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आखिरी झूठ

विश्व की सबसे बेहतरीन कहानियाँ

अप्रैल की एक खूबसूरत सुबह बिल्कुल सही लड़की को देखने के बाद1

आखिरी झूठ6

कानून के दरवाजे पर12

दूसरे देश में14

धनिया की साड़ी19

प्रेम का अत्याचार28

भाग्य30

युद्ध34

सुखद अंत38

अप्रैल की एक खूबसूरत सुबह बिल्कुल सही लड़की को देखने के बाद

हारुकी मुराकामी

अप्रैल की एक खूबसूरत सुबह मैं टोक्यो के आधुनिक पड़ोस हाराजुकू में एक सँकरी सड़क पर, बिल्कुल सही लड़की के सामने से गुजरा।

दरअसल बात यह है कि वह सुंदर नहीं है। वह किसी भी तरह से औरों से अलग नहीं दिखती है। उसके कपड़े कुछ खास नहीं हैं। उसकी बाल भी सो कर उठने के कारण बिखरे हुए हैं। वह जवान भी नहीं है - तीस के करीब होगी, बल्कि सही तरीके से उसे 'लड़की' भी नहीं कहा जा सकता है। मगर फिर भी, मैं पचास गज की दूरी से जानता हूँ : वह मेरे लिए बिल्कुल सही लड़की है। मैंने जिस पल उसे देखा, तब से मेरे सीने में शोर मचा हुआ है, और मेरा मुँह रेगिस्तान की तरह सूख रहा है।

हो सकता है कि तुम्हारी खुद की पसंदीदा लड़की विशेष प्रकार की हो - जो पतले टखनों, या बड़ी आँखों या सुंदर उँगलियों वाली हो, या तुम अकारण ही ऐसी लड़कियों के प्रति आकर्षित होते होगे, जो खाना खाने में ज्यादा समय लेती हैं। निश्चित रूप से मेरी अपनी पसंद है। कभी-कभी किसी रेस्तराँ में मैं अपनी बगल की मेज पर बैठी लड़की को इसलिए घूर रहा होता हूँ क्योंकि मुझे उसकी नाक पसंद है।

लेकिन कोई भी इस बात पर जोर नहीं दे सकता है कि उसकी बिल्कुल सही लड़की किसी पूर्वकल्पित धारणा के अनुरूप है। मुझे नाक कितनी भी पसंद क्यों न हो, मुझे उसकी नाक का आकार याद नहीं है - या यह तक याद नहीं कि वह थी भी या नहीं। मैं यकीन के साथ बस यह याद कर सकता हूँ कि वह बहुत सुंदर नहीं थी। अजीब बात है।

"मैं कल सड़क पर बिल्कुल सही लड़की के सामने से गुजरा," मैं किसी को बताता हूँ।

"अच्छा?" वह कहता है। "क्या वह सुंदर थी?"

"जरूरी नहीं।"

"तुम्हारी मनचाही लड़की तो होगी न?"

"पता नहीं। लगता है मुझे उसके बारे में कुछ भी याद नहीं है। उसकी आँखों की बनावट या उसके वक्ष का आकार।"

"हैरानी की बात है।"

"हाँ। सच में।"

"अच्छा, ठीक है," वह पहले से ही ऊब कर कहता है, "तुमने क्या किया? उससे बात की? उसका पीछा किया?"

"नहीं। मैं बस सड़क पर उसके सामने से गुजरा था।"

वह पूर्व से पश्चिम की ओर जा रही है और मैं पश्चिम से पूर्व की ओर। यह अप्रैल की बहुत प्यारी सुबह है।

काश मैं उससे बात कर पाता। आधा घंटा काफी होता : मैं उससे बस उसके बारे में पूछता, उसे अपने बारे में बताता, और यह भी कहता कि मैं वास्तव में क्या करना चाहता था - उसे भाग्य की जटिलताओं के बारे में समझाता जिनके चलते हम 1981 में अप्रैल की एक खूबसूरत सुबह हाराजुकू की सड़क पर एक-दूसरे के सामने से गुजरे थे। यकीनन ये बातें आवेशपूर्ण रहस्यों से भरी होती, मानो जब दुनिया में शांति छाई हुई थी, तब प्राचीन घड़ी का निर्माण किया गया हो।

बातें करने के बाद, हम कहीं खाने के लिए जाते, शायद वुडी एलेन की कोई फिल्म देखते, कॉकटेल के लिए किसी होटल के बार में रुकते। किस्मत साथ देती, तो हम रात साथ बिता सकते थे।

मेरे दिल के दरवाजे पर संभावना दस्तक देती है।

अब हम दोनों के बीच की दूरी घट कर पंद्रह गज रह गई है।

मैं उसके करीब कैसे जा सकता हूँ? मुझे क्या कहना चाहिए?

"नमस्ते जी। क्या आप मेरे साथ बातचीत के लिए आधे घंटे का वक्त निकाल पाएँगी? "

बकवास। मेरी बात बीमा विक्रेता की तरह लगेगी।

"क्षमा कीजिए, लेकिन क्या आपको पड़ोस में रात भर कपड़े धोने वालों के बारे में पता है?"

नहीं, यह भी उतना ही अटपटा है। पहली बात, मेरे पास धुलवाने के लिए कपड़े नहीं है। ऐसी बात पर कौन विश्वास करेगा?

शायद सीधी सच्ची बात कहना ठीक होगा। "शुभ प्रभात। तुम मेरे लिए बिल्कुल सही लड़की हो।"

नहीं, वह इस पर विश्वास नहीं करेगी। या अगर वह विश्वास करेगी भी, तो हो सकता है वह मुझसे बात करना नहीं चाहे। वह कह सकती है, क्षमा करें, मैं तुम्हारे लिए बिल्कुल सही लड़की हो सकती हूँ, लेकिन तुम मेरे लिए बिल्कुल सही लड़के नहीं हो। ऐसा हो सकता था। और अगर मैं खुद को उस स्थिति में पाता, तो शायद मेरा दिल टूट जाता। मैं सदमे से कभी नहीं उबर पाता। मैं बत्तीस साल का हो गया हूँ, और बड़ा हो जाना इसी को कहते हैं।

हम फूलों की दुकान के सामने से गुजरते हैं। गर्म हवा का झोंका मेरी त्वचा को छू जाता है। डामर गीला है, और मुझे गुलाबों की खुशबू आती है। मैं उससे बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता हूँ। उसने सफेद स्वेटर पहना हुआ है, और उसके दाहिने हाथ में एक नया सफेद लिफाफा है जिस पर केवल डाक टिकट की कमी है। तो : उसने किसी को एक पत्र लिखा है, शायद उसने पूरी रात पत्र लिखने में बिताई हो, उसकी उनींदी आँखों से ऐसा लगता है। हो सकता है लिफाफे में वह हर रहस्य छुपा हुआ हो जिसके बारे में उसने कभी सुना होगा।

मैं कुछ और कदम बढ़ा कर मुड़ जाता हूँ : वह भीड़ में खो जाती है।

जाहिर है, अब मैं जानता हूँ कि मुझे वास्तव में उससे क्या कहना चाहिए था। हालाँकि वह इतना लंबा भाषण हो जाता, जो मेरे लिए ठीक से बोल पाना मुश्किल हो जाता। मेरे मन में जो विचार आते हैं, वे बहुत व्यावहारिक नहीं हैं।

अच्छा, तो। तब यह बात इस तरह शुरू होती "एक समय की बात है" और बात ऐसे खत्म होती "क्या आपको नहीं लगता कि यह दुखद कहानी है?"

एक समय की बात है, एक लड़का और एक लड़की थे। लड़का अठारह साल का और लड़की सोलह साल की थी। वह बहुत सुंदर नहीं था, और लड़की भी विशेष सुंदर नहीं थी। वे औरों की तरह बस साधारण से अकेले लड़का और लड़की थे। लेकिन वे तहेदिल से मानते थे कि उनके लिए दुनिया में कहीं न कहीं बिल्कुल सही लड़का और लड़की जरूर होंगे। हाँ, वे चमत्कार में विश्वास करते थे। और वह चमत्कार सच में हो गया।

एक दिन वे दोनों सड़क के नुक्कड़ पर अचानक मिल गए।

"हैरानी की बात है," लड़के ने कहा। "मैं हमेशा से तुम्हें तलाश करता रहा हूँ। शायद तुम्हें इस पर विश्वास न हो, मगर तुम मेरे लिए बिल्कुल सही लड़की हो।"

"और तुम," लडकी ने उससे कहा, "मेरे लिए बिल्कुल सही लड़के हो, हूबहू वैसे जिस रूप में मैंने तुम्हारे बारे में कल्पना की थी। यह सपने जैसा है।"

वे पार्क की बेंच पर बैठ कर, एक-दूसरे के हाथ थामे घंटों तक अपनी कहानियाँ सुनाते रहे थे। अब वे अकेले नहीं थे। उन्होंने एक-दूसरे में अपना बिल्कुल सही साथी तलाश कर लिया था। कितनी अद्भुत बात है कि आप अपने बिल्कुल सही प्रेमी को पा लें और वह भी आपको अपने लिए बिल्कुल सही पाए। यह चमत्कार है, बहुत बड़ा चमत्कार।

फिर भी, जब वे बैठ कर बातें कर रहे थे, तो उनके मन में कुछ संदेह पैदा हुआ : क्या किसी के सपनों का इतनी आसानी से साकार हो जाना सच में ठीक था?

और फिर, जब उनकी बातचीत में क्षणिक खामोशी आई, तो लड़के ने लड़की से कहा, "हम अपनी-अपनी परीक्षा लेते हैं - सिर्फ एक बार। अगर हम वास्तव में एक-दूसरे के बिल्कुल सच्चे प्रेमी हैं, तो एक बार फिर से, कहीं न कहीं, जरूर मिलेंगे। और जब ऐसा होगा, और हमें यकीन हो जाएगा कि हम बिल्कुल सही प्रेमी हैं, तो हम तभी के तभी शादी कर लेंगे। तुम क्या सोचती हो?"

"हाँ," उसने कहा, "हमें वास्तव में यही करना चाहिए।"

और इस तरह वे जुदा हो गए, लड़की पूर्व की ओर चली गई और लड़का पश्चिम दिशा में चल दिया।

वे इस परीक्षा के लिए मान गए थे, हालाँकि, इसकी कोई जरूरत नहीं थी। उन्हें यह शुरू ही नहीं करना चाहिए था, क्योंकि वे सच में एक-दूसरे के बिल्कुल सही प्रेमी थे, और यह एक चमत्कार था कि उनकी मुलाकात हुई थी। लेकिन वे इतनी कच्ची उम्र के थे कि उनके लिए इस बात को समझ पाना असंभव था। किस्मत के कठोर और उदासीन थपेड़े उन्हें निर्दयता से पटकने के लिए आगे बढ़ गए थे।

एक बार सर्दियों में, लड़का और लड़की दोनों, भयानक मौसमी बुखार की चपेट में आ गए और कई सप्ताह तक जीवन-मृत्यु के बीच झूलने के बाद उनकी स्मृति का लोप हो गया। जब उन्होंने आँखें खोलीं, तो उनके दिमाग छुटपन में गरीब डी.एच. लॉरेंस के गुल्लक की तरह खाली थे ।

तो भी, वे दोनों बुद्धिमान और पक्के इरादों वाले जवान लोग थे, और लगातार कोशिश करके उन्होंने एक बार फिर से वह बोध और भावना प्राप्त कर लिए जिनसे वे समाज के पूर्ण विकसित सदस्य होने के लायक हो गए थे। सौभाग्यवश, वे सही मायने में सच्चे नागरिक बन गए थे, जिन्हें पता था कि एक भूमिगत मेट्रो लाइन से दूसरी तक कैसे जाएँ, डाक घर में विशेष वितरण सेवा पत्र भेजने में पूरी तरह से सक्षम हो गए थे। दरअसल, उन्हें फिर से प्रेम का भी अनुभव हुआ, उन्हें कभी-कभी 75% या 85% तक भी प्यार मिला।

समय बहुत तेज़ी से गुजर गया, और देखते ही देखते लड़का बत्तीस साल का और लडकी तीस साल की हो गई।

अप्रैल की एक खूबसूरत सुबह, दिन शुरू करने के लिए एक कप कॉफी की तलाश में, लड़का पश्चिम से पूर्व की ओर चल रहा था, जबकि लड़की विशेष वितरण सेवा पत्र भेजने के इरादे से पूर्व से पश्चिम की तरफ बढ़ रही थी, लेकिन वे दोनों एक ही साथ टोक्यो के पड़ोस हाराजुकू में सँकरी गली में थे। वे सड़क के बीच में एक-दूसरे के सामने से गुजरे। उनके दिलों में खो चुकी यादों की हल्की सी लौ पल भर झिलमिलाई। दोनों ने सीने में गड़गड़ाहट महसूस की। और उन्हें पता चल गया था :

यह मेरे लिए बिल्कुल सही लड़की है।

यह मेरे लिए बिल्कुल सही लड़का है।

लेकिन उनकी यादों की चमक बहुत ही फीकी पड़ चुकी थी, और उनकी सोच चौदह वर्ष पहले जितनी साफ नहीं रह गई थी। वे कुछ भी बोले बिना एक-दूसरे के सामने से गुजर गए, भीड़ में खो गए। हमेशा के लिए।

क्या आपको नहीं लगता है कि दुखद कहानी है?

हाँ, यही सब है, जो मुझे उससे कह देना चाहिए था।

***

आखिरी झूठ

गुलाबदास ब्रोकर

कितनी सुंदर है वह? बात करने का मौका मिल जाए तो मज़ा आ जाए। नरेश घिया ने अपने आप से कहा। और बात करने के इरादे से उसने अपनी ओर बढ़ती हुई लड़की की तरफ़ मुसकरा-कर देखा।

उसके चेहरे पर भी मुस्कुराहट थी। वह कह रही थी,''मैं आपके पास आ ही रही थी।''''सचमुच, मुझे बहुत खुशी हुई मिस''''नंदिता मेहता'' उसने वाक्य पूरा किया।

''कल की गोष्ठी में मुझे आप का व्याख्यान बहुत पसंद आया,'' फिर अचानक वह आत्मविभोर हो कर बोली --''मुझे इतना पसंद आया कि मैंने सोचा अगर मैं खुद आकर आपका अभिनंदन नहीं करती हूँ,

तो अपनी नज़रों में ही गिर जाऊँगी।''नरेश ज़रा झुककर बोला,''थैंक्यू थैंक्यू थैंक्यू, मिस।''''नंदिता, नंदिता मेहता नहीं मिस्टर घिया।''''पर आपने गलती की न, मिस नंदिता।''''मैंने गलती की? कौन-सी?''मेरा नाम मिस्टर घिया नहीं, नरेश है।''''ओह, सॉरी, हाँ मैं अपनी खुशी ही आपके सामने व्यक्त करना चाहती थी।''

''मैं गौरवान्वित हुआ। पर क्या मैं सचमुच इतना अच्छा बोला था, इतना अच्छा कि आपके जैसी तेजस्वी स्त्री, 'सॉरी,' कन्या को खुद चलकर आना पड़ा मुझे बधाई देने!''

''आप ज़रूर इतना ही अच्छा बोले होंगे, नहीं तो मैं इधर क्यों आती?'' एक मुसकराहट उसके अधरों पर थी,''आप कैसे आदमी हैं? जैसे कि आपको पता ही न हो कि आप कितना अच्छा बोले थे।''

''सचमुच पता नहीं है मिस नंदिता। बहुत ही भुलक्कड़ हूँ। पर क्या कहा था मैंने?''

''अगर यही मैं बता सकती, तो बधाई स्वीकार कर रही होती, दे न रही होती। पर वह क्या वाक्य था ---''व्हॉट ग्रैमर इज लैंगुएज वह क्या क़्या था?''

''हाँ हाँ, वह तो वह तो, ''नरेश चुटकी बजाते हुए कह रहा था, ''वर्ड्स आर टु थॉट व्हॉट, ग्रैमर इज टू लैंगुएज...'' (विचारों के लिए जो महत्व शब्दों का हैं, वही महत्व भाषा के लिए व्याकरण का है।) पर नंदिता जी यह उक्ति मेरी नहीं है, कहीं पढ़ी थी मैंने।''

''पढ़ी हुई ही सही, पर आपने इसका प्रयोग बहुत अच्छा किया। फिर आपकी तो आदत है कि किसी चीज़ का भी यश लेना नहीं चाहते। पंडया साहब कह रहे थे।''

''क्या कह रहे थे पंडया साहब?''

''यही कि नरेश बिलकुल अभिमानी नहीं है। हमारी कक्षा में कल की गोष्ठी के संदर्भ में बाते करते हुए आज ही उन्होंने कहा कि आपने कोई निबंध बहुत अच्छा लिखा था, किन्तु उसका भी यश आप लेने को तैयार न हुए।''

''मतलब?''

''मतलब आपने कोई बहुत 'ब्रिलियंट' बात लिखी थी। उसकी प्रशंसा होने पर आपने मुसकरा कर कहा था कि इसके लिए मुझे बहुत बुद्धिमान मानना गलत होगा, क्योंकि मैंने उसे कहीं पढ़ा था।

''मैंने तो केवल उसे उद्घृत कर दिया था और सच भी यही था, मिस नंदिता''''मिस विस जाने दीजिए नरेश जी, सिर्फ़ नंदिता ही अच्छा लगता है।''

नरेश कुछ झुका। फिर मन में गुदगुदी महसूस करते हुए बोला, ''मैं झूठ नहीं कह रहा हूँ। मुझे मसखरी करने की आदत है। मैंने इमानदारी से लिखा था कि परीक्षक अगर ऐसा मानेगा कि ऐसा लिखनेवाला लड़का प्रतिभावान है, तो यह उसकी भूल होगी। अकसर ऐसा भी होता है कि जो चीज़ परीक्षक ने न पढ़ी हो, उसे विद्यार्थी पढ़ ले और उसे परीक्षा में लिख दे, तो परीक्षक उसे होशियार समझने लगता है।''

''होशियार है तो लगेगा भी।''

इस तरह से नरेश तथा नंदिता की मित्रता गाढ़ी होती गई, जो थोड़े ही दिनों में सारे कॉलेज की चर्चा का विषय बन गई। कालेज में नई आई नंदिता अपने रूप तथा लावण्य से सबके आकर्षण का केंद्र थी। नरेश अपनी चपलता और होशियारी के लिए सब का प्रिय था ही -- पर वह उस रूपवती सुंदरी का भी प्रिय हो जाए, यह किसी को भी पसन्द नहीं आया फिर भी सभी समझते थे कि यह स्वाभाविक ही है, क्यों कि नरेश जैसा प्रतिभाशाली था, वैसा ही धनवान भी था। बात-बात में वह लजाता हुआ कहता था कि बड़ौदा में उसके पिता की दो मिलें तथा चार मोटरें हैं। वहाँ तो बड़े राजसी ठाठ तथा लाड़-प्यार से रखा जाता है, पर उसकी इच्छा बंबई में ही पढ़ने की थी, इसलिए वह यहाँ चला आया है। मम्मी तो बहुत रोई थीं। पर पापा इरादे के बड़े पक्के हैं। बेटा अपने आप अपनी ज़िंदगी सँवार सके इसलिए न तो एक मोटर वहाँ से भेजते हैं और न मुझे यहाँ खरीदने देते हैं। वैसे चार में से दो तो बेकार पड़ी रहती है। एक का इस्तेमाल मम्मी करती है, एक पापा की सेवा में रहती है। जब कभी मैं वहाँ होता हूँ, तब तीसरी मोटर भी मुझे दे दी जाती है। और मम्मी अक्सर कहती है,''तू अकेला है इसलिए तेरे हिस्से में दो दो मोटरें हैं।''

नरेश और नंदिता जब भी मिलते उनकी बातचीत का विषय मुख्यत: विदेश होता। नंदिता कहती --''मेरे पिता जी काफी वर्ष विलायत में रहें हैं इसलिए मेरा बचपन करीब-करीब वहीं बीता है। पर मेरे पापा बड़े ही सनकी है। जब मैं दस साल की हुई, तब उन्होंने अपना वहाँ रहने का इरादा बदल दिया। तंबू उखाड़कर इधर आए। अब वह माथेपर त्रिपुंड आँकते हैं और गीता के श्लोक बोलते रहते हैं बड़े सनकी लगते हैं।''इतना कहकर वह ज़ोर से खिलखिला पड़ती। तभी नरेश पूछ बैठा,''टेम्स नदी को कलकल बहते नहीं सुना है ना?''''कैसे बहेगी बिचारी जब सारा शहर उसे घेरे हुए है।''''तो फिर ऐसे कलकल नाद करते हुए हँसना कहाँ से सीखा, नंदिता? बचपन तो तुमने उसी के किनारे बिताया है न?''''आप बड़े वैसे हैं!''''पर तुम्हारी तरह नहीं। और मेरे पिता भी तुम्हारे पिता की तरह नहीं हैं। उनमें सनक तो बिलकुल ही नहीं। व्यापार उनका प्राण है। विलायत में भी धंधा ही करते रहे। पारंगत हो कर जब स्वदेश लौटे, तब यहाँ भी व्यापार ही किया और ईश्वर की कृपा से उन्हें सफलता भी खूब मिली।''''ठीक--ठीक!'' नंदिता हँस पड़ी।

''दो मिलें तथा चार मोटर गाडियों की सफलता कोई खास सफलता नहीं कहलाती नरेश जी''''पाँचवी भी आनेवाली है,'' नरेश ने गंभीरता से कहा, ''आज ही मम्मी का पत्र आया है। उन्होंने इस बात को गुप्त रखने को कहा है।''''यह किसे मिलेगी?''''किसे मिलनी चाहिए?''''तुमको,'' नंदिता ताली बजाती उठ खड़ी हुई, ''आपको भी फ़ायदा हो गया। मुझे भी कभी उसमें लिफ्ट दोगे ना?''''मैं क्या कहूँ,'' नरेश ने असमंजस में पड़ते हुए कहा। उसकी आवाज़ भी धीमी पड़ गई,''कि उसे किसी को दे सकूँ, इसीलिए मम्मी का 'स्क्रू' घुमाने की कोशिश कर रहा हूँ।''''सचमुच!''

सामने रखी एक किताब की ओर संकेत करते हुए नंदिता ने नरेश से पूछा --''तुम मार्क्स को पूरा कर चुके हो शायद। यह तो कोई दूसरी किताब लगती है?''''यह फ्रायड की है, देखनी है?''''भाड़ में जाए फ्रायड, मुझे तो उसका नाम भी पसंद नहीं।''''तुम बहुत जल्दी ही ऊब जानेवाली जान पड़ती हो।''''तो लाओ, देख लेती हूँ, इसमें क्या है?''''नहीं, नहीं, रहने दो, मेरा फायड इतना गिरा हुआ नहीं है,'' नरेश ने हँसते हुए कहा।और उस पुस्तक को उसने जरा परे खिसका दिया।

''देखूँ, तुम्हारा फ्रायड। उसमें क्या पढ़ने लायक है?'' कहकर उसने अचानक आगे बढ़कर पुस्तक उठा ली।''अरे! यह तो लंदन की 'गाइड-बुक' है। फ्रायड कहाँ हैं?''''अरे, यह आ गई? बदल गई होगी। शायद, पटेल है ना, काफी दिनों से पीछे पड़ा है, लंदन के बारे में जानने के लिए। इसीलिए उसे देने के लिए लाया हूँ। बेचारा फ्रायड तो मेरे कमरे में ही सो रहा होगा।''''पर यह भी उन लोगों के लिए है जो लंदन से बिलकुल अनजान है।''''पटेल तो अनजान ही है ना!''

''पर यह पुस्तिका तो एकदम नई है। क्या उसी के लिए ख़रीदी?''''क्या करूँ मित्र है ना! और फिर क्या उसकी ख़रीदने की औकात है?''''कितने उदार हो तुम!''''उदार तो तुम हो नंदिता।''नरेश की आवाज़ भाव-विभोर हो उठी।''नहीं तो मेरे जैसे को इतने स्नेह भरी मित्रता कैसे देती!''''तुम्हारे जैसे को?'' नंदिता ने भृकुटी सिकोड़ कर पूछा।

नरेश ने उसी दिन अपने पिता को पत्र में लिखा,''आपकी एक बात हमेशा सच होती रहती है कि मुझे परीक्षा में अच्छी डिवीजन नहीं मिलती। वैसे, यह बात सभी मानते हैं कि मेरा सामान्य ज्ञान बहुतों से अच्छा हैं। चूँकि मैं किताबी कीड़ा नहीं हूँ। शायद, इसीलिए ऐसा है। यहाँ कोई नहीं मानेगा कि मैं वास्तव में ठूँठ हूँ। इतना ठूँठ कि बंगाली सीखने बैठा पर लिपि इतनी टेढ़ी-मेढ़ी कि उसी में उलझ कर रह गया और उसे छोड़ बैठा, फिर भी मेरे मित्र मुझे बंगाली का पंडित मानते हैं। मुझे हँसी आती है उन पर। माँ कैसी हैं? दुकान कैसी चल रही है? व्यापार मंदा ही लगता है। पिछले महीने आपने मुझे २५ रुपए कम भेजे थे। गुज़ारा कर रहा हूँ। पिछले महिने से एक टयूशन भी मिल गई है। आपकी कैसी तंदुरूस्ती है, उसमें मैं आपको ज़्यादा मेहनत करने देना नहीं चाहता हूँ।

अगले वर्ष तक मैं बी.ए. कर लूँगा। बस, इतनी ही देर है। इसके बाद मैं आपका बोझ हलका करने।''उसकी आँखें भर आई, हाथ रुक गया। उसे दो मिलों तथा चार मोटरों की याद हो आई!पत्र डाक में डालकर नरेश ने एक अजीब-सी तसल्ली महसूस की। ऐसी ही जैसी नंदिता के सान्निध्य से होती थी। यह सान्निध्य अब और ज़्यादा मधुर हो गया था।

कभी-कभी कोई यह भी कह उठता था कि दोनों का विवाह हो जाए तो जान छूटे। पर विवाह कैसे हो सकता था। नरेश तो जैसे कुछ जानता-समझता ही नहीं था। ''सारी दुनिया समझती है तो फिर यह कैसे नहीं समझता?'' नंदिता सोचती थी।''कैसा भोला है।''''तुम कुछ समझते क्यों नहीं?''''क्या नहीं समझता?''''जो सारी दुनिया समझती है वह।''''कि...''''यह मुझसे नहीं कहा जाएगा।''''तो किससे कहा जाएगा?''''तुमसे,'' कहकर नंदिता ने अचानक उसका हाथ थाम लिया। जो कुछ नरेश को अभी तक समझमें नहीं आया था, वह अचानक ही आ गया।''नंदी,'' वह सिर्फ़ इतना बोल सका।''बोलते क्यों नहीं?''''क्या बोलूँ, तू तो बहुत भोली है।''''भोले तो खुद हो। मन की बात कहने का साहस तक नहीं करते!'' हालात ने नरेश को जैसे सावधान कर दिया हो। उसके मुख पर एक निर्णय, एक निश्चय की चमक थी, उसने कहा, कहूँगा, एक दिन ज़रूर कहूँगा।''

''कहूँ? पर क्या कहूँ? ऐसी भोली-भाली, फूल जैसी निर्दोष लड़की से, जो मुझे दो मिलों तथा चार मोटरों का मालिक और माइकेल मधुसुदन दत्त पर्यंत बंगाली साहित्य का विद्वान समझती है। ऐसी श्रद्धामयी लड़की से भला क्या कहूँ?'' एक छोटी-सी कोठरी में करवट बदलते हुए नरेश को नींद नहीं आ रही थी। अपने सहपाठियों की नज़रों में उसने इस कोठरी को अपने चाचा का 'नेपियन-सी-रोड' का महल बना रखा था। किसी-किसी को तो उसने एक अट्टालिका को दूर से दिखाया तक भी था। पर चाचा का अभिमान तथा चाची की लड़ाकू वृत्ति की किलेबंदी करके उसने वहाँ सबका प्रवेश रोक रखा था। यह 'महल' जो हमेशा उसे गहरी नींद में सुला देता था, आज नींद के बजाय आँसुओं को उपहार दे रहा था। इस उपहार के पीछे उसको मेहनत करते हुए पिता तथा काया घिसती हुई माँ दिखायी देती है। नन्हें से गाँव की गंदी गलियाँ उभरती है।

उसमें क्या नंदिता रह सकती है? नामुमकिन, बिलकुल नामुमकिन। मैं नरेश घिया चाहे जितनी गपोड़ी होऊँ, पर ऐसा अत्याचार कभी नहीं कर सकूँगा। तो कहना क्या चाहिए? नंदिता से?''

''अब तो नंदी,'' उसने कहना चाहा। नंदिता जैसे नींद से जागी हो। विस्मय उसके चेहरे पर था। वह सोच रही थी नरेश की इस आवाज़ में इतनी व्यथा क्यों हैं?

''तुमने एक दिन मुझसे कहा था कि मैं तुमसे कुछ कहूँ।''''हाँ, हाँ,'' वह उत्साहपूर्वक बोली,''मैं तो इसी का इंतज़ार कर रही थी, हर रोज़, हर घड़ी, हर पल।''''मुझे तुमसे जो कहना है, वह कहूँगा, पर पहले एक सवाल पूछूँ?''''पूछो ना, नहीं क्यों?''''तुम मेरी कितनी घनिष्ठ मित्र हो?''''हूँ ही।''

''पर फिर भी।'' नरेश अचकचाया, बोला,''क्या मैंने कभी कोई मर्यादा तोड़ी है? मैंने कभी भी तुम्हारा मित्र के अलावा किसी और तरीके से स्पर्श किया है? सच कहना।''

''नहीं किया। पर तुम ऐसे हो, इसी कारण तो, मैं क्या कहूँ तुमको,''''कैसी भोली हो,'' उसने कहा --

''इतना गहरा संबंध होने पर भी मैंने ऐसा कुछ क्यों नहीं किया, इसका विचार तक तुमने नहीं किया।''

''इसमें विचार क्या करना। तुम इतने अच्छे हो कि...''''मनुष्य चाहे जितना अच्छा हो फिर भी वह ऐसा नहीं करेगा, नंदी।''''तो फिर कौन नहीं करेगा?'' नंदी ने छेड़ा।''शादी-शुदा'' जैसे कब्र से नरेश की आवाज़ आई।''नरेश,'' नंदिता चीख-सी पड़ी।

''शादी-शुदा'' नरेश ने उतने ही धीमे स्वर में दोबारा कहा। इसके पहले कि नंदिता उसे रोक कर कुछ पूछ सके, वह चला गया।

***

कानून के दरवाजे पर

फ़्रेंज़ काफ़्का

कानून के द्वार पर रखवाला खड़ा है। उस देश का एक आम आदमी उसके पास आकर कानून के समक्ष पेश होने की इजाजत माँगता है। मगर वह उसे भीतर प्रवेश की इजाजत नहीं देता।

आदमी सोच में पड़ जाता है। फिर पूछता है - 'क्या कुछ समय बाद मेरी सुनी जाएगी?

'देखा जाएगा'- रखवाला कहता है - 'पर इस समय तो कतई नहीं!'

कानून का दरवाजा सदैव की भाँति आज भी खुला हुआ है। आदमी भीतर झाँकता है।

उसे ऐसा करते देख रखवाला हँसने लगता है - 'मेरे मना करने के बावजूद तुम भीतर जाने को इतने उतावले हो तो फिर कोशिश करके क्यों नहीं देखते; पर याद रखना - मैं बहुत सख्त हूँ; जबकि मैं दूसरे रखवालों से बहुत छोटा हूँ। यहाँ एक कक्ष से दूसरे कक्ष तक हर दरवाजे पर एक रखवाला है और हर रखवाला दूसरे से ज्यादा शक्तिशाली है। कुछ के सामने जाने की हिम्मत तो मुझमें भी नहीं है।'

आदमी ने कभी सोचा भी नहीं था कि कानून तक पहुँचने में इतनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। वह तो यही समझता था कि कानून तक हर आदमी की पहुँच हर समय होनी चाहिए। फर कोटवाले रखवाले की नुकीली नाक, बिखरी-लंबी काली दाढ़ी को नजदीक से देखने के बाद वह अनुमति मिलने तक बाहर ही प्रतीक्षा करने का निश्चय करता है।

रखवाला उसे दरवाजे के एक तरफ स्टूल पर बैठने देता है। वह वहाँ कई दिनों तक बैठा रहता है। यहाँ तक कि वर्षो बीत जाते है। इस बीच वह भीतर जाने के लिए रखवाले के आगे कई बार गिड़गिड़ाता है। रखवाला बीच-बीच में अनमने अंदाज में उससे उसके घर एवं दूसरी बहुत-सी बातों के बारे में पूछने लगता है, पर हर बार उसकी बातचीत इसी निर्णय के साथ खत्म हो जाती है कि अभी उसे प्रवेश नहीं दिया जा सकता।

आदमी ने सफर के लिए जो भी सामान इकट्ठा किया था और दूसरा जो कुछ भी उसके पास था, सब रखवाले को खुश करने में खर्च कर देता है। रखवाला उससे सब कुछ इस तरह से स्वीकार करता जाता है मानो उस पर अहसान कर रहा हो।

वर्षो तक आशा भरी नजरों से रखवाले की ओर ताकते हुए वह दूसरे रखवालों के बारे में भूल जाता है! कानून तक पहुँचने के रास्ते में एकमात्र वही रखवाला उसे रुकावट नजर आता है। वह आदमी जवानी के दिनों में ऊँची आवाज में और फिर बूढ़ा होने पर हल्की बुदबुदाहट में अपने भाग्य को कोसता रहता है। वह बच्चे जैसा हो जाता है। वर्षो से रखवाले की ओर टकटकी लगाए रहने के कारण वह उसके फर कॉलर में छिपे पिस्सुओं के बारे में जान जाता है। वह पिस्सुओं की भी खुशामद करता है ताकि वे रखवाले का दिमाग उसके पक्ष में कर दें। अंततः उसकी आँखें जवाब देने लगती है। वह समझ नहीं पाता कि दुनिया सचमुच पहले से ज्यादा अँधेरी हो गई है या फिर उसकी आँखें उसे धोखा दे रही है। पर अभी भी वह चारों ओर के अंधकार के बीच कानून के दरवाजे से फूटते प्रकाश के दायरे को महसूस कर पाता है।

वह नजदीक आती मृत्यु को महसूस करने लगता है। मरने से पहले एक सवाल, जो वर्षो की प्रतीक्षा के बाद उसे तंग कर रहा था; रखवाले से पूछना चाहता है। वह हाथ के इशारे से रखवाले को पास बुलाता है; क्योंकि बैठे-बैठे उसका शरीर इस कदर अकड़ जाता गया है कि वह चाहकर भी उठ नहीं पाता। रखवाले को उसकी ओर झुकना पड़ता है क्योंकि कद में काफी अंतर आने के कारण वह काफी ठिगना दिखाई दे रहा था।

'अब तुम क्या जानना चाहते है'- रखवाला पूछता है - 'तुम्हारी चाहत का कोई अंत भी है?'

'कानून तो हरेक के लिए है।' आदमी कहता है - 'पर मेरी समझ में ये नहीं आ रही कि इतने वर्षो में मेरे अलावा किसी दूसरे ने यहाँ प्रवेश हेतु दस्तक क्यों नहीं दी?'

रखवाले को समझते देर नहीं लगती कि वह आदमी अंतिम घड़ियाँ गिन रहा है। वह उसके बहरे होते कान में चिल्लाकर कहता है - 'किसी दूसरे के लिए यहाँ प्रवेश का कोई मतलब नहीं था, क्योंकि कानून तक पहुँचने का यह द्वार सिर्फ तुम्हारे लिए ही खोला गया था और अब मैं इसे बंद करने जा रहा हूँ।'

***

दूसरे देश में

अर्नेस्ट हेमिंग्वे

शरत् ऋतु में भी वहाँ युद्ध चल रहा था, पर हम वहाँ फिर नहीं गए। शरत् ऋतु में मिलान बेहद ठंडा था और अँधेरा बहुत जल्दी घिर आया था। फिर बिजली के बल्ब जल गए और सड़कों के किनारे की खिड़कियों में देखना सुखद था। बहुत सारा शिकार खिड़कियों के बाहर लटका था और लोमड़ियों की खाल बर्फ के चूरे से भर गई थी और हवा उनकी पूँछों को हिला रही थी। अकड़े हुए, भारी और खाली हिरण लटके हुए थे और छोटी चिड़ियाँ हवा में उड़ रही थीं और हवा उनके पंखों को उलट रही थी। वह बेहद ठंडी शरत् ऋतु थी और हवा पहाड़ों से उतर कर नीचे आ रही थी।

हम सभी हर दोपहर अस्पताल में होते थे और गोधूलि के समय शहर के बीच से अस्पताल तक पैदल जाने के कई रास्ते थे। उनमें से दो रास्ते नहर के बगल से हो कर जाते थे, पर वे लंबे थे। हालाँकि अस्पताल में घुसने के लिए आप हमेशा नहर के ऊपर बने एक पुल को पार करते थे। तीन पुलों में से एक को चुनना होता था। उनमें से एक पर एक औरत भुने हुए चेस्टनट बेचती थी। उसके कोयले की आग के सामने खड़ा होना गरमी देता था और बाद में आपकी जेब में चेस्टनट गरम रहते थे।

अस्पताल बहुत पुराना और बहुत ही सुंदर था और आप एक फाटक से घुसते और और चल कर एक आँगन पार करते और दूसरे फाटक से दूसरी ओर बाहर निकल जाते। प्रायः आँगन से शव-यात्राएँ शुरू हो रही होती थीं। पुराने अस्पताल के पार ईंट के बने नए मंडप थे और वहाँ हम हर दोपहर मिलते थे। हम सभी बेहद शिष्ट थे और जो भी मामला होता उसमें दिलचस्पी लेते थे और उन मशीनों में भी बैठते थे जिन्होंने इतना ज्यादा अंतर ला देना था।

डॉक्टर उस मशीन के पास आया जहाँ मैं बैठा था और बोला - "युद्ध से पहले आप क्या करना सबसे अधिक पसंद करते थे? क्या आप कोई खेल खेलते थे?"

मैंने कहा - "हाँ, फुटबॉल।"

"बहुत अच्छा," वह बोला। "आप दोबारा फुटबॉल खेलने के लायक हो जाएँगे, पहले से भी बेहतर।"

मेरा घुटना नहीं मुड़ता था, और पैर घुटने से टखने तक बिना पिंडली के सीधा गिरता था, और मशीन घुटने को मोड़ने और ऐसे चलाने के लिए थी जैसे तिपहिया साइकिल चलानी हो। पर घुटना अब तक नहीं मुड़ता था और इसके बजाय मशीन जब मोड़ने वाले भाग की ओर आती थी तो झटका खाती थी। डॉक्टर ने कहा - "वह सब ठीक हो जाएगा। आप एक भाग्यशाली युवक हैं। आप दोबारा विजेता की तरह फुटबॉल खेलेंगे।"

दूसरी मशीन में एक मेजर था जिसका हाथ एक बच्चे की तरह छोटा था। उसका हाथ चमड़े के दो पट्टों के बीच था जो ऊपर-नीचे उछलते थे और उसकी सख्त उँगलियों को थपथपाते थे। जब डॉक्टर ने उसका हाथ जाँचा तो उसने मुझे आँख मारी और कहा - "और क्या मैं भी फुटबॉल खेलूँगा, कप्तान-डॉक्टर?" वह एक महान पटेबाज रहा था, और युद्ध से पहले वह इटली का सबसे महान पटेबाज था।

डॉक्टर पीछे के कमरे में स्थित अपने कार्यालय में गया और वहाँ से एक तस्वीर ले आया। उसमें एक हाथ दिखाया गया था जो मशीनी इलाज लेने से पहले लगभग मेजर के हाथ जितना मुरझाया और छोटा था और बाद में थोड़ा बड़ा था। मेजर ने तस्वीर अपने अच्छे हाथ से उठाई और उसे बड़े ध्यान से देखा। "कोई जख्म?" उसने पूछा।

"एक औद्योगिक दुर्घटना," डॉक्टर ने कहा।

"काफी दिलचस्प है, काफी दिलचस्प है," मेजर बोला और उसे डॉक्टर को वापस दे दिया।

"आपको विश्वास है?"

"नहीं," मेजर ने कहा।

मेरी ही उम्र के तीन और लड़के थे जो रोज वहाँ आते थे। वे तीनों ही मिलान से थे और उनमें से एक को वकील बनना था, एक को चित्रकार बनना था और एक ने सैनिक बनने का इरादा किया था। जब हम मशीनों से छुट्टी पा लेते तो कभी-कभार हम कोवा कॉफी-हाउस तक साथ-साथ लौटते जो कि स्केला के बगल में था। हम साम्यवादी बस्ती के बीच से हो कर यह छोटी दूरी तय करते थे। हम चारों इकट्ठे रहते थे। वहाँ के लोग हमसे नफरत करते थे क्योंकि हम अफसर थे और जब हम गुजर रहे होते तो किसी शराबखाने से कोई हमें गाली दे देता। एक और लड़का जो कभी-कभी हमारे साथ पैदल आता और हमारी संख्या पाँच कर देता, अपने चेहरे पर रेशम का काला रूमाल बाँधता था क्योंकि उसकी कोई नाक नहीं थी और उसके चेहरे का पुनर्निर्माण किया जाना था। वह सैनिक अकादमी से सीधा मोर्चे पर गया था और पहली बार मोर्चे पर जाने के एक घंटे के भीतर ही घायल हो गया था।

उन्होंने उसके चेहरे को पुनर्निर्मित कर दिया, लेकिन वह एक बेहद प्राचीन परिवार से आता था और वे उसकी नाक को कभी ठीक-ठीक नहीं सुधार सके। वह दक्षिणी अमेरिका चला गया और एक बैंक में काम करने लगा। पर यह बहुत समय पहले की बात थी और तब हममें से कोई नहीं जानता था कि बाद में क्या होने वाला था। तब हम केवल यही जानते थे कि युद्ध हमेशा रहने वाला था पर हम अब वहाँ दोबारा नहीं जाने वाले थे।

हम सभी के पास एक जैसे तमगे थे, उस लड़के को छोड़ कर जो अपने चेहरे पर काला रेशमी रूमाल बाँधता था और वह मोर्चे पर तमगे ले सकने जितनी देर नहीं रहा था। निस्तेज चेहरे वाला लंबा लड़का, जिसे वकील बनना था, आर्दिती का लेफ्टिनेंट रह चुका था और उसके पास वैसे तीन तमगे थे जैसा हम में से प्रत्येक के पास केवल एक था। वह मृत्यु के साथ एक बेहद लंबे अरसे तक रहा था और थोड़ा निर्लिप्त था। हम सभी थोड़े निर्लिप्त थे और ऐसा कुछ नहीं था जो हमें एक साथ रखे हुए था, सिवाय इसके कि हम प्रत्येक दोपहर अस्पताल में मिलते थे। हालाँकि, जब हम शहर के निष्ठुर इलाके के बीच से अँधेरे में कोवा की ओर चल रहे होते, और शराबखानों से गाने-बजाने की आवाजें आ रही होतीं और कभी-कभी सड़क पर तब चलना पड़ता जब पुरुषों और महिलाओं की भीड़ फुटपाथ पर ठसाठस भर जाती तो हमें आगे निकलने के लिए उन्हें धकेलना पड़ता। तब हम खुद को किसी ऐसी चीज के कारण आपस में जुड़ा महसूस करते जो उस दिन घटी होती और जिसे वे लोग नहीं समझते थे जो हमसे नफरत करते थे।

हम सब खुद कोवा के बारे में जानते थे जहाँ पर माहौल शानदार और गरम था और ज्यादा चमकीली रोशनी नहीं थी और मेजों पर हमेशा लड़कियाँ होती थीं और दीवार पर बने रैक में सचित्र अखबार होते थे। कोवा की लड़कियाँ बेहद देशभक्त थीं और मैंने पाया कि इटली में कॉफी-हाउस में काम करने वाली लड़कियाँ सबसे ज्यादा देशभक्त थीं -- और मैं मानता हूँ कि वे अब भी देशभक्त हैं।

शुरू-शुरू में लड़के मेरे तमगों के बारे में बेहद शिष्ट थे और मुझसे पूछते थे कि मैंने उन्हें पाने के लिए क्या किया था। मैंने उन्हें अपने कागज दिखाए, जो बड़ी खूबसूरत भाषा में लिखे गए थे, पर जो विशेषणों को हटा देने के बाद वास्तव में यह कहते थे कि मुझे तमगे इसलिए दिए गए थे क्योंकि मैं एक अमेरिकी था। उसके बाद उनका व्यवहार थोड़ा बदल गया, हालाँकि बाहरी व्यक्तियों के विरुद्ध मैं उनका मित्र था। जब उन्होंने प्रशंसात्मक उल्लेखों को पढ़ा उस के बाद मैं एक मित्र तो रहा पर मैं दरअसल उनमें से एक कदापि नहीं था, क्योंकि उनके साथ दूसरी बात हुई थी और उन्होंने अपने तमगे पाने के लिए काफी अलग तरह के काम किए थे। मैं घायल हुआ था, यह सच था; लेकिन हम सभी जानते थे कि घायल होना आखिरकार एक दुर्घटना थी। हालाँकि मैं फीतों के लिए कभी शर्मिंदा नहीं था और कभी-कभार कॉकटेल पार्टी के बाद मैं कल्पना करता कि मैंने भी वे सभी काम किए थे जो उन्होंने अपने तमगे लेने के लिए किए थे; पर रात में सर्द हवाओं के साथ खाली सड़कों पर चल कर जब मैं घर आ रहा होता और सभी दुकानें बंद होतीं और मैं सड़क पर लगी बत्तियों के करीब रहने की कोशिश कर रहा होता, तब मैं जानता था कि मैं ऐसे काम कभी नहीं कर पाता। मैं मरने से बेहद डरता था और अक्सर रात में बिस्तर पर अकेला पड़ा रहता था, मरने से डरते हुए और ताज्जुब करते हुए कि जब मैं मोर्चे पर दोबारा गया तो कैसा हूँगा।

तमगे वाले वे तीनों शिकारी बाज-से थे और मैं बाज नहीं था, हालाँकि मैं उन्हें बाज लग सकता था जिन्होंने कभी शिकार नहीं किया था। वे तीनों बेहतर जानते थे इसलिए हम अलग हो गए। पर मैं उस लड़के का अच्छा मित्र बना रहा जो अपने पहले दिन ही मोर्चे पर घायल हो गया था क्योंकि अब वह कभी नहीं जान सकता था कि वह कैसा बन जाता। मैं उसे चाहता था क्योंकि मेरा मानना था कि शायद वह बाज नहीं बनता।

मेजर, जो महान पटेबाज रहा था, वीरता में विश्वास नहीं रखता था और जब हम मशीनों में बैठे होते तो वह अपना काफी समय मेरा व्याकरण ठीक करने में गुजारता था। मैं जैसी इतालवी बोलता था उसके लिए उसने मेरी प्रशंसा की थी और हम आपस में काफी आसानी से बातें करते थे। एक दिन मैंने कहा था कि मुझे इतालवी इतनी सरल भाषा लगती थी कि मैं उस में ज्यादा रुचि नहीं ले पाता था। सब कुछ कहने में बेहद आसान था। "ओ, वाकई," मेजर ने कहा। "तो फिर तुम व्याकरण के इस्तेमाल में हाथ क्यों नहीं लगाते?" अतः हमने व्याकरण के इस्तेमाल में हाथ डाला और जल्दी ही इतालवी इतनी कठिन भाषा हो गई कि मैं तब तक उससे बात करने से डरता था जब तक कि मेरे दिमाग में व्याकरण की तसवीर साफ नहीं आ जाती।

मेजर काफी नियमित रूप से अस्पताल आता था। मुझे नहीं लगता कि वह एक दिन भी चूका होगा, हालाँकि मुझे पक्का यकीन है कि वह मशीनों में विश्वास नहीं रखता था। एक समय था जब हम में से किसी को भी मशीनों पर भरोसा नहीं था और एक दिन मेजर ने कहा था कि यह सब मूर्खतापूर्ण था। तब मशीनें नई थीं और हमने ही उनकी उपयोगिता को सिद्ध करना था। यह एक मूर्खतापूर्ण विचार था, मेजर ने कहा था, "एक परिकल्पना, किसी दूसरी की तरह।" मैंने अपना व्याकरण नहीं सीखा था और उसने कहा कि कि मैं एक न सुधरने वाला मूर्ख और कलंक था और वह स्वयं भी एक मूर्ख था कि उसने मेरे लिए परेशानी उठाई। वह एक छोटे कद का व्यक्ति था और वह अपना दायाँ हाथ मशीन में घुसा कर अपनी कुर्सी पर सीधा बैठ जाता और सीधा आगे दीवार को देखता जबकि पट्टे बीच में पड़ी उसकी उँगलियों पर ऊपर-नीचे प्रहार करते।

"यदि युद्ध समाप्त हो गया तो तुम क्या करोगे?"

"मैं अमेरिका चला जाऊँगा।"

"क्या तुम शादी-शुदा हो?"

"नहीं, पर मुझे ऐसा होने की उम्मीद है।"

"तुम बहुत बड़े मूर्ख हो," उसने कहा। वह बहुत नाराज लगा। "आदमी को कभी शादी नहीं करनी चाहिए।"

"क्यों श्री मैगियोर?"

"मुझे 'श्री मैगियोर' मत कहो।"

"आदमी को कभी शादी क्यों नहीं करनी चाहिए?"

"वह शादी नहीं कर सकता। वह शादी नहीं कर सकता," उसने गुस्से से कहा। "यदि उसे सब कुछ खोना है तो उसे खुद को सब कुछ खो देने की स्थिति में नहीं लाना चाहिए। उसे खुद को खोने की स्थिति में कतई नहीं लाना चाहिए। उसे वे चीजें ढूँढ़नी चाहिए जो वह नहीं खो सकता।"

वह बहुत गुस्से में था, कड़वाहट से भर कर बोल रहा था और बोलते समय सीधा आगे देख रहा था।

"पर यह क्यों जरूरी है कि वह उन्हें खो ही दे?"

"वह उन्हें खो देगा," मेजर ने कहा। वह दीवार को देख रहा था। फिर उसने नीचे मशीन की ओर देखा और झटके से अपना छोटा-सा हाथ पट्टों के बीच से निकाल लिया और उसे अपनी जाँघ पर जोर से दे मारा। "वह उन्हें खो देगा," वह लगभग चिल्लाया। "मुझसे बहस मत करो!" फिर उसने परिचारक को आवाज दी जो मशीनों को चलाता था। "आओ और इस नारकीय चीज को बंद करो।"

वह हल्की चिकित्सा और मालिश के लिए वापस दूसरे कमरे में चला गया। फिर मैंने उसे डॉक्टर से पूछते सुना कि क्या वह उसका टेलीफोन इस्तेमाल कर सकता है और फिर उसने दरवाजा बंद कर दिया। जब वह वापस कमरे में आया तो मैं दूसरी मशीन में बैठा था। उसने अपना लबादा पहना हुआ था और टोपी लगा ली थी और वह सीधा मेरी मशीन की ओर आया और मेरे कंधे पर अपनी बाँह रख दी।

"मुझे बेहद खेद है," उसने कहा, और अपने अच्छे हाथ से मुझे कंधे पर थपथपाया। "मेरा इरादा अभद्र होने का नहीं था। मेरी पत्नी की मृत्यु हाल ही में हुई है। तुम्हें मुझे माफ कर देना चाहिए।"

"ओ" मैंने उसके लिए व्यथित हो कर कहा। "मुझे भी बेहद खेद है।"

वह अपने निचले होठ काटता हुआ वहीं खड़ा रहा। "यह बहुत कठिन है," उसने कहा। "मैं इसे नहीं सह सकता।"

वह सीधा मुझसे आगे और खिड़की से बाहर देखने लगा। फिर उसने रोना शुरू कर दिया। "मैं इसे सहने में बिलकुल असमर्थ हूँ," उसने कहा और उसका गला रुँध गया। और तब रोते हुए, अपने उठे हुए सिर से शून्य में देखते हुए, खुद को सीधा और सैनिक-सा दृढ़ बनाते हुए, दोनो गालों पर आँसू लिए हुए और अपने होठों को काटते हुए वह मशीनों से आगे निकला और दरवाजे से बाहर चला गया।

डॉक्टर ने मुझे बताया कि मेजर की पत्नी, जो युवा थी और जिससे उसने तब तक शादी नहीं की थी जब तक वह निश्चित रूप से युद्ध के लिए असमर्थ नहीं ठहरा दिया गया था, निमोनिया से मरी थी। वह केवल कुछ दिनों तक ही बीमार रही थी।

किसी को उसकी मृत्यु की आशंका नहीं थी। मेजर तीन दिनों तक अस्पताल नहीं आया। जब वह वापस आया तो दीवार पर चारों ओर मशीनों द्वारा ठीक कर दिए जाने से पहले और बाद की हर तरह के जख्मों की फ्रेम की गई बड़ी-बड़ी तस्वीरें लटकी थीं। जो मशीन मेजर इस्तेमाल करता था उसके सामने उसके जैसे हाथों की तीन तस्वीरें थीं जिन्हें पूरी तरह से ठीक कर दिया गया था। मैं नहीं जानता, डॉक्टर उन्हें कहाँ से लाया। मैं हमेशा समझता था कि मशीनों का इस्तेमाल करने वाले हम ही पहले लोग थे। तस्वीरों से मेजर को कोई ज्यादा अंतर नहीं पड़ा क्योंकि वह केवल खिड़की से बाहर देखता रहता था।

(अर्नेस्ट हेमिंग्वे की कहानी "इन अनदर कंट्री" का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद)

***

धनिया की साड़ी

ऑगस्ट स्ट्रिंडबर्ग

लड़ाई का ज़माना था, माघ की एक साँझ। ठेलिया की बल्लियों के अगले सिरों को जोडऩे वाली रस्सी से कमर लगाये रमुआ काली सडक़ पर खाली ठेलिया को खडख़ड़ाता बढ़ा जा रहा था। उसका अधनंगा शरीर ठण्डक में भी पसीने से तर था। अभी-अभी एक बाबू का सामान पहुँचाकर वह डेरे को वापस जा रहा था। सामान बहुत ज़्यादा था। उसके लिए अकेले खींचना मुश्किल था, फिर भी, लाख कहने पर भी, बाबू ने जब नहीं माना, तो उसे पहुँचाना ही पड़ा। सारी राह कलेजे का ज़ोर लगा, हुमक-हुमककर खींचने के कारण उसकी गरदन और कनपटियों की रगें मोटी हो-हो उभरकर लाल हो उठी थीं, आँखें उबल आयी थीं और इस-सबके बदले मिले थे उसे केवल दस आने पैसे!

तर्जनी अँगुली से माथे का पसीना पोंछ, हाथ झटककर उसने जब फिर बल्ली पर रखा, तो जैसे अपनी कड़ी मेहनत की उसे फिर याद आ गयी।

तभी सहसा पों-पों की आवाज़ पास ही सुन उसने सर उठाया, तो प्रकाश की तीव्रता में उसकी आँखें चौंधिया गयीं। वह एक ओर मुड़े-मुड़े कि एक कार सर्र से उसकी बग़ल से बदबूदार धुआँ छोड़ती हुई निकल गयी। उसका कलेजा धक-से रह गया। उसने सर घुमाकर पीछे की ओर देखा, धुएँ के पर्दे से झाँकती हुई कार के पीछे लगी लाल बत्ती उसे ऐसी लगी, जैसे वह मौत की एक आँख हो, जो उसे गुस्से में घूर रही हो। 'हे भगवान्!' सहसा उसके मुँह से निकल गया, 'कहीं उसके नीचे आ गया होता, तो?' और उसकी आँखों के सामने कुचलकर मरे हुए उस कुत्ते की तस्वीर नाच उठी, जिसका पेट फट गया था, अँतड़ियाँ बाहर निकल आयी थीं, और जिसे मेहतर ने घसीटकर मोरी के हवाले कर दिया था। तो क्या उसकी भी वही गत बनती? और जि़न्दा रहकर, दर-दर की ठोकरें खानेवाला और बात-बात पर डाँट-डपट और भद्दी-भद्दी गालियों से तिरस्कृत किये जाने वाला इन्सान भी अपने शव की दुर्गति की बात सोच काँप उठा, 'ओफ़! यहाँ की मौत तो जि़न्दगी से भी ज्यादा जलील होगी!' उसने मन-ही मन कहा और यह बात खयाल में आते ही उसे अपने दूर के छोटे-से गाँव की याद आ गयी। वहाँ की जि़न्दगी और मौत के नक्शे उसकी आँखों में खिंच गये। जि़न्दगी वहाँ की चाहे जैसी भी हो, पर मौत के बाद वहाँ के ज़लीलतरीन इन्सान के शव को भी लोग इज़्ज़त से मरघट तक पहुँचाना अपना फ़जऱ् समझते हैं! ओह, वह क्यों गाँव छोडक़र शहर में आ गया? लेकिन गाँव में ...

''ओ ठेलेवाले!'' एक फ़िटन-कोचवान ने हवा में चाबुक लहराते हुए कडक़कर कहा, ''बायें से नहीं चलता? बीच सडक़ पर मरने के लिए चला आ रहा है? बायें चल, बायें!'' और हवा में लहराता हुआ उसका चाबुक बिलकुल रमुआ के कान के पास से सन सनाहट की एक लकीर-सा खींचता निकल गया।

विचार-सागर में डूबे रमुआ को होश आया। उसने शीघ्रता से ठेलिया को बायीं ओर मोड़ा।

लेकिन रमुआ की विचार-धारा फिर अपने गाँव की राह पर आ लगी। वहाँ ऐसी जि़न्दगी का आदी न था। जोतता, बोता, पैदा करता और खाता था। फिर उसे वे सब बातें याद हो आयीं, जिनके कारण उसे अपना गाँव छोडक़र शहर में आना पड़ा। लड़ाई के कारण ग़ल्ले की क़ीमत अठगुनी-दसगुनी हो गयी। गाँव में जैसे खेतों का अकाल पड़ गया। ज़मींदार ने अपने खेत ज़बरदस्ती निकाल लिये। कितना रोया-गिड़गिड़ाया था वह! पर जमींदार क्यों सुनने लगा कुछ? कल का किसान आज मज़दूर बनने को विवश हो गया। पड़ोस के धेनुका के साथ वह गाँव में अपनी स्त्री धनिया और बच्चे को छोड़, शहर में आ गया। यहाँ धेनुका ने अपने सेठ से कह-सुनकर उसे यह ठेलिया दिलवा दी। वह दिन-भर बाबू लोगों का सामान इधर-उधर ले जाता है। ठेलिया का किराया बारह आने रोज़ उसे देना पड़ता है। लाख मशक़्कत करने पर भी ठेलिया का किराया चुकाने के बाद डेढ़-दो रुपये से अधिक उसके पल्ले नहीं पड़ता। उसमें से बहुत किफ़ायत करने पर भी दस-बारह आने रोज़ वह खा जाता है। वह कोई ज़्यादा रक़म नहीं होती। पता नहीं, ग़रीब धनिया इस महँगी के ज़माने में कैसे अपना खर्च पूरा कर पाती है।

और धनिया, उसके सुख-दुख की साथिन! उसकी याद आते ही रमुआ की आँखें भर आयीं। कलेजे में एक हूक-सी उठ आयी। उसकी चाल धीमी हो गयी। उसे याद हो आयी बिछुडऩ की वह घड़ी, किस तरह धनिया उससे लिपटकर, बिलख-बिलखकर रोयी थी, किस तरह उसने बार-बार मोह और प्रेम से भरी ताक़ीद की थी कि अपनी देह का ख़ याल रखना, खाने-पीने की किसी तरह की कमी न करना। और रमुआ की निगाह अपने-ही-आप अपने बाज़ुओं से होकर छाती से गुज़रती हुई रानों पर जाकर टिक गयी, जिनकी माँस-पेशियाँ घुल गयी थीं और चमड़ा ऐसे ढीला होकर लटक गया था, जैसे उसका माँस और हड्डियों से कोई सम्बन्ध ही न रह गया हो। ओह, शरीर की यह हालत जब धनिया देखेगी, तो उसका क्या हाल होगा! पर वह करे क्या? रूखा-सूखा खाकर, इतनी मशक्कत करनी पड़ती है। हुमक-हुमककर दिन-भर ठेलिया खींचने से माँस जैसे घुल जाता है और खून जैसे सूख जाता है। और शाम को जो रूखा-सूखा मिलता है, उससे पेट भी नहीं भरता। फिर गयी ताक़त लौटे कैसे? जब धनिया उससे पूछेगी, सोने की देह माटी में कैसे मिल गयी, तो वह उसका क्या जवाब देगा? कैसे उसे समझाएगा? जब-जब उसकी चिट्ठी आती है, वह हमेशा ताक़ीद करती है कि अपनी देह का ख़ याल रखना। कैसे वह अपनी देह का ख़ याल रखे? इतना कतर-ब्योंतकर चलने पर तो यह हाल है। आज करीब नौ महीने हुए उसे आये। धनिया के शरीर पर वह एक साड़ी और एक झूला छोडक़र आया था। वह बार-बार चिठ्ठी में एक साड़ी भेजने की बात लिखवाती है। उसकी साड़ी तार-तार हो गयी होगी। झूला कब का फट गया होगा। पर वह करे क्या? कई बार कुछ रुपया जमा हो जाने पर एक साड़ी खरीदने की गरज़ से वह बाज़ार में भी जा चुका है। पर वहाँ मामूली जुलहटी साड़ियों की कीमत जब बारह-चौदह रुपये सुनता है, तो उसकी आँखें ललाट पर चढ़ जाती हैं। मन मारकर लौट आता है। वह क्या करे? कैसे साड़ी भेजे धनिया को? साड़ी खरीदकर भेजे, तो उसके खर्चे के लिए रुपये कैसे भेज सकेगा? पर ऐसे कब तक चलेगा? कब तक धनिया सी-टाँककर गुज़ारा करेगी? उसे लगता है कि यह एक ऐसी समस्या है, जिसका उसके पास कोई हल नहीं है। तो क्या धनिया ... और उसका माथा झन्ना उठता है। लगता है कि वह पागल हो उठेगा। नहीं, नहीं, वह धनिया की लाज ...

उसकी गली का मोड़ आ गया। इस गली में ईंटें बिछी हैं। उन पर ठेलिया और ज़ोर से खडख़ड़ा उठी। उसकी खडख़ड़ाहट उस समय रमुआ को ऐसी लगी, जैसे उसके थके, परेशान दिमाग़ पर कोई हथौड़े की चोट कर रहा हो। उसके शरीर की अवस्था इस समय ऐसी थी, जैसे उसकी सारी संजीवनी-शक्ति नष्ट हो गयी हो। और उसके पैर ऐसे पड़ रहे थे, जैसे वे अपनी शक्ति से नहीं उठ रहे हों, बल्कि ठेलिया ही उनको आगे को लुढक़ाती चल रही हो।

उस दिन से रमुआ ने और अधिक मेहनत करना शुरू कर दिया। पहले भी वह कम मेहनत नहीं करता था, पर थक जाने पर कुछ आराम करना ज़रूरी समझता था। किन्तु अब थके रहने पर भी अगर कोई उसे सामान ढोने को बुलाता, तो वह ना-नुकर न करता। खुराक में भी जहाँ तक मुमकिन था, कमी कर दी। यह सब सिर्फ़ इसलिए कर रहा था कि धनिया के लिए वह एक साड़ी खरीद सके।

महीना ख़ त्म हुआ, तो उसने देखा कि इतनी तरूद्दद और परेशानी के बाद भी वह अपनी पहले की आय में सिर्फ़ चार रुपये अधिक जोड़ सका है। यह देख उसे आश्चर्य के साथ घोर निराशा हुई। इस तरह वह पूरे तीन-चार महीनों मेहनत करे, तब कहीं एक साड़ी का दाम जमा कर पाएगा। पर इस महीने के जी-तोड़ परिश्रम का उसे जो अनुभव हुआ था, उससे यह बात तय थी कि वह ऐसी मेहनत अधिक दिनों तक लगातार करेगा, तो एक दिन खून उगलकर मर जायगा। उसने तो सोचा था कि एक महीने की बात है, जितना मुमकिन होगा, वह मशक्कत करके कमा लेगा और साड़ी खरीदकर धनिया को भेज देगा। पर इसका जो नतीजा हुआ, उसे देखकर उसकी हालत वही हुई, जो रेगिस्तान के उस प्यासे मुसाफ़िर की होती है, जो पानी की तरह किसी चमकती हुई चीज़ को देखकर थके हुए पैरों को घसीटता हुआ, और आगे चलने की शक्ति न रहते भी सिर्फ़ इस आशा से प्राणों का ज़ोर लगाकर बढ़ता है कि बस, वहाँ तक पहुँचने में चाहे जो दुर्गति हो जाय, पर वहाँ पहुँच जाने पर जब उसे पानी मिल जायगा, तो सारी मेहनत-मशक्कत सुफल हो जायगी। किन्तु जब वहाँ किसी तरह पहुँच जाता है, तो देखता है कि अरे, वह चीज़ तो अभी उतनी ही दूर है। निदान, रमुआ की चिन्ता बहुत बढ़ गयी। वह अब क्या करे, उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। कई महीने से वह धनिया को बहलाता आ रहा था कि अब साड़ी भेजेगा, तब साड़ी भेजेगा, पर अब उसे लग रहा है कि वह धनिया को कभी भी साड़ी न भेज सकेगा। उसे अपनी दुरावस्था और बेबसी पर बड़ा दुख हुआ। साथ ही अपनी जि़न्दगी उसे वैसे ही बेकार लगने लगी, जैसे घोर निराशा में पडक़र किसी आत्महत्या करनेवाले को लगती है। फिर भी जब धनिया को रुपये भेजने लगा, तो अपनी आत्मा तक को धोखा दे उसने फिर लिखवाया कि अगले महीने वह ज़रूर साड़ी भेजेगा। थोड़े दिनों तक वह और किसी तरह गुज़ारा कर ले।

उस सुबह रमुआ अपनी ठेलिया के पास खड़ा जँभाई ले रहा था कि सेठ के दरबान ने आकर कहा, ''ठेलिया लेकर चलो। सेठजी बुला रहे हैं।''

बेगार की बात सोच रमुआ ने दरबान की ओर देखा। दरबान ने कहा, ''इस तरह क्या देख रहे हो! सेठजी की भैंस मर गयी है। उसे गंगाजी में बहाने ले जाना है। चलो, जल्दी करो!''

वैसे निषिद्घ काम की बात सोच उसे कुछ क्षोभ हुआ। गाँव में मरे हुए जानवरों को चमार उठाकर ले जाते हैं। वह चमार नहीं है। वह यह काम नहीं करेगा। पर दूसरे ही क्षण उसके दिमाग़ में यह बात भी आयी कि वह सेठ का ताबेदार है। उसकी बात वह टाल देगा, तो वह अपनी ठेलिया उससे ले लेगा। फिर क्या रहेगा उसकी जि़न्दगी का सहारा? मरता क्या न करता? वह ठेलिया को ले दरबान के पीछे चल पड़ा।

कोठी के पास पहुँचकर रमुआ ने देखा कि कोठी की बग़ल में टीन के छप्पर के नीचे मरी हुई भैंस पड़ी है और उसे घेरकर सेठ, उसके लडक़े, मुनीम और नौकर-चाकर खड़े हैं, जैसे उनका कोई अज़ीज़ मर गया हो। ठेलिया खड़ी कर, वह खिन्न मन लिये खड़ा हो गया।

उसे आया देख, मुनीम ने सेठ की ओर मुडक़र कहा, ''सेठजी, ठेलिया आ गयी। अब इसे जल-प्रवाह के लिए उठवाकर ठेलिया पर रखवा देना चाहिए।''

''हाँ, मुनीमजी तो इसके कफ़न बगैरा का इन्तज़ाम करा दें। मेरे यहाँ इसने जीवन-भर सुख किया। अब मरने के बाद इसे नंगी ही क्या जल-प्रवाह के लिए भेजा जाय। मेरे विचार से बिछाने के लिए एक नयी दरी और ओढ़ाने के लिए आठ गज़ मलमल काफ़ी होगी। जल्द दुकान से मँगा भेजें।''

देखते-ही देखते उसकी ठेलिया पर नयी दरी बिछा दी गयी। उसे देखकर रमुआ की धँसी आँखों में जाने कितने दिनों की एक पामाल हसरत उभर आयी। सहज ही उसके मन में उठा, 'काश, वह उस पर सो सकता!' पर दूसरे ही क्षण इस अपवित्र खयाल के भय से जैसे वह काँप उठा। उसने आँखें दूसरी ओर मोड़ लीं।

कई नौकरों ने मिलकर भैंस की लाश उठा दरी पर रख दी। फिर उसे मलमल से अच्छी तरह ढँक दिया गया। इतने में एक खैरख़्वाह नौकर सेठजी की बगिया से कुछ फूल तोड़ लाया। उनका एक हार बना भैंस के गले में डाल दिया गया और कुछ इधर-उधर उसके शरीर पर बिखेर दिये गये।

यह सब-कुछ हो जाने पर सेठ के बड़े लडक़े ने रमुआ की ओर मुडक़र कहा, ''देखो, इसे तेज़ धारा में ले जाकर छोडऩा और जब तक यह धारा में बह न जाय, तब तक न हटना, नहीं तो कोई इसके क़फ़न पर हाथ साफ़ कर देगा।''

उसकी बात सुनकर नमकहलाल मुनीम ने रद्दा जमाया, ''हाँ, बे रमुआ, बाबू की बात का ख़ याल रखना!''

रमुआ को लगा, जैसे वह बातें उसे ही लक्ष्य करके कही गयी हों। कभी-कभी ऐसा होता है कि जो बात आदमी के मन में कभी स्वप्न में भी नहीं आती, वही किसी के कह देने पर ऐसे मन में उठ जाती है, जैसे सचमुच वह बात पहले ही से उसके मन में थी। रमुआ के ख़ याल में भी यह बात नहीं थी कि वह कफ़न पर हाथ लगाएगा, पर मुनीम की बात सुन सचमुच उसके मन में यह बात कौंध गयी कि क्या वह भी ऐसा कर सकता है?

वह इन्हीं विचारों में खोया हुआ ठेलिया उठा आगे बढ़ा। अभी थोड़ी ही दूर सडक़ पर चल पाया था कि किसी ने पूछा, ''क्यों भाई, यह किसकी भैंस थीं?''

रमुआ ने आगे बढ़ते हुए कहा, ''सेठ गुलजारी लाल की!''

उस आदमी ने कहा, ''तभी तो! भाई, बड़ी भागवान थी यह भैंस! नहीं तो आजकल किसे नसीब होता है मलमल का कफ़न!''

रमुआ के मन में उसकी बात सुनकर उठा कि क्या सचमुच मलमल का कफ़न इतना अच्छा है? उसने अभी तक उसकी ओर निगाह नहीं उठायी थी, यही सोचकर कि कहीं उसे देखते देखकर सेठ का लडक़ा और मुनीम यह न सोचें कि वह ललचायी आँखों से कफ़न की ओर देख रहा है। उसकी नीयत ख़ राब मालूम होती है। पर वह अब अपने को न रोक सका। चलते हुए ही उसने एक बार अगल बग़ल देखा, फिर पीछे मुडक़र भैंस पर पड़े कफ़न को उड़ती हुई नज़र से ऐसे देखा, जैसे वह कोई चोरी कर रहा हो।

काली भैंस पर पड़ी सफ़ेद मलमल, जैसे काली दूब के एक चप्पे पर उज्ज्वल चाँदनी फैली हुई हो। 'सचमुच यह तो बड़ा उम्दा कपड़ा मालूम देता है' उसने मन में ही कहा।

कई बार यह बात उसके मन में उठी, तो सहज ही उसे उन झिलँगी साड़ियों की याद आ गयी, जिन्हें वह बाज़ार में देख चुका था और जिनकी क़ीमत बारह-चौदह से कम न थी। उसने उन साड़ियों का मुक़ाबला मलमल के उस कपड़े से जब किया, तो उसे वह मलमल बेशक़ीमती जान पड़ा। उसने फिर मन में ही कहा, 'इस मलमल की साड़ी तो बहुत ही अच्छी होगी।' और उसे धनिया के लिए साड़ी की याद आ गयी। फिर जैसे इस कल्पना से ही वह काँप उठा। ओह, कैसी बात सोच रहा है वह! जीते-जी ही धनिया को कफ़न की साड़ी पहनाएगा? नहीं-नहीं, वह ऐसा सोचेगा भी नहीं! ऐसा सोचना भी अपशकुन है। और इस ख़ याल से छुटकारा पाने के लिए वह अब और ज़ोर से ठेलिया खींचने लगा।

अब आबादी पीछे छूट गयी थी। सूनी सडक़ पर कहीं कोई नज़र नहीं आ रहा था। अब जाकर उसने शान्ति की साँस ली। जैसे अब उसे किसी की अपनी ओर घूरती आँखों का डर न रह गया हो। ठेलिया कमर से लगाये ही वह सुस्ताने लगा। तेज़ चलने में जो ख़ याल पीछे छूट गये थे, जैसे वे फिर उसके खड़े होते ही उसके मस्तिष्क में पहुँच गये। उसने बहुत चाहा कि वे खयाल न आएँ। पर ख़ यालों का यह स्वभाव होता है कि जितना ही आप उनसे छुटकारा पाने का प्रयत्न करेंगे, वे उतनी ही तीव्रता से आपके मस्तिष्क पर छाते जायँगे। रमुआ ने अन्य कितनी ही बातों में अपने को बहलाने की कोशिश की, पर फिर-फिर उन्हीं ख़ यालों से उसका सामना हो जाता। रह-रहकर वही बातें पानी में तेल की तरह उसकी विचार-धारा पर तैर जातीं। लाचार वह फिर चल पड़ा। धीरे-धीरे रफ़्तार तेज़ कर दी। पर अब ख़ यालों की रफ़्तार जैसे उसकी रफ़्तार से भी तेज़ हो गयी थी। तेज़ रफ़्तार से लगातार चलते-चलते उसके शरीर से पसीने की धाराएँ छूट रही थीं, छाती फूल रही थी, चेहरा सुर्ख हो गया था, आँखें उबल रही थीं और गर्दन और कनपटियों की रगें फूल-फूलकर उभर आयी थीं। पर उसे उन-सब का जैसे कुछ ख़ याल ही नहीं था। वह भागा जा रहा था कि जल्द-से-जल्द नदी पहुँच जाय और भैंस की लाश धारा में छोड़ दे। तभी उसे उस अपवित्र विचार से, उस धर्म-संकट से मुक्ति मिलेगी।

अब सडक़ नदी के किनारे-किनारे चल रही थी। उसने सोचा, क्यों न कगार पर से ही लाश नदी की धारा में लुढक़ा दे। पर दूसरे ही क्षण उसके अन्दर से कोई बोल उठा, अब जल्दी क्या है? नदी आ गयी। थोड़ी दूर और चलो। वहाँ कगार से उतरकर बीच धारा में छोडऩा। वह आगे बढ़ा। पर बीच धारा में छोडऩे की बात क्यों उसके मन में उठ रही है? क्यों नहीं वह उसे यहीं छोडक़र अपने को कफ़न के लोभ से, उस अपवित्र ख़ याल से मुक्त कर लेता? शायद इसलिए कि सेठ के लडक़े ने ऐसा ही करने को कहा था। पर सेठ का लडक़ा यहाँ खड़ा-खड़ा देख तो नहीं रहा है- फिर ? तो क्या उसे अब उसी वस्तु से, जिससे जल्दी-से-जल्दी छुटकारा पाने के लिए वह भागता हुआ आया है, अब मोह हो गया है? नहीं, नहीं, वह तो ...वह तो ...

अब वह श्मशान से होकर गुज़र रहा था। अपनी झोपड़ी से झाँककर डोमिन ने देखा, तो वह उसकी ओर दौड़ पड़ी। पास आकर बोली ''भैया यहीं छोड़ दे न!''

रमुआ का दिल धक-से कर गया, तो क्या यह बात डोमिन को मालूम है कि वह लाश को इसलिए लिये जा रहा है कि ... नहीं, नहीं! तो?

''भैया, यहाँ धारा तेज़ है, छोड़ दो न यहीं!'' डोमिन ने फिर विनती की।

हाँ, हाँ, छोड़ दे न! यह मौक़ा अच्छा है। डोमिन के सामने ही, उसे गवाह बनाकर छोड़ दे। और साबित कर दे कि तेरे दिल में वैसी कोई बात नहीं है। रमुआ के दिल ने ललकारा। पर वह योंही डोमिन से पूछ बैठा, ''क्यों, यही क्यों छोड़ दूँ?''

''तुम्हें तो कहीं-न-कहीं छोडऩा ही है। यहाँ छोड़ दोगे, तो तुम भी दूर ले जाने की मेहनत से छुटकारा पा जाओगे और मुझे ...'' कहकर वह कफ़न की ओर ललचायी दृष्टि से देखने लगी।

''तुम्हें क्या?'' रमुआ ने पूछा।

''मुझे यह कफ़न मिल जायगा,'' उसने कफ़न की ओर अँगुली से इशारा करके कहा।

''कफ़न?'' रमुआ के मुँह से यों ही निकल गया।

''हाँ-हाँ! कहीं इधर-उधर छोड़ दोगे, तो बेकार में सड़-गल जायगा। मुझे मिल जायगा, तो मैं उसे पहनूँगी। देखते हो न मेरे कपड़े? कहकर उसने अपने लहँगे को हाथ से उठाकर उसे दिखा दिया।''

''तुम पहनोगी कफ़न?'' रमुआ ने ऐसे कहा, जैसे उसे उसकी बात पर विश्वास ही न हो रहा हो।

''हाँ-हाँ, हम तो हमेशा कफ़न ही पहनते हैं। मालूम होता है, तुम शहर के रहने वाले नहीं हो। क्या तुम्हारे यहाँ ...''

''हाँ, हमारे यहाँ तो कोई छूता तक नहीं। कफ़न पहनने से तुम्हें कुछ होता नहीं?'' रमुआ की किसी शंका ने जैसे अपना समाधान चाहा, पर वह ऐसे स्वर में बोला, जैसे यों ही जानना चाहता हो।

''गरीबों को कुछ नहीं होता, भैया! आजकल तो जमाने में ऐसी आग लगी है कि लोग लाशें नंगी ही लुढक़ा जाते हैं। नहीं तो पहले इतने कफ़न मिलते थे कि हम बाजार में बेच आते थे।''

''बाजार में बेच आते थे?'' रमुआ ने ऐसे पूछा, जैसे उसके आश्चर्य का ठिकाना न हो, ''कौन खरीदता था उन्हें?''

''हमसे कबाड़ी खरीदते थे और उनसे गरीब और मजदूर,'' उसने कहा।

''गरीब और मजदूर?'' रमुआ ने कहा।

''हाँ-हाँ , बहुत सस्ता बिकता था न! शहर के गरीब और मजदूर जियादातर वही कपड़े पहनते थे।''

रमुआ उसकी बात सुन जैसे किसी सोच में पड़ गया।

उसे चुप देख डोमिन फिर बोली, ''तो भैया, छोड़ दो न यहीं। आज न जाने कितने दिन बाद ऐसा कफ़न दिखाई पड़ा है। किसी बहुत बड़े आदमी की भैंस मालूम पड़ती है। तभी तो ऐसा कफ़न मिला है इसे। छोड़ दे, भैया, मुझ गरीब के तन पर चढ़ जायगा। तुम्हें दुआएँ दूँगी!'' कहते-कहते वह गिड़गिड़ाने लगी।

रमुआ के मन का संघर्ष और तीव्र हो उठा। उसने एक नजर डोमिन पर उठायी, तो सहसा उसे लगा, जैसे उसकी धनिया चिथड़ों में लिपटी डोमिन की बग़ल में आ खड़ी हुई है, और कह रही है, ''नहीं-नहीं, इसे न देना! मैं भी तो नंगी हो रही हूँ! मुझे! मुझे ...'' और उसने ठेलिया आगे बढ़ा दी।

''क्यों, भैया, तो नहीं छोड़ोगे यहाँ?'' डोमिन निराश हो बोली।

रमुआ सकपका गया। क्या जवाब दे वह उसे? मन का चीर जैसे उसे पानी-पानी कर रहा था। फिर भी ज़ोर लगाकर मन की बात दबा उसने कहा, ''सेठ का हुकुम है कि इसका कफ़न कोई छूने न पाये।'' और ठेलिया को इतने ज़ोर से आगे बढ़ाया, जैसे वह इस ख़ याल से डर गया हो कि कहीं डोमिन कह न उठे, हूँ-हूँ! यह क्यों नहीं कहते कि तुम्हारी नीयत खुद खराब है!

काफ़ी दूर बढक़र, यह सोचकर कि कहीं डोमिन कफ़न के लोभ से उसका पीछा तो नहीं कर रही है, उसने मुडक़र चोर की तरह पीछे की ओर देखा। डोमिन एक लडक़े से उसी की ओर हाथ उठाकर कुछ कहती-सी लगी। फिर उसने देखा कि वह लडक़ा उसी की ओर आ रहा है। वह घबरा उठा, तो क्या वह लडक़ा उसका पीछा करेगा?

अब वह धीरे-धीरे, रह-रहकर पीछे मुड़-मुडक़र लडक़े की गति-विधि को ताड़ता चलने लगा। थोड़ी दूर जाने के बाद उसने देखा, तो लडक़ा दिखाई नहीं दिया। फिर जो उसकी दृष्टि झाऊँ के झुरमुटों पर पड़ी, तो शक हुआ कि वह छिपकर तो उसका पीछा नहीं कर रहा है। पर कई बार आगे बढ़ते-बढ़ते देखने पर भी जब उसे लडक़े का कोई चिन्ह दिखाई न दिया, तो वह उस ओर से निश्चिन्त हो गया। फिर भी चौकन्नी नज़रों से इधर-उधर देखता ही बढ़ रहा था।

काफ़ी दूर एक निर्जन स्थान पर उसने नदी के पास ठेलिया रोकी। फिर चारों ओर शंका की दृष्टि से एक बार देखकर उसने कमर से ठेलिया छुड़ा ज़मीन पर रख दी।

अब उसके दिल में कोई दुविधा न थी। फिर भी जब उसने कफ़न की ओर हाथ बढ़ाया, तो उसकी आत्मा की नींव तक हिल उठी। उसके काँपते हाथों को जैसे किसी शक्ति ने पीछे खींच लिया। दिल धड़-धड़ करने लगा। आँखें वीभत्सता की सीमा तक फैल गयीं। उसे लगा, जैसे सामने हवा में हज़ारों फैली हुई आँखें उसकी ओर घूर रही हैं। वह किसी दहशत में काँपता बैठ गया। नहीं, नहीं, उससे यह नहीं होगा! फिर जैसे किसी आवेश में उठ, उसने ठेलिया को उठाया कि लाश को नदी में उलट दे कि सहसा उसे लगा कि जैसे फिर धनिया उसके सामने आ खड़ी हुई है, जिसकी साड़ी जगह-जगह बुरी तरह फट जाने से उसके अंगों के हिस्से दिखाई दे रहे हैं। वह उन अंगों को सिमट-सिकुडक़र छिपाती जैसे बोल उठी, देखो, अबकी अगर साड़ी न भेजी, तो मेरी दशा ...

''नहीं, नहीं!'' रमुआ हथेलियों से आँखों को ढँकता हुआ बोल उठा और ठेलिया ज़मीन पर छोड़ दी। फिर एक बार उसने चारों ओर शीघ्रता से देखा और जैसे एक क्षण को उसके दिल की धडक़न बन्द हो गयी, उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा गया, उसका ज्ञान जैसे लुप्त हो गया और उसी हालत में, उसी क्षण उसके हाथों ने बिजली की तेज़ी से कफ़न खींचा, समेटकर एक ओर रखा और ठेलिया उठाकर लाश को नदी में उलटा दिया। तब जाकर जैसे होश हुआ। उसने जल्दी से कफ़न ठेलिया पर रख उसे माथे के मैले गमछे से अच्छी तरह ढँक दिया और ठेलिया उठा तेज़ी से दूसरी राह से चल दिया।

कुछ दूर तक इधर-उधर देखे बिना वह सीधे तेज़ी से चलता रहा। जैसे वह डर रहा था कि इधर-उधर देखने पर कहीं कोई दिखाई न पड़ जाय। पर कुछ दूर और आगे बढ़ जाने पर वह वैसे ही निडर हो गया, जैसे चोर सेंध से दूर भाग जाने पर। अब उसकी चाल में धीरे-धीरे ऐसी लापरवाही आ गयी, जैसे कोई विशेष बात ही न हुई हो, जैसे वह रोज़ की तरह आज भी किसी बाबू का सामान पहुँचाकर खाली ठेलिया को धीरे-धीरे खींचता, अपने में रमा हुआ, डेरे पर वापस जा रहा हो। अपनी चाल में वह वही स्वाभाविकता लाने की भरसक चेष्टा कर रहा था, पर उसे लगता था कि कहीं से वह बेहद अस्वाभाविक हो उठा है और कदाचित उसकी चाल की लापरवाही का यही कारण था कि वह रात होने के पहले शहर में दाख़िल नहीं होना चाहता था।

काफ़ी दूर निकल जाने पर न जाने उसके जी में क्या आया कि उसने पलटकर उस स्थान की ओर एक बार फिर देखा, जहाँ उसने भैंस की लाश गिरायी थी। कोई लडक़ा कोई काली चीज़ पानी में से खींच रहा था। वह फिर बेतहाशा ठेलिया को सडक़ पर खडख़ड़ाता भाग खड़ा हुआ।

उस दिन गाँव में हल्दी में रंगी मलमल की साड़ी पहने धनिया अपने बच्चे को एक हाथ की अँगुली पकड़ाये और दूसरे हाथ में छाक-भरा लोटा कन्धे तक उठाये, जब काली माई की पूजा करने चली, तो उसके पैर असीम प्रसन्नता के कारण सीधे नहीं पड़ रहे थे। उसकी आँखों से जैसे उल्लाल छलका पड़ता था।

रास्ते में न जाने कितनी औरतों और मर्दों ने उसे टोककर पूछा, ''क्यों, धनिया, यह साड़ी रमुआ ने भेजी है?''

और उसने हर बार शरमायी आँखों को नीचेकर, होंठों पर उमड़ती हुई मुस्कान को बरबस दबाकर, सर हिला जताया, हाँ!

***

प्रेम का अत्याचार

बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय

लोगों की धारणा है कि केवल शत्रु अथवा स्नेह-दया-ममता से शून्य व्यक्ति ही हमारे ऊपर अत्याचार करते हैं। किंतु इनकी अपेक्षा एक और श्रेणी के गुरुतर अत्याचारी हैं, उनकी ओर हमारा ध्यान सब समय नहीं जाता। जो प्रेम करता है, वही अत्याचार करता है। प्रेम करने से ही अत्याचार करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। अगर मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ, तो तुमको मेरा मतावलंबी होना ही पड़ेगा, मेरा अनुरोध रखना पड़ेगा। तुम्हारा इष्ट हो या अनिष्ट, मेरा मतावलंबी होना ही पड़ेगा। हाँ, यह तो स्वीकार करना पड़ेगा कि जो प्रेम करता है, वह तुम्हें जानबूझ कर ऐसे काम करने के लिए नहीं कहेगा, जिनसे तुम्हारा अमंगल होता हो। लेकिन कौन-सा काम मंगलजनक है और कौन-सा अमंगलजनक, इसकी मीमांसा कठिन है, कई बार दो लोगों का मत एक जैसा नहीं होता है। इस तरह की अवस्था में जो कार्य करते हैं, और उसके फलभोगी हैं, उनका यह संपूर्ण अधिकार है कि वे अपने मत के अनुसार ही कार्य करें और उनके मत के विपरीत उनसे कार्य कराने का अधिकारी राजा के अलावा और कोई नहीं है।... केवल राजा ही अधिकारी है, इसी कारण वे समाज के हिताहित-वेत्ता स्वरूप प्रतिष्ठित हुए हैं, केवल उन्हीं की सद-असद विवेचना अभ्रांत है – यह मानकर उनको हमने अपनी प्रवृत्ति के दमन का अधिकार दिया है। जो अधिकार उन्हें दिया है, उस अधिकार के अनुसार वे जो कार्य करते हैं, उससे किसी के प्रति अत्याचार नहीं होता एवं सब समय और सब विषयों में हमारी प्रवृत्ति के दमन का अधिकार उनका भी नहीं है। जिस कार्य से दूसरे का अनिष्ट हो सकता है, केवल उसी के संदर्भ में प्रवृत्ति के निवारण का अधिकार उनका है, जिससे केवल हमारा अपना अनिष्ट होता हो, उस प्रवृत्ति के निवारण के अधिकारी वे नहीं हैं। जिससे केवल हमारे चित्त का अनिष्ट होता हो, उससे विरत रहने का परामर्श देने का अधिकार तो मनुष्य मात्र को है, राजा भी परामर्श दे सकते हैं और जो हमसे प्रेम करता है, वह भी दे सकता है। किंतु परामर्श देने के अलावा, वह हमें विपरीत पथ पर चलने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। समाज में सभी को यह अधिकार है कि अपने सभी कार्यों को अपनी इच्छा और मत के अनुसार संपन्न करे, बस ऐसा करते हुए दूसरे का अनिष्ट न होने दे। दूसरे का अनिष्ट होने पर वह स्वेच्छाचार कहलाएगा, दूसरे का अनिष्ट न होने पर वह स्वकर्म या स्वधर्म माना जाएगा। जो इस स्वकर्म या स्वधर्म में विघ्न डालता है और जहाँ किसी के स्वधर्म से दूसरे का अनिष्ट नहीं होता है, वहाँ भी अपने मत को प्रबल कर किसी से इच्छा के विरुद्ध कार्य कराता है, वही अत्याचारी है। राजा, समाज और प्रणयी, ये तीन इसी तरह का अत्याचार करते रहते हैं।... इस अत्याचार में प्रवृत्त होने वाले अत्याचारी अनेक हैं। पिता, माता, भ्राता, भगिनी, पुत्र, कन्या, भार्या, स्वामी, आत्मीय, कुटुंब, सहृद, भृत्य, जो भी प्रेम करता है, वही कुछ न कुछ अत्याचार करता है और अनिष्ट करता है। तुमने किसी सुलक्षणा, कुलशीला, सच्चरित्रा कन्या को देखकर उससे पाणिग्रहण की इच्छा पाल ली है, ऐसे समय में तुम्हारे पिता आकर तुमसे कहेंगे कि अमुक संपन्न व्यक्ति की कन्या से ही वह तुम्हारा विवाह करेंगे। अगर तुम व्यस्क हो, तो पिता की इस आज्ञा पालन के लिए बाध्य नहीं हो, लेकिन पितृप्रेम के वशीभूत हुए तो अच्छी न लगने पर भी उस धनिक की कन्या से विवाह कर लोगे। मान लो कोई दारिद्र पीड़ित, दैव अनुकंपा से उत्तम पद प्राप्त कर दूर देश जा रहा है, अपने दारिद्र्य से छुटकारा चाह रहा है, ऐसे समय में माता आकर रोने लगी और कहा कि उसका दूर देश जाना वह सहन नहीं कर पायेगी, उसे उन्होंने जाने नहीं ही दिया, वह मातृ प्रेम में बंधकर निरस्त्र हो गया, उसने माता के प्रेम के अत्याचार से, अपने को दारिद्र्य के लिए समर्पित कर दिया। कृती सहोदर के उपार्जित अर्थ को, अकर्मण्य, अपदार्थ सहोदर नष्ट करता है, यह प्रेम का नितांत अत्याचार है, और हिंदू समाज में प्रत्यक्ष रूप से सदा दृष्टिगोचर होता है। भार्या के प्रेम के अत्याचारों का उदहारण नव बंगवासियों के लिए देना आवश्यक है क्या? और स्वामी के अत्याचार के संबध में – धर्मतः यह कहना जरूरी है कि प्रेम के अत्याचार भी कई हैं, पर ज्यादातर अत्याचार बाहुबल के अत्याचार हैं।

***

भाग्य

मार्क ट्वेन

यह एक फैंसी स्केच नहीं है। मुझे यह एक पादरी से मिला, जो चालीस साल पहले वूलविच में प्रशिक्षक था और अपनी सच्चाई के लिए जाना जाता था।

इस पीढ़ी के दो या तीन सुस्पष्ट शानदार अंग्रेजी सैनिकों में से एक के सम्मान में लंदन में रात्रिभोज था। वर्तमान में दिखाई देने वाले कारणों से मैं उसका असली नाम और उपाधि रोके रखूँगा और मैं उसे लेफ्टिनेंट जनरल लॉर्ड आर्थर स्कोर्स्बी, वी सी, के सी बी आदि आदि पुकारूँगा। प्रसिद्ध नाम में कितना आकर्षण होता है! कहते हैं तीस वर्ष पहले उसे हमेशा के लिए अमर कर देने हेतु क्रीमियन युद्ध क्षेत्र से उसका नाम अचानक चरम पर उठा, जिसके बारे में मैंने उस दिन से हजारों बार सुना था।

मुझे खाने, पीने का देखना था, अर्द्ध-ईश्वर को देखना था स्कैनिंग, खोज, टिप्पण : वैराग्य, सुरक्षा, उसकी मुखाकृति के महान गुरुत्वाकर्षण; उसकी सरल ईमानदारी, जिससे वह ओतप्रोत था, उसकी महानता की मधुर बेसुधी - उसको निहारने वाली सैकड़ों आँखों की बेसुधी, लोगों की छाती से निकलने वाली और उसकी तरफ प्रवाहित होने वाली गहरी, प्रेमपूर्ण औए ईमानदार पूजा की बेसुधी को देखना था।

मेरी बाईं तरफ वाला पादरी मेरा पुराना परिचित था - लेकिन अब पादरी है, जिसने अपने जीवन का पहला आधा भाग शिविर और खेतों में एवं वूलविच में सैनिक स्कूल में प्रशिक्षक के रूप में बिताया। उसी क्षण जब मैं इस बारे में बात कर रहा था, एक छिपी और विलक्षण रोशनी उसकी आँखों में चमकी और वह नीचे झुका और मुझे धीरे से रहस्य बताया - इशारे से रात्रि भोज के नायक की ओर संकेत करते हुए, - गुप्त रूप से - उसकी महिमा एक संयोग है - मात्र अविश्वसनीय भाग्य का एक फल।

यह फैसला मेरे लिए एक महान आश्चर्य था। यदि नेपोलियन, या सुकरात, या सोलोमन इसके विषय होते, तो मुझे अधिक आश्चर्य नहीं होता।

कुछ दिन बाद इस अजीब टिप्पणी पर एक स्पष्टीकरण आया और उस सम्मानित सज्जन ने मुझे यह बताया।

चालीस साल पूर्व मैं वूलविच में सैन्य अकादमी में एक प्रशिक्षक था। युवा स्कोर्सबी की प्रारंभिक परीक्षा लिए जाने पर मैं एक वर्ग में मौजूद था। मैं शीघ्र ही दया आ गई, क्योंकि शेष कक्षा ने उल्लसित और सुंदरतापूर्वक उत्तर दिए, जबकि वह कुछ भी नहीं जानता था, जो मुझे पता नहीं क्यों इतना प्यारा था। वह प्रत्यक्षतः अच्छा, मधुर, प्यारा और भोला था, इसलिए उसको वहाँ एक शांत बुत के रूप में खड़े हुए देखना एवं मूर्खता और अज्ञानता के अजीब उत्तर देते हुए देखना बहुत दर्दनाक था। मुझमें उसके लिए दया उमड़ पड़ी। मैंने खुद से कहा, जब वह फिर से परीक्षा के लिए आएगा, उसे निश्चित रूप से, धकेल दिया जाएगा, इसलिए उसके पतन को कम करने के लिए यह परोपकार का एक हानिरहित कार्य होगा।

मैं उसे एक तरफ ले गया और मैंने पाया कि वह सीजर का कुछ इतिहास जानता है और चूँकि वह कुछ और नहीं जानता था, मैं काम पर चला गया और मैंने उसे सीजर के बारे में स्टॉक में सवालों की एक निश्चित लाइन पर एक गैली दास की तरह उसका प्रयोग किया। यदि आप मेरा विश्वास करें, तो परिक्षा के दिन वह रंगीन उड़ान भर रहा था। सतही तौर पर वह पूर्ण रूप से रट रहा था और उसे प्रशंसा भी मिली, जबकि अन्य, जो उससे हजार गुना अधिक जानते थे बच गए। अजीब भाग्यशाली संयोग के कारण - जिसकी एक शती में दुबारा घटने की संभावना नहीं है - अपनी कवायद की संकीर्ण सीमा के बाहर उससे कोई सवाल नहीं पूछा गया था।

यह मादक था। खैर, पाठ्यक्रम के माध्यम से मैं उसके साथ था, जाहिर तौर पर।

बस चमत्कार से, उस भावना के साथ जो एक माँ अपने अपंग बच्चे के लिए रखती है और उसने हमेशा खुद को बचाया।

निस्संदेह जो चीज उसे सबसे अधिक बेनकाब करेगी और और अंत में मार डालेगी, वह है - गणित। मैंने उसकी मौत को आसान बनाने का संकल्प लिया, इसलिए मैंने उसे मात्र उन प्रश्नों का प्रशिक्षण दिया और याद कराया, जिसकी परीक्षक द्वारा सर्वाधिक प्रयोग किए जाने की संभावना है और तब मैंने उसे उसके भाग्य पर छोड़ शुभारंभ किया। अच्छा श्रीमन, परिणाम को समझने का प्रयास करें। मेरी आश्चर्यजनक जानकारी के अनुसार उसे प्रथम पुरस्कार मिला। और तारीफ के साथ साथ ही उसकी पूर्ण जय जयकार हुई।

सो जाओ! एक सप्ताह से मुझे अधिक नींद नहीं थी। मेरी अंतरात्मा मुझे दिन रात तड़पा रही थी। मैंने जो भी किया, विशुद्ध परोपकार के नाम पर किया और उस बेचारे युवक के पतन को सहज बनाने के उद्देश्य से किया। मैंने कभी भी ऐसे निरर्थक परिणाम को सपने में भी नहीं सोचा, जैसा कि यह हुआ है। मैंने फ्रेंकस्टीन के निर्माता की तरह ही स्वयं को दोषी और दयनीय महसूस किया। एक काष्ठ का मस्तिष्क था, जिसे मैंने शानदार प्रोन्नति एवं अस्वाभाविक उत्तरदायित्वों के मार्ग में डाल दिया था। लेकिन एक बात यह भी हो सकती थी कि पहले मौके पर ही वह और उसके उत्तरदायित्व सब कुछ एक साथ बर्बाद कर दिए हों।

क्रीमिया युद्ध तभी शुरू हुआ था। बेशक युद्ध होना था। मैंने खुद से कहा : हम शांति कायम नहीं कर सके और पता लगाने से पहले हम इस गधे को मरने का मौका नहीं दे सकते। मैंने भूकंप का इंतजार किया। भूकंप आया। जब यह आया, मुझे चक्कर आया। वह वास्तव में एक मार्चिंग रेजिमेंट में एक राजपत्रित कप्तान था! इस तरह की महानता पर चढने से पहले बेहतर है कि मनुष्य सेवा में बूढ़ा हो जाए। और कौन यह सोच सकता होगा कि वे ऐसे अपरिपक्व अनुभवहीन और अपर्याप्त कंधों पर उत्तरदायित्व का ऐसा बोझ लाद देंगे। मैंने इसे मुश्किल से खड़ा किया होता, यदि उन्होंने उसे एक ध्वजवाहक बनाया होता लेकिन एक कप्तान - इसके बारे में सोचो। मैंने सोचा कि मेरे बाल सफेद हो जाएँगे।

सोचो मैंने क्या किया - मैं जो विश्राम और निष्क्रियता से इतना प्यार करता हूँ। मैंने स्वयं से कहा, इसके लिए मैं देश के प्रति जिम्मेदार हूँ और मुझे उसके साथ जाना चाहिए और जहाँ तक कर सकता हूँ, मुझे देश की रक्षा करनी चाहिए। इसलिए मैंने अपनी थोड़ी सी जमा पूँजी साथ ली, जिसे मैंने कार्य एवं कष्टकर अर्थव्यवस्था के वर्षों में बचाया था और एक साँस के साथ चला गया और उसकी रेजिमेंट में एक तुरही खरीदी और हम दूर खेतों में चले गए।

और वहाँ, ओ प्रिय, भयानक था। गलतियाँ?? उसने गलतियों के अतिरिक्त और कुछ क्यों नहीं किया। लेकिन आप देखें, कोई भी साथी के राज में नहीं था - हर व्यक्ति ने उस पर गलत ध्यान केंद्रित किया और हर बार उसके कार्यनिष्पादन की अनावश्यक रूप से गलत व्याख्या की। परिणामतः उन्होंने उसकी मूर्खतापूर्ण भूलों को प्रतिभा की प्रेरणा के रूप में लिया। उसकी छोटी भूलें भी आदमी को उसके सही मन में रुला देने के लिए पर्याप्त थीं और उन्होंने मुझे भी रुला दिया, निजी तौर पर क्रोध और निंदा भी की। और जिस चीज की आशंका ने मुझे हमेशा परेशान किया, वह यह तथ्य था कि उसके द्वारा की गई हर नई गलती प्रतिष्ठा की चमक को बढ़ा देती थी। मैं स्वयं से कहता रहा वह इतना ऊँचा जाएगा कि जब अंत में वह प्रकट होगा तो यह आकाश से निकल रहे सूर्य की तरह होगा।

वह सीढ़ी दर सीढ़ी सीधा ऊपर गया, अपने वरिष्ठ अधिकारियों के मृत शरीरों पर, जब तक कि अंत में युद्ध के गर्म क्षणों में हमारा कर्नल नीचे चला गया और मेरा हृदय मेरे मुँह को आ गया, क्योंकि स्कोर्सबी रैंक में दूसरा था। मैंने कहा; अब इसके लिए दस मिनट में हम सब लोग अवश्य ही अधोलोक में उतरेंगे।

युद्ध भयानक रूप से उत्तेजक था। सहयोगी दल क्षेत्रों के ऊपर लगातार ढह जा रहे थे। हमारी रेजीमेंट ने एक महत्वपूर्ण स्थान पर कब्जा किया। विनाश अब बड़ी भूल होना चाहिए। इस क्षण में यह अमर मूर्ख रेजीमेंट को अपने स्थान से हटाने के अलावा और क्या करता है और एक पड़ोसी पहाड़ी पर एक प्रभारी को आदेश देता है, जहाँ दुश्मन का एक सुझाव तक नहीं था। मैंने खुद से कहा : "तुम वहाँ जाओ, आखिरकार अंत आ ही गया।"

और हम दूर चले गए, और उन्मादी आंदोलन की खोज की जाने और इसे रोके जाने से पहले हम पहाड़ी पर थे। और हमें क्या मिला? सुरक्षित स्थान पर एक संपूर्ण और असंदिग्ध रूसी सेना! और क्या हुआ? हमें खत्म कर दिया गया? यही कारण है जो एक सौ में से निन्यानबे मामलों में जरूर हुआ होगा। लेकिन नहीं; उन रूसियों ने बहस की, कि ऐसे समय में वहाँ आसपास कोई भी रेजिमेंट ब्राउजिंग नहीं आएगा। यह संपूर्ण अंग्रेजी सेना होनी चाहिए, और धूर्त रूसी खेल का पता चला और उसे अवरुद्ध किया गया; इसलिए वे दम दबाए रहे और हक्के बक्के से पहाड़ी पर और नीचे खेत में दूर चले गए और हम उनके पीछे, उन्होंने खुद ठोस रूस केंद्र तोड़ दिया, और कुछ ही समय में दुनिया की सबसे जबरदस्त भगदड़ वहाँ थी और सहयोगी दलों की हार एक व्यापक और शानदार जीत में बदल गई थी! मार्शल कानरोबर्ट ने विस्मय, प्रशंसा, और खुशी के साथ देखा; और स्कोर्सबी के लिए तुरंत बाहर आया, उसे गले लगाया, और सभी सेनाओं की मौजूदगी में मैदान पर उसे सजाया!

और उस समय स्कोर्सबी की गलती क्या थी? केवल अपने दाहिने हाथ को बाएँ हाथ के लिए समझना - उसके पास मैदान छोड़ने के लिए और हमारे अधिकार का समर्थन करने के लिए एक आदेश आया; और इसके बजाय वह आगे गिर गया और बाईं ओर पहाड़ी के ऊपर चला गया। लेकिन उस दिन अपनी अद्भुत सैन्य प्रतिभा की महिमा के साथ दुनिया भर में उसने जो नाम कमाया, वह महिमा इतिहास की पुस्तकों के रहते कभी भी क्षीण नहीं होगी।

वह इतना अच्छा और मधुर, प्यारा और सच्चा है, जितना कि एक आदमी हो सकता है, लेकिन वह बारिश में अंदर आना नहीं जानता। दिन प्रतिदिन वर्ष प्रति वर्ष वह सबसे अद्भुत और आश्चर्यजनक नियति से लगा हुआ है। आधी पीढ़ी के लिए हमारे सभी युद्धों में वह एक चमकता हुआ सैनिक रहा है; उसने भूलों के साथ अपने सैन्य जीवन का कबाड़ा किया है, और अभी तक कुछ भी ऐसा नहीं किया जिसने उसे एक नाइट या एक बरानेत या एक भगवान या कुछ और नहीं बना दिया। उसकी छाती को देखो; यही कारण है कि वह सिर्फ घरेलू और विदेशी सजावट में कपड़े पहने है। खैर, श्रीमान, उनमें से हर एक में शोर करती मूर्खता या इसी तरह की बातों का एक रिकार्ड है; और एक साथ मिलाकर वे इस बात का प्रमाण हैं, कि इस दुनिया में सबसे बेहतरीन चीज है भाग्यशाली मनुष्य के रूप में जन्म लेना।

***

युद्ध

लुइगी पिरांडेलो

रातवाली एक्सप्रेस ट्रेन से जो यात्री रोम के लिए चले थे उन्हें सुबह तक फैब्रियानो नामक एक छोटे-से स्टेशन पर रुकना था। वहाँ से उन्हें मुख्य लाइन से सुमोना को जोड़नेवाली एक छोटी, पुराने फैशन की लोकल ट्रेन से आगे के लिए अपनी यात्रा करनी थी।

उमस और धुएँ से भरे सेकंड क्लास डिब्बे में पाँच लोगों ने रात काटी थी। सुबह मातमी कपड़ों में लिपटी एक भारी-भरकम औरत तकरीबन एक बेडौल गट्ठर की तरह उसमें लादी गई। उसके पीछे हाँफता-कराहता उसका पति आया - एक छोटा, दुबला-पतला और कमजोर आदमी। उसका चेहरा मौत की तरह सफेद था। आँखें छोटी और चमकती हुई। देखने में शर्मीला और बेचैन।

एक सीट पर बैठने के बाद उसने उन यात्रियों को नम्रता के साथ धन्यवाद दिया जिन्होंने उसकी पत्नी के लिए जगह बनाई थी और उसकी सहायता की थी। तब वह औरत की ओर पलटा और उसके कोट की कॉलर को नीचा करते हुए जानना चाहा :'तुम ठीक तो हो न, डियर?'

पत्नी ने उत्तर देने के स्थान पर अपना चेहरा ढँका रखने के लिए कोट का कॉलर पुन: अपनी आँख तक खींच लिया।

'बेरहम दुनिया,' पति मुस्कुराहट के साथ बुदबुदाया। उसे यह अपना कर्तव्य लगा कि वह अपने सहयात्रियों को बताए कि बेचारी औरत दया की पात्र थी। युद्ध उसके इकलौते बेटे को उससे दूर ले जा रहा था। बीस साल का लड़का जिसके लिए उन दोनों ने अपनी पूरी जिंदगी दे डाली थी। यहाँ तक कि उन्होंने अपना सुलमौवा का घर भी छोड़ दिया था ताकि वे बेटे के साथ रोम जा सकें। जहाँ एक छात्र के रूप में वह गया था। और तब उसे इस आश्वस्ति के साथ युद्ध में स्वयंसेवक बनने की अनुमति दी गई थी कि कम-से-कम छह महीने तक उसे सीमा पर नहीं भेजा जाएगा। और अब अचानक तार आया है कि वे आ कर उसे विदा करें। उसे तीन दिन के भीतर सीमा पर जाना है।

लंबे कोट के भीतर से औरत कसमसा रही थी। कभी-कभी जंगली पशु की तरह गुर्रा रही थी। इस पक्के विश्वास के साथ कि ये सारी व्याख्याएँ इन लोगों में सहानुभूति की छाया भी नहीं जगाएँगी - पक्के तौर पर वे भी उसी नरक में हैं जिसमें वह है। उनमें से एक व्यक्ति, जो खास ध्यान से सुन रहा था, बोला : 'तुम्हें खुदा का शुक्रगुजार होना चाहिए कि तुम्हारा बेटा अब सीमा के लिए विदा हो रहा है। मेरा तो युद्ध के पहले ही दिन वहाँ भेज दिया गया था। वह दो बार जख्मी हो कर लौट आया। ठीक होने पर फिर से उसे सीमा पर भेज दिया गया है।'

'मेरा क्या? मेरे दो बेटे और तीन भतीजे सीमा पर हैं,' एक दूसरे आदमी ने कहा।

'हो सकता है, पर हमारी स्थिति भिन्न है। हमारा केवल एक बेटा है,' पति ने जोड़ा।

'इससे क्या फर्क पड़ता है? भले ही तुम अपने इकलौते बेटे को ज्यादा लाड़-प्यार से बिगाड़ो पर तुम उसे अपने बाकी बेटों (अगर हों) से ज्यादा प्यार तो करोगे नहीं? भला प्यार कोई रोटी नहीं जिसको टुकड़ों में तोड़ा जाए और सबके बीच बराबर-बराबर बाँट दिया जाए। एक पिता अपना समस्त प्यार अपने प्रत्येक बच्चे को देता है। बिना भेदभाव के। चाहे एक हो या दस। और आज मैं अपने दोनों बेटों के लिए दु:खी हूँ। उनमें से हरेक के लिए आधा दु:खी नहीं हूँ। बल्कि दुगुना...'

'सच है...सच है' पति ने लज्जित हो कर उसाँस भरी। लेकिन मानिए (हालाँकि हम प्रार्थना करते हैं कि यह तुम्हारे साथ कभी न हो) एक पिता के दो बेटे सीमा पर हैं और उनमें से एक मरता है। तब भी एक बच जाता है। उसे दिलासा देने को। लेकिन जो बेटा बच गया है, उसके लिए उसे अवश्य जीना चाहिए। जबकि एकलौते बेटे की स्थिति में अगर बेटा मरता है तो पिता भी मर सकता है। अपनी दारुण व्यथा को समाप्त कर सकता है। दोनों में से कौन-सी स्थिति बदतर है?'

'तुम्हें नहीं दीखता मेरी स्थिति तुमसे बदतर है?'

'बकवास,' एक दूसरे यात्री ने दखल दिया। एक मोटे लाल मुँहवाले आदमी ने जिसकी पीली-भूरी आँखें खून की तरह लाल थीं।

वह हाँफ रहा था। उसकी आँखें उबली पड़तीं थीं, अंदर के घुमड़ते भयंकर तूफान को वेग से बाहर निकालने को बेचैन लग रही थीं, जिसे उसका कमजोर शरीर मुश्किल से साध सकता था।

'बकवास,' उसने दोहराया। अपने मुँह को हाथ से ढँकते हुए ताकि अपने सामने के खोए हुए दाँतों को छिपा सके।

'बकवास। क्या हम अपने बच्चों को अपने लाभ के लिए जीवन देते हैं?'

दूसरे यात्रियों ने उसकी ओर कष्ट से देखा। जिसका बेटा पहले दिन से युद्ध में था, उसने लंबी साँस ली, 'तुम ठीक कहते हो। हमारे बच्चे हमारे नहीं हैं; वे देश के हैं...।'

'बकवास,' मोटे यात्री ने प्रत्युत्तर में कहा।

'क्या हम देश के विषय में सोचते हैं जब हम बच्चों को जीवन देते हैं? हमारे बेटे पैदा होते हैं... क्योंकि...क्योंकि...खैर। वे जरूर पैदा होने चाहिए। जब वे दुनिया में आते हैं हमारी जिंदगी भी उन्हीं की हो जाती है। यही सत्य है। हम उनके हैं पर वे कभी हमारे नहीं हैं। और जब वे बीस के होते हैं तब वे ठीक वैसे ही होते हैं जैसे हम उस उम्र में थे। हमारे पिता भी थे और माँ थी। लेकिन उसके साथ ही बहुत-सी दूसरी चीजें भी थीं जैसे - लड़कियाँ, सिगरेट, भ्रम, नए रिश्ते...और हाँ, देश। जिसकी पुकार का हमने उत्तर दिया होता - जब हम बीस के थे - यदि माता-पिता ने मना किया होता तब भी। अब हमारी उम्र में, हालाँकि देश प्रेम अभी भी बड़ा है, लेकिन उससे भी ज्यादा तगड़ा है हमारा अपने बच्चों से प्यार। क्या यहाँ कोई ऐसा है जो सीमा पर खुशी से अपने बेटे की जगह नहीं लेना चाहेगा?'

चारों ओर सन्नाटा छा गया। सबने सहमति में सिर हिलाया।

'क्यों...' मोटे आदमी ने कहना जारी रखा। 'क्यों हम अपने बच्चों की भावनाओं को ध्यान में नहीं रखें जब वे बीस साल के हैं? क्या यह प्राकृतिक नहीं है कि वे सदा देश के लिए ज्यादा प्रेम रखें, अपने लिए प्रेम से ज्यादा (हालाँकि, मैं कुलीन लड़कों की बात कर रहा हूँ)? क्या यह स्वाभाविक नहीं कि ऐसा ही हो? क्या उन्हें हमें बूढ़ों के रूप में देखना चाहिए जो अब चल-फिर नहीं सकते और घर पर रहना चाहिए? अगर देश, अगर देश एक प्राकृतिक आवश्यकता है, जैसे रोटी, जिसे हम सबको भूख से नहीं मरने के लिए अवश्य खाना है, तो किसी को देश की सुरक्षा अवश्य करनी चाहिए। और हमारे बेटे जाते हैं जब वे बीस बरस के हैं। और वे आँसू नहीं चाहते हैं। क्योंकि अगर वे मर गए तो वे गर्वित और प्रसन्न मरें (मैं कुलीन लड़कों की बात कर रहा हूँ)। अब अगर कोई जवान और प्रसन्न मरता है, बिना जिंदगी के कुरूप पहलू को देखे। ऊब, क्षुद्रता और विभ्रम की कड़वाहट के बिना...इससे ज्यादा हम उनके लिए क्या कामना कर सकते हैं? सबको रोना बंद करना चाहिए। सबको हँसना चाहिए, जैसा कि मैं करता हूँ...या कम-से-कम खुदा का शुक्रिया अदा करना चाहिए...जैसा कि मैं करता हूँ, - क्योंकि मेरा बेटा, मरने के पहले उसने मुझे संदेश भेजा था कि सर्वोत्तम तरीके से उसके जीवन का अंत हो रहा है। उसने संदेश भेजा था कि इससे अच्छी मौत उसे नहीं मिल सकती। इसीलिए तुम देखो, मैं मातमी कपड़े भी नहीं पहनता हूँ...'

उसने भूरे कोट को दिखाने के लिए झाड़ा। उसके टूटे दाँतों के ऊपर उसका नीला होंठ काँप रहा था। उसकी आँखें पनीली और निश्चल थीं। उसने एक तीखी हँसी से समाप्त किया जो एक सिसकी भी हो सकती थी।

'ऐसा ही है... ऐसा ही है...' दूसरे उससे सहमत हुए।

औरत जो कोने में अपने कोट के नीचे गठरी बनी हुई-सी बैठी थी, सुन रही थी - पिछले तीन महीनों से - अपने पति और दोस्तों के शब्दों से अपने गहन दु:ख के लिए सहानुभूति खोज रही थी। कुछ जो उसे दिखाए कि एक माँ कैसे ढाढ़स रखे जो अपने बेटे को मौत के लिए नहीं, एक खतरनाक जिंदगी के लिए भेज रही है। बहुत-से शब्द जो उससे कहे गए उनमें से उसे एक भी शब्द ऐसा नहीं मिला था... और उसका कष्ट बढ़ गया था। यह देख कर कि कोई - जैसा कि वह सोचती थी - उसका दु:ख बाँट नहीं सकता है।

लेकिन अब इस यात्री के शब्दों ने उसे चकित कर दिया था। उसे अचानक पता चला कि दूसरे गलत नहीं थे और ऐसा नहीं था कि उसे नहीं समझ सके थे। बल्कि वह खुद ही नहीं समझ सकी थी। उन माता-पिता को जो बिना रोए न केवल अपने बेटों को विदा करते हैं वरन उनकी मृत्यु को भी बिना रोए सहन करते हैं।

उसने अपना सिर ऊपर उठाया। वह थोड़ा आगे झुक गई ताकि मोटे यात्री की बातों को ध्यान से सुन सके। जो अपने राजा और अपने देश के लिए खुशी से अपने बेटे के, बिना पछतावे के वीर गति पाने का अपने साथियों से विस्तार से वर्णन कर रहा था। उसे ऐसा लग रहा था मानो वह एक ऐसी दुनिया में पहुँच गई है जिसका उसने स्वप्न भी नहीं देखा था - उसके लिए एक अनजान दुनिया और वह यह सुन कर खुश थी कि उस बहादुर पिता को सब लोग बधाई दे रहे थे। वह इतने उदासीन संयम से अपने बच्चे की मौत के बारे में विरक्ति के साथ बता रहा था।

और तब अचानक मानो जो कहा गया था उसका एक शब्द भी उसने न सुना हो। मानो वह एक स्वप्न से जगी हो। वह बूढ़े आदमी की ओर मुड़ी और उसने पूछा, 'तब...तुम्हारा बेटा सच में मर गया है?'

सबने उसे घूरा। बूढ़ा भी घूम कर अपनी बाहर को निकली पड़ती, भयंकर पनीली, हलकी-भूरी आँखों को उसके चेहरे पर जमाते हुए उसे देखने लगा। थोड़ी देर उसने उत्तर देने की कोशिश की। लेकिन शब्दों ने उसका साथ न दिया। वह उसे देखता गया। देखता गया। जैसे केवल अभी - उस बेवकूफ, बेतुके प्रश्न से - उसे अचानक भान हुआ कि उसका बेटा सच में मर चुका है - हमेशा के लिए जा चुका है - हमेशा के लिए उसका चेहरा सिकुड़ गया। बुरी तरह से बेढंगा हो गया। तब उसने तेजी से अपनी जेब से रूमाल निकाला और सबके अचरज के लिए हृदय दहलानेवाली चीत्कार के साथ हिलक-हिलक कर बेरोकटोक सिसकियों में फूट पड़ा।

***

सुखद अंत

मार्गरेट ऐटवुड

(क)

जॉन और मैरी को एक-दूसरे से प्यार हो जाता है और वे शादी कर लेते हैं। वे दोनों अच्छी और फायदेमंद नौकरियों में हैं जो उन्हें प्रेरक और चुनौतीपूर्ण लगती हैं। वे एक बड़ा प्यारा-सा मकान खरीद लेते हैं। बाजार में मकानों की कीमत बढ़ जाती है।

साथ रहते हुए जब वे इसके लिए तैयार होते हैं तो उनके दो बच्चे होते हैं। वे उनके प्रति बेहद समर्पित होते हैं। बच्चों का भविष्य उज्ज्वल रहता है। जॉन और मैरी का यौन-जीवन भी प्रेरक और चुनौतीपूर्ण रहता है। उनके कई अच्छे मित्र होते हैं। वे सब मौज-मस्ती भरी छुट्टियाँ बिताने एक साथ बाहर घूमने जाते हैं। फिर वे सेवानिवृत्त होते हैं। उन दोनों के कई शौक होते हैं जो उन्हें प्रेरक और चुनौतीपूर्ण लगते हैं। और अंत में उनकी मृत्यु हो जाती है। कहानी यहीं खत्म हो जाती है।

(ख)

मैरी को जॉन से प्यार हो जाता है लेकिन जॉन मैरी से प्यार नहीं करता है। वह मैरी के शरीर का इस्तेमाल केवल स्वार्थ-पूर्ण भोग-विलास तथा ओछे अहं की तुष्टि के लिए करता है। वह उससे मिलने उसके मकान पर हफ्ते में दो बार आता है। मैरी उसके लिए रात का खाना बनाती है लेकिन आप पाएँगे कि जॉन उसे रात का खाना खिलाने के लिए कहीं बाहर ले जाने के योग्य भी नहीं समझता है। जब वह खाना खा लेता है, उसके बाद मैरी की देह को भोगता है और फिर वह सो जाता है। उधर मैरी सारे बर्तन धोती है ताकि जॉन गंदे बर्तनों को देखकर यह न सोचे कि वह घर को गंदा रखती है। इसके बाद वह अपने होठों पर लिपस्टिक लगाती है ताकि जब जॉन उठे तो मैरी उसे सुंदर लगे। लेकिन जब जॉन जागता है तो वह मैरी की ओर देखता भी नहीं बल्कि वह अपनी जुराब, अपनी निक्कर, अपनी पतलून, अपनी कमीज, अपनी टाइ और अपने जूते पहनने में व्यस्त हो जाता है। उसने इन चीजों को जिस क्रम में उतारा था, उसके उलटे क्रम में वह इन्हें पहनता जाता है। वह कभी मैरी के कपड़े नहीं उतारता, वह स्वयं इन्हें उतार लेती है। वह ऐसा अभिनय करती है जैसे वह यह सब करने के लिए बेताब हो। वह यह सब इसलिए नहीं करती क्योंकि उसे काम-क्रीड़ा अच्छी लगती है। दरअसल सच्चाई इसके विपरीत है। असल में मैरी चाहती है कि जॉन को ऐसा लगे कि उसे यह सब करने में मजा आता है। वह सोचती है कि यदि वे दोनों अक्सर ऐसा करेंगे तो जॉन को वह अच्छी लगने लगेगी। फिर जॉन इस काम के लिए उस पर निर्भर हो जाएगा और तब वे दोनों शादी कर लेंगे। लेकिन जॉन बिना किसी अभिवादन के बाहर चला जाता है। तीन दिन बाद वह शाम छह बजे दोबारा मैरी के मकान पर आता है और फिर वे दोनों देह से खेलने की क्रिया को वैसे ही दोहराते हैं।

मैरी अवसाद-ग्रस्त हो जाती है। रोने से उसके चेहरे का हुलिया बिगड़ जाता है। सभी यह बात जानते हैं। मैरी खुद भी यह जानती है लेकिन वह रोती रहती है, चुप नहीं हो पाती। उसके दफ्तर में लोगों को यह बात पता चलती है। मैरी की महिला-मित्र उससे कहती हैं कि जॉन इनसान नहीं, चूहा है, सुअर है, कुत्ता है। वह मैरी के लायक नहीं है। लेकिन मैरी उनकी बातों पर यकीन नहीं करती। वह सोचती है कि जॉन के भीतर एक और जॉन है जो बहुत अच्छा है। यदि पहले वाले जॉन को जोर से दबाया गया तो वह दूसरा जॉन उसके भीतर से इस तरह बाहर आ जाएगा जैसे कोये में से तितली बाहर आ जाती है, जैसे बक्से के बटन को दबाने पर उस में से चमड़े का कोट पहने हुए सैनिक का खिलौना बाहर आ जाता है, जैसे आलूबुखारे में से गुठली बाहर आ जाती है।

एक शाम जॉन खाने के बेस्वाद होने के बारे में शिकायत करता है। इससे पहले उसने कभी खाने की आलोचना नहीं की। मैरी इससे आहत हो जाती है।

मैरी के मित्र उसे बताते हैं कि उन्होंने जॉन को रेस्तराँ में मैज नाम की किसी और युवती के साथ देखा है। मैज भी मैरी को आहत नहीं कर पाती; जो बात वाकई उसका दिल तोड़ देती है वह है रेस्तराँ। जॉन मैरी को खाना खिलाने के लिए कभी किसी रेस्तराँ में नहीं ले गया। मैरी बहुत सारी नींद की गोलियाँ और ऐस्प्रिन इकट्ठा करती है और फिर वह उन सारी गोलियों को आधी बोतल सफेद शराब के साथ निगल जाती है। वह व्हिस्की का सहारा नहीं लेती - आप इसी तथ्य से इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं कि वह किस तरह की स्त्री थी। वह जॉन के लिए एक रुक्का छोड़ जाती है। वह उम्मीद करती है कि जॉन उसे इस हालत में देख लेगा और उसे समय रहते अस्पताल ले जाएगा। उसे लगता है कि जॉन बाद में अपने किए पर पछताएगा और फिर वे दोनों शादी कर लेंगे, किंतु ऐसा नहीं होता और मैरी की मौत हो जाती है।

जॉन मैज से ब्याह कर लेता है और फिर हर चीज वैसे ही चलती है जैसी 'क' में दिखाई गई है।

(ग)

अधेड़ उम्र के जॉन को मैरी से प्यार हो जाता है। मैरी केवल बाईस वर्ष की है।

मैरी को जॉन से सहानुभूति होती है क्योंकि वह अपने बालों के झड़ने से चिंतित रहता है। हालाँकि मैरी उससे प्यार नहीं करती फिर भी वह जॉन के साथ अपनी रातें बिताती है। वह अपने दफ्तर में जॉन से मिली थी। मैरी जेम्स नाम के व्यक्ति से प्रेम करती है। जेम्स की उम्र भी बाईस साल की है लेकिन वह अभी गृहस्थी के बंधन में बँध कर बसना नहीं चाहता।

इसके विपरीत जॉन बहुत पहले ही बस चुका था - यही बात उसे सताती रहती है। जॉन के पास एक स्थायी और प्रतिष्ठित नौकरी है और वह अपने कार्य-क्षेत्र में प्रगति कर रहा है। लेकिन मैरी उससे प्रभावित नहीं है। वह जेम्स से प्रभावित है जिसके पास एक मोटरसाइकिल है और संगीत के कैसेट्स का शानदार संग्रह है। लेकिन जेम्स अकसर अपने मोटरसाइकिल पर शहर से बाहर घूमने निकल जाता है क्योंकि वह बंधनों से आजाद है। लड़कियों के लिए आजादी का वही मतलब नहीं होता। इसलिए मैरी बृहस्पतिवार की शामें जॉन के साथ बिताती है। जॉन को केवल बृहस्पतिवार की शाम को ही फुर्सत मिलती है।

जॉन मैज नाम की महिला से विवाहित है और उनके दो बच्चे हैं। उनके पास एक मोहक मकान है जिसे उन्होंने मकानों की कीमत बढ़ जाने से ठीक पहले खरीदा था। उनके कई शौक हैं जो उन्हें तब प्रेरक और चुनौतीपूर्ण लगते हैं जब उनके पास समय होता है। जॉन अकसर मैरी को बताता है कि वह जॉन के लिए कितनी महत्वपूर्ण है लेकिन वह अपनी पत्नी को नहीं छोड़ सकता क्योंकि किसी रिश्ते के प्रति वचनबद्धता आखिर वचनबद्धता है। वह इसके बारे में जरूरत से ज्यादा सफाई देता है और मैरी को यह उबाऊ लगता है। लेकिन ज्यादा उम्र के पुरुष अपने अनुभव की वजह से आपको अधिक संतुष्ट कर सकते हैं। इसलिए कुल मिला कर मैरी का समय अच्छा ही बीतता है।

एक दिन जेम्स अपनी मोटरसाइकिल पर फर्राटे से आता है। उसके पास कैलिफोर्निया में बनी जल्दी चढ़ जाने वाली देसी दारू होती है। वह दारू जेम्स और मैरी को इतनी चढ़ जाती है जितना आप सोच भी नहीं सकते। नशे की हालत में दोनों हमबिस्तर हो जाते हैं। सब कुछ तरल-सा, पनीला-सा लगने लगता है, लेकिन तभी वहाँ जॉन आ पहुँचता है जिसके पास हमेशा मैरी के मकान की एक चाबी होती है। वह उन दोनों को आपस में लिपट कर बुत बने हुए देख लेता है। हालाँकि वह उनसे जलने की स्थिति में मुश्किल से ही है क्योंकि वह पहले से ही शादी-शुदा है - मैज उसकी पत्नी है। किंतु इसके बावजूद, उन दोनों को उस अंतरंग स्थिति में देखकर वह अवसाद में डूब जाता है। अब वह अधेड़ है, और दो साल बीतते-बीतते वह किसी अंडे जैसा गंजा हो जाएगा। वह यह सब नहीं सह पाता। यह कह कर वह एक छोटी बंदूक खरीदता है कि उसे निशाना लगाने के अभ्यास के लिए इसकी आवश्यकता है। यह कथानक का कमजोर हिस्सा है लेकिन इससे हम बाद में निपट सकते हैं। फिर जॉन जेम्स और मैरी को मार डालता है और इसके बाद अपनी जान भी ले लेता है।

मातम की उपयुक्त अवधि के बाद मैज फ्रेड नाम के एक हमदर्द और समझदार आदमी से शादी कर लेती है। इसके बाद सब कुछ वैसा ही होता है जैसा 'क' में दिखाया गया है - केवल पात्रों के नाम बदल जाते हैं।

(घ)

फ्रेड और मैज के बीच कोई समस्या नहीं आती। वे बेहद अच्छी तरह एक-दूसरे के साथ समय गुजारते हैं और अगर छोटी-मोटी मुश्किलें आ भी जाती हैं तो वे उसे आसानी से हल कर लेते हैं। लेकिन उनका मोहक मकान समुद्र-तट के किनारे है और एक दिन एक विशालकाय ज्वारीय-लहर उस मकान तक पहुँच जाती है। उस इलाके के मकानों की कीमत गिर जाती है। बाकी की कथा इस बारे में है कि यह दैत्याकार लहर किस वजह से आई और वे लोग उससे कैसे बच पाए। वे लोग तो इससे बच जाते हैं लेकिन हजारों दूसरे लोग डूब जाते हैं। फ्रेड और मैज नेक हैं और खुशकिस्मत भी। अंत में ऊँची जगह पर पहुँच कर वे एक-दूसरे से आलिंगन-बद्ध हो जाते हैं - भीगे और सिहरते हुए किंतु आभारी भी। इसके बाद सब कुछ 'क' जैसा ही होता है।

( ङ)

जी हाँ, किंतु फ्रेड को हृदय-रोग होता है। बाकी की कथा इस बारे में है कि वे दोनों तब तक कितने दयालु और समझदार होते हैं जब तक फ्रेड की मृत्यु नहीं हो जाती। इसके बाद 'क' के अंत तक मैज खुद को धर्मार्थ कार्यों के लिए समर्पित कर देती है। यदि आप चाहें तो आप इसे 'मैज', 'कैंसर' और 'कसूरवार और परेशान' आदि कह सकते हैं।

(च)

यदि आप को यह सब ज्यादा ही मध्यवर्गीय लगता है तो आप जॉन को एक क्रांतिकारी और मैरी को एक जवाबी-मुखबिर बना दें और देखें कि ऐसा करके आप कितनी दूर जा पाएँगे। याद रखिए, यह कैनेडा है। इस सब के बावजूद आप की परिणति 'क' पर ही जाकर होगी, हालाँकि इसके बीच में आपको शायद वासनामय संबंधों की एक कामुक, गुल-गपाड़े वाली विस्तृत कथा मिल जाए जो हमारे समय का एक तरह का इतिहास होगी।

आपको इस तथ्य का सामना करना ही होगा कि अंत को आप किसी भी तरह से तराश कर देखें, वे एक जैसे होते हैं। किसी अन्य प्रकार के अंत को देख कर छलावे में न आएँ - वे सभी झूठे होते हैं। या तो वे जान-बूझ कर झूठे बनाए गए होते हैं जिनका दुर्भावनापूर्ण उद्देश्य धोखा देना होता है या यदि वे अशिष्ट अति-भावुकता से प्रेरित नहीं होते तो महज अत्यधिक आशावादिता से अभिप्रेरित होते हैं।

एकमात्र प्रामाणिक अंत वह है जो यहाँ दिया जा रहा है :

जॉन और मैरी मर जाते हैं। जॉन और मैरी मर जाते हैं।

जॉन और मैरी मर जाते हैं।

अंत तो ऐसे ही होते हैं। शुरुआत हमेशा ज्यादा मजा देती है। लेकिन सच्चे पारखी बीच के हिस्से के कद्रदान जाने जाते हैं क्योंकि इस हिस्से के बारे में कुछ भी कह पाना बेहद कठिन है।

कथानक के बारे में जो भी बातें कही जा सकती हैं वे ये ही हैं, हालाँकि ये सब भी महज एक चीज के बाद दूसरी चीज की आवृत्ति ही हैं - एक क्या और एक और क्या और फिर एक और क्या।

अब कैसे और क्यों का प्रयोग कर के देखिए।

(मार्गरेट ऐटवुड की कैनेडियन कहानी "हैप्पी एंडिंग्स" का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद)

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