हुश्शू - 9 Ratan Nath Sarshar द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हुश्शू - 9

हुश्शू

रतननाथ सरशार

अनुवाद - शमशेर बहादुर सिंह

नवाँ दौरा

लाहौर ! लाहौर ! लाहौर !

शैतान दूर

लाला जोती परशाद साहब 'हुश्‍शू' को अब हम 'हुश्‍शू' न कहेंगे। क्‍योंकि अब ये अच्‍छे-भले इन्सानों की तरह रहते हैं। दो महीने के लिए ये बुजुर्गवार शहर से बाहर अपने गाँव के एक बाग में जा कर रहे और वहाँ से अपने दोस्‍तों को खत लिखे। एक खत लिख कर उसकी नकल करके रवाना की, जो हू-बहू नीचे दी जाती है :

हजरत सलामत,

गो मैंने अक्‍सर दोस्‍तों से माफी माँग ली है, मगर एक बार फिर माफी का खास्‍तगार हूँ।

शाहाँ च अजब गर बिनवाजंदा गदा रा!

(बादशाहों की शान से यह दूर नहीं है कि वह फकीरों को नेवाज दें!)

यहाँ में दोनों वक्‍त हवा खाने जाता हूँ। सुबह को पैदल टहलता हुआ, बागों और खेतों का चक्‍कर लगाता हूँ। और शाम को दरिया की जानिब घोड़े पर जाता हूँ। सुबह को जब हवा खा कर वापस आता हूँ। तो नहा-धो कर अंग्रेजी और उर्दू अखबार पढ़ता हूँ। दस बजे खाना जाता हूँ। थोड़ी देर के बाद कोई नाविल पढ़ता हूँ। गाँव का काम देखता हूँ। साढ़े पाँच बचे सवार हो कर हवा खाने जाता हूँ। शाम को वापिस आ कर बाग में टहलता हूँ। आठ बजे खाना खाता हूँ। खाने के साथ थोड़ी व्हिस्‍की पीता हूँ। एक बोतल चार रोज में खत्‍म करता हूँ। सोडा के साथ पीता हूँ। दो सेर बर्फ रोज शहर से आती है। दस बजे तक कभी 'दीवान' कभी 'नाविल' पढ़ता हूँ और सो रहता हूँ। अल्‍ला-अल्‍ला खैर सल्‍ला।

न बोतलें तोड़ता हूँ, न शीशियों पर हाथ साफ करता हूँ। न कलवार की दुकान का सत्‍यानास करता हूँ। न किसी का माकन किराये पर ले कर ईंटें लकड़ी पटेल डालता हूँ। न सदर बाजार में जूती पैजार होती है, न किसी को पागलखाने भेजता हूँ, न बोतलवाले को जुल देता हूँ। आप मेरी तरफ से इत्‍मीनान रखें।

जोती परशाद।

एक खत चचा के नाम लिखा कि मेरी तरफ से आप इत्‍मीनान रखिए।

इसके बाद लाला जोती परशाद, जो कभी 'हुश्‍शू' के नाम से मशहूर थे, अपने इलाके से शहर में आए, तो आदमी बने हुए। यार-दोस्‍त, रिश्‍तेदार, बुजुर्ग, छोटे-बड़े सब खुश कि हमारा वहशी इंसान बन गया। उन्‍होंने अपने दोस्‍तों की दावत की।

दोस्‍त जमा होने लगे। यह वही बाग है, जिसमें जोती परशाद ने मय अपने दोस्‍तों और डाक्‍टर और वकील और धमाचौकड़ी मचाई थी, और पीते-पीते जान से हाथ धोने के करीब आ गए थे। उन्‍होंने इस मर्तबा भी उन्‍हीं दोस्‍तों की दावत की, जो उस जल्‍से में शरीक थे। जो आया, उसने कोई न कोई फबती कही जरूर।

ला - एँ! अरे मियाँ, आज यह तालाब सूना क्‍यों हैं? वह पैराक लोग कहाँ हैं?

न - पैराक लोग कहीं रोज थोड़ा ही आते हैं। वह तो बस पैराकी के मेले ही पर आते हैं।

जो - (हँस कर) खुदा वह दिन न दिखाए।

ला - आज खड़ी लगानेवाले गायब हैं।

न - भई उस दिन कैफियत तो अच्‍छी मालूम होती थी। कोई इधर पैर रही है, कोई उधर। कोई पैराक खड़ी लगा रहा है, कोई मल्‍लाही पैर रहा है। कहीं उस्‍ताद है, कहीं शार्गिद।

स - मगर मुझे उस दिन इस कदर नशा तेज था, कि बस कुछ न पूछो! मुझे तो याद नहीं, मगर लालारुख ने कहा कि मैं बराबर यही हाँक लगाता था कि - सैयाँ भए कोतवाल, अब डर काहे का!

डाक्‍टर - मगर उस रोज इनके यहाँ की वह घर की खिंची शराब ऐसी उम्‍दा थी कि हमने कभी नहीं पी। खुशबू ऐसी कि मैं क्‍या कहूँ। और रंगत वह जो छाती तो जाहिद तक का जी ललचाता।

ला - हमने भी पी थी, मगर जायका नहीं याद है।

जो - आपको होश भी था?

ला - बहुत चढ़ गई थी, वल्‍लाह।

जो - और मुझे क्‍या बुरा मालूम होता था कि मैं तो मर रहा हूँ और एक साहब नशे की तरंग में बार-बार कहते हैं कि सोने का खयाल करो, नींद का ध्‍यान करो।

न - सात दिन तक हम लोगों ने पी। मगर एक बात अच्‍छी थी कि मजा थोड़ा-बहुत हो जाता था। वर्ना अंटा-गफील हो गए थे।

जो - मैं तो समझा कि मैं चला। मगर उसने बचाया।

डाक्‍टर - जब हद हो जायगी, तब यही होगा। यह तो देव का तमाचा है।

गो उस रोज भी खाना-पीना हुआ, शराब भी पी, दिल्‍लगी मजाक, चुहल भी हुई, मगर भलेमानुसों की-सी सोहबत थी। खाने के साथ जरूरत के मुताबिक थोड़ी-थोड़ी शराब पी। यह नहीं कि एक हफ्ते तक अंटा-गफील भी हुए है, सर और पैर की खबर नहीं।

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