एक गाँव में कुम्हारों के दो परिवार रहते थे, जो नदी से मिट्टी लाकर खिलौने बनाते थे और उन्हें बेचते थे। इस काम में महिलाओं की भी भागीदारी थी। शक्तिनाथ, एक रोग-ग्रस्त ब्राह्मण-पुत्र, कुम्हारों के बीच में आ गया और खिलौनों के रंगाई के प्रति अपनी चिंता व्यक्त करने लगा। उसने देखा कि कारीगर लापरवाही से खिलौनों को रंग रहा था, और उसने उनसे पूछा कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं। कारीगर ने बताया कि अच्छी तरह रंगने में बहुत मेहनत लगती है और कोई भी उस मेहनत के लिए पर्याप्त दाम नहीं देता। शक्तिनाथ ने समझा कि खिलौने की गुणवत्ता का कोई महत्व नहीं है; बच्चे उन्हें थोड़ी देर खेलकर तोड़ देते हैं। घर में, शक्तिनाथ अपने टूटे-फूटे मकान में अकेला था; उसके बीमार पिता पूजा के लिए गए थे। घर में कोई सजावट नहीं थी और वह अवसादित था। इस प्रकार, शक्तिनाथ ने अपनी स्थिति और कुम्हारों की मेहनत पर विचार करते हुए, अन्यमनस्य्क भाव से आँगन में चक्कर लगाना शुरू किया।
मंदिर
Sarat Chandra Chattopadhyay
द्वारा
हिंदी लघुकथा
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विवरण
नदी किनारे एक गाँव में कुम्हारों के दो घर थे। उनका काम था नदी से मिट्टी उठाकर लाना और साँचे में ढाल के उसके खिलौने बनाना और हाट में ले जाकर उन्हें बेच आना। बहुत दिनों से उनके यहाँ यही काम होता था और इसी से उनके खाने-पीने, ओढ़ने-पहनने का काम चलता था। औरतें भी काम करती थीं, पानी भरती थी, रसोई बनाकर पति-पुत्र आदि को खिलाती थी और आँवा ठण्डा होने पर उसमें से पके हुए खिलौने निकाल कर उन्हें आँचल से झाड़ पोंछकर चित्रित करने के लिए मरदों के हवाले कर देती थी।
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