…

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भारत माँ का वीर सपूत : आदित्य विक्रम पेठिया

कविता त्यागी

इतिहास के पन्नों पर अंकित 5 दिसंबर 1971 की वह अविस्मरणीय सुबह फ्लाइट-लेफ्टिनेंट आदित्य विक्रम पेठिया के जीवन में बहुत कुछ विशेष लेकर आयी थी - एक ओर शत्रु राष्ट्र की धरती पर अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए शौर्य प्रदर्शन और हृदय में संचित वीरता के भाव को साकार करने का अवसर था, तो दूसरी ओर शत्रु देश के सैनिकों के हाथों में पड़कर अकल्पनीय-अकथनीय शारीरिक-मानसिक यातनाएँ । अपनी शारीरिक-बौद्धिक क्षमताओं का उपयोग करते हुए देश के लिए कुछ कर गुजरने का वह क्षण आज भी सभी देशवासियों के साथ स्वयं आदित्य विक्रम पेठिया को भी आह्लादित और गौरवान्वित कर देता है, साथ ही 1971 में पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा दी गयी यातनाओं का स्मरण करके आज भी स्वयं उनके तथा सुनने वालों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं

नवंबर 1971 में जब पाकिस्तान के रुढ़िवादी तथा अपरिवर्तनवादी राजनीतिज्ञों द्वारा उकसाए हुए लोग लाहौर तथा पाकिस्तान के अन्य शहरों में क्रश इंडिया (भारत को कुचल दो ) का नारा देते हुए मार्च निकाल रहे थे, भारत ने उसी समय पाकिस्तान पर अपनी विजय सुनिश्चित करने के लिए रणनीति तैयार कर ली थी, किंतु पाकिस्तान को इसकी भनक तक नहीं लगने दी थी । तेईस नवम्बर को जब पाकिस्तानी राष्ट्रपति याह्या खान ने पूरे पाकिस्तान में आपातकाल की घोषणा कर दी और अपने लोगों को युद्ध के लिए तैयार रहने का आह्वान कर दिया, तब पाकिस्तान की आक्रामक गतिविधि की प्रतिक्रियास्वरुप भारत ने पाकिस्तान की ओर से आक्रमण होने की शांतिपूर्वक प्रतीक्षा करते हुए अपनी पश्चिमी सीमाओं पर वृहत स्तर पर सशस्त्र सैन्य शक्ति एकत्र करनी आरम्भ कर दी थी । युद्ध का आरंभ 3 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान द्वारा भारतीय वायु सेना के ग्यारह स्टेशनों पर रिक्ति पूर्व हवाई आक्रमण से हुआ ।

भारत-पाकिस्तान के बीच हो रहे सैन्य संघर्ष के परिणामस्वरुप विजयश्री का वरण करने हेतु भारत के कोने-कोने से बुलाए गए सेना के अधिकारियों में से एक थे, फ्लाइट-लेफ्टिनेंट आदित्य विक्रम पेठिया, जिन्हें 5 दिसंबर 1971 को पश्चिमी सैक्टर की सुरक्षा का दायित्व-भार सौंपा गया था । विश्वसनीय सूत्रों से प्राप्त सूचना के आधार पर फ्लाइट-लेफ्टिनेंट आदित्य विक्रम पेठिया को पाकिस्तान के क्रिस्टियन मंडी के इर्द-गिर्द टोह लेने तथा दुश्मन के आर्मर वेहीकल्स को नष्ट करने के लिए लीडर के रूप में नियुक्त किया गया था ।

पाँच दिसंबर की सुबह-सुबह उस समय तक उषा का प्रकाश फैलना आरंभ भी नहीं हुआ था, जिस समय फ्लाइट-लेफ्टिनेंट आदित्य विक्रम पेठिया के फाइटर बॉम्बर स्क्वॉड्रन, मिस्टीयर IVa ( जिसे मोबाइल आर्मरी के नाम से भी जाना जाता है ) ने उड़ान भरी थी । वातावरण में चारों और अंधकार फैला था । कहीं कुछ दिखाई नहीं पड़ रहा था । किंतु, उनके हृदय में स्थित अपनी मातृभूमि के प्रति श्रद्धा और राष्ट्र-रक्षा का उत्साह उनको कर्तव्य-पथ पर निरंतर लक्ष्य की ओर आगे बढ़ा रहा था । अंधकारपूर्ण वातावरण में भी विजयश्री की आशा और विश्वास का प्रकाश उनके मार्ग को आलोकित कर रहा था ।

जिस समय आदित्य विक्रम पेठिया का विमान क्रिस्टियन मंडी पहुँचा, उस समय रेल की पटरियाँ धुँधली-सी दिखाई देने लगी थी । अपने कर्तव्य के अनुरूप आदित्य विक्रम पेठिया की सैनिक-दृष्टि टोह ले ही रही थी कि तभी उन्होंने देखा, एक ट्रेन पन्द्रह टैंक लेकर भावलनगर की ओर जा रही है । हथियारों से लदी हुई ट्रेन देखते ही आदित्य विक्रम पेठिया के सैनिक हृदय में संचित राष्ट्र रक्षा का उत्साह मूर्त रूपाकार ग्रहण करने लगा । संभवतः अब तक शत्रु सेना को भी आदित्य विक्रम पेठिया के फाइटर बॉम्बर स्क्वॉड्रन, मिस्टीयर IVa के विषय में जानकारी मिल चुकी थी, इसलिए शत्रु सेना ने भारतीय लडाकू विमान, मिस्टीयर पर एंटी एयरक्राफ्ट गन द्वारा जमीन से प्रहार आरम्भ कर दिये थे ।

सामान्य व्यक्ति के रोंगटे खड़े कर देने वाली परिस्थिति उत्पन्न हो चुकी थी । एक ओर स्वयं के ऊपर शत्रु सेना द्वारा हो रहे जमीनी हैवी फायर थे और आँखों के समक्ष शत्रु सेना की हथियारों से लदी हुई ट्रेन थी, तो दूसरी ओर अपने राष्ट्र की रक्षा या आत्मरक्षा का महत्तम गम्भीर प्रश्न था । भारत माँ के वीर सपूत आदित्य विक्रम पेठिया ने जब अपने मातृभूमि के प्रति शत्रु देश की हैवानियत को देखा, तो उनके चित्त में आत्मरक्षा का विषय गौण होकर देश-भक्ति और देश-रक्षा का भाव हिलोरे लेने लगा। परिणामस्वरुप एंटी एयरक्राफ्ट गन से जमीनी हैवी फायर होने के बावजूद उन्होंने अपने प्राणों की चिंता न करते हुए हथियारों से लदी हुई शत्रु की दो रेलगाड़ियाँ ध्वस्त कर दी ।

भारी मात्रा में गोला-बारूद और हथियारों की मारक क्षमता से युक्त फाइटर-बॉम्बर स्क्वॉड्रन, मिस्टीयर (MK41), से आदित्य विक्रम पेठिया जी अपना कर्तव्य निर्वाह करते हुए, शत्रु राष्ट्र की आर्मर वेहिकल्स के रूप में दो रेल रेलगाड़ियों को ध्वस्त कर चुके थे, किंतु एंटी एयरक्राफ्ट से अब भी निरन्तर भारी घातक प्रहार हो रहे थे । आदित्य विक्रम पेठिया ने अपनी वीरता का परिचय देते हुए उनके प्रहार के प्रत्युत्तरस्वरूप उन पर आक्रमण किया, किंतु दुर्योग से उसी समय इनके लड़ाकू विमान मिस्टीयर IVa में एक धमाका हुआ । आदित्य विक्रम पेठिया ने अनुभव किया कि शत्रु के प्रहार से विमान क्षतिग्रस्त हो गया है । देखते ही देखते पूरा विमान धुएँ से भर गया । इधर-उधर कुछ भी दिखाई देना असंभव हो गया । विमान की दशा को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता था कि कुछ ही क्षणों में विमान भस्म हो सकता है ।

इस विषम परिस्थिति में फ्लाइट-लेफ्टिनेंट आदित्य विक्रम पेठिया के समक्ष दो ही विकल्प थे - एक, शत्रु सेना के हाथों में पड़कर नारकीय यातनाएँ भोगने के बजाय विमान के साथ ही स्वयं भी जलकर भस्म हो जाएँ । दूसरा विकल्प था - पैराशूट इजेक्ट करके विमान से बाहर कूदकर शत्रु सेना के साथ तथा आने वाले विषम परिस्थितियों के साथ संघर्ष करें । आदित्य विक्रम पेठिया की दृष्टि में पहला विकल्प वीरों के लिए शोभायमान नहीं हो सकता था । विषम परिस्थितियों और कठिनाइयों से संघर्ष किए बिना प्राणोत्सर्ग करना कायरता है ; जीवन से पलायन है । अतः उन्होंने दूसरा विकल्प चुना और पैराशूट इजेक्ट कर विमान से छलाँग लगा दी । आदित्य विक्रम पेठिया भली-भाँति जानते थे कि शत्रु देश की भूमि पर उतरने के पश्चात् उनका स्वागत जानलेवा पीड़ादायक प्रहारों-प्रताड़नाओं से होगा, किन्तु भारत माँ के इस वीर सपूत के हृदय में भय के लिए कब अवकाश था!

जिस समय आदित्य विक्रम पेठिया पाकिस्तान की भूमि पर उतरे, शत्रु देश के असंख्य सैनिक शिकारी कुत्तों की भाँति उन पर टूट पड़े । उनकी मार से आदित्य विक्रम पेठिया का अंग प्रत्यंग छलनी हो गया । हड्डियाँ टूटकर टुकड़े-टुकड़े हो गयी । यहाँ तक कि आदित्य विक्रम पेठिया की पसलियाँ भी टूटकर चूर-चूर हो गयी । किंतु, जिस पाकिस्तान के बंजर हृदय में भूलवश सीमा पार करने वाले मछुआरों के प्रति संवेदना की शीतल छाँव कभी नहीं उत्पन्न हुई, अपने राष्ट्र के प्रति निष्ठावान उस शूरवीर के प्रति शत्रु देश के सैनिकों के हृदय में सहानुभूति की आशा कैसे की जा सकती थी, जो शत्रु के घर में घुसकर प्रहार करने का साहस रखता हो ।

राष्ट्र के प्रति अटल निष्ठा के स्वामी आदित्य विक्रम पेठिया को शारीरिक-मानसिक प्रताड़ना देते हुए बंदी बनाकर रावलपिंडी के बंदीगृह में पहुँचा दिया गया । बंदीगृह में भी इन्हें अनेक प्रकार की असह्यय यातनाएँ दी गयी । उन्हें जो भी मिलता - हॉकी स्टिक, रायफल की बट, जूते की नोक, आदि से आदित्य विक्रम पेठिया की निर्मलतापूर्वक इतनी पिटाई की जाती थी कि असह्य पीड़ा सहते-सहते मस्तिष्क अनुभूति शून्य हो जाता था । तब यातना देने वाले की शारीरिक क्रियाओं को आँखें तो देखती थी, परन्तु वेदना-कुंद मस्तिष्क में पीड़ा का एहसास नहीं होता था । ऐसी स्थिति में शत्रु-पक्ष के सैनिक यातना देने के नये-नये तरीके अपनाते थे, यथा - अनेक बार जलती हुई सिगरेट को शरीर के कोमल अंगो पर दागते थे ; सिर को उल्टा करके पानी में डुबाए रखते थे,जब तक कि साँस घुटकर बेचैनी न होने लगे । शारीरिक यातनाओं से उनके मुंह से झाग आने लगा किन्तु किसी ने ध्यान नहीं दिया ।

सत्रह दिसम्बर को बंदीगृह में पहली बार आदित्य विक्रम पेठिया की दो लोगों से भेंट हुई । तत्पश्चात् पच्चीस दिसम्बर को ये लोग बारह की संख्या में एकत्र हो गये । जब उन्होंने यह देखा कि आदित्य विक्रम पेठिया के मुँह से खून आ रहा है, तो जेल अधिकारियों से उन्होंने कहा कि आदित्य विक्रम प्रिया को अस्पताल में भेजा जाए और इनका यथोचित आवश्यक उपचार कराया जाए । पहले तो आदित्य विक्रम पेठिया के स्वास्थ्य पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया गया था, किन्तु उनके साथियों के आग्रह के पश्चात् आदित्य विक्रम पेठिया को उपचारार्थ अस्पताल में भेज दिया गया । वहाँ पर चिकित्सकों ने परीक्षण करने के पश्चात् यह घोषणा कर दी कि आदित्य विक्रम पेठिया तपेदिक ( टी.बी.) रोग से ग्रस्त है ।

तपेदिक की घोषणा होते ही आदित्य विक्रम को सबसे अलग कर दिया गया । अब वह किसी के साथ उठ-बैठ नहीं सकते थे । उनका खाना-पीना-सोना सब कुछ अलग कर दिया गया था, किन्तु औषधि के नाम पर अभी उन्हें कुछ उपलब्ध नहीं कराया गया था । रोग का कुछ उपचार न होने पर साथियों ने पुनः दबाव बनाया कि यदि इन्हें तपेदिक है, तो इनका उपचार कराइए ; दवाई दीजिए ! तब लगभग दो महीने बाद इन्हें अस्पताल में भेजा गया । अब तक उनके मुँह से खून आना कम हो गया था । इस बार चिकित्सकों ने परीक्षण करने के बाद बताया - "हो सकता है, इन्हें तपेदिक ना हो ।" परन्तु उपचार के नाम पर औषधि आदि अभी भी उपलब्ध नहीं करायी गयी थी ।

इस समयांतराल में इनके चार साथियों ने जेल से भागने का असफल प्रयास भी किया, जिनमें हरि सिंह जी झाला और तीन अन्य थे । चूँकि आदित्य विक्रम पेठिया शारीरिक रूप से अत्यंत दुर्बल हो चुके थे, उनके मुँह से निरन्तर खून आ रहा था, संभवता इसलिए उन्होंने जेल से भागने के प्रयासों में सक्रिय भागीदारी नहीं निभाई थी । किन्तु, बंदीगृह से उनके निकलने की योजनाओं में इनकी पर्याप्त भूमिका थी । जिस रात बंदीगृह से निकलने की योजना थी, उस दिन आदित्य विक्रम जी के साथ उन्होंने अपनी योजना को अंतिम रूप दिया था । निर्जन सुनसान बीहड़ जंगल के किस भाग से गुजरते हुए जाना है ? यह निश्चित हो चुका था, किन्तु, आदित्य विक्रम पेठिया ने जेल से भागने वालों के अतिरिक्त किसी भी साथी से रास्ते की जानकारी साझा नहीं करना सुनिश्चित कर दिया था । आदित्य विक्रम पेठिया जी का कहना था कि मार्ग की जानकारी ना होने पर असह्य यातनाओं से किसी का मुँह खुलने की और संबंधित अवरोध उत्पन्न होने की संभावना ही समाप्त हो जाती है । प्रतिदिन खाने के लिए मिलने वाले भोजन से थोड़ा-थोड़ा बचाकर, यथार्थ शब्दों में कहें, तो भोजन का कुछ अंश चुराकर मार्ग के भोजन की व्यवस्था वे पहले से ही कर चुके थे । सूखी रोटी आदि के रूप में यह ऐसा भोजन था, जिसे अत्यधिक भूख लगने पर पानी में भिगोकर पेट भरा जा सकता था जिससे आवश्यक ऊर्जा मिल सकती थी ।

जेल से भागने की पूरी योजना बन चुकी थी, जिनमें हरि सिंह जी झाला तथा तीन अन्य थे । रात होते-होते सबको उनके कमरे में बंद कर दिया गया । उस रात आदित्य विक्रम पेठिया रात-भर अपने कमरे में सो नहीं पाए । पूरी रात उनके कान हरि सिंह झाला सहित तीन अन्य, जो सभी एक ही कमरे में थे, के कमरे की ओर लगे रहे । प्रत्येक क्षण उन्हें ऐसा प्रतीत होता था, कि अब गोली चलेगी, अब गोली चलेगी ! किन्तु, उस रात अत्यधिक घनघोर बारिश हुई और एक ही कमीज़ होने के कारण हरि सिंह जी झाला तथा उनके तीन अन्य साथियों ने उस रात जेल से निकलने का अपना कार्यक्रम रद्द कर दिया । जेल से निकलने के लिए उन्होंने जिस खिड़की को खिसका-खिसकाकर उसके नियत स्थान से हटा दिया था, अगले दिन जेल के गार्ड ने उसको देख लिया और कील ठोंककर उसको यथास्थान स्थापित कर दिया । इस प्रकार जेल से निकलने की प्रथम योजना कार्यरूप में परिणित होने से पहले ही असफल हो गयी ।

दूसरा प्रयास जो हरि सिंह जी झाला और एक अन्य का संयुक्त प्रयास था, आदित्य विक्रम पेठिया के भारत लौटने के पश्चात किया गया था । इस बार उनका विचार था कि भारत की ओर भागने पर पकड़े जाने की अधिक संभावना है । अतः जेल से बाहर आकर वे पेशावर की ओर जाने वाली एक यात्री-बस में बैठ गये । उनकी योजना थी, अफगानिस्तान के रास्ते से होकर भारत में प्रवेश कर सकेगे । किन्तु, दुर्भाग्यवश वे दोनों पेशावर में पकड़े गए और इस बार भी भारत लौटने के अपने प्रयास में विफल हो गये ।

शत्रु देश में यातनाएँ भोगते हुए इसी प्रकार समय बीतता रहा । सात मई को आदित्य विक्रम पेठिया को बताया गया कि उन्हें हिंदुस्तान भेजा जा रहा है । 8 मई को जिस दिन उन्हें हिंदुस्तान आना था, सुबह-सुबह बताया गया कि अनुमोदन नहीं होने के कारण उन्हें हिंदुस्तान नहीं भेजा जा रहा है । यद्यपि अब तक उनके मुँह से खून आना कम हो गया था तथापि स्वदेश वापिस नहीं भेजे जाने पर इनके साथियों ने हंगामा कर दिया कि यदि भारत नहीं भेजा जा रहा है, तो इनका आवश्यक उपचार कराया जाए । अंततः आदित्य विक्रम पेठिया को 8 मई 1972 को ही 5 माह 10 दिन 8 घंटे की नारकीय यातनाओं से मुक्ति मिल गयी और इन्हें रावलपिंडी से भारत भेज दिया गया ।

भारत में आने पर योग्य डॉक्टर्स की टीम द्वारा उनका परीक्षण करने पर ज्ञात हुआ कि उनकी पसलियाँ टूटी है । चोट के कारण बाँए फेफड़े का ऊपरी भाग क्षतिग्रस्त हो चुका है तथा कॉलर-बोन भी टूटा हुआ है । यद्यपि अस्पताल में तीन महीने तक चिकित्सकों की देखरेख के पश्चात् आदित्य विक्रम पेठिया के स्वास्थ्य में पर्याप्त सुधार हुआ और तत्पश्चात वे दिल्ली आ गए तथापि एक बार टूट चुकी हड्डियाँ-पसलियाँ पुनः उसी अवस्था में आ जाएँ, जिस अवस्था में टूटने से पहले थी, यह असंभव है।

लगभग एक वर्ष पश्चात् आदित्य विक्रम पेठिया अपने मूल निवास स्थान मध्य प्रदेश लौट आये । अपने अब तक के जीवन-काल में उनको समाज के साथ सीधा संबंध स्थापित करने का अवसर ही नहीं मिला था । घर लौटकर उन्होंने समाज के बीच रहकर समाज के साथ निकट संपर्क रखते हुए समाज का यथार्थ रूप देखा और अनुभव किया कि जिस प्रकार शरीर के छोटे-छोटे रोगों का समय पर उपचार न करने पर विकराल रूप धारण कर लेते हैं और शरीर को दुर्बल बना देते हैं, ठीक उसी प्रकार हमारा देश केवल बाहरी सीमाओं की ओर से ही असुरक्षित नहीं है, बल्कि यातायात व्यवस्था (रॉन्ग साइड चलना, दो लेन की सड़क पर चार लेन वाहन चलाना, अनुचित स्थान पर गाड़ी पार्क करना आदि ) तथा भ्रष्टाचार (किसी भी कार्य का रिश्वत के बिना संपन्न ना हो पाना आदि) जैसे छोटे-छोटे रोग देश को आंतरिक दृष्टि से दुर्बल बना रहे हैं, जिनका उपचार अत्यंत आवश्यक है । आदित्य विक्रम पेठिया जी के विचार से समाज में आंतरिक व्यवस्था बनाने के लिए सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारियों को नियुक्त किया जा सकता है, जिसके सकारात्मक परिणाम आने की पूरी-पूरी संभावना की जा सकती हैं । इसके साथ ही उनका विचार है कि देश के प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम दो वर्ष सेना में रहकर देश की सेवा करना अनिवार्य किया जाए, ताकि वह अनुशासित जीवन जीना सीख सके और अनुशासन का महत्व समझ सके ।

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भूली-बिसरी वीरांगनाएँ

मधु शर्मा कटिहा

स्वतन्त्रता-संग्राम में बलिदान देने वाली कुछ भूली-बिसरी वीरांगनाओं की यश-गाथाएँ.....

1 - वेलू नाचियार

स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष का प्रारम्भ समान्यतः 1857 से माना जाता है, किन्तु वह एक संगठित आंदोलन था। सच तो यह है कि उससे पहले भी कई देशप्रेमी अंग्रेजों की छाती पर मूंग दल चुके थे। दक्षिण भारत के रामनद राज्य के रामनाथपुरम के राजा चेल्लामुथु सेथुपरी और रानी सकंधीमुथल की पुत्री वेलू नाचियार स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष करने वाली पहली महिला हैं। इनका जन्म 3 जनवरी, 1730 को हुआ था. तमिल लोगों में वे वीरमंगई अर्थात बहादुर महिला के नाम से भी जानी जाती हैं। वे अनेक युद्ध कलाओं जैसे वलारी(दूर से एक विशेष हथियार फेंकना), सिलंबम(डंडों से लड़ाई) व धनुष-बाण आदि में निपुण थी। घुड़सवारी जानने के अतिरिक्त वे विभिन्न भाषाओं जैसे अंग्रेज़ी, फ्रेंच व उर्दू की विदुषी भी थीं।

इनका विवाह मुथुवदूगन थापेरिया उद्यथीवार के साथ हुआ जो शिवगंगे के राजा थे। अर्कोट के नवाबज़ादे ने जब अंग्रेज़ सैनिकों के साथ मिलकर वेलू नाचियार के पति की हत्या कर इनके राज्य पर अधिकार कर लिया तो ये अपनी पुत्री के साथ बचकर वहाँ से निकल भागी किन्तु मन ही मन अपने राज्य को वापिस लेने की ठान ली। वहाँ ये कोपल्ला नायक्कर के संरक्षण में विरूपाची, डिंडीगुल में रहीं और उन्होने एक महिला सैन्य दल बनाया, जिसका नाम इनकी बेटी के नाम पर उडयाल रखा। उस समय फिरंगियों से बदला लेने के लिए वेलू ने कोपल्ला नायक्कर और हैदर अली से संधि कर दुश्मनों पर आक्रमण शुरू कर दिये।

अंग्रेजों के गोला-बारूद व अन्य सामग्री नष्ट करने के उद्देश्य से एक महिला सैन्य दल की कमांडर कोयली अपने शरीर पर घी डालकर अंग्रेजों की शस्त्रशाला में कूद पड़ी। भयंकर विस्फोट के साथ सब नष्ट-भ्रष्ट हो गया। इसे विश्व का पहला मानव बम भी कहा जा सकता है। इस प्रकार 1780 में वेलू ने अपना राज्य अंग्रेजों से वापिस छीन लिया।

इनकी मृत्यु 25 दिसंबर, 1796 को हुई। अंग्रेजों के जबड़े से अपना शासन वापिस छीनकर स्वतन्त्रता का स्वप्न दिखाने का श्रेय निश्चय ही रानी वेलु नचियार को जाता है।

  • 2 - भीमा बाई
  • झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की वीरता से अंग्रेज़ बेहद प्रभावित थे, किन्तु सालों पहले उन्होने यह अनुमान लगाना प्रारम्भ कर दिया था कि भारत में अब ज़्यादा समय तक टिक पाना संभव नहीं. यह पाठ उनको पढ़ाने वाली थीं भीमा बाई। इस महान वीरांगना का जन्म 17 सितम्बर, 1795 में यशवंत राव होलकर के घर हुआ जो इंदौर के राजा थे. पिता ने इन्हें युद्ध सम्बन्धी सभी जानकारियाँ दीं और तीर, तलवारबाजी व बल्लम आदि की शिक्षा दी. भाषाओँ में संस्कृत, फ़ारसी. मराठी व हिंदी की अच्छी जानकार थीं वे. 1809 में इनका विवाह गोविंदराव बोलिया के साथ हो गया.

    1811 में अपने पिता के निधन के बाद मराठे व गैर मराठे दोनों को षड्यंत्र करने का अवसर मिल गया. इनकी माता तुलसीबाई होलकर ने मल्हारराव होलकर को गोद ले लिया जो राजा की दूसरी पत्नी का पुत्र था. मल्हारराव की आयु बहुत कम थी अतः राजकाज रानी ही संभालती थीं. अंग्रेज इस सत्ता पर अपनी लोलुप दृष्टि रखे हुए थे. कुछ विश्वासपात्र सेवकों ने अंग्रेजों की साथ मिलकर विश्वासघात किया और रानी तुलसीबाई और पुत्र की हत्या का षड्यंत्र रचा. रानी को इस षड्यंत्र का पता पहले की लग गया और मल्हारराव को लेकर वे कोटा नरेश जालिम सिंह के पास पहुँच गयीं. किन्तु बाद में रानी का सिर काट दिया गया.

    भीमा बाई होलकर इस अपमानजनक हत्या से बेहद विचलित हो गयीं तथा अंग्रेजों की नाक में दम करने का निश्चय किया. 3000 घुड़सवारों, 80 तोपों व अनेक पैदल सैनिकों की मदद से छत्रपति शिवाजी से प्रेरित होकर भीमा बाई ने छापामार युद्ध आरम्भ कर दिया. अंग्रेजी रसद, चौकियाँ व खज़ाने लूटे जाने लगे. अंग्रेज़ आश्चर्य चकित थे कि न जाने अचानक कहाँ से सेना आकर उन्हें लूट लेती है. इंदौर पर अधिकार करके भी वे उसका सुख नहीं उठा पा रहे थे. चौकियों पर उनका प्रभुत्त्व स्थापित ही नहीं हो पा रहा था. एक स्त्री द्वारा इस प्रकार पुरूषों को संगठित कर अचानक धावा बोलने का इतिहास में यह प्रथम उदहारण है.

    कर्नल मैल्कम चिंतित हो उठा. भीमा बाई को वह किसी भी हालत में समाप्त कर देना चाहता था, किन्तु भीमा बाई की शक्ति बढ़ती जा रही थी. अपने गुप्तचरों की मदद से वह किसी तरह उनके ठिकाने तक पहुँचता, लेकिन वे पहली ही अपना ठिकाना बदल लेती थीं. इस प्रकार वे जंगल-जंगल भटकती, कष्ट उठातीं, किन्तु अंग्रेज़ों की आगे सिर झुकाने को तैयार न होतीं.

    एक दिन दुर्भाग्य से शिकार करने गए कर्नल मैल्कम की नज़र भीमा बाई पर पड़ गयी जो अपने एक सैनिक के साथ वहाँ मौज़ूद थीं. भीमा बाई ने अपने सैनिक को जाने को कह दिया और स्वयं वहीं तनकर अपने घोड़े पर बैठी रहीं. रहीं. कर्नल मैल्कम शिकार को इतने करीब देख बेहद प्रसन्न हुए और अपने सैनिकों से एक घेरा बनाकर इन्हें कैद करने का हुक्म दे दिया. घेरा पास आता जा रहा था पर ये ज़रा भी विचलित नहीं हो रहीं थीं. अंत में जब कर्नल मैल्कम बहुत निकट आ गया तो इन्होनें अपने घोड़े की लगाम खींची, घोड़ा पूरा ज़ोर लगा कर भागा. कर्नल मैल्कम झुककर घोड़े से बचने का प्रयास करने लगे और इनका घोड़ा सरपट दौड़ पड़ा. देखते ही देखते ये अंग्रेजों की आँखों से ओझल हो गयीं. और जीते जी उनके हाथ नहीं लगीं।

    जब तक ये जीवित रहीं, अंग्रेज़ों को चैन की नींद नहीं सोने दिया. अनेक भारतीयों के लिए प्रेरणा बन उनके ह्रदय में देशप्रेम की ज्योति प्रज्वलित कर 28 नवम्बर, 1858 में अपनी मातृभूमि इंदौर में इनकी मृत्यु हो गयी.

    3 - झलकारी बाई

    महारानी लक्ष्मी बाई की सेना की महिला शाखा दुर्ग की सेनापति झलकारी बाई का जन्म 22 नवंबर 1830 को झाँसी के पास भोजला गाँव में कोली निर्धन परिवार में हुआ था। झलकारी बाई के पिता सदोवर सिंह व माता जमुना देवी एक निर्धन कोली परिवार से थे। जब ये छोटी थीं तो माँ की मृत्यु हो गई। पिता ने इनकी देखभाल एक पुत्र की भाँति की।

    बचपन से ही झलकारी बाई बेहद बहादुर थी। घुड़सवारी की बेहद शौकीन थीं। एक बार वे लकड़ियाँ एकत्र करने जंगल में गई और वहाँ तेंदुए से सामना होने पर उसे कुल्हाड़ी से मार गिराया। एक अन्य घटना में गाँव के एक व्यापारी पर हमला करने वाले डकैत को इनके कारण ही पीछे हटना पड़ा था। इनकी बहादुरी से प्रसन्न होकर गांववालों ने इनका विवाह रानी लक्ष्मीबाई के तोपखाने की रखवाली करने वाले एक तोपची से करा दिया। विवाह के बाद ये झाँसी आ गईं।

    एक दिन गौरी पूजा के दिन महारानी लक्ष्मी बाई को सम्मान देने वाली महिलाओं के साथ इन्हे देखकर लक्ष्मीबाई आश्चर्यचकित रह गईं क्योंकि वे लक्ष्मीबाई की हमशक्ल थीं। इनकी बहादुरी के विषय में जानकर लक्ष्मीबाई ने उन्हे अपनी दुर्गा-सेना में सम्मिलित कर लिया।

    अप्रैल 1858 में अंग्रेजों द्वारा झाँसी के किले पर आक्रमण किया गया। रानी के एक धूर्त सेनानायक दूल्हेराव ने किले के गुप्त द्वार को खोल दिया और झलकारी बाई का पति किले की रक्षा करते हुए शहीद हो गया। झलकारी बाई ने हिम्मत से काम लेते हुए लक्ष्मीबाई की वेषभूषा धारण कर दुश्मन से सामना करने का निश्चय किया। उनके ऐसा करने पर महारानी को किले से भाग निकलने का मौका मिल गया। झलकारी बाई किले से बाहर निकल गईं और ह्यूग रोज़ से मिलने शिविर में चली गई। ह्यूग रोज़ तत्कालीन ब्रिटिश जनरल थे। वहाँ जाकर वे क्रोध में भरकर चिल्लाईं कि उन्हें ह्यूग रोज़ से मिलना है। अंग्रेज़ सैनिक उन्हें झाँसी की रानी समझ कर प्रसन्न थे कि झाँसी पर कब्जे के साथ ही भविष्य में किसी विद्रोह की संभावना समाप्त हो गई क्योंकि महारानी भी यहाँ आ गईं। जब उनसे पूछा गया कि वे क्या चाहती हैं तो उन्होने कहा कि उनको फांसी दे दी जाए। कहते हैं कि जर्नल रोज़ ने तब यह कहा था कि भारत की 1% महिलाएँ भी ऐसी हो जाएँ तो ब्रिटिश लोगों को भारत छोड़कर जाना पड़ेगा। इतिहासकर मानते हैं कि उनके साहस से प्रसन्न होकर उन्हें मुक्त कर दिया गया। किन्तु कुछ इतिहासकारों का कहना है कि इसके बाद झलकारी बाई के विषय में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती, इससे लगता है कि इस युद्ध में वे वीरगति को प्राप्त हो गईं थीं। कहीं यह संकेत भी मिलता है कि उन्हें फाँसी दे दी गई थी।

    4 - अवंतीबाई लोधी

    1857 के संग्राम में एक और वीरांगना की भूमिका बेहद अहम् है, वे हैं रानी अवंतीबाई लोधी। इनका जन्म 16 अगस्त, 1831 को सिवनी जिले के मनकेहणी गाँव में हुआ। इनके पिता राव जुझार सिंह एक जमींदार थे। बचपन से ही इन्हें घुड़सवारी और तलवारबाज़ी का शौक था। जब बचपन में ये तलवारबाज़ी करतीं तो लोग दाँतों तले उँगली दबा लेते।

    इनका विवाह रामगढ़ के राजकुमार विक्रमादित्य से हुआ। सन 1850 में अपने पिता की मृत्यु होने पर विक्रमादित्य को रियासत का राजा बना दिया गया, लेकिन कुछ सालों बाद वे भी अस्वस्थ रहने लगे। राज्य का सारा कार्यभार अवंतीबाई को संभालना पड़ा, क्योंकि उनके दोनों पुत्र अभी बहुत छोटे थे।

    यह वह समय था जब लॉर्ड डलहौजी भारत के गवर्नर जनरल थे। यह कानून बना दिया गया था कि जिस रियासत का कोई उत्तरदायी नहीं होगा उसे अंग्रेज़ अपने साथ मिलाकर ब्रिटिश शासन का हिस्सा मान लेंगे। यही नहीं उन्होने यह कानून भी बना दिया कि जो रियासतें अंगरेजी शासन के अधीन हैं वे बिना अनुमति के संतान गोद नहीं ले सकते। रामगढ़ के विषय में जब अंग्रेजों को पता लगा तो उन्होने वहाँ कोर्ट ऑफ वार्ड्स लागू कर अपने अधीन कर लिया अर्थात वहाँ अपनी ओर से राज्य की देखभाल के लिए एक तहसीलदार नियुक्त कर दिया जो और अवंतीबाई के परिवार को पैंशन देनी प्रारम्भ कर दी।

    मई 1857 में अपने पति के निधन के बाद अवंतीबाई अंग्रेजों से बदला लेने के लिए मौके की तलाश में रहने लगीं। 1857 के विद्रोह की चिंगारियाँ जब रामगढ़ तक पहुँची तो रानी ने इस आग को आगे बढ़ाते हुए आसपास के राजाओं व जमींदारों को 2-2 काली चूड़ियाँ भिजवाईं और साथ में एक पत्र भी दिया, जिसमें लिखा था कि या तो ये चूड़ियाँ पहनकर घर पर बैठो, अन्यथा अंग्रेजों से भिड़ने की तैयारी करो। अवंतीबाई के इस साहसी कृत्य को देख सभी के हृदय में देशप्रेम की ज्वाला प्रज्ज्वलित हो गई और जगह-जगह विद्रोह शुरू हो गए। रानी ने अपने अदम्य साहस परिचय देते हुए रामगढ़ से कोर्ट ऑफ वार्ड्स संबंधी अधिकारियों को निकाल बाहर किया। इसके अतिरिक्त अन्य सहयोगियों की मदद से घुघरी, बिछिया तथा रामनगर आदि से अंग्रेजी राज का खात्मा करवा दिया। इस प्रकार वे मध्य भारत की एक क्रांतिकारी वीरांगना के रूप में उभरीं।

    उनका अगला निशाना मंडला क्षेत्र था। मंडला में इनकी सेना ने अंग्रेज़ सेना पर हमला किया और जमकर युद्ध हुआ। अवंतीबाई और मंडला के डिप्टी कमिश्नर वाडिंगटन के बीच भी आमने-सामने मुठभेड़ हुई। इस युद्ध में डिप्टी कमिश्नर का घोड़ा बुरी तरह ज़ख्मी हो गया और कमिश्नर उस पर से उतरकर भागने लगा। अवंतीबाई ने उस पर आक्रमण किया ही था कि उसके एक सिपाही ने बीच में आकर उसे बचा लिया, किन्तु इसके बाद वाडिंगटन भयभीत होकर वहाँ से भाग चुका था। अतः वह क्षेत्र भी रानी के कब्ज़े में आ गया।

    अपनी हार का बदला लेने के लिए वाडिंगटन ने कुछ समय बाद रामगढ़ के किले पर आक्रमण कर दिया। यद्यपि अवंतीबाई की सेना ने पूरा दम लगाकर उस आक्रमण का सामना किया किन्तु अंग्रेज़ सेना के मुक़ाबले में उनके पास हथियारों की कमी थी तथा संख्या में भी वे कम थे। आने वाले खतरे का अनुमान लगते ही रानी सेना सहित देवहारगढ़ की ओर रवाना हो गईं। अंग्रेज़ सेना वहाँ भी पहुँच गई और उन्हें आत्मसमर्पण करने को कहा, लेकिन इसके लिए वे तैयार न हुईं। अतः वाडिंगटन के नेतृत्व में फिरंगी सेना ने उन पर आक्रमण कर दिया।

    इस युद्ध में अवंतीबाई के कई सैनिक शहीद हो गए। 20 मार्च, 1858 के दिन रानी के बाएँ हाथ में गोली लगी और इनकी बंदूक हाथ से छूट गई। अपना अंतिम समय निकट जान उन्होंने अपने अंगरक्षक से तलवार लेकर अपना अंत कर लिया। तलवार अपने सीने में भोंकते समय उन्होने रानी दुर्गावती को याद करते हुए कहा कि उनकी तरह ही वे भी नहीं चाहतीं कि वैरी उनके जीते जी उनके शरीर को हाथ लगाए।

    5 - मालतीबाई लोधी

    इस वीरांगना का जन्म एक किसान परिवार में हुआ था। महारानी लक्ष्मीबाई विवाह के बाद ही राज्य का भ्रमण कर रही थीं तब उनकी भेंट मालतीबाई से हुई। इनके साहस और तीरंदाज़ी को देख लक्ष्मीबाई चकित रह गईं। मालतीबाई से बात कर लक्ष्मीबाई ने अपने महल से घोड़ा, तलवार और तीरकमान इनके लिए भेजे और अभ्यास करने के साथ ही अन्य युवक और युवतियों को भी तीर व तलवार चलाना सिखाने को कहा। कुछ दिनों में ही वहाँ एक छोटी से सेना तैयार हो गई। 1857 में जब अंग्रेजों ने झाँसी हड़पने की योजना बनाई तो मालतीबाई व उनकी सेना भी झाँसी जा पहुंचे। मालतीबाई को रानी ने अपनी अंगरक्षिका बना लिया।

    युद्ध के समय महारानी का घोड़ा नाले को पार नहीं कर पा रहा था। कई बार कोशिश करने पर वह गिर पड़ा और उसकी मृत्यु हो गई। ऐसे में मालतीबाई ने उन को अपना घोड़ा दे दिया। कुछ देर बाद ही गोली का शिकार होकर मालतीबाई की सांसें थम गईं।

    6 - ऊदा देवी

    ऊदा देवी का जन्म अवध के उजरियांव में हुआ था, किन्तु कब इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता। छोटी आयु में ही इनका विवाह मक्का पासी नामक युवक से हो गया।

    1847 में जब वाजिद अली अवध व लखनऊ के नवाब बने तो अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी सेना संगठित करने के लिए उन्होंने नए लोगों को भर्ती करना शुरू कर दिया। मक्का पासी भी उनकी सेना का अंग बन गए। अपने पति को देश के लिए सेना में भर्ती होते देख ऊदा देवी भी महिला दस्ते का हिस्सा बन गईं। 1857 में जब विद्रोह की ज्वाला भड़की तो अंग्रेज भी स्थान-स्थान पर आक्रमण करने लगे। 10 जून 1857 को उन्होने अवध पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में मक्का पासी शहीद हो गए। यह खबर पाकर ऊदा देवी का खून खौलने लगा और उन्होने अंग्रेजों से लोहा लेने का निश्चय किया। उन्होने बेगम हज़रत महल की सहायता से महिलाओं की लड़ाका बटालियन बना ली।

    नवंबर 1857 में फिरंगी सेना ने लखनऊ में आक्रमण किया और वे शस्त्र लेकर सिकंदर बाग की ओर चल दिये क्योंकि वहाँ पर राज्य के सैनिक मोर्चा संभाले थे। ऊदा देवी पुरुष वेश बाग के प्रवेश द्वार के पास लगे पीपल के पेड़ पर चढ़ गईं और वहीं से अंग्रेज़ी सेना पर गोलियां बरसानी शुरू कर दीं । 30 से अधिक ब्रिटिश सैनिकों के ढेर हो जाने के कारण अंग्रेज़ सेना तिलमिला गई। अपने सैनिकों के शव देखने पर उन्हें पता लगा कि कोई ऊपर से गोलियाँ चला रहा है। जब पीपल के पेड़ पर एक मानवकृति दिखाई दी तो उन्होने वहाँ निशाना लगाकर गोलियाँ बरसानी शुरू कर दीं। गोलियों से छलनी ऊदा देवी जब नीचे गिरीं तो उनके प्राण पखेरू उड़ चुके थे। उस समय ही अंग्रेज़ सैनिक यह जान पाये की वह एक पुरुष नहीं स्त्री थीं, जिसने इतनी देर तक उन्हें प्रवेश द्वार पर रोके रखा। अंग्रेज़ सेना की इस टीम का नेतृत्त्व जनरल काल्विन कर रहे थे। वे उनकी बहादुरी से इतने प्रभावित हुए कि अपना हैट उतारकर ऊदा देवी को श्रद्धांजलि अर्पित की।

    7 - रानी तपस्विनी

    एक महान वीरांगना और महारानी लक्ष्मीबाई की भतीजी रानी तपस्विनी का जन्म 1842 में हुआ था। इनके पिता एक जमींदार थे। बचपन से ही अदम्य साहस की मूर्ति रानी तपस्विनी अस्त्र-शस्त्र चलाने के साथ-साथ घुड़सवारी का अभ्यास भी किया करती थीं। इनका वास्तविक नाम सुनन्दा था। बालविधवा होने के कारण अपने पिता की मृत्यु होने पर संपत्ति की देखरेख का सारा कार्यभार सुनन्दा ने संभाला। वे अक्सर पूजा-पाठ में लीन रहती थीं, किन्तु अस्त्र-शस्त्र चलाने का अभ्यास करना नहीं छोड़ा।

    1857 में जब स्वतन्त्रता आंदोलन का सूत्रपात हुआ तो उसमें सुनन्दा ने खुलकर भाग लिया, यही नहीं इनके कहने पर कई और लोगों ने भी इसमें सक्रिय रूप से अपनी भूमिका निभाई। उनके इस कृत्य से बौखलाए अंग्रेजों ने सुनन्दा को पकड़कर तिरुचिरापल्ली की जेल में डाल दिया। बाद में रिहा होने पर ये नाना साहब के साथ नेपाल चली गईं।

    वहाँ अनेक भारतीय भी रहते थे, जिनके दिलों में इनके द्वारा देशप्रेम की ज्योति जलाई गई। इसके अतिरिक्त नेपाल के प्रधान सेनापति चन्द्र शमशेर जंग की मदद लेकर इन्होने गोला-बारूद बनाने की एक फैक्ट्री भी लगाई, जिससे सामान भारतीय क्रांतिकारियों तक पहुँचे और उनकी मदद हो पाये। किन्तु कुछ समय बाद ही इनको नेपाल छोड़कर कलकत्ता जाना पड़ा, क्योंकि इनके एक सहयोगी के मित्र ने अंग्रेजों को सब बता दिया था।

    कलकता में बच्चों को देशप्रेम की शिक्षा देने के उद्देश्य से इन्होनें एक पाठशाला खोली। 1905 में बंगाल विभाजन के समय हुए क्रन्तिकारी आन्दोलन में इन्होनें सक्रिय रूप से भाग लिया था। अपना सम्पूर्ण जीवन मातृभूमि को समर्पित कर 1907 में ये इस दुनिया से दूर चली गईं।

    8 - कुमारी मैना

    मैना ऐसी वीरांगना थी जिसने किशोरावस्था में ही देश के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिये थे।

    नाना साहब पेशवा के नेतृत्त्व में 1857 के संग्राम में भारतीय पक्ष विजयी होने के बाद कमज़ोर पड़ने लगा था। नाना साहब पर अंग्रेजी सरकार ने इनाम रख दिया था। अतः वे चाहते थे कि बिठूर से कहीं दूर जाकर सुरक्षित स्थान ढूँढें व नए सिरे से सेना संगठित कर अंग्रेजों पर धावा बोलें। नाना साहब की एक दत्तक पुत्री थी, नाम था मैना। उस समय उसकी आयु केवल 13 वर्ष थी। नाना साहब समझ नहीं पा रहे थे कि उसको साथ ले जाएँ या नहीं। दोनों ही तरह से उसकी जान को खतरा था। मैना एक साहसी बाला थी। उसने पिता के कार्य में व्यवधान बनने के स्थान पर महल में ही रहना उचित समझा।

    नाना साहब के जाने की सूचना मिलते ही अंग्रेजों ने उनके महल को घेर लिया और गोले दागने शुरू कर दिये। कुमारी मैना भागकर एक गुप्त स्थान पर छुप गई। जब तोप की आवाज़ आनी बंद हो गई तो मैना महल से बाहर आ गई। वहाँ मलबे के पास ही कुछ अंग्रेज़ सिपाही मौजूद थे। जनरल आउट्रम के आदेश पर उसे गिरफ़्तार कर लिया गया।

    अंग्रेज़ मैना को बंदी बनाकर अपने साथ ले गए। वे प्रसन्न थे कि उनके हाथ एक कम उम्र की लड़की आई है। अब तो विरोधियों के नाम और ठिकाने वे निश्चय ही जाने जा सकेंगे।

    फिरंगियों ने मैना को खूब यातनाएं दी। मारा-पीटा और कई दिनों तक भूखा-प्यासा भी रखा। किन्तु मैना ने अपना मुँह नहीं खोला। अंत में उसे एक पेड़ से बाँधा गया और चारों ओर लकड़ियाँ जलाईं गई। तपती गर्मी में इस कष्ट से गुजरने पर भी मैना की ज़बान नहीं खुली। फिर इसी आग में जलकर 3 सितंबर,1857 को इस बाल-वीरांगना ने अपने प्राणों की आहुति दे दी।

    9 - आशा देवी गुर्जराणी

    आशा देवी का जन्म 1829 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के उस हिस्से में हुआ था जिसे अब शामली के नाम से जाना जाता है। 1857 में स्वतन्त्रता संग्राम का बिगुल बजा तो देशप्रेमी सक्रिय हो उठे। पर कुछ इसे सैनिक विद्रोह मान रहे थे। आशा देवी गुर्जराणी का यह विचार था कि स्वतन्त्रता संग्राम में सैनिकों का लड़ना ही पर्याप्त नहीं है। समाज के प्रत्येक वर्ग को इस लड़ाई में भाग लेना चाहिए। इस सोच के साथ ही उन्होने महिलाओं की एक सेना संगठित कर ली और आसपास के इलाकों में अपनी पैठ बना ली। अंग्रेजों को इनकी सेना ने कई बार मुश्किल में डाला। अंग्रेज इन्हें जीवित ही पकड़ना चाहते थे,पर इसके लिए उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा। 250 महिला सैनिकों को मारने के बाद ही अंग्रेज़ इन्हें ज़िंदा पकड़ पाये। बाद में 11 अन्य महिलाओं के साथ इन्हें 8 मई, 1857 को फाँसी दे दी गई।

    10 - महावीरी देवी

    वीरांगना महावीरी देवी का बलिदान कम गौरवपूर्ण नहीं है। मुज़फ्फ़रनगर जिले के मुंदभर गाँव की रहनेवाली महावीरी देवी अशिक्षित, लेकिन तीव्र बुद्धि की स्वामिनी थी। इनके पिता सूप-पंखे बनाने का कार्य करते थे।

    देशभक्त होने के साथ साथ वे समाजसेविका के गुण भी समेटे थीं। 1857 में उन्होने 22 स्त्रियों की एक ऐसी टीम बनाई जो महिलाओं और बच्चों को मान-सम्मान से जीना सिखाती थी। अंग्रेजों ने जब मुज़फ्फ़रनगर पर आक्रमण किया तो इसी महिला संगठन ने उन्हें छटी का दूध याद दिलाने का निश्चय किया। बाईस नारियों की ये सेना गंडासे और कांते हाथों में थामे अंग्रेजों से भिड़ गई। अंग्रेज़ी सेना के अनेक सैनिक महावीरी देवी के हाथों मारे गए। अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए अंत में ये बलिवेदी पर चढ़ गईं।

    11 - अजीज़न बाई

    स्वतन्त्रता आंदोलन,1857 में जब भी कानपुर का ज़िक्र होगा, तब-तब अजीज़न बाई का नाम भी लिया जाता रहेगा। अजीज़न बाई का जन्म 1832 में हुआ था। उनके पिता लखनऊ में उस समय के जाने–माने गायक थे. पेशे से नर्तकी अजीज़न बाई अपने माता-पिता की मृत्यु के पश्चात कानपुर आ गयीं थीं.

    जब नाना साहब के नेतृत्त्व में वहाँ क्रांति का बिगुल बजा तो अजीज़न बाई ने भी उसमें भाग लिया। अपने नर्तकी होने का लाभ उठाते हुए उन्होने सेना के लिए गुप्तचर की भूमिका निभाई और साथ ही साथ एक क्रांतिकारी बनकर अपने प्राण तक न्योछावर कर दिए। दिन में ये पुरुष वेष में युद्ध करतीं तथा रात में अंग्रेजों की छावनी में जाकर नृत्य करतीं व उनकी गुप्त सूचनाएँ एकत्र करतीं।

    इनका काम अंग्रेजों से मिले हुए भारतीय सैनिकों को नाच गाकर बहलाते हुए नाना जी की ओर करना भी था। नाना साहब उनका बहुत सम्मान करते थे और उनसे राखी भी बंधवाते थे।

    अजीज़न बाई द्वारा महिलाओं को प्रशिक्षित कर मस्तानी टोली बनाई गई। इस संगठन का कार्य बंदूकों में कारतूस डालना, तोपों में बारूद भरना, घायल सैनिकों की मदद कर उनके भोजन आदि का ध्यान रखना था। मस्तानी टोली की मदद से नाना साहब की सेना ने अंग्रेजों को हरा दिया था। मस्तानी टोली में लगभग 25 नर्तकियाँ सम्मिलित थीं। इन सबने मिलकर लाल बंगला में रहने वाले सभी अंग्रेजों को भी मौत के घाट उतार दिया। इस हार से बौखलाए अंग्रेजों ने बाद में ज़्यादा तैयारी कर कानपुर पर फिर से चढ़ाई कर दी। कुछ लोगों का कहना है कि इस युद्ध के दौरान ही अजीज़न बाई अंग्रेज़ी सेना की पकड़ में आ गईं। अंग्रेजों ने उन्हें रिहाई का लालच दिया किन्तु बदले में अपनी सेना की सेवा करने की शर्त रखी। इस शर्त को मानने इस बात से क्षुब्ध होकर इन्हें मौत के घाट उतार दिया गया।

    वहीं कुछ लोगों मानना है कि वे आज़ादी के लिए बनाई गई सेना के सेनापति तात्या टोपे से मिली थीं और उनके आदेश पर ही अंग्रेज़ों के खेमों में जाकर उनकी गुप्त योजनाएँ तात्या टोपे को बताती थीं। इस बात का पता लगने पर इन्हें गिरफ्तार कर अंग्रेज़ कमांडर हेनरी हैवलॉक के समक्ष प्रस्तुत किया गया। हेनरी हैवलॉक इनकी सुंदरता पर मुग्ध हो गया और केवल एक क्रांतिकारी अजीम उल्ला खां का पता बता देने पर माफ़ करने का वादा किया। माफ़ी मांगने से इंकार करने पर इनके शरीर को गोलियों से छलनी कर दिया गया।

    12 - प्रीतिलता वादेदार

    स्वतन्त्रता के लिए अपना जीवन न्योछावर करने वाली वीरांगनाओं का उल्लेख करते हुए प्रीतिलता वादेदार का नाम सम्मिलित न हो तो चर्चा अधूरी ही होगी। इनका जन्म 5 मई, 1911 में चटगांव में हुआ। बचपन से ही इनकी इच्छा अध्यापिका बनने की थी। इसके अतिरिक्त ये रानी लक्ष्मी बाई से बेहद प्रभावित थीं व उनकी तरह ही मातृभूमि के लिए सर्वस्व न्योछावर कर देना चाहती थीं। बेहद तीव्र बुद्धि की इस बालिका ने इंटरमीडिएट की परीक्षा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया और बीए में दाखिला लिया। इसके बाद लीला नाग के दीपाली संघ में शस्त्र विद्या का प्रशिक्षण लेकर महान क्रांतिकारी सूर्यसेन की सेना में सम्मिलित हो गईं।

    18 अप्रैल,1930 को अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध सूर्यसेन की सेना ने चटगांव में बने शस्त्रागार से हथियार लूट लिए। अंग्रेज़ सेना ने क्रांतिकारियों पर गोलियाँ बरसा दीं, जिसमें सूर्यसेन के कई साथी मारे गए। प्रीतिलता व सूर्यसेन बचकर भाग निकले और कुछ दिन छुप कर बिताए। कुछ समय बाद अपने साथियों की मौत का बदला लेने के लिए दोनों ने मिलकर एक योजना बनाई। इस योजना के अंतर्गत उन्हें एक नाईट क्लब पर आक्रमण करना था, जहाँ फिरंगी स्त्री और पुरुष शराब पीकर नाच-गाना किया करते थे।

    प्रीतिलता को आभास था कि अपनी जान की बाजी लगाते हुए वे कभी भी अंग्रेजों के हाथ लग सकती हैं। किन्तु वे चाहती थीं कि जब तक उनके शरीर में प्राण हैं कोई दुश्मन उन्हें हाथ न लगाए। इसलिए उन्होने पोटैशियम सायनाइड नामक विष अपने साथ रख लिया।

    23 सितंबर, 1932 को अपने साथियों के साथ मिलकर उन्होने क्लब पर आक्रमण कर दिया और अनेक अंग्रेज़ों को मौत के घाट उतार दिया। उन्हें अपने साथियों की मृत्यु का बदला तो मिल गया पर अंग्रेज़ों की ओर से चलाई गोली में प्रीतिलता घायल हो गईं। जब इन्हें आभास हो गया कि अब वहाँ से बचकर निकलना मुश्किल है तो पोटैशियम सायनाइड खाकर इस वीरांगना ने अपनी जान दे दी। धन्य है वह आत्मा जिसने 21 वर्ष की अल्प आयु में आत्मबलिदान दिया और देश को स्वतन्त्रता के मार्ग पर ले जाने का पुण्य कर्म किया।

    13 - कनकलता बरुआ

    कनकलता बरुआ एक अन्य महान वीरांगना हैं। अपना नाम छोटी आयु में ही शहीदों की सूची में दर्ज़ करवाकर ये सदा के लिए अमर हो गईं।

    इनका जन्म 22 दिसंबर, 1924 में असम के बारंगबड़ी गाँव में हुआ था। दुर्भाग्य से बचपन में ही इनके माता-पिता की मृत्यु हो गई। इनका लालन-पालन नानी के घर हुआ।

    मई 1931 में इनके ननिहाल के पास गाँव में रैयत सभा हुई। अपने दो मामायों यदुराम बोस और देवेंद्र नाथ के साथ ये भी उस सभा में गईं। वहाँ ज्योतिप्रासाद अगरवाला के गीतों को सुनकर कनकलता भावविभोर हो उठीं। ज्योतिप्रासाद अगरवाला उस समय के प्रसिद्ध गीतकार व नेता थे। सभा की अध्यक्षता करते हुए उनके द्वारा सुनाये गीतों ने कनकलता के हृदय में देशभक्ति की आग सुलगा दी।

    अंग्रेजों ने इस सभा में भाग लेने वालों को राष्ट्रद्रोही कहकर जेल में बंद कर दिया गया। इससे असम में आक्रोश बढ़ गया। कनकलता का नन्हा हृदय भी अंग्रेजों के प्रति घृणा से भर गया। फिर 1942 में जब मुंबई में अंग्रेजों भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित हुआ तो वहाँ से असम लौटने पर नेताओं को बंदी बना लिया गया। इससे आम जनता में अंग्रेजों के प्रति विद्रोह और भड़क उठा। भारत छोड़ो का प्रभाव आग में घी डाल रहा था।

    20 सितंबर, 1942 को ज्योतिप्रासाद अगरवाला के नेत्तृत्व में गुप्त सभा हुई और स्वतन्त्रता का आह्वान करने हेतु थानों पर तिरंगा झण्डा फहराने का फैसला किया गया।

    गुहपुर थाने पर तिरंगा फहराने जो जूलुस जा रहा था उसकी अगुआई 19 वर्षीय कनकलता कर रही थीं। जैसे ही जूलुस वहाँ पहुँचा थाने के प्रभारी पी.एम. सोम ने बीच में आकर उनका रास्ता रोक लिया। कनकलता ने उसे समझाने का प्रयास किया कि वे किसी प्रकार का संघर्ष नहीं करेंगे, अपितु तिरंगा लहराकर स्वतन्त्रता का आह्वान मात्र करना चाहते हैं। थाने के प्रभारी ने उन्हें धमकी दी कि एक कदम बढ़ाने पर ही उन पर गोलियाँ चला दी जाएंगी। कनकलता निडर होकर बोलीं कि गोली चलाकर कोई उन्हें उनके कर्त्तव्य से विमुख नहीं कर सकता और वे आगे बढ़ गईं। उनके आगे बढ़ते ही गोलियाँ चला दी गईं। कनकलता को गोली लगी और वे वहीं ढेर हो गईं। लेकिन उनके बलिदान से युवकों में जोश भर गया और वे आगे बढ़ते रहे, उधर गोलियों की बौछार भी जारी थी। अंत में रामपती राजखोवा नामक वीर ने वहाँ तिरंगा फहरा ही दिया। कनकलता का शव क्रांतिकारी वीर अपने कन्धों पर उठाकर लाये और बारंगबड़ी में उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। वीरांगना कनकलता की कुर्बानी व्यर्थ नहीं गई। इसके बाद क्रांति की आग और तेज़ी से भड़की और अंत में स्वतन्त्रता प्राप्ति का उनका सपना साकार हुआ।

    14 - कालीबाई

    ब्रिटिश काल में स्थान-स्थान पर लोगों पर दुहरी मार पड़ रही थी। एक ओर अंग्रेजों का निरंकुश शासन तो दूसरी ओर सामंतों के द्वारा शोषण। लोग पढे-लिखे भी नहीं थे कि अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हों। कुछ समाजसेवी संस्थाओं और क्रांतिकारियों की मदद से कई स्थानों पर विद्यालय चलाये जा रहे थे।

    एक ऐसा ही विद्यालय राजस्थान के डूँगरपुर जिले के रास्तापाल नामक गाँव में खोला गया। इस पाठशाला के संरक्षक एक प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी नानाभाई खांट थे और सेंगाभाई रोत वहाँ अध्यापन का कार्य करते थे।

    1947 के समय पूरे देश में आज़ादी के संग्राम का बिगुल बजा हुआ था। डूँगरपुर में आम जनता तक यह आवाज़ पहुँचाने का कार्य इसी प्रकार की पाठशालाओं के माध्यम से हो रहा था। शिक्षक अंग्रेजों के अत्याचार की कहानियाँ सुनाया करते थे।

    रास्तापाल की पाठशाला में कालीबाई कलसुआ नामक एक 13 वर्षीय छात्रा भी पढ़ती थी जो भील जाति की थी। आज़ादी की कहानियाँ सुन वह भी स्वतंत्र देश की कल्पना लिया करती थी। अंग्रेज़ी सत्ता के प्रति उसके मन में नफरत का बीज अंकुरित हो चुका था।

    स्वतन्त्रता आंदोलन का दमन करते हुए अंग्रेजों ऐसी पाठशालाएँ बंद करवा देना चाहते थे। रास्तापाल की पाठशाला बंद करवाने के लिए भी अनेक बार प्रयास हुए।

    19 जून, 1947 को डूँगरपुर का पुलिस अधिकारी कुछ अन्य व्यक्तियों के साथ पाठशाला में आ पहुंचा और नानाभाई व सेंगाभाई को अंतिम चेतावनी के तौर पर पाठशाला बंद करने का हुक्म सुना दिया। जब वे नहीं माने तो डंडे और बंदूक की बट से उनकी पिटाई करनी शुरू कर दी। नानाभाई वृद्ध थे, अतः इस पिटाई को सहन न कर पाये और उनके प्राण पखेरू उड़ गए। सेंगाभाई को अधिकारी ने अपने ट्रक के पीछे बाँध दिया।

    गाँववाले खड़े होकर सब देखते रहे पर किसी की कुछ बोलने की हिम्मत नहीं हुई। उसी समय कालीबाई भी वहाँ आ पहुँची जो खेतों में अपने जानवरों के लिए घास काट रही थी।

    कालीबाई ने पूछा कि उनके गुरु को क्यों बांधा गया है? पुलिस अधिकारी बौखलाकर चुप हो गया। कालीबाई के बार-बार पूछने पर उसे कारण बताना ही पड़ा। इस पर कालीबाई ने कहा कि स्कूल चलाना तो अपराध नहीं है। मैंने तो सुना है इससे हमारा विकास होता है। गाँववाले यह वार्तालाप सुनकर पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध नारे लगाने लगे। यह देख पुलिस अधिकारी क्रोध में आ गया और कर उसने ट्रक चलाने का आदेश दे दिया। कालीबाई ने आव देखा न ताव। वह दौड़कर अपने गुरु के पास पहुँची और अपने हाथ में पकड़ी हंसिया से उनकी रस्सी काट दी। इस बात से वह अधिकारी आग-बबूला हो गया और उसने अपनी पिस्तौल निकालकर कालीबाई पर गोलियाँ चला दीं। गाँववालों ने यह दृश्य देखकर पथराव करना शुरू कर दिया जिससे डरकर पुलिस वाले वहाँ से भाग गए। कालीबाई को डूँगरपुर के अस्पताल ले जाया गया पर उसके प्राण नहीं बच सके। कालीबाई के इस बलिदान से सेंगाभाई की जान बच गई और आज़ादी की लहर तीव्र हो गई।

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    इन वीरांगनाओं के बलिदान के लिए देश इनका ऋणी रहेगा।

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    राजा दाहिर सेन

    निलिमा कुमार

    सातवीं सदी से पहले अफगानिस्तान और पाकिस्तान का कुछ हिस्सा फारस साम्राज्य के पास था बाकी सारा हिस्सा भारतीय राजाओं के अधीन था, साथ ही बलूचिस्तान एक स्वतंत्र सत्ता थी। यह भारत का पश्चिमी छोर शक, कुषाण और हूणों के पतन के बाद एकाएक कमजोर पड़ गया जिससे सातवीं सदी के बाद ही अफगानिस्तान एवं पाकिस्तान भारत के हाथ से निकल गए।

    भारतवर्ष में इस्लामी शासन का पहला प्रवेश हुआ हिन्दुस्तान के सिन्ध साम्राज्य से। अरबों से छोटी-बड़ी असंख्य लड़ाईयाँ लड़ते हुए लगभग 33 वर्षों तक भारत की रक्षा करने वाले शूरवीर राजा दाहिर सेन पहले ऐसे भारतीय राजा थे जिन्होंने इस्लामी सेना से युद्ध करते समय युद्ध क्षेत्र में वीरगति प्राप्त की और देश के लिए शहीद हुए। यह सच है कि उनकी मृत्युपरान्त ही इस्लामी फौज सिंध पर कब्जा कर सकी। यह एक ऐसी युद्ध गाथा है जिस से ज्यादातर भारतीय अनभिज्ञ ही होंगे।

    तो आईए .... आज हम महाराजा दाहिर सेन के वारे में विस्तृत रूप से जानकारी हासिल करते हैं। हिंद देश के महाराजा थे राय साहसी द्वितीय जो हर्ष के समकालीन राजा थे , उनकी पत्नी का नाम रानी सुहानदी था एवं उनके कोई संतान नहीं थी अर्थात उनका कोई उत्तराधिकारी नहीं था। महाराज राय साहसी की कार्यकारिणी समिति में एक चाच नामक ब्राह्मण था जो महाराज के सभी निजी कार्यों को देखा करता था। महाराज राय साहसी के मृत्युपरांत चाच ब्राह्मण ने महाराज की विधवा रानी सुहानदी से विवाह कर लिया और सिंध साम्राज्य का शासक बना। महाराज चाच के दो पुत्र हुए दाहिर सेन और दाहिर सिम। कुछ वर्षों के पश्चात ही दाहिर सिम की मृत्यु हो गई फलस्वरूप महाराज चाच के बाद सन् 679 ईस्वी में दाहिर सेन सम्पूर्ण सिंध के शासक बने और महाराजा दाहिर सेन कहलाए।

    राजा दाहिर सेन का भारत के इतिहास में नाम इसलिए नहीं मिलता है क्योंकि भारतीय इतिहास को वामपंथी धारणा के अनुरूप लिखा गया, जिसके अनुसार उन राजाओं का वर्णन इतिहास में वर्जित था जिनके बारे में लिखने से भारत में सांप्रदायिक वातावरण पर असर पड़ सकता था। राजा दाहिर सेन ने मुस्लिम धर्मगुरु इमाम मोहम्मद के परिवार को आश्रय दिया था। राजा दाहिर सेन और चंद्रगुप्त की सेनाओं के कर्बला देर से पहुँचने के कारण इमाम मोहम्मद को बचाया नहीं जा सका था। खलीफा अल हज्जाज ने इमाम मोहम्मद के अंतिम वंशजों को ढूंढकर मारने की मुहिम चलाई थी। राजा दाहिर ने हुसैन इब्न अली को भी शरण दी थी जो इमाम मोहम्मद के पोते थे। हुसैन इब्न अली को भी सिंध जाते हुए कर्बला में पकड़ लिया गया था और मौत के घाट उतार दिया गया था। जी• एम• सईद के अनुसार सिंध प्राँत में हुसैन इब्न अली और राजा दाहिर सेन दोनों के लिए शोक मनाया जाता है। यहाँ यह भी बताना जरूरी है कि पाकिस्तान के इतिहास में भी दर्ज़ है कि मोहम्मद बिन कासिम उम्मयाद सल्तनत का एक सेनापति था और उम्मयाद सल्तनत ने इमाम मोहम्मद और उनके वंश को नेस्तनाबूत करने की कसम खा रखी थी। इमाम हुसैन को मारने वाला याज़िद भी इसी उम्मयाद सल्तनत का था। इन सब बातों का विवरण " चाचनामा " में भी मिलता है जो कि उम्मयाद सल्तनत के काज़ी इस्माइल द्वारा राजा दाहिर सेन की मौत के बाद लिखाया गया था। इसका अंग्रेजी रूपांतरण " हिस्ट्री ऑफ इंडिया " सर हेनेरी इलियाट द्वारा सन् 1900 ईस्वी में किया गया था। इसके अतिरिक्त कन्नौज में रमल नाम के राजा ने महाराजा दाहिर पर हमला कर दिया था। प्रारंभिक हार के बाद राजा रमल अरौर की तरफ बढ़े। महाराजा दाहिर ने एक अरब अलाफी जो कि उम्मयाद ख़लीफत से निष्कासित किया गया था, के साथ मिलकर रमल की सेनाओं को परास्त किया जिससे प्रसन्न होकर महाराजा दाहिर सेन ने अपने दरबार में अलाफी को विशेष स्थान प्रदान किया। हालांकि बाद में अलाफी केवल रक्षा सलाहकार के रूप में राजा दाहिर के साथ रहा और उसने लड़ाई में स्वयं कभी भी भाग नहीं लिया। इसके लिए बाद में अलाफी को खलीफा ने माफ कर दिया। साभार उपरोक्त विवरण " QUORA " से लिया गया है।

    भारत उस वक्त सोने की चिड़िया कहा जाता था, जाहिर है सिंध साम्राज्य धनाढ्य, समृद्ध और संपन्न था। उस समय सिंध देश समुद्री मार्ग द्वारा पूरे विश्व के साथ व्यापार करता था। सिंध का देवल बंदरगाह मुख्य केंद्र था। इराक - ईरान से आने वाले जहाज इसी बंदरगाह से होते हुए दूरदराज के देशों में जाया करते थे। भारतीय व्यापारियों के रहन-सहन और आने वाले माल-असबाब से अरब देश के लोग हिंदू साम्राज्य की ओर आकर्षित हुए। यह वही समय था जब सन् 632 ईसवी में अरब शासक हज़रत इमाम मोहम्मद की मृत्यु के बाद वहाँ के नए खलीफाओं और उनके उत्तराधिकारियों ने सीरिया, उत्तर अफ्रीका, स्पेन एवं ईरान को जीत लिया था। उस समय अरबी अपने साम्राज्य के विस्तार के साथ-साथ इस्लाम का प्रचार भी कर रहे थे। जब इन अरबों ने इतनी जगह पर अपना कब्जा जमा लिया तो इनके मन में भारत पर भी विजय प्राप्त करने की लालसा जागृत हुयी। साथ ही युद्ध होने की एक वजह और भी थी। देवल बंदरगाह के निकट सिंध के समुद्री डाकुओं ने अरब के एक जहाज को लूट लिया और खलीफा उमर के अरब गवर्नर अल हज्जाज ने राजा दाहिर सेन से मुआवजा माँगा तो दाहिर सेन ने मुआवजा देने से यह कहकर मना कर दिया कि डाकुओं पर उनका कोई दबाव नहीं है। दाहिर सेन के इस जवाब से अरब खलीफा तिलमिला उठा और तभी से हिंद और सिंध साम्राज्य पर एक के बाद एक लगातार आक्रमण का सिलसिला चालू हो गया मगर राजा दाहिर सेन के कुशल नेतृत्व में सिंध पर विजय पाना इतना भी आसान नहीं था। सन् 711 ईस्वी तक महाराज दाहिर सेन के 35 साल के शासनकाल में अरबों ने छोटे बड़े बहुत से आक्रमण किए मगर सफलता नहीं मिली। तब सन् 712 ईस्वी में अरब शासक अल हज्जाज ने अपने दामाद एवं सेनापति मोहम्मद बिन कासिम को सिंध पर आक्रमण करने के लिए भेजा। गौरतलब है कि सन् 638 ईस्वी में अरब शासकों की नजर सिंध की तरफ उठी थी तब से लेकर सन् 711 ईस्वी के अंत तक 74 वर्षों के लम्बे अन्तराल में 9 खलीफाओं ने 15 बार आक्रमण किया और पराजित हुए। कासिम की सेना समुद्री मार्ग से मकरान के रास्ते बढ़ते हुए देवल बंदरगाह जा पहुँची। कासिम जानता था कि सीधे आक्रमण से सिंध पर विजय नहीं पाई जा सकती इसलिए उसने कत्लेआम शुरू कर दिया, बच्चे बूढ़े जवान औरतें किसी को नहीं छोड़ा। जल्द ही नेरून दुर्ग पर उसने विजय पा ली, परँतु राजा दाहिर सेन के रहते सिंधु नदी पार कर पाना नामुमकिन था इसलिए उसने बौद्ध धर्म को मानने वाले हैदरपुर के राज्यपाल राजा मोक्षवास को अपने चंगुल में फँसाया। जग प्रसिद्ध है कि घर का भेदी ही लंका ढ़ाता आया है। यही नहीं राजा मोक्षवास के साथ-साथ देवल के राजा ज्ञानबुद्ध ने भी इस अरबी सेना को खाने -पीने और रहने को अपना राज्य भी दे दिया। अब कासिम ने हैदराबाद सिंध के नीरनकोट पर हमला कर दिया। नीरनकोट को जीतने के बाद अरबी सेना के साथ रावनगर पर हमला करके रावनगर को भी अपने अधीन कर लिया और अंत में कासिम चित्तौड़ पहुँचा, जहाँ उस का मुकाबला शूरवीर राजा दाहिर सेन के साथ हुआ। इस नौ दिनों तक चलने वाले भयंकर युद्ध में क्षत्रिय, जाट और ठाकुरों ने भी अपना सहयोग दिया। दाहिर सेन की सेना अरबों का सफाया करते हुए आगे बढ़ती रही। अरब सेना पूर्णतया पराजय के कगार पर थी परन्तु भाग्य सिन्ध का भविष्य लिख चुका था। शताब्दियों से रणभूमि पर युद्ध के दौरान कुछ नियम होते थे, जिनमें से एक नियम था कि सूर्यास्त के बाद युद्ध नहीं किया जा सकता। उसी नियम के चलते दाहिर सेन की सेना रात में सो रही थी कि अचानक नियमों का उल्लंघन करते हुए कासिम ने सेना पर धावा बोल दिया जिसमें उसकी मदद की गद्दार राजा मोक्षवास और उसकी सेना ने, फिर भी यह युद्ध आगे 21 दिनों तक चलता रहा और गद्दार मोक्षवास की सहायता के बावजूद यह अरबी सेना परास्त हो गई। अब कासिम ने छल कपट का इस्तेमाल करते हुए स्वयं महिला रूप में दाहिर से मदद मांगी। चूँकि राजा दाहिर प्रजा की हर संभव मदद करते थे इसीलिए अपने इस स्वभाव के चलते वह कासिम के जाल में फँसकर अपनी सेना से काफी दूर निकल आए और वहाँ अरबी सेना से लड़ते-लड़ते अपने हाथी से नीचे गिर पड़े। बावजूद इसके 20 जून सन् 712 ईस्वी के दिन राऔर नाम के इस स्थान पर कासिम की सेना से लड़ते-लड़ते उन्होंने वीरगति प्राप्त की। इसके पश्चात कासिम की सेना सिंध में प्रवेश कर गई मगर वहाँ राजा दाहिर सेन की पत्नी महारानी लादी और किले में मौजूद महिलाओं ने कासिम का स्वागत तीरों और भालों से किया जिससे अरबी सेना को पीछे हटना पड़ा। गद्दार राजा मोक्षवास की असलियत से अनभिज्ञ होने के कारण उसे आलौर के किले में प्रवेश मिल गया। रात में मोक्षवास द्वारा किले के द्वार खोल दिए गए और अरबी सेना किले में प्रवेश कर गई। यह देखकर महारानी लादी एवं किले में मौजूद सभी स्त्रियों ने अग्नि कुंड में कूदकर जौहर कर लिया। महाराजा दाहिर सेन की दोनों बेटियाँ पीछे रह गईं जिन्हें कासिम ने बंदी बनाया और उपहार स्वरूप तोहफे में खलीफा अल हज्जाज के लिए अरब भेज दिया। खलीफा दोनों बहनों सूर्या एवं परीमल का सौंदर्य देख फिदा हो गए लेकिन सूर्या और परीमल ने कूटनीति अपनाते हुए खलीफा को बताया कि वह दोनों पाक दामन नहीं हैं और उसका जिम्मेदार कासिम है। इतना सुनकर खलीफा आगबबूला हो गया और उसने हुक्म दिया कि कासिम को बैल के चमड़े की बोरी में बंद कर के दश्मिक में उनके सामने लाया जाए परन्तु रास्ते में ही चमड़े की उस बोरी में दम घुटने से कासिम की मौत हो गयी। यह देखकर दोनों बहनों ने खलीफा को सच बताया कि उन्होंने झूूूठ बोला था, अब उन्होंने कासिम से अपने पिता की मौत का बदला ले लिया है। इतना कहकर जय सिन्ध, जय दाहिर बोलते - बोलते एक दूसरेे के सीने में खंजर घोंपकर अपने प्राण ले लिए और अपने देश के लिए शहीद हो गई। यह देख कर खलीफा अल हज्जाज ने कहा कि निश्चित ही सिंध जैसा देश हमने नहीं देखा जहां की स्त्रियां भी अपने देश के प्रति इतनी वफादार हैं। सिंधु साम्राज्य को जीतने में हमने अपना सब कुछ खो दिया। राजाा दाहिर सेन का यह परिचय " REAL N ROYAL PANDIT'S.... " में मिलता है, तो वहीं दूसरी ओर " चाचनामा " नामक ऐतिहासिक दस्तावेज के अनुसार एक और तथ्य सामने आता है कि कासिम की मौत के बाद खलीफा को जब सूर्य और परिमल के झूठ का पता चला तो उन्होंने दोनों बहनों को जिंदा ही दीवार में चुनवा दिया।

    इस युद्ध की " QUORA" के अनुसार इस युद्ध की एक कहानी और है। बसरा के अमीर अल हज्जाज इब्न युसुफ़ ने राजा दाहिर के ऊपर हमला किया। इसका मूल रूप कारण था सरनदीप के राजा द्वारा खलीफा को दिए गए उपहारों की चोरी। चोरी से नाराज होकर अल हज्जाज ने महाराजा दाहिर सेन के ऊपर आक्रमण करने के लिए मोहम्मद बिन कासिम को सन् 711 ईस्वी में भेजा। मोहम्मद बिन कासिम ने देवल पर हमला किया जिसे फतह करके वह नेरून गया जहाँ पर बुद्ध अनुयायी शासकों ने उसकी सहायता की। मोहम्मद बिन कासिम ने स्थानीय विपक्ष को अपने साथ मिलाकर महाराजा दाहिर पर हमला कर दिया और उनके पूर्वी राज्यों पर कब्जा कर लिया। राजा दाहिर ने मोहम्मद बिन कासिम को सिंध नदी को पार न करने देने के लिए मोर्चा संभाला इसके लिए उन्होंने अपनी सेनाओं को पूर्वी घाटों पर तैनात कर दिया जिसका नेतृत्व महाराजा दाहिर सेन का बेटा कर रहा था। परन्तु मोहम्मद बिन कासिम ने राजा दाहिर की सेना को हरा दिया, इसके बाद मोहम्मद बिन कासिम और राजा दाहिर के मध्य राऔर जो कि वर्तमान में नवाबशाह के नाम से जाना जाता है, में सन् 712 ईस्वी में युद्ध हुआ जिसमें राजा दाहिर वीरगति को प्राप्त हुए। हिंदू रिवाजों को निभाते हुए रानी लादी तथा सभी स्त्रियों ने जौहर कर वीरगति प्राप्त की। जब मोहम्मद बिन कासिम ने राजा दाहिर का कटा हुआ सिर अपने खलीफा अल हज्जाज के सामने रखा तो उसने कहा " हम ने सिंध पर बहुत मुश्किलों के बाद फतेह पाई है। मोहम्मद बिन कासिम ने कूटनीति से महाराजा दाहिर सेन को हराया है, हमने उनकी सारी दौलत लूट ली है और अब वह जगह अंडे के छिलके की तरह नाजुक हो गई है "

    महाराजा दाहिर सेन एवं उनकी पत्नी लादी के वीरगति को प्राप्त हो जाने के बाद ही अरबों ने सिंध की राजधानी आलौर पर कब्जा कर लिया और इस प्रकार सन् 712 ईस्वी में सिन्ध साम्राज्य मुस्लिम अरबों के शासनाधीन हो गया। यह भारत में इस्लामी शासन का पहला प्रवेश था।

    इतिहास में अपने देश के लिए शहीद होने वाले प्रथम व्यक्ति के रूप में महाराजा दाहिर सेन का नाम सदैव दर्ज़ रहेगा।

    उपरोक्त लेख में सभी नाम, तिथियाँ एवं घटनाएँ साभार अधोलिखित पुस्तकों एवं लेखों से संग्रहीत की गई हैं।

    1- पुस्तक - भारत भाग्य निर्माता - मंजू लोढ़ा

    2 - दाहिर - भारतकोश

    3 - ब्रह्मवीर ब्राह्मण राजा दाहिर सेन जी.... Real and Royal Pandits….

    4 -राजा दाहिर - विकिपीडिया

    5 - भारत पर खलीफाओं की दुनिया का संक्षिप्त इतिहास - वेबदुनिया

    6 - QUORA

    ***

    वीरों की गाथा

    कामिनी गुप्ता

    भारत में बहुत से महान योद्धा हुए हैं, जिन्होंने अपनी जान की कुर्बानी देने में एक क्षण के लिए भी नहीं संकोच किया। अपने वतन की आन, शान बचाने के लिए वहादुरी से दुश्मन से लोहा लेते हुए प्राणों को न्योछावर किया। इतिहास में ऐसे कितनी तरह के छोटे बड़े युद्ध हुए हैं, जिन्हें हम जानते हैं और शायद कुछ नहीं भी । ऐसे युद्धों में हर देशवासी हर शहीद को दिल से सलाम करते हैं और उन्हें प्रेरणा स्रोत्र बनाकर कहीं उनके नाम को यादगार बनाने के लिए स्मारक, या पार्क या किसी -किसी मार्ग को ही उनका नाम दिया जाता है जो देशवासियों का अपने वीर योद्धा के प्रति सम्मान भी व्यक्त करता है। उनकी वीरता को नमन करते हुए एक यादगार चिन्ह के रूप में स्थापित किया जाता है, जो पल-पल हमें उनके किए गए बलिदान की याद दिलाता है।

  • बहुत से ऐसे वहादुर युवा योद्धा भी हैं जिन्होंने बहुत ही कम उम्र में वतन के लिए अपने प्राणों की आहुती दी। ऐसे ही सैनिक कालौनी जम्मू में भी ऐसे वीर सपूत जन्मे जिन्होंने अपने फर्ज को निभाते हुए अपने प्राणों की परवाह न करते हुए अपने साथियों और वतन के लिए कम उम्र में अपना बलिदान दिया । उन पर हम सबको पूरे वतन को और माँ -बाप को भी गर्व है जिन्होंने उन्हें ऐसे संस्कारी दिए।
  • करगिल युद्ध को कौन भूल सकता है ? पाकिस्तान जो हमारा पड़ोसी होने के साथ-साथ हमारा दुश्मन भी है,ये युद्ध भारत और पाकिस्तान के बीच हुआ था। कईं ऐसे योद्धा भी होते हैं जिनकी कहानियाँ अनकही या अनसुनी भी रह जाती हैं । जिन्हें कुछ लोग जानतेहैं सब नहीं ! युद्ध में शहीद हुए एक ऐसे ही योद्धा की कहानी है जो जम्मू के सैनिक कलौनी का निवासी था।
  • मेजर अजय जसरोटिया जि्न्होने 1972 से 1999 तक का सफर तय किया पर अपने छोटे से सफर में भी खुद की पहचान बहादुरों में करवाई । अजय जसरोटिया जिनके पापा IG थे । अजय जसरोटिया को खेलों में भी बहुत रुचि थी, 1996 में उनकी तैनाती सोपोर कशमीर में हुई थी
  • मे जब करगिल युद्ध छिड़ गया तो युदध के दौरान उनको यूनिट के साथ दुश्मन से जो करगिल में ऊंची चोटी पर कब्जा कर बैठा था उससे वो कब्जा छुड़ाना था। अपनी यूनिट के साथ अजय जसरोटिया बड़ी ही बहादुरी के साथ आगे बड़े और लड़ाई की।। इस युद्ध में लड़ाई के दौरान उनको गोलियाँ भी लगीं,जिनकी वजह से उनके ज़ख्मों से बहुत खून बहने लगा। उनकी जान को बचाया जा सकता था अगर समय रहते उन्हें सही ईलाज मिल पाता। पर उस बहादुर ने उस कठिन दौर में भी अपनी जान की परवाह न करते हुए वहाँ से जाने के लिए मना कर दिया और अपने दूसरे ज़ख़्मी साथियों को पास के स्वास्थय केंद्र तक पहुंचाने में सहायता की।। चार जवानों को तो वो बचा पाए, पर उनके जख्म अब गहरे हो गए थे, पांचवे जवान को वो स्वासथ्य केंद्र नहीं पहुंचा सके और अपनी अंतिम सांस ली।
  • अजय जसरोटिया जैसे लोग शायद दुनिया में कम होते हैं, जो दूसरे की जान की कीमत अपनी जान से ज्यादा समझते हैं। उनकी इस बहादुरी और जिन्दादिली ने एक मिसाल कायम कर दी जो अपनी आखिरी सांस तक युद्ध में डटे रहे। अपने साथी और देशवासियों की हिफाजत करते हुए सच्चे मन से देश की सेवा की और धरती माँ का ऋण चुकाया। उनकी इंसानियत और बहादुरी की याद और इस महान शहादत के लिए सैनिक कलौनी के लोग अजय जसरोटिया के नाम से बने पार्क में हर स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस,जन्मदिन और शहादत दिवस पर इकट्ठे होकर उनको श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं।
  • बहादुर और वीर सैनिक मर कर भी नहीं मरते हैं ;
  • जो वतन के लिए मरते हैं वो हर दिल में बसते हैं !
  • उनके इस बलिदान ने देश का सम्मान भी बड़ाया और माता-पिता का भी सीना गर्व से चौड़ा हो गया। उनकी इस बहादुरी के लिए उन्हें राष्ट्रपति द्वारा मरणो उपरान्त “सेना मैडल” से सम्मानित किया गया।
  • उनके सम्मान में सैनिक कालोनी के कवि ने कुछ पंक्तियाँ पंजाबी में यूं लिखी हैं…..
  • देख मौत ऐ दुनिया नसदी, देख मौत मुस्काया
  • खा के गोली रण भूमि बिच,ज़रा नि ओ घबराया
  • ओ भारत माँ दा जाया,ओ भारत माँ दा जाया
  • अपने ज़ख्मा ते मुस्का के, औरा नू बचावे
  • शूरवीर अजय वरगा कोई, बिरला नज़र ऐ आवे
  • दे बलिदान शहीदां दे बिच, नां अपना लखवाया
  • ओ भारत माँ दा जाया, ओ भारत माँ दा जाया
  • खास दिना ते जद- जद ने, लोकी ऐथे आंदे
  • कर फूलां दी वर्षा सारे, बोल ने ऐयो सुनादे
  • मात – पिता ते मातृभूमि दा,अजय ने ऋण चुकाया
  • अजय ने ऋण चुकाया,ओ भारत माँ दा जाया।
  • सैनिक कलौनी के ही एक और बहादुर वीर की कहानी भी दिल को छू जाती है,1969 में जन्मे मेजर ईंद्रजीत सिंह बबर जिनके पिता जी रिटायर्ड कर्नल जी. एस. बबर हैं वे खुद भी एक बहादुर योद्धा रह चुके हैं। बचपन से ही ईंद्रजीत बबर के ह्रदय में देशप्रेम की लगन थी और कुछ कर गुजरने का जज़्बा था। उन्होने एस.एस. सी. की परीक्षा पास की।
  • फिर एक यंग लैफ्टिनैंट के तौर पर उन्होने Regiment of Artillarty ज्वाईन की और उनकी पोस्टिंग 14Fd Regt. में हुई।
  • ईंद्रजीत ने बहुत से मिशन में काम किया फिर उनकी पोस्टिंग असम में हुई। वहां उन्हें असम के डिस्ट्रीकट दरलंग मनालडी की जिम्मेदारी मिली, मिशन RHINO-LL'के तहत जो उल्फा के खिलाफ था। एक जानकारीके अनुसार कुछ आतंकवादियों के किसी के घर में छुपे होने की खबर मिली। वो भारी मात्रा में नए आधुनिक हथियारों से लैस थे । ईंदर्जीत बबर ने उन्हें घेरने की योजना बनाई और दावा बोल दिया। मेजर बबर अपने आफिसर, दो JCO s और 15 OR के साथ बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से स्थानिय वाहन का सहारा लेते हुए उनके छिपने के स्थान को हर तरफ से घेर लिय और उनके भागने के सारे रास्ते रोक दिए। आगे की तरफ से अगुवाई करते हुए मेजर ईंद्रजीत अपने साथियों के साथ सभी तरफ से घिरे हुए उन आंतकियो पर टूट पड़े। अचानक सामने से एक आतंकी ने आधुनिक उपकर्ण से फायर किया जो सामने से आ रहे मेजर बबर के स्टामैक में लगा । पर अपने गहरे ज़ख्म की परवाह न करते हुए उन्होने छलांग लगाकर उस आतंकी को दबोच कर वहीं ढेर कर दिया। एक और आतंकी ने दूसरी तरफ से उनके साथी पर ग्रनेड से हमला कर दिया बबर ने लपक कर उस आतकी को भी मौत के घाट उतार दिया।
  • अपने गुरुओं के इन शब्द को स्मरण करते हुए अपने कर्त्तव्य का पालन किया।
  • Jab Aadh udh nidan mile ran mai to juju maroon.
  • इस मिशन में मेजर बबर ने बहुत ही साहसिक लीडरशीप का
  • परिचय दिया और अपनी जान की परवाह न करते हुए भारी आधुनिक फायर और ग्रनेड हमलों के बीच अपनी सूझ बूझ से तीन उल्फा आतंकियों कोऔर एक उनके एरिया कमांडर को मार गिराया और बहुत ही मात्रा में हथियारों का जखीरा और यूनिवरसल मशीनगण, Ak-56 राईफल भी बरामद की । इस मिशन में उन्होने अपनी टीम के किसी भी आफिसर को कोई नुकसान नहीं पहुंचने दिया अपनी जान पर खेल कर इस मिशन को कामयाब बनाया और अपनी अंतिम सांसे ली। इस साहस, सफल लीडरशीप और काबलियत के लिए उन्हें मरण उपरान्त भारत के राष्ट्रपति द्वारा “ कीर्ति चक्र” से सम्मानित किया गया। उनकी याद में सैनिक कलौनी में उनके घर के समीप चौंक पर उनका स्मारक बनाया गया है जिसे बबर चौंक के नाम से जाना जाता है।
  • धन्य हैं वो माता पिता जिन्होंने ऐसे सपूत पैदा किए, जो इन्सानियत और वतन के सच्चे रखवाले थे। हम सभी देशवासी भी हर उस वीर को शत-शत नमन करते हैं जो अपनी जान की परवाह न करते हुए देश की आन,बान और शान के लिए सरहद पर दुशमन की गोली का सामना करते हैं और वतन को हर मुसिबत से बचाते हैं ।
  • ईंद्रजीत बबर की शान में भी उन्ही कवि द्वारा ये पंक्तियाँ पंजाबी में लिखी गई हैं
  • वाह रे बबर, वाह रे बबर, दिला दे बिच तू थां बनाई
  • मातृभूमि लेई जान गंवा के, बिच शहीदां गिनती कराई
  • वाह रे बबर, वाह रे बबर
  • मार के वैरी रणभूमि बिच,तरंगा ऊंचा था लहराया
  • मौत नूं हंस के गले लगा के, मात- पिता दा मान बड़ाया
  • प्रेरणा स्रोत रहें तू बबर, प्रतिमा तेरी है लगवाई
  • वाह रे बबर, वाह रे बबर
  • बनी रहे तेरी याद दिलां बिच, खास दिना ते लोकी आंदे
  • शहादत तेरी दी कर के चर्चा,श्रद्धा दे ने फूल चड़ांदे
  • बोल ने सारे ऐयो कैंदे,देश प्यार दी जोत जलाई
  • वाह रे बबर, वाह रे बबर, दिला दे बिच तूं थां बनाई।
  • सैनिक कालोनी के ही जांबाजो की श्रृंखला में एक और ऐसे ही योद्धा की गाथा दिल में वहादुरों के प्रति स्नेह औ सम्मान की भावना जगाती है। ये गाथा तहसील नौशहरा जिला पुंछ के सुबेदार नैन सिंह की है।

    लगभग 18 वर्ष की आयु में 1955 में सेना में भर्ती हुए । जिला राजोरी के पांजानार गांव में छ: उग्रवादियों के छुपे, होने की खबर मिली। सारे स्थान की घेराबंदी कर ली गई, यद्यपि आरंभिक खोज का कोई विशेष नतीजा न निकला फिर भी घेराबंदी बनाए रखी गई। कुछ समय बाद मौका मिलते ही उग्रवादी घेरा तोड़कर एक नाले की और भागने में सफल हो गए। सुबेदार नैन सिंह ने उनका पीछा करने में कोई समय नहीं गंवाया, भागते हुए उग्रवादियों की और अपनी लाईटमशीन गन को संभालते हुए पोजीशन ले ली। उनके भागने के सभी रास्ते बंद कर दिए, उग्रवादियों ने उनकी पार्टी पर जोरदार फायरिंग शुरु कर दी जिसकी लपेट में आकर एक NCO ज़ख़्मी हो गया खतरे की परवाह न करते हुए नैन सिंह बरसती गोलियों के बीच रेंगता हुए गए और NCO को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने में सफल हुए।इस सारी कारवाई के दौरान वो दुश्मन की गोली से बहुत ज़ख़्मी हो गऐ फिर भी वो रेंगते हुए उग्रवादियों के पास पहुंचे और उनपर ग्रनेड से हमला किया और गोलियों की बौछार भी कर दी एक उग्रवादी मौके पर ही मारा गया जबकि दूसरे ज़ख़्मी उग्रवादी ने नैन सिंह के सिर पर गोली दाग दी, प्राण त्यागने से पहले दूसरे उग्रवादी को भी उन्होने ढेर कर दिया। नैन सिंह को उनकी शूर वीरता के कारण कईं अवार्ड भी मिले इनमें से सबसे बड़े पदक शौर्य चक्र से 15 अगस्त 2001 को मरणो उपरान्त सम्मानित किया गया।

    फिर कवि ने उनकी शान में कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार लिखी…..

    वाह रे नैन,.वाह रे नैन

    याद शहादत तेरी कर भर आते नैन, भर आते नैन

    अपना सुख चैन लुटा के तूने,औरन को दिया सुख चैन

    वाह रे नैन, वाह रे नैन

    परिवार देश का करके ध्यान,संझोए थे सपने बहुत तेरे

    करेंगे साकार उन सपनों को, सुन बच्चे तेरे

    भर लेना गर तू भी चाहे, खुशी से अपने नैन,

    वाह रे नैन, वाह रे नैन !

    नैन सिंह का परिवार वर्तमान में सैनिक कालोनी का निवासी है। कैसा सौभाग्य है कि सैनिक कालोनी की धरती ऐसेवीर योद्धाओं से जुड़ी है।

    जय हिन्द !

    ***

    शूरवीर पृथ्वीराज चौहान

    डॉ अमृता शुक्ला

    भारत में भाषा, धर्म, जातिगत विविधता होते हुए भी प्राचीन काल से एकता की भावना विद्यमान रही हैजब -जब भी किसी ने इस एकता को खंडित करने का प्रयास किया है तब यहाँ पर ऐसी शक्तियों के प्रति संघर्ष जाग जाता रहा हैराष्ट्रीय एकता, देश - प्रेम मनुष्य के हृदय में अवश्य रहता है और रहना भी चाहिए क्योंकि जिस भूमि पर वह जन्म लेता है, जहां का अन्न, जल ग्रहण करके अपना विकास करता है, जीवन व्यतीत करता है, उस देश के प्रति प्रेम सबसे बढ़कर होना चाहिए

    देश -प्रेम वह पुण्य क्षेत्र है,असीम त्याग से विलसित

    आत्मा के विकास से जिसमें मानवता होती विकसित

    देश के प्रति प्रेम की उच्चतम भावना व्यक्तिगत लाभ से परे हैभारत में अनेक महान राजा और महान् व्यक्ति हुएं हैं जिन्होंने देश की रक्षा के लिए विदेशी ताकतों से लोहा लिया और प्राण गंवाए इन्हीं देश-प्रेम से ओतप्रोत वीर ,कुशल राजाओं में से एक प्रमुख पृथ्वीराज चौहान हैं जिनका भारतीय इतिहास में एक अविस्मरणीय नाम हैवे एक राजपूत राजा थे जिन्होंने बारहवीं सदी में उत्तरी भारत के दिल्ली और अजमेर साम्राज्यों पर शासन किया था | पृथ्वीराज चौहान दिल्ली के सिंहासन पर राज करने वाले अंतिम स्वत्रंत हिन्दू शासक थे | राय पिथोरा के नाम से प्रसिद्ध इस राजपूत राजा ने चौहान वंश में जन्म लिया था | उनके पिता का नाम सोमेश्वर चौहान और माता का नाम कर्पूरी देवी थाबारह साल बाद 1149 में पृथ्वीराज चौहान का जन्म हुआइनके जन्म लेते ही राज्य में बड़ी उथल-पुथल होने लगीइसके साथ उनको मारने के षडयंत्र रचे जाने लगेईश्वरीय कृपा से वे हर बार बच गएअजमेर की महारानी कपूरी देवी अपने पिता अनंगपाल की इकलौती संतान थींअनंगपाल के सामने यह बड़ी समस्या थी कि मृत्यु के पश्चात उनका शासन का उत्तराधिकारी कौन बनेगा ? इसलिए उन्होंने मन में विचार करने के बाद अपने बेटी-दामाद के सामने अपनी परेशानी रखी और नाती को शासन-तंत्र सौपने का प्रस्ताव रखाउन दोनों की सहमति के बाद पृथ्वी राज को उत्तराधिकारी घोषित किया गयासन् 1166 में महाराज अनंपाल की मृत्यु के बाद पृथ्वी राज का दिल्ली की गद्दी पर राज्य अभिषेक किया गयामात्र 11 वर्ष की उम्र में उन्होंने दिल्ली और अजमेर का शासन संभालाइसी उम्र में अपनी पिता की छाया से वंचित हो गएउन्हें सुख -दुख का अनुभव एक साथ ही हुआलेकिन वे बड़े साहसी और कुशल प्रशासक साबित हुएवे अपने राज्य के विस्तार के लिए सदा सजग रहते, और उसे कई सीमाओं तक फैलायापृथ्वीराज ने अपने चारों ओर अपना राज्य स्थापित कर लिया था जिसे वो अपने बराबर वीर समझते उससे युद्ध करके राज्य प्राप्त कर लेतेलेकिन अंत में वे राजनीति का शिकार हुए

    पृथ्वीराज बचपन से ही एक कुशल योद्घा थेबाल्यकाल के समय से ही शब्द भेदी बाण का उन्होंने अभ्यास किया थापृथ्वी राज के बचपन के मित्र चंदबरदाई तोमर वंश के शासक की बेटी के पुत्र थे जो उनके लिए किसी भाई से कम नहीं थे

    एक बार राजा पृथ्वी राज को मित्र चंदबरदाई ने रानी संयोगिता की सुंदरता का वर्णन किया और पृथ्वीराज को उनका चित्र दिखायादूसरी तरफ संयोगिता से पृथ्वीराज के बारे में चित्र देकर रानी के सामने वर्णन किया रानी संयोगिता और पृथ्वीराज एक दूसरे से मिले बिना केवल चित्र देखकर मोहित होकर आपस में प्रेम करने लगेसंयोगिता के पिता जयचंद के मन में पृथ्वीराज के प्रति ईर्ष्या का भाव था और उसे नीचा दिखाने का अवसर ढूंढते थेजबसे अनंगपाल ने पृथ्वीराज को गोद लिया तबसे अजमेर और दिल्ली एक हो गए थेये बात जयचंद की ईर्ष्या को और बढ़ा गयी आखिर पृथ्वीराज से बदला लेने का अवसर जयचंद को मिल गयाजयचंद ने बेटी संयोगिता का स्वंयावर आयोजित कियाइस स्वयंवर में पृथ्वीराज को छोड़कर पूरे देश से राजाओं को आमंत्रित कियाइसके साथ जयचंद ने अपमानित करने के लिए पृथ्वीराज की स्वर्ण मूर्ति बनाकर द्वारपाल के स्थान पर रखवा दीसंयोगिता ने प्रेम के वशीभूत द्वारपाल की मूर्ति को जयमाला पहना दीस्वयंवर की खबर पाते ही पृथ्वीराज ने भरी सभा में से संयोगिता का अपहरण कर लियाजयचंद की सेना से बड़ी दूर तक पीछा किया,लडाई हुईलेकिन पृथ्वीराज बचकर संयोगिता को अपनी रियासत ले आएदिल्ली आकर दोनों का विधिवत विवाह संपन्न हुआइस अपहरण की घटना के बाद जयचंद और पृथ्वीराज के बीच दुश्मनी और बढ़ गईपृथ्वीराज की सेना बहुत विशालकाय थी जिसमें तीन लाख सैनिक और तीन सौ हाथी थेवे कुशल योद्घा थे इसलिए उनकी सेना अच्छी तरह संगठित थी और इसी के बल पर उन्होंने कई युद्ध जीतेशूरवीर पृथ्वीराज और उनके सामंतगण आदर्श योद्धा थेपरंतु सीमा विस्तार के लिए तुर्क दुश्मनों को पीछे हटाना जरूरी थादूसरी ओर मुहम्मद गोरी बहुत ही महत्वाकांक्षी था वह भारतवर्ष में अपना साम्राज्य स्थापित करना चाहता थासर्वप्रथम मुहम्मद गोरी ने मुल्तान पर आक्रमण किया और उसे धोखे से जीत लियाउसके बाद मुहम्मद गोरी ने गुजरात के सोलंकियों से युद्ध किया ,लेकिन उसे पराजय का सामना करना पड़ामुहम्मद गोरी को अपना साम्राज्य खड़ा करने में पृथ्वीराज रास्ते का कांटा थाइस कारण मुहम्मद सुल्तान गोरी और पृथ्वीराज चौहान की आपस में युद्ध करने की स्थिति बनती रहतीअपने राज्य के विस्तार के लिए पृथ्वीराज ने इस बार पंजाब को चुनाजहाँ पर मुहम्मद शहाबुद्दीन गौरी का शासन था वह भटिंडा में बैठकर पंजाब पर शासन करता थागौरी से युद्ध करने के लिए पृथ्वीराज ने आक्रमण कर दियासर्वप्रथम हांसी, सरस्वती और सरहिंद का किला अपने अधिकार में ले लियाइसी बीच अनहिलवाडा में विद्रोह होने के कारण पृथ्वीराज को वहां जाना पड़ादूसरी तरफ उनकी अनुपस्थिति में उनकी सेना ने ताकत खो दी और सरहिंद का किला खोना पड़ाअनहिलवाडा से आने पर पृथ्वीराज ने दुश्मनों के छक्के छुड़ा दियायुद्ध में भागे हुए सैनिक ही बचे और मुहम्मद गौरी अधमरे हो गएअपने ऊंचे तुर्की घोड़े पर घायल अवस्था में गिरने ही वाला था कि उसके सैनिक की दृष्टि सुल्तान पर पड़ी और उसने गोरी के घोड़े की लगाम थाम ली और कूद कर सुल्तान के घोड़े पर चढ़ गयागोरी को हराकर पकड़ लिया गया था ,पर पृथ्वीराज ने गोरी को क्षमा दान देकर छोड़ दियाबाद में गौरी को सैनिक घोड़े पर ड़ालकर महल में ले गए और उपचार कराया गयानेतृत्व विहीन गोरी की सेना तितर-बितर हो गईपृथ्वीराज की सेना ने दुश्मन की सेना का बहुत दूर तक पीछा कियाइस विजय में पृथ्वीराज को बहुत धन-संपत्ति जीती,जिसे बाद में उसने अपने बहादुर सैनिकों में बांट दियापृथ्वीराज ने अपने आदर्श और नियमों का हमेशा पालन किया -स्त्रियों पर हमला न करना, गिरे हुए घायलों और पीठ दिखाने वाले सैनिकों को न मारना आदिपरंतु इन सबसे बढ़कर पृथ्वीराज ने शत्रु को प्राण दान ही नहीं वरन् ऐसे प्रबल शत्रु को जो कई बार अपमानित और दंडित होकर बार-बार आक्रमण करता रहा, बंदी बनाने के बाद मुक्त कर दिया और सैनिक के द्वारा महल भिजवाया

    पुत्री के अपहरण के बाद जयचंद ने बढ़ी दुश्मनी के कारण अन्य राजपूत राजाओं को पृथ्वीराज के खिलाफ भड़काने लगातभी जब जयचंद को गौरी और पृथ्वीराज के युद्ध का पता चला तो वह गौरी के साथ खड़ा हो गया ताकि पृथ्वीराज से बदला ले सकेजयचंद और मुहम्मद गौरी ने मित्रता स्थापित कर ली दोनों ने मिलकर 1192 में पुनः पृथ्वीराज पर हमला कर दियाइस हमले का समाचार पाकर पृथ्वीराज अपने सैनिकों के साथ पूरी तैयारी के साथ मैदान में उतरे थेपृथ्वीराज की सेना और तैयारी का वर्णन गौरी अपने गुप्तचर से सुन चुके थे, जिससे वो ड़रते हुए आगे बढ़ने का विचार कर रहा था लेकिन जयचंद के साथ देने के कारण मुहम्मद गौरी की शक्ति ज्यादा हो गईपृथ्वीराज ने युद्ध भी पहले की तरह तराई के मैदान में हुआपृथ्वीराज मुहम्मद गोरी से मोर्चा लेने के लिए तैयार हुएसंयोगिता से विवाह के पश्चात उनका और पृथ्वीराज का अंतिम मिलन और प्रथम वियोग थापृथ्वीराज के नेतृत्व राजपूत सेना पानीपत से बढ़ती हुई सतलज नदी के पार पहुंच गई थीतब पृथ्वीराज ने अपने मित्र को चंदबरदाई को कांगडा दुर्ग के हमीर को मना लाने के लिए भेजा और कहा कि 'उससे मिलते ही कहना कि-उस पर जो कलंक लगाया था ,वो मज़ाक थावह तो सदा ही युद्ध में अग्रगामी रहा है'फिर चंद से बोले कि-'मार्ग में विराम मत करना ,क्योंकि समय थोड़ा है'हमीर को कई तरह से समझाया पर वो नहीं मानेचंदबरदाई ने और भी राजपूत राजाओं से मदद मांगी लेकिन संयोगिता के अपहरण की वजह से किसी ने मदद नहीं की,क्योकि जयचंद ने बेटी के अपहरण की बात से राजपूत राजाओं को भडकाया थाऐसे में पृथ्वीराज अकेले पड़ गए उन्होंने अपने तीन लाख सैनिकों के साथ दुश्मनों का सामना कियामहाराज जयचंद की अस्सी लाख सेना पृथ्वीराज की सेना को घेरे हुए थे और उसकी चतुरंगिणी सेना का सबसे पहले मोर्चा रोकनेवाला पृथ्वीराज का सामंत लंगरीराय थालंगरीराय बडा़ ही परक्रमी और शूरवीर थायुद्ध के समय जयचंद के प्रधान सुमित्र के वार ने लंगरीराय का आधा शरीर चीर दिया पर इसके बाद भी जान रहने तक वह युद्ध करता रहाइस समय युद्ध का मैदान भंयकरता से भरा थाइसी का वर्णन एक कवि ने इस प्रकार किया है--

    पैदल के पैदल आ भिडे, औ असवारन से असवार। ।

    हौदा के संग हौदा भिड गए, हाथिन लड़े दांत से दांत। ।

    सात कोस सौं चले सिरोही, चारों तरफ चले तलवार। ।

    पैग पैग पर पैदल गिरि गए,उनके दुदुई पैग असवार। ।

    चारों तरफ मार-काट हो रही थीदोनों राजा अपनी सैनिकों के साथ एक दूसरे को हराने की खातिर संघर्ष कर रहे थेशत्रु को मृत्यु के फंदे में डाल वीरों की रात व्यतीत हुईप्रातःकाल होते ही सैनिक चक्रव्यूहाकार में अपनी सेना सजाए खड़े थेसुबह होने के साथ दोनों दलों के सुभटों ने अपनी तलवारें खींच लींं और भंयकर युद्ध शुरू हो गयायुद्ध-भूमि रक्त से लाल हो गई थीसैनिक लड़ रहे, उनके शव इधर-उधर गिर रहे थेचील-कौए-गिद्ध नभ में उड़ रहे थेतलवारें जब चलती तो बिजली चमकने लगतीधूल का गुबार उड़ रहा थाहाथी की चिंघाड गूंज रही थीपृथ्वीराज अकेले होकर अपनी सेना के साथ लड़ाई कर रहे थेयुद्ध अपनी चरम सीमा पर थाशूरवीर अपना पराक्रम दिखाते हुए वीरगति को प्राप्त हो रहे थेउस समय पृथ्वीराज की मदद के लिए चंदबरदाई ने युद्ध करने की आज्ञा मांगीफिर बिना उनके आज्ञा के रण प्रांगण मेंं घोडा दौडा दियाचंद ने अद्भुत साहस,धैर्य और युद्ध-कौशल से शत्रु की सेना को विचलित और तितर-बितर कर दियामुहम्मद गोरी की सेना में अच्छे घुडसवार थेतभी अवसर देख कर घुडसवारों ने चारों ओर से पृथ्वीराज को घेर लियाऐसे में जयचंद के गद्दार सैनिकों ने राजपूत सैनिकों का संहार कियाजिससे पृथ्वीराज हार गएहारने के बाद पृथ्वीराज और चंदबरदाई को बंदी बना लियाबाद में राजा जयचंद को भी गद्दारी के कारण मार डाला गयामुहम्मद गौरी पृथ्वीराज को अपने राज्य ले गए और बहुत यातनाएं दीदूसरे दिन मुहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज को दरबार में उपस्थित होने की आज्ञा दीउनकी आंखों को लोहे की गर्म सलाखों से जलाया गया,जिससे वे अंधे हो गएगोरी ने कहा पृथ्वीराज तुमने मुझे सात लोहे के तवे भेदने का वचन दिया थालेकिन अब तुम्हारी आँखों से दिखेगा नहीं, तुम अपना वचन कैसे पूरा करोगेतब भी पृथ्वीराज ने साहस नहीं छोड़ा और अपना दिया वचन पूरा करने को तैयार थे। । लेकिन पृथ्वीराज की बात पर ध्यान दिए मुहम्मद गौरी ने पृथवीराज की ओर मुखातिब होकर कहा --अरे रहने दोअपनी अंतिम इच्छा बता दो पृथ्वीराज ने अपने कवि मित्र चंदबरदाई के शब्दों पर शब्द भेदी बाण का उपयोग करने की इच्छा प्रकट कीसुल्तान ऊपर बड़े मंच पर राजसिंहासन पर पृथ्वीराज के कौशल्य को देखने के लिए विराजमान हो गयातब कवि चंदबरदाई ने दोहा बोला एक तरह से वह इस दोहे के माध्यम से पृथ्वीराज को यह संकेत देना चाहता था कि मुहम्मद गोरी जिस जगह बैठे हैं उसकी दूरी समझ कर वो निशाना साध सके--

    चार बांस, चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण

    ता ऊपर सुल्तान है, मत चूको चौहान। ।

    यह सुनकर पृथ्वीराज ने बाण चला कर सुल्तान की हत्या कर दीइसके बाद मुहम्मद गोरी के सैनिक पृथ्वीराज और चंदबरदाई को पकड़ने दौडेचंदबरदाई पृथ्वीराज को संभाल कर भागने लगेकाफी दूर सैनिकों से बचकर दोनों ने अपनी दुर्गति से बचने के लिए अपना जीवन समाप्त कर लियाजब संयोगिता को यह खबर मिली तो उसने भी अपना जीवन खतम कर लियाइस प्रकार देश के अंतिम हिन्दू शासक का अंत हो गया

    ***

    हल्दी घाटी की लड़ाई

    Vrishali Gotkhindikar

    जो लड़ाइया जानी मानी कही जाती है

    उनमेसे एक है “हल्दी घाटी की लड़ाई ..

    सुनते है इसीकी कहानी ..

    महाराणा प्रताप सिंह उदयपुर, मेवाड में शिशोदिया राजवंश के राजा थे।

    उनका नाम इतिहास में वीरता और दृढ प्रण के लिये अमर है। उन्होंने कई सालों तक मुगल सम्राट अकबर के साथ संघर्ष किया। उनका जन्म कुम्भलगढ दुर्ग में हुआ था। महाराणा प्रताप की माता का नाम जैवन्ताबाई था, जो पाली के सोनगरा अखैराज की बेटी थी। महाराणा प्रताप को बचपन में कीका के नाम से पुकारा जाता था। महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक गोगुन्दा में हुआ।

    उदयसिंह जब मेवाड़ के राणा हुए थे, तबसे कुछ ही दिनों के बाद अकबर ने मेवाड़ की राजधानी चित्तौड़ पर चढ़ाई की। मुग़ल सेना ने आक्रमण कर चित्तौड़ को घेर लिया था, लेकिन राणा उदयसिंह ने अकबर अधीनता स्वीकार नहीं की। हज़ारों मेवाड़ियों की मृत्यु के बाद जब उन्हें लगा कि चित्तौड़गढ़ अब नहीं बचेगा, तब उदयसिंह ने चित्तौड़ को 'जयमल' और 'पत्ता' आदि वीरों के हाथ में छोड़ दिया और स्वयं अरावली के घने जंगलों में चले गए। वहाँ उन्होंने नदी की बाढ़ रोक 'उदयसागर' नामक सरोवर का निर्माण किया था।

    वहीं उदयसिंह ने अपनी नई राजधानी उदयपुर बसाई।

    चित्तौड़ के विध्वंस के चार वर्ष बाद ही उदयसिंह का देहांत हो गया। उनके बाद महाराणा प्रताप ने भी युद्ध जारी रखा और मुग़ल अधीनता स्वीकार नहीं की।

    लेकिम तबतक पूर्व उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार और गुजरात के मुग़ल अधिकृत प्रदेशो में विद्रोह होने लगे थे ओर महाराणा भी एक के बाद एक गढ़ जीतते जा रहे थे |

    अतः परिणामस्वरूप अकबर उस विद्रोह को दबाने मे उल्जा रहा और मेवाड़ पर से मुगलो का दबाव कम हो गया। इस बात का लाभ उठाकर महाराणा ने ई.पू. 1585 में मेवाड़ मुक्ति प्रयत्नों को ओर भी तेज कर लिया। महाराणा की सेना ने मुगल चौकियां पर आक्रमण शुरू कर दिए और तुरंत ही उदयपूर समेत 36 महत्वपूर्ण स्थान पर फिर से महाराणा का अधिकार स्थापित हो गया।

    महाराणा प्रताप ने जिस समय सिंहासन ग्रहण किया, उस समय जितने मेवाड़ की भूमि पर उनका अधिकार था, पूर्ण रूप से उतने ही भूमि भाग पर अब उनकी सत्ता फिर से स्थापित हो गई थी।

    बारह वर्ष के संघर्ष के बाद भी अकबर उसमें कोई परिवर्तन न कर सका। और इस तरह महाराणा प्रताप समय की लंबी अवधि के संघर्ष के बाद मेवाड़ को मुक्त करने मे सफल रहे और ये समय मेवाड़ के लिए एक स्वर्ण युग साबित हुआ।

    अकबर महाराणा प्रताप का सबसे बड़ा शत्रु था, पर उनकी यह लड़ाई कोई व्यक्तिगत द्वेष का परिणाम नहीं था, हालांकि अपने सिद्धांतो और मूल्यो की लड़ाई थी। एक वह था जो अपने क्रूर साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था, जब की एक तरफ यह था जो अपनी भारत माँ की स्वाधीनता के लिए संघर्ष कर रहा था।

    अकबर ने मेवाड़ को पूर्णरूप से जीतने के लिए आमेर के राजा मानसिंह एवं आसफ ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़ल सेना को आक्रमण के लिए भेजा।

    दोनों सेनाओं के मध्य गोगुडा के निकट अरावली पहाड़ी की हल्दीघाटी शाखा के मध्य युद्ध हुआ।

    इस युद्ध में महाराणा प्रताप की तरफ से लडने वाले एकमात्र मुस्लिम सरदार थे -हकीम खाँ सूरी।

    इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व मानसिंह तथा आसफ खाँ ने किया।

    हल्दीघाटी के इस प्रवेश द्वार पर अपने चुने हुए सैनिकों के साथ राणा प्रताप शत्रु की प्रतीक्षा करने लगे। दोनों ओर की सेनाओं का सामना होते ही भीषण रूप से युद्ध शुरू हो गया और दोनों तरफ़ के शूरवीर योद्धा घायल होकर ज़मीन पर गिरने लगे। प्रताप अपने घोड़े पर सवार होकर द्रुतगति से शत्रु की सेना के भीतर पहुँच गये और राजपूतों के शत्रु मानसिंह को खोजने लगे।

    वह तो नहीं मिला, परन्तु राणा प्रताप उस जगह पर पहुँच गये, जहाँ पर अकबर बादशाह के बेटा 'सलीम' (जहाँगीर) अपने हाथी पर बैठा हुआ था।

    प्रताप की तलवार से सलीम के कई अंगरक्षक मारे गए और यदि प्रताप के भाले और सलीम के बीच में लोहे की मोटी चादर वाला हौदा नहीं होता तो अकबर अपने उत्तराधिकारी से हाथ धो बैठता।

    प्रताप के घोड़े चेतक ने अपने स्वामी की इच्छा को भाँपकर पूरा प्रयास किया। तमाम ऐतिहासिक चित्रों में सलीम के हाथी की सूँड़ पर चेतक का एक उठा हुआ पैर और प्रताप के भाले द्वारा महावत की छाती का छलनी होना अंकित किया गया है|

    महावत के मारे जाने पर घायल हाथी सलीम सहित युद्ध भूमि से भाग खड़ा हुआ।

    इस समय युद्ध अत्यन्त भयानक हो उठा था।

    सलीम पर राणा प्रताप के आक्रमण को देखकर असंख्य मुग़ल सैनिक उसी तरफ़ बढ़े और प्रताप को घेरकर चारों तरफ़ से प्रहार करने लगे।

    राणा प्रताप के सिर पर मेवाड़ का राजमुकुट लगा हुआ था।

    इसलिए मुग़ल सैनिक उन्हीं को निशाना बनाकर वार कर रहे थे। राजपूत सैनिक भी प्रताप को बचाने के लिए प्राण हथेली पर रखकर संघर्ष कर रहे थे। परन्तु धीरे-धीरे प्रताप संकट में फँसते जा रहे थे। स्थिति की गम्भीरता को परखकर राणा प्रताप झाला सरदार ने स्वामिभक्ति का एक अपूर्व आदर्श प्रस्तुत करते हुए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया।

    झाला सरदार मन्नाजी तेज़ी के साथ आगे बढ़ा और प्रताप के सिर से मुकुट उतार कर अपने सिर पर रख लिया और तेज़ी के साथ कुछ दूरी पर जाकर घमासान युद्ध करने लगा। मुग़ल सैनिक उसे ही प्रताप समझकर उस पर टूट पड़े और प्रताप को युद्ध भूमि से दूर निकल जाने का अवसर मिल गया।

    उनका सारा शरीर अगणित घावों से लहूलुहान हो चुका था। युद्धभूमि से जाते-जाते प्रताप ने मन्नाजी को मरते देखा।

    राजपूतों ने बहादुरी के साथ मुग़लों का मुक़ाबला किया, परन्तु मैदानी तोपों तथा बन्दूकधारियों से सुसज्जित शत्रु की विशाल सेना के सामने समूचा पराक्रम निष्फल रहा।

    युद्धभूमि पर उपस्थित बाईस हज़ार राजपूत सैनिकों में से केवल आठ हज़ार जीवित सैनिक युद्धभूमि से किसी प्रकार बचकर निकल पाये।

    अकबर की सेना में लड़ाके ज्यादा थे, तोपें थी और हाथियों की अधिकता भी थी। जबकी महाराणा प्रताप की सेना, अकबर की सेना की तुलना में कम थी।

    लेकिन महाराणा प्रताप का घोड़ा ‘चेतक’ दुश्मनों की सेना पर भारी था। महाराणा प्रताप अपने वीर घोड़े चेतक पर सवार होकर रणभूमि में आए थे, जो बिजली की तरह दौड़ता था और पल भर में एक जगह से दूसरी जगह पहुंच जाता था।

    अकबर की विशाल सेना बलशाली हाथियों से सुसज्जित थी लेकिन महाराणा प्रताप का वीर घोड़ा चेतक उन सभी हाथियों पर अकेला भारी था। युद्ध के दौरान चेतक के सिर पर हाथी का मुखौटा बांधा गया था ताकि हाथियों को भरमाया जा सके।

    माना जाता है कि चेतक पर सवार महाराणा प्रताप दुश्मनों के लिए “काल बन गये थे। दोनो के धैर्य और साहस के आगे सेनापति मानसिंह की सेना असहाय सी लग रही थी।

    युद्ध में एक ऐसा भी समय आया जब महाराणा प्रताप का मानसिंह से सामना हुआ। बस महाराणा प्रताप को चेतक के एक एड़ लगाने की ज़रूरत पड़ी और चेतक सीधा मानसिंह के हाथी के मस्तक पर चढ़ गया।

    चेतक के इस वार से मानसिंह हौदे में छिप गया लेकिन राणा के वार से महावत मारा गया। हालांकि हाथी से उतरते समय चेतक का एक पैर हाथी की सूंड में बंधी तलवार से कट गया।

    अद्वितीय स्वामिभक्ति, बुद्धिमत्ता एवं वीरता का दूसरा नाम ‘चेतक था |

    हल्दीघाटी के युद्ध में चेतक की भूमिका सिर्फ़ एक योद्धा अश्व की नही थी, बल्कि वह महाराणा प्रताप का दोस्त और बेमिसाल सहयोगी था।

    उसकी अतुलनीय स्वामिभक्ति कि वजह से ही उसे दुनिया का सर्वश्रेष्ठ अश्व का दर्ज़ा दिया गया। स्वामी भक्ति ऐसी कि मुगल सेना भी उसकी वीरता के सामने नतमस्तक थी। चेतक रणभूमि में बिजली बन कर कूद पड़ा|

    चौकड़ी भर-भर चेतक बन गया निराला था,

    राणा प्रताप के घोड़े से पड़ गया हवा को पाला था,

    जो बाग हवा से ज़रा हिली लेकर सवार उड़ जाता था,

    राणा की पुतली फिरी नहीं तब तक चेतक मुड़ जाता था”

    चेतक अपने स्वामी महाराणा प्रताप की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए, अपने एक पैर कटे होने के बावजूद महाराणा को सुरक्षित स्थान पर लाने के लिए, बिना रुके पांच किलोमीटर तक दौड़ा। यहां तक कि उसने रास्ते में पड़ने वाले 100 मीटर के बरसाती नाले को भी एक छलांग में पार कर लिया। जिसे मुगल की सेना पार ना कर सकी।

    राणा प्रताप को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाने के बाद ही चेतक ने अपने प्राण छोड़े|

    युद्ध में अपने इतने प्रियजनों, मित्रों, सैनिकों और घोड़े चेतक को खोने के बाद महाराणा प्रताप ने प्रण किया था कि वो जब तक मेवाड़ वापस प्राप्त नहीं कर लेते घास की रोटी खाएंगे और ज़मीन पर सोएंगे।

    आज भी चित्तौड़ की हल्दी घाटी में चेतक की समाधि बनी हुई है, जहाँ स्वयं प्रताप और उनके भाई शक्तिसिंह ने अपने हाथों से इस अश्व का दाह-संस्कार किया था।

    चेतक की स्वामिभक्ति पर बने कुछ लोकगीत मेवाड़ में आज भी गाये जाते हैं।

    इतिहासकार मानते हे कि इस युद्ध में कोई विजय नहीं हुआ। पर देखा जाए तो इस युद्ध में महाराणा प्रताप सिंह विजय हुए अकबर के विशाल सेना के सामने मुट्ठीभर राजपूत कितने देर तक टिक पाते पर ऐसा कुछ नहीं हुआ |

    ये युद्ध पूरे एक दिन चला और राजपूतों ने मुग़लो के छक्के छुड़ा दिये थे ओर सबसे बड़ी बात यहा हे की युद्ध आमने सामने लड़ा गया था! महाराणा कि सेना ने मुगल कि सेना को पीछे हटने के लिए मजबूर कर दिया था ओर मुगल सेना भागने लग गयी थी।

    महाराणा प्रताप सिंह ने मुगलो को कही बार युद्ध में भी हराया।

    शक्ति सिंह ने आपना अशव दे कर महाराणा को बचाया। प्रिय अश्व चेतक की भी मृत्यु हुई। यह युद्ध तो केवल एक दिन चला परन्तु इसमें 17,000 लोग मारे गएँ। मेवाड़ को जीतने के लिये अकबर ने सभी प्रयास किये। महाराणा की हालत दिन-प्रतिदिन चिंतीत हुई।

    25,000 राजपूतों को 12 साल तक चले उतना अनुदान देकर भामा शाह भी अमर हुआ।

    इस युद्ध में न तो अकबर जीत सका और न ही राणा हारे|

    इस युद्ध के बाद महाराणा प्रताप की युद्ध-नीति छापामार लड़ाई की रही थी।

    उन्होंने आखिरी समय तक अकबर से सन्धि की बात स्वीकार नहीं की और मान-सम्मान के साथ जीवन व्यतीत करते हुए लड़ाइयाँ लड़ते रहे।

    'हल्दीघाटी का युद्ध' भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध है।

    इस युद्ध में राणा प्रताप पराजित हुए। लड़ाई के दौरान अकबर ने युद्ध राणा प्रताप के पक्ष में निर्णायक नहीं हो सका।

    खुला युद्ध समाप्त हो गया था, किंतु संघर्ष समाप्त नहीं हुआ था। भविष्य में संघर्षो को अंजाम देने के लिए प्रताप एवं उसकी सेना युद्ध स्थल से हट कर पहाड़ी प्रदेश में आ गयी थी। मुग़लों के पास सैन्य शक्ति अधिक थी तो वहीं ग्वालियर नरेश ‘राजा रामशाह तोमर’ भी अपने तीन पुत्रों ‘कुँवर शालीवाहन’, ‘कुँवर भवानी सिंह ‘कुँवर प्रताप सिंह’ और पौत्र बलभद्र सिंह एवं सैंकडों वीर तोमर राजपूत योद्धाओं समेत चिरनिद्रा में सो गया।

    उसके बाद महाराणा प्रताप उनके राज्य की सुख-सुविधा मे जुट गए, परंतु दुर्भाग्य से उसके ग्यारह वर्ष के बाद ही 19 जनवरी 1597 में अपनी नई राजधानी चावंड मे उनकी मृत्यु हो गई।

    महाराणा प्रताप के मृत्यु पर अकबर को बहुत ही दुःख हुआ क्योंकि ह्रदय से वो महाराणा प्रताप के गुणों का प्रशंसक था ओर अकबर जनता था कि महाराणा जैसा वीर कोई नहीं हे इस धरती पर। यह समाचार सुन अकबर रहस्यमय तरीके से मौन हो गया और उसकी आँख में आंसू आ गए।

    ***