नदी किनारे एक गाँव में कुम्हारों के दो घर थे। उनका काम था नदी से मिट्टी उठाकर लाना और साँचे में ढाल के उसके खिलौने बनाना और हाट में ले जाकर उन्हें बेच आना। बहुत दिनों से उनके यहाँ यही काम होता था और इसी से उनके खाने-पीने, ओढ़ने-पहनने का काम चलता था। औरतें भी काम करती थीं, पानी भरती थी, रसोई बनाकर पति-पुत्र आदि को खिलाती थी और आँवा ठण्डा होने पर उसमें से पके हुए खिलौने निकाल कर उन्हें आँचल से झाड़ पोंछकर चित्रित करने के लिए मरदों के हवाले कर देती थी।
शक्तिनाथ ने इन्हीं कुम्हार परिवारों के बीच अपने लिए एक स्थान बना लिया था। यह रोग-ग्रस्त ब्राह्मण-पुत्र अपने बंधू-बान्धव, खेल-कूद, पढ़ना-लिखना सबकुछ छोड़कर एक दिन इन मिट्टी के खिलौनों पर झुक गया। वह खपची की छुरी धो देता, साँचे के भीतर से मिट्टी निकाल कर उसे साफ़ कर देता और उत्कंठित और असंतुष्ट मन से देखता रहता कि खिलौनों का चित्रांकन कैसी लापरवाही से समाधा हो रहा है। स्याही से खिलौनों की भौवें, आँखें, ओंठ आदि चित्रित किए जाते थे, किसी की भवें मोती हो जाती और किसी की आधी ही बनती, किसी के ओंठ के निचले हिस्से में स्याही का दाग़ लग जाता और किसी में और कुछ हो जाता। शक्तिनाथ बेचैन हो उत्सुकता के साथ अनुनय करता, "सरकार भैया, इतनी लापरवाही से क्यों रंग रहे हो?" सरकार भैया वह खिलौने रंगने वाले कारीग़र को कहता था। वह उसी स्वर में हँसते हुए कहता, "महाराज जी! अच्छी तरह रंगने में दम बहुत लगता है। उतना दाम आजकल देता कौन है? एक पैसे का खिलौना चार पैसे में नहीं बिकेगा।"
बहुत कहने-सुनने पर भी शक्तिनाथ इस विषय पर मात्र थोड़ी-सी बात समझ सका कि एक पैसे का खिलौना एक ही पैसे में बिकेगा, चाहे उसकी भवें हों या न हों या आधी ही हों। दोनों आँखे चाहे एक-सी हों या अलग तरह की जैसी भी हों, मिलेगा वही एक पैसा! कौन नाहक ही इतनी मेहनत करे? खिलौने खरीदेंगे बच्चे, दो घडी उससे प्यार करेंगे, सुलाएंगे, बैठाएंगे, गोद में लेंगे, उसके बाद तोड़-फोड़ कर फेंक देंगे, यही तो बस करेंगे!
शक्तिनाथ अपने घर से जो लाई-चना अपनी धोती में बांधकर लाया था, उसका कुछ हिस्सा अब भी बंधा पड़ा था। उसे खोलकर बड़ा अनमना-सा हो चबाता-चबाता और बिखेरता-बिखेरता वह अपने टूटे-फूटे मकान के आँगन में आ खड़ा हुआ। उस समय घर में कोई नहीं था। बीमारी से परेशान बूढ़े पिता, ज़मीदार के यहाँ मदनमोहन की पूजा करने गए थे। वहां से भींगे अरवा चावल, केले, मूली आदि भगवान पर चढ़ाया हुआ सामान बाँधकर लाएंगे, और बेटे को खिलाएँगे। घर का आँगन कुण्ड, करवीऔर हरसिंगार के पेड़ों से भरा पड़ा है। गृहलक्ष्मी के बिना घर में हर तरफ़ जंगल का नज़ारा दिखाई देता है। किसी तरह का करीना नहीं, किसी चीज़ में कोई सजावट नहीं, वृद्ध भट्टाचार्य मधुसूदन किसी तरह दिन काट रहे हैं। शक्तिनाथ फूल तोड़ता, डालें हिलाता और पत्तियां नोचता हुआ अन्यमनस्य्क भाव से घूमने-फिरने लगा।
रोज़ शक्तिनाथ कुम्हारों के घर जाया करता है। आजकल उसका सरकार भैया बढ़ी मेहनत से सबसे अच्छा खिलौना छाँट कर उसके हाथ में दे देता और कहता , "लो महाराज जी! इसे तुम रंगो।" शक्तिनाथ दोपहर तक उसी खिलौने को रंगता रहता। शायद खूब अच्छा रंगा जाता,फिर भी एक पैसे से अधिक कोई नहीं देता। लेकिन सरकार भैया उसे घर आकर कहते, "महाराज, अच्छी तरह रंगा हुआ आपका खिलौना दो पैसे में बिक गया!" इतना सुनते ही शक्तिनाथ मारे ख़ुशी के फूला न समाता।
इस गाँव के एक ज़मीदार कायस्थ हैं। देवताओं और ब्राह्मणों पर उनकी भक्ति बहुत अधिक है, उनके गृह-देवता मदनमोहन की मूर्ती अनुपम है जिसके साथ स्वर्णरंजित राधाजी हैं, ऊँचे मंदिर में चांदी के उत्कृष्ट सिंहासन पर वृन्दावन की लीला के कई अपूर्व और सुन्दर चित्र दीवारों पर शोभायमान हैं। ऊपर कीमख़ाब के चन्दोवे के बीचों-बीच सैंकड़ों बत्तीवाला झाड़ लटक रहा है। एक तरह संगमरमर की वेदी पर पूजा की सामग्री सजी होती है। और पुष्प, चन्दन,नेवैद्य आदि से मंदिर सजा रहता है। शायद स्वर्ग-सुख और सौंदर्य को याद रखने के लिय इस मंदिर की हवा फूलों और पूजा की सुगन्ध-सिक्त होकर परिवेश को शुद्ध व स्वच्छ कर है होती है।
बहुत दिन पहले की बात कह रहा हूँ। ज़मीदार राजनारायण बाबू ने प्रौढ़ता की हद में कदम रखते ही सबसे पहले यह समझा कि जीवन की छाँव धीरे-धीरे धुंधली पड़ती जा रही है। जिस दिन एक सुबह सर्वप्रथम यह जाना कि ज़मींदारी और धन-दौलत की मियाद शायद दिन-ब-दिन घटती जा रही है,सबसे पहले जिस दिन मंदिर के एक ओर खड़े-खड़े उन्होंने काफ़ी अनुपात में आसूं बहाये थे, मैं उस दिन की बात कर रहा हूँ, उस समय उनकी इकलौती बच्ची अपर्णा पांच वर्ष की थी। पिता के पैरों के पास खड़ी वह एकाग्र मन से सब देखा करती, मधुसूदन भट्टाचार्य मंदिर के उस काले खिलौने चन्दन से चर्चित कर रहे है, फूलों से सिंहासन सजा रहे हैं और उसी की स्निग्ध सुगन्ध आशीर्वाद की तरह मानो उन्हें स्पर्श करती रहती है। उसी दिन से प्रतिदिन वह बच्ची सन्ध्या के बाद अपने पिता के साथ देवता की आरती देखने आया करती और इस मंगलोत्सव में वह अकारण ही तन्मय होकर देखती रहती।
शनैः-शनैः अपर्णा बड़ी होने लगी। जैसे हिन्दू परिवार की लड़की ईश्वर की धारणा अपने ह्रदय-पाताल पर बसा लेती है, वैसे ही वह भी करने लगी। उस मंदिर को अपने पिता की निष्ठां का उपादेय मानकर वह उसमें हृदय में लहू-सी रची-बसी अपने प्रत्येक काम और खेल-कूद में इन्हीं भावों में निमग्नता प्रमाणित करती रहती। दिन भर वह मंदिर के आस-पास बनी रहती। एक भी सूखा घास का तिनका, सूखा फूल, मन्दिरमे पड़ा उसे सहन न होता। कहीं एक बूँद भी यदि पानी की गिर जाती, उसे अपने कपड़ो के किनारे से पौंछ देती। राजनारायण की देव-निष्ठां को लोग दिखावा समझते, किन्तु अपर्णा की देव-सेवा परायणता उस सीमा को पार करने लगी। बासी फूल अब पुष्प-पात्र में न समाते, दूसरा बड़ा पात्र मंगवाया गया। चन्दन की पुरानी कटोरी बदल दी गई। भोग और नेवैद्य की मात्रा पहले से बहुत बढ़ गई। यहाँ तक कि नित्य नाना प्रकार की नवीन पूजा का आयोजन व उसकी निर्दोष व्यवस्था करने के झंझट में बूढ़े पुरोहित तक घबराने लगे। ज़मीदार राजनारायण यह सब देख-सुनकर भक्ति और स्नेह से गदगद हो कहने लगे कि देवता ने मेरे घर में अपनी सेवा के लिए स्वयं लक्ष्मी को भेज दिया है --कोई कुछ मत कहो!'
समय आने पर अपर्णा का विवाह निश्चित हो गया। इस डर से कि अब मंदिर छोड़ कर कहीं और जाना पड़ेगा, उसके सुन्दर मुख की हंसी बेसमय ही ग़ायब हो गई। मुहूर्त नज़दीक आ रहा है, उसे ससुराल जाना ही होगा। जैसे बिजली को वर्षा की काली घटाएं सप्रयास अपने अन्तर्तम में छिपा अवरुद्ध गौरव के भार से स्थिर हो बरसाने के लिए कुछ देर नभ में स्थिर रहती हैं, वैसे ही स्थिर भाव से अपर्णा ने भी एक दिन सुना कि शादी का मुहूर्त आज आ गया है। उसने अपने पिता से कहा, " बाबू जी मैं भगवान की सेवा का जो प्रबंध किए जा रही हूँ उसमें किसी तरह की त्रुटि न आने पाये।"
वृद्ध पिता ने रोते हुए कहा, "ठीक है बेटी!- नहीं, कोई त्रुटि नहीं होगी!"
अपर्णा चुपचाप चली गई। उसकी माँ इस दुनिया में नहीं थी, वह रो न सकी, बूढ़े पिता की दोनों आँखों में आंसू भरे हैं, वह क्या उन्हें रोक सकती है? इसके बाद अपने दुखी क्रंदनोन्मुख दृढ़ हृदय को पौरुष-शुष्क हंसी से ढांप घोड़े पर सवार होते वीर योद्धा की तरह अपना गाँव छोड़कर अनजाने कर्तव्य को सिर-माथे रख वह वहां से चल दी। अपने उद्वेलित आंसूओं को पौंछते हुए उसे ध्यान आया कि वह पिता के आँसू पौंछकर नहीं आई तो उसका हृदय रो-रोकर न जाने लगातार कितनी ही शिकायतें करने लगा। एक तो वैसे ही उसका मन सैंकड़ों कष्टों से दुखी था, उसपर आजन्म परिचित आरती के आह्वान शब्द उसके कानों में मर्मान्तक निराशा का हाहाकार मचाने लगे। छटपटाती हुई अपर्णा पालकी का द्वार खोल सन्ध्या के धुंधलके में से देखने लगी; छाया निविड़ ऊंची एक-एक देवदार की चोटी पर उस परिचत मंदिर के समुन्नत शिखर की कल्पना मन में आते ही वह उच्छवसित उद्वेग से रो पड़ी। ससुराल से आई एक दासी पालकी के पीछे चली आ रही थी, झटपट उसके पास आकर बोली, " छिः बहू जी ! इस प्रकार क्या रोना चाहिए? ससुराल कौन नहीं जाता?"
अपर्णा ने दोनों हाथ से मुँह ढककर रोना बंद करके पालकी के दरवाज़े बंद कर लिए। ठीक समय मंदिर के अंदर खड़े होकर उसके पिता राजनारायण मदनमोहन भगवान के सामने धूप-दीप और आंसुओं से धुंधली हुई एक देवमूर्ति के अनिंद्य-सुन्दर मुख पर अपनी प्रिय विवाहिता पुत्री की छवि देख रहे थे।
अब 'अपर्णा अपने स्वामी के के घर रहती है। वहाँ उसके इच्छाहीन पति ने सम्भाषण में ज़रा भी आवेश और ज़रा-सी भी उत्सुकता प्रकट नहीं की । प्रथम प्रणय का स्निग्ध संकोच और मिलन की सरस उत्तेजना जैसी कोई भी कोशिश उसके उदास पड़े नयनों में पहली-सी चमक वापस न ला सकी। शुरू से ही पति-पत्नी दोनों ही एक दूसरे के सामने किसी ज्ञान-अपराधके अपराधी से बने रहे और उसकी क्षुब्ध पीड़ा से आक्रान्त व प्रेम-कूलप्लाविनि उद्वेलित तटिनी की भाँति दुर्लंघ्य रुकावटें खड़ी कर बहती चली जाने लगी।
एक दिन बहुत रात बीत जाने पर अमरनाथ ने धीरे-से पुकार कर कहा, "अपर्णा, तुम्हें यहाँ रहना अच्छा नहीं लगता?"
अपर्णा जाग रही थी, बोली, "नहीं।"
अमर, "मायके जाओगी?"
अपर्णा , "हाँ, जाऊँगी।"
अमर, "कल जाना चाहती हो?"
अपर्णा, "हाँ।"
क्षुब्ध अमरनाथ यह उत्तर सुनकर अवाक रह गया। अगर जाना न हो सके तो?"
अपर्णा ने कहा, "तब जैसे हूँ वैसे ही रहूँगी।"
इसके बाद कुछ देर तक दोनों पति-पत्नी चुप रहे अमर ने बुलाया,"अपर्णा!"
अपर्णा ने अन्यमनस्क भाव से कहा, "क्या है?"
"मेरी क्या तुम्हें कोई ज़रूरत ही नहीं।"
अपर्णा ने कपड़े से सर्वांग अच्छी तरह ढककर आराम से सोते हुए कहा, "इन सब बातों से बड़ा झगड़ा होता है, ये सब बातें न करो।"
"झगड़ा होता है, कैसे जाना?"
"जानती हूँ, मेरे मायके में मंझली भाभी और मंझले भैया में इसी बात को लेकर झगड़ा होता था। मुझे लड़ाई-झगड़ा पसंद नहीं।"
इन बातों को सुनकर अमरनाथ उद्वेलित हो गया। अँधेरे में टटोलता जैसे वह इस बात को जानने का प्रयास कर रहा था कि अचानक उसके हाथ वह बात आ गई, तो बोला, " आओ अपर्णा, हम भी झगड़ा करें। इस तरह रहने की बजाए तो लड़ाई-झगड़ा लाख गुना अच्छा है।
अपर्णा स्थिर भाव से बोली, "छिः झगड़ा क्यों करने चलें? तुम सो जाओ।" इसके बाद अपर्णा सारी रात जागती रही या सो गई, अमरनाथ रातभर जाग कर भी न समझ सका। सुबह से शाम तक अपर्णा का सारा दिन काम-काज और जप-तप में बीत जाता। रस-रंग और हंसी मजाक में उसका मन रमता न देख कर उसके बराबर की लड़कियों ने मज़ाक-मज़ाक में उसे क्या-क्या न कहना शुरू कर दिया। ननदें उसे 'गुसाईं जी' कह कर खिल्ली उड़ाती तो भी वह उनके टोले में न घुल-मिल सकी, बार-बार यही सोचती कि नाहक ही दिन बीतते जा रहे हैं। और एक वह अदृष्य आकर्षण जिससे उसका प्रत्येक रक्त-कण पितृ-प्रतिष्ठित उस मंदिर की ओर भाग जाने के लिए, पूर्णिमा में समुद्र की लहरों-सा मन हृदय के सभी कूल-उपकूल दिन- रात पछाड़ें खाता उद्वेलित ही रहता, उसे कैसे रोक जाए।"
घर-गृहस्थी के काम से, या छोटे-मोटे हास-परिहास से? उसका दुखित मन भारी भ्रान्ति को लेकर आप ही आप चक्कर-घिनी बन रहा है, ऐसे में उसके पास पति का लाड-प्यार और स्नेह, परिवार-वर्ग का प्रीति सम्भाषण कैसे पहुँच सकेगा? किस तरह वह समझे कि कुमारी की देश-सेवा से नारीत्व के कर्त्तव्य का सारा परियोजन पूरा नहीं किया जा सकता।
अमरनाथ के समझने की भूल है कि वह उपहार की वस्तुएँ लेकर अपनी पत्नी के पास आया। दिन के तक़रीबन नौ-दस बजे होंगे। स्नान आदि से निवृत हो अपर्णा पूजा के लिए जा रही थी। यथा सम्भव मधुर कंठ से अमरनाथ ने कहा, "अपर्णा, तुम्हारे लिए उपहार लाया हूँ, कृपाकर, लोगी क्या?"
अपर्णा ने मुस्कराते हुए कहा, "लूँगी क्यों नहीं?"
अब क्या कहना था, अमरनाथ के हाथ में चाँद आ गया। वह ख़ुशी से एक सुन्दर रुमाल में लिपटे सूफियाना डिब्बे का ढक्कन खोलने लगा। ढक्कन के ऊपर सुनहरे अक्षरों में अपर्णा का नाम लिखा हुआ था। अब अपर्णा का चेहरा देखने के लिए उसने अपर्णा के मुँह की तरफ़ देखा तो उसे लगा कि अपर्णा उसकी तरफ़ वैसे ही देख रही है, जैसे कोई आदमी काँच की नकली आँख लगा कर देखता है। यह देख उसका सारा उत्साह क्षण भर में बुझ गया और अर्थहीन एक बूँद सूखी हंसी से वह अपने आपको छिपाने लगा। शर्म के मारे गढ़ जाने पर भी उसने बक्से का ढक्कन खोलकर कई सुगन्धित तेलों की शीशियां और न जाने क्या-क्या चीज़ें निकालनी शुरू की, परन्तु अपर्णा ने उसे रोककर कहा, "क्या ये सब मेरे लिए लाए हो?"
अमरनाथ की बजाय जैसे किसी दूसरे ने जवाब दिया, "हाँ, तुम्हारे ही लिए लाया हूँ। दिलखुश की शीशियां..."
अपर्णा ने पूछा, " बक्सा भी मुझे दे दिया क्या?"
"ज़रूर।"
"तो फिर क्यों फिजूल में इन्हें निकाल रहे हो? बॉक्स में रहने दो सब।"
"अच्छा रहने देता हूँ, तुम लगाओगी न?"
एकाएक अपर्णा की भवें सिकुड़ गई। सारी दुनिया से लड़ाई करके उसका क्षत-विक्षत हृदय परास्त होकर वैराग्य ग्रहण कर चुपचाप एकांत में जा बैठा था। अचानक उस पर स्नेह के इस अनुनय ने भद्दे उपहास का आघात किया। विचलित होकर उसने उसी वक्त प्रतिघात करते हुए कहा, "नष्ट नहीं होगा, रख दो। मेरे अलावा और भी बहुत लोग इसे प्रयोग करना चाहते हैं।" इतना कह कर अपर्णा उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना पूजा-घर में चली गई और अमरनाथ व्याकुल हो उस अस्वीकृत उपहार पर हाथ धरे उसी तरह बैठा रहा। पहले उसने मन ही मन हज़ार बार स्वयं को निर्बोध कह कर अपमानित किया। फिर बाद में उसने गहरी सांस भरकर कहा, " अपर्णा, तुम पत्थर हो।" उसकी आँखों में आंसू भर आए। वह वहीं बैठा-बैठा आँखे पोंछने लगा। अपर्णा यदि साफ़-साफ़ कह कर इंकार कर देती तो बात कुछ और ही प्रभाव डालती। वह जो इंकार किया भी तो अस्वीकृति की सारी कलां उसकी देह पर पुत गई है, इसका प्रतिकार वह कैसे करे? क्या वह अपर्णा को उसके पूजा के आसन से खींच कर ले आए और उसके सामने उन सभी उपेक्षित उपहारों को पाँव मारकर तोड़-फोड़ दे और सबके सामने दृढ़ प्रतिज्ञा करे कि अब वह उसका मुँह न देखेगा? वह क्या करे, कितना और क्या कहे, कहाँ लापता होकर चला जाए? क्या भस्म रमा कर साधू-संत-सा हो जाए और कभी अपर्णा के दुर्दिनों में अचानक आकर रक्षा करे? इस तरह संभव-असंभव सब प्रकार के उत्तर-प्रत्युत्तर और वाद-प्रतिवाद उसके अपमानित मस्तिष्क में व्याकुलता के साथ पैदा होने लगे। परिणाम यह हुआ कि वह उसी जगह और उसी तरह बैठा रहा और रोने लगा। किन्तु किसी भी तरह उसके आदि से अंत तक के उद्विग्न संकल्पों की लम्बी फ़ैरिस्त ख़त्म न हो सकी।
उस घटना के बाद दो दिन और दो रातें व्यतीत हो गई, अमरनाथ घर सोने नहीं आया। उसकी माँ को जब यह बात मालूम हुई तब उन्होंने बहू को बुलाकर थोड़ा बहुत डाँटा-डपटा और पुत्र को बुलाकर समझाया बुझाया। ददिया सास भी भी इस मौक़े पर ज़रा मज़ाक उड़ा गई, इस तरह सात-पांच में बात हलकी पड़ गई। रात को अपर्णा ने अपने पति से क्षमा-याचना की और कहा, "अगर मैंने आपके मन को कष्ट पहुंचाया हो तो मुझे क्षमा कर दीजिए।"
अमरनाथ बात नहीं कर सका। पलंग के एक किनारे बैठकर बिछोने की चादर को बार-बार खींच कर उसे सीधा-साफ़ करने लगा। उसके सामने ही अपर्णा खड़ी थी। उसके चहरे पर म्लान मुस्कान थी, उसने फिर कहा, "क्षमा नहीं करोगे!" अमरनाथ ने सिर नीचा किए-किए ही कहा, "क्षमा किसलिए और क्षमा करने का मुझे क्या अधिकार है?"
अपर्णा ने पति के दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर कहा, "ऐसी बात मत कहो। तुम मेरे स्वामी हो, तुहारे नाराज़ रहने से मेरा गुज़ारा कैसे होगा?"तुम क्षमा न करोगे तो मैं खड़ी कहाँ होऊँगी? किसलिए गुस्सा हो गए हो, बताओ?" अमरनाथ ने शांत होकर कहा, "गुस्सा तो नहीं हुआ।"
"नहीं हुए?"
"नहीं तो।"
अपर्णा को कलह-क्लेश पसंद न था , इसलिए विश्वास न होते हुए भी उसने विश्वास कर लिया और बोली, "तो ठीक है।"
इसके बाद वह एक तरफ़ हो सो गई।
लेकिन अमरनाथ को इससे बड़ी हैरानी हुई। वह दूसरी ओर मुँह फेरकर मन में तर्क-वितर्क करने लगा कि इस बात पर उसकी पत्नी ने कैसे विश्वास कर लिया? मैं जो दो दिन आया नहीं, मिला नहीं, फिर भी मैं गुस्सा नहीं हुआ- क्या यह विश्वास करने की बात है?" इतनी बड़ी घटना इतनी जल्दी समाप्त होकर बेकार हो गई ? इसके बाद जब उसने समझा कि अपर्णा सचमुच सो गई है, तब वह एकदम उठकर बैठ गया और बिना किसी दुविधा के आवाज़ लगाईं, " अपर्णा, तुम क्या सो रही हो?-- ओ अपर्णा!" अपर्णा जाग गई और बोली, "बुला रहे हो?"
"हाँ, कल मैं कलकत्ता जाऊंगा।"
"कहाँ, यह बात पहले तो नहीं की! इतनी जल्दी तुम्हारे कालेज की छुट्टी खत्म हो गई ? और दो-चार दिन नहीं रह सकते?"
"नहीं, अब रहना नहीं हो सकता।"
अपर्णा ने कुछ सोचकर फिर पूछा, "तब क्या तुम मुझ से नाराज़ होकर जा रहे हो?"
बात सच थी, अमरनाथ भी जानता है, पर मन इस बात को न मान सका। संकोच ने मानो उसकी धोती का किनारा पकड़ कर उसे वापस बुला लिया। उसे शक हुआ कि कहीं अपना निक्कमापन प्रमाणित कर कहीं वह अपर्णा के सम्मान को चोट न पहुँचा दे - इस तरह इस उत्सुकताविहीन नारी-निश्चेष्टता ने उसे विमोहित कर दिया। पतित्व का जितना तेज उसने अपने स्वाभाविक अधिकार से प्राप्त किया था, उसे अपर्णा ने इन चार-पांच महीनों में धीरे-धीरे खींच कर निकाल दिया है। अब वह गुस्सा भी दिखाए तो किस बूते पर? अपर्णा ने फिर कहा, "नाराज़ होकर कहीं नहीं जाना, नही तो मेरे मन को बहुत चोट पहुंचेगी।"
अनारनाथ सच-झूठ के सम्मिश्रण से जो भी कह सका उसका मतलब था कि वह नाराज़ नहीं हुआ, और इसे सिद्ध करने के लिए सोचा कि दो दिन और रहकर जाएगा। रहा भी दो दिन,परन्तु जैसे रोका था, उसमें विजयी होने की एक शर्मनाक बेचैनी उसने मन में बनाए रखी।
आंधी-पानी आने से एक लाभ होता है कि आसमान स्वच्छ हो जाता है, किन्तु बूंदा-बांदी से बादल तो साफ़ होते हैं नहीं, उलटे पैरों में कीचड़ और हर तरफ़ बेमज़ा भाव बढ़ जाता है। अपने घर से जो कीचड़ लपेट कर अमरनाथ कलकत्ते आया, परिचितों के सामने अपने कीचड़ भरे पाँव निकालने में भी शर्मिन्दगी महसूस होने लगी। न तो उसका मन पढने-लिखने में लगता और न ही हंसने-खेलने में तबीयत मानती। यहाँ रहने की भी इच्छा नहीं होती, घर जाने को भी मन न मानता। उसके सीने में मानो असह वेदना का बोझ लद गया जिसे धकेलने में उसके विकल हृदय की पसलियाँ आपस में टकरा रही हैं। किन्तु सभी कोशिशें नाकाम!
इसी अंतर्वेदना के चलते वह एक दिन बीमार पड़ गया। बीमारी की ख़बर मिलते ही उसके माँ-बाबा कलकत्ता आगए, पर अपर्णा को साथ न लाए। ऐसा नहीं कि अमरनाथ को ऐसी आशा थी, फिर भी उसका दिल बैठ गया। बीमारी सतत बढ़ती गई। ऐसे में शायद उसे अपर्णा को देखने की इच्छा होती, किन्तु अपने मुँह से वह यह बात बोल न सका। माँ-बाबा भी समझ न पाए। केवल परहेज़ और डाक्टर-वैद्य। अंत में उसने इन सब के हाथ से मुक्ति पा ली--एकं दिन उसका देहांत हो गया।
विधवा होकर अपर्णा सन्न रह गई। उसके सारे शरीर में रोमांच हुआ और एक भीषण संभावना उसके मन में पैदा हुई कि शायद यह सब उसी की कामना का फल है। शायद, इतने दिनों से वह मन ही मन यही चाहती थी---अन्तर्यामी ने इतने दिनों के बाद उसकी कामना पूरी की है! बाहर उसे अपने पिता के ज़ोर-ज़ोर से रोने का स्वर सुनाई दिया। क्या यह सपना है? वे कब आए?अपर्णा ने मकान की खिड़की खोली और झांककर देखा, सचमुच ही राजनारायण बाबू बच्चों की तरह ज़मीन पर पड़े रो रहे हैं। पिता की देखा-देखी अब वह भी घर के अंदर ज़मीन पर लोट गई और आंसुओं से ज़मीन भिगोने लगी।
संध्या होने में ज़्यादा देर नहीं थी। अपर्णा के पिता ने उसे छाती से लगाते हुए कहा, "बेटी अपर्णा!" अपर्णा ने भी रोते-रोते जवाब दिया, "पिता जी!"
"तेरे मदनमोहन ने तुझे बुलाया है बिटिया?"
"चलो बाबू जी, वहीँ चलें।"
"चलो बिटिया, चलो!" कहते हुए राजनारायण बाबू ने स्नेह से अपनी बेटी का माथा चूमा, और इसके साथ ही छाती से सारा दुःख पौंछ कर मिटा दिया और फिर बेटी का हाथ थामे दूसरे दिन अपने घर गए। उंगली के इशारे से दिखाते हुए बोले, "वह है बिटिया, तेरा मंदिर!
वे हैं तेरे मदनमोहन!"
निर्लिप्त भाव अपर्णा वैधव्य-वेश में कुछ और ही तरह की दिखाई दी। जैसे सफ़ेद कपड़ों और रूखे बालों में वह और भी अच्छी दिखने लगी। उसने पिता की बात पर बहुत विश्वास किया, सोचने लगी, देवता के आह्वान से ही वापस आई है। मानो इसीलिए भगवान के मुँह पर हंसी है, मंदिर में सौगुना सौरभ। उसे लगने लगा मानो वह इस धरा से कहीं ऊंचे पहुँच गई है।
जो पति अपने मरने से उसे धरा से इतना ऊँचा रख गया है, उन मृत पति को सौ-सौ बार वंदन करके अपर्णा ने उसके लिए अक्षय स्वर्ग की कामना की।
शक्तिनाथ एकाग्रचित्त से मूर्तियां बना रहा था। पूजा करने की बजाय उसे मूर्तियां बनाना कहीं अच्छा लगता था। कैसा रूप, कैसी नाक, कैसे कान और कैसी आँखे होनी चाहिए, कौन-सा रंग अधिक खिलेगा -यही, उसकी विवेचना का विषय होता। किस चीज़ से पूजा करनी चाहिए,और किस मन्त्र का जाप इन सब छोटे विषयों पर उसका ध्यान ही न था। विषय में वह अपने आपको आगे बढ़ाकर सेवक के स्थान पर आ गया। फिर भी उसके पिता ने उसे आदेश दिया, "शक्तिनाथ, आज मुझे बहुत ज़ोर का बुख़ार है, ज़मीदार के घर जाकर तुम ही पूजा कर आओ!"
शक्तिनाथ ने कहा, "अभी मूर्ती बना रहा हूँ।"
बूढ़े असहाय पिता ने गुस्से से कहा, "लड़कों वाला खेल अभी रहने दो, बेटा! पहले पूजा का काम कर आओ।"
पूजा के मन्त्र पढने में उसका मन ज़रा भी न लगता था, उसे जाना ही पड़ा। पिता के आदेश से नहा कर,चद्दर और अँगोछा कंधे पर डाल वह देव-मंदिर में आ खड़ा हुआ। इसके पहले भी वह कई बार इस मंदिर में पूजा करने आया है, किन्तु ऐसी अनोखी बात उसने कभी नहीं देखी। फूलों की इतनी सुगंध,इतना धूप-सुगंध का आडम्बर, इतना ज़्यादा भांग और नेवैद्य,! उसे बड़ी चिंता हुई,कि इतना सब लेकर वह क्या करेगा? किस तरह किस किस की पूजा करेगा? सबसे ज़्यादा हैरानी उसे अपर्णा को देखकर हुई! यह कौन,कहाँ से आई? इतने दिनों तक कहाँ थी यह?
अपर्णा ने पूछा, "तुम भट्टाचार्य के बेटे हो?"
शक्तिनाथ ने कहा, "हाँ!" " तो पैर धोकर पूजा करने बैठो!"
बैठा तो शक्तिनाथ शुरू में ही भूल गया। एक भी मन्त्र उसे याद न रहा । इसमें उसका मन भी नहीं और विश्वास नहीं-सिर्फ़ यही सोच में रहा कि यह कौन है,क्यों इतना रूप है,किसलिए यहाँ बैठी है आदि-आदि। पूजा की पद्धति में उलटफेर होने लगा- विज्ञ निरीक्षक की तरह पीछे बैठी अपर्णा सब समझ गई कि कभो घंटी बजा कर, कभी फूल चढ़ाकर, कभी नेवैद्य पर जल छिड़ककर यह अनाड़ी पुरोहित पूजा का मात्र ढोंग कर रहा है। इन बातों को सतत देखते-देखते अपर्णा इन्हे अच्छी तरह समझती थी। शक्तिनाथ भला उसे कहीं घोखा दे सकता था। पूजा समाप्त होने पर अपर्णा ने कठोर वाणी में कहा, "तुम ब्राह्मण के बेटे हो, पूजा करना भी नहीं जानते?"
शक्तिनाथ ने कहा, "जानता हूँ।"
"ख़ाक जानते हो।"
शक्तिनाथ ने विह्वल होकर उसके मुंह की ओर देखा, फिर वह चलने को तैयार हुआ। अपर्णा ने उसे रोका और कहा, "महाराज, यह सब सामग्री बाँध कर ले जाओ--पर कल फिर न आना। तुम्हारे पिता अच्छे हो जाएँ, तो वे ही आएँ।"
अपने हाथ से सारी सामग्री उसकी चादर-अंगोछे में बंधवा कर उसे विदा कर दिया। मंदिर के बाहर आकर शक्तिनाथ को बार-बार कंपकंपी लगी। इधर अपर्णा ने फिर से नए सिरे से पूजा का आयोजन करके दूसरे ब्राह्मण को बुला कर पूजा करवाई।
एक महीना बीत गया। आचार्य यदुनाथ ज़मींदार राजनारायण बाबू को समझाकर कहने लगे, "आप तो सब कुछ समझते हैं, बड़े मंदिर की यह वृहद पूजा मधु भट्टाचार्य के बेटे से किसी प्रकार भी नहीं हो सकती।" राजनारायण बाबू ने उनकी बात का समर्थन करते हुए कहा, "बहुत दिन हुए, अपर्णा ने भी यही बात कही थी।"
आचार्य ने अपने चेहरे को गंभीर बनाकर कहा, "सो तो कहा ही होगा। वह ठहरी साक्षात लक्ष्मीस्वरूपा। उनसे कुछ छिपा थोड़े ही रह सकता है।"
ज़मीदार बाबू का ठीक ऐसा ही विश्वास है। आचार्य कहने लगे, "पूजा चाहे मैं करूँ, या कोई और करे, उत्तम आदमी होना चाहिए। मधु भट्टाचार्य जब तक जीवित थे, तब तक उन्होंने पूजा की, अब उनके पुत्र का पुरोहिताई करना सही है, किन्तु वह तो उत्तम व्यक्ति नहीं। वह सिर्फ पेंट रंगना जानता है, खिलौने बना सकता है, पूजा-पाठ करना कुछ नहीं जानता।"
राजनारायण ने स्वीकृति दे दी, "पूजा आप करें।" फिर एकदम बोले, "पर अपर्णा से एक बार पूछ कर देखूं।"
अपने पिता के मुंह से शब्द निकलते ही अपर्णा ने सिर हिलाया और बोली, "ऐसा भी कहीं होता है? ब्राह्मण का बेटा बेसहारा ठहरा, उसे कहाँ भेज दिया जाए? जैसे जानता है, वैसे ही पूजा करेगा। भगवान उसी से सन्तुष्ट होंगे।"
बेटी की बात सुनकर राजनारायण बाबू की सचेतनता जागी वे बोले, "मैंने इतना तो सोच कर देखा ही नहीं। बेटी तुम्हारा मंदिर है, तुम्हारी ही पूजा है, तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा करो! जिसे चाहो, यह काम उसी को सौंप दो।"
इतना कह कर राजनारायण बाबू चले गए। अपर्णा ने शक्तिनाथ को बुलाकर उसी को पूजा का भार सौंप दिया। अपर्णा की फटकार खाने के बाद वह फिर इधर नहीं आया था। इस बीच में उसके पिता की मृत्यु हो गई और इस समय वह भी बीमार-सा था। सूखे चेहरे पर दुःख व अवसाद के चिह्न देखकर अपर्णा को दया आ गई, वह बोली, "तुम पूजा करना, जैसे जानते हो वैसे ही करना, उसी से भगवान तृप्त होंगे।"
अपर्णा के स्नेह-सिक्त शब्द सुनकर उसमें हिम्मत आ गई वह मन लगाकर सावधानीपूर्वक पूजा करने लगा। समाप्त होने पर अपर्णा ने जितना वह खा सकता था उतना खुद ही बाँध कर कहा, "अच्छी पूजा की है। महाराज, तुम क्या अपने हाथ से भोजन बनाते हो?"
"किसी दिन बना लेता हूँ, किसी दिन--जब बुख़ार आ जाता है, उस दिन नहीं बना सकता।"
"तुम्हारे यहाँ क्या कोई और नहीं है?"
"नहीं।"
शक्तिनाथ के चले जाने पर अपर्णा ने उसके प्रति कहा, "अहा बेचारा!" इसके बाद देवता के सामने हाथ जोड़कर उसके लिए प्रार्थना की, "भगवान इनकी पूजा से तुम संतुष्ट होना, यह अभी लड़का है, इसकी त्रुटियों पर ध्यान न देना।"
उस दिन से अपर्णा रोज़ दासी को भेजकर उसकी जानकारी लेती रहती--वह क्या खाता है, क्या करता है या उसे किस चीज़ की ज़रुरत है। उस बेसहारा ब्राह्मणकुमार को परोक्ष रूप से आश्रय देकर उसने उसका भार स्वेच्छा से अपने ऊपर ले लिया। और उसी दिन से इन दोनों किशोर-किशोरी ने अपनी भक्ति, स्नेह व भूल-भ्रान्ति सभी एक करके इस मंदिर का आश्रय लेकर जीवन के शेष कामों को अपने से पूरी तरह छोड़ दिया। जब शक्तिनाथ पूजा करता, अपर्णा मन ही मन उसका सहज अर्थ देवता को समझा देती। शक्तिनाथ सुगन्धित फूल हाथसे उठाता, अपर्णा उंगली से दिखाकर बताती जाती। वह कहती, "महाराज, ऐसे सिंहासन सजाओ तो देखो बहुत सुन्दर लगेगा। इस तरह इस विशाल मंदिर का वृहद काम चलने लगा। यह देख-सुन कर आचार्य ने कहा, "बच्चों का खिलवाड़ हो रहा है।"
बूढ़े राजनारायण बाबू ने कहा, किसी भी तरह से हो, बेटी अपनी बात को भूली रहे तो अच्छा है।"
रंगमंच पर जैसे पहाड़-पर्वत, एक ही क्षण में गायब होकर वहाँ राजमहल कहीं से आकर खड़ा कर जाता है और लोगों की सुख-सम्पदा में दुःख-दैन्य तक के निशान मिट जाते हैं, वैसे ही शक्तिनाथ के जीवन में भी हुआ। पहले तो उसे पता ही न चला की वह जाग रहा था और कब सोकर सुख-स्वप्न देख रहा है या नींद में दुःस्वप्न देख रहा था और अब सहसा जाग उठा है, फिर भी, उसके पहले वाले विक्षिप्त खिलौने बीच-बीच में उसे उसे यह बात याद दिला कर कहते कि इस दायित्वहीन देव-सेवा की सोने की कड़ी ने उसके पूरे शरीर को जकड़ लिया है और रह-रह कर वह झनझना उठती है। वह अपने स्वर्गीय पिता को याद किया करता और अपनी स्वच्छंदता की बात सोचा करता। उसे लगता मानो वह बिक गया हो, अपर्णा ने उसे ख़रीद लिया हो। इस प्रकार अपर्णा के स्नेह ने क्रमशः मोह की तरह धीरे-धीरे उसे आछन्न कर दिया ।
अचानक एक दिन शक्तिनाथ का ममेरा भाई वहां अाया। उसकी बहन की शादी थी। मामा कलकत्ता रहते हैं। अभी समय अच्छा है, तो सुख के समय भांजे की याद आई है। जाना होगा। शक्तिनाथ को यह बात अच्छी लगी कि कलकत्ता जाना होगा। सारी रात वह भैय्या के पास बैठा-बैठा कलकत्ते की कहानी, शोभा की बातें, समृद्धि का वर्णन सुनता रहा और सुनते-सुनते मुग्ध हो गया । दूसरे दिन मंदिर जाने की उसकी इच्छा नहीं हुई। सवेरा होते देख अपर्णा ने उसे बुलवाया। शक्तिनाथ ने जा कर कहा, "आज मैं कलकत्ता जाऊँगा - मामा ने बुलाया है।"
इतना कह कर वह संकुचित हो कर खड़ा हो गया। अपर्णा कुछ देर चुप रही, फिर बोली, "कब तक वापिस आओगे?"
शक्तिनाथ ने डरते हुए कहा, "मामा कह देंगे तभी चला आऊंगा।"
इसके बाद अपर्णा ने कुछ नहीं पूछा। फिर वही यदुनाथ आचार्य आकर पूजा करने लगे और उसी तरह अपर्णा पूजा देखने लगी किन्तु कोई बात कहने की ज़रुरत नहीं हुई और न ही कुछ कहने की इच्छा भी थी।
कलकत्ते की चहल-पहल देखकर शक्तिनाथ बड़ा खुश हुआ। कुछ दिन हंसी-ख़ुशी में बीत जाने पर फिर उसका मन घर जाने के लिए बैचैन हो गया। लम्बे और आलसी दिन अब उससे बिताये नहीं बीतते। वह सपने देखने लगा, अपर्णा उसे बुला रही है, और उत्तर न पा कर नाराज़ भी हो रही है। आखिर एक दिन उसने अपने मामा से कहा, "मैं घर जाऊँगा।"
मामा नें मना किया, "वहां जंगल जाकर क्या करोगे? यहीं रह कर पढ़ो-लिखो, मैं तुम्हारी नौकरी लगवा दूंगा।"
शक्तिनाथ सिर हिलाकर चुप हो गया। मामा ने कहा,"तो जाओ।"
बड़ी बहू ने शक्तिनाथ को बुलाकर कहा, "बाबू! क्या कल घर चले जाओगे?"
शक्तिनाथ ने उत्तर दिया, " हाँ, जाऊंगा।"
"अर्पणा के लिए मन तड़फड़ा रहा है न?"
शक्तिनाथ ने कहा, "हाँ!"
कुछ देर बाद उसने सिर झुकाते हुए कहा, "ख़ूब सेवा करती है।"
बड़ी बहू मन ही मन मुस्काई,अर्पणा की बातें उसने पहले ही सुन रखी थी और शक्तिनाथ ने स्वयं ही बताई थी। वह बोली, "तो बाबू साहब, ये दो चीज़ें लेते जाओ, उसे देना, वह और भी प्यार करेगी।"
उसने एक शीशी का ढक्क्न खोलकर थोड़ा-सा 'दिलखुश सैंट' उसपर छिड़क दिया। उसकी सुगन्ध से शक्तिनाथ पुलकित हो उठा और दोनों शीशियों को चादर के किनारे बांधकर दूसरे दिन ही वापस आ गया।
शक्तिनाथ आकर मंदिर में पहुंचा। पूजा समाप्त हो चुकी थी। एसेंस की शीशियाँ चादर में बंधी थी, पर इन कई दिनों में अपर्णा की निकटता उससे इतनी कम हो गई थी कि शीशियां देने की उसकी हिम्मत नहीं पड़ी। वह इनके लिए मुंह खोल कर न कह पाया कि ये तुम्हारे लिय कलकत्ते से बड़ी इच्छा से लाया हूँ। सुगंध से तुम्हारे देवता तृप्त होते हैं, तुम भी हो जाओगी। सात दिन बीत गए। हर रोज़ वह अपनी चादर में शीशियां बाँध कर ले जाता और वापस ले आता। बाद में बड़े करीने से उठा कर रख देता। अगर अपर्णा पहले की तरह उसे बुला कर कुछ पूछती तो शायद वह अपना उपहार उसे दे देता किन्तु ऐसा कोई अवसर न आया।
आज दो दिन से उसे बुख़ार है, फिर भी डरते-डरते पूजा करने आ जाता है। किसी अनजानी आशंका से वह अपनी पीड़ा की बात भी न कह सका। किन्तु अपर्णा ने पता करवा लिया कि दो दिन से शक्तिनाथ ने कुछ नहीं खाया फिर भी वह आता है। अपर्णा ने पूछा, "महाराज, तुमने दो दिन से कुछ खाया नहीं।"
शक्तिनाथ ने शुष्क मुँह से जवाब दिया, "रात को रोज़ बुख़ार चढ़ जाता है।"
"बुख़ार आता है? फिर नहा-धोकर पूजा करने क्यों आते हो?"
शक्तिनाथ की आँखे नम हो गई। क्षण भर में वह सब बातें भूल गया। चददर के छोर से गांठ खोल दोनों शीशियाँ निकाल कर बोला, "तुम्हारे लिए लाया हूँ।"
"मेरे लिए?"
"हाँ तुम्हें सुगंध पसन्द है न?"
जैसे गर्म दूध आग की ज़रा-सी गर्मी पाकर खौलने लगता है, ठीक वैसे ही अपर्णा के शरीर का लहु खौल उठा। शीशियां देख कर वह पहचान गई थी। उसने कठोर आवाज़ में कहा, "दो!"
और उन्हें हाथ में ले कर मंदिर के बाहर, जहाँ पूजा पर चढ़े बासी फूल पड़े रहते थे वहाँ जाकर फैंक दी। डर के मारे शक्तिनाथ का ख़ून जम गया। कड़क आवाज़ में अपर्णा ने कहा, "महाराज, तुम्हारे अन्दर इतना कुछ भरा है। अब मेरे सामने न आना, मंदिर की परछाई भी न लांघना।" इसके बाद अपर्णा ने अपनी तर्जनी के इशारे से बाहर का रास्ता दिखाते हुए कहा, "जाओ!"
शक्तिनाथ को गए आज तीन दिन हो गए। यदुनाथ सरकार फिर से पूजा करने लगे। अर्पणा फिर मलिन चेहरे से पूजा देखने लगी, जैसे यह पूजा किसी और की हो और कोई दूसरा उसे संपन्न कर रहा हो। पूजा समाप्त करके अंगोछे में नेवैद्य बांधते हुए आचार्य जी ने गहरी सांस भरते हुए कहा, "लड़का बिना इलाज के मर गया।"
आचार्य के चेहरे की और देखकर अपर्णा ने पूछा, "कौन मर गया?"
"तुमने नहीं सुना क्या? कई दिनों से बुख़ार में पड़ा, वही मधुभट्टाचार्य का बेटा आज सवेरे मर गया।"
अपर्णा फिर भी उसका मुँह ताकती रही। आचार्य ने दरवाज़े से बाहर आकर कहा, "आजकल पाप के परिणामस्वरूप मृत्यु हो रही है। देवता के साथ क्या दिल्लगी चल सकती है बेटी!"
आचार्य चले गए। अपर्णा दरवाज़े बन्द कर ज़मीन पर माथा पटक-पटक कर रोने लगी। हज़ार बार रोकर पूछने लगी, "भगवान! किसके पाप से?"
बड़ी देर बाद अपर्णा उठ कर आँखे पौंछ बाहर गई, उन बासी फूलों में से स्नेह के दान को उठा माथे से लगा लिया। इसके बाद मंदिर में आकर उसे भगवान के पास रख कर बोली, "भगवान! जिसे मैं न ले सकी उसे तुम ले लो! मैंने कभी अपने हाथ से पूजा नहीं की, आज कर रही हूँ। तुम मेरी पूजा स्वीकार करो और तृप्त हो जाओ। मेरे मन में अब और कोई भी कामना नहीं है।"