हुश्शू - 2 Ratan Nath Sarshar द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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हुश्शू - 2

हुश्शू

रतननाथ सरशार

अनुवाद - शमशेर बहादुर सिंह

दूसरा दौरा

तोड़-फोड़ - खटपट

नाविल के पढ़नेवाले बड़े परेशान होंगे कि आखिर इस बेतुकी हाँक के क्‍या मानी! मगर इसमें परेशानी और खराबी की क्‍या बात है? मजमून का चेहरा तो मुलाहजा फरमा लीजिए - हम तो खुद इसके कायल हैं कि 'बेतुकी हाँक' है। अब इसका खुलासा हमसे सुनिए -

लाला जोती प्रसाद नामी एक बुजुर्गवार बड़े शराबखोर, बदमस्‍त और मुतफन्‍नी थे। उनके भाई-बंदों दोस्‍तों, - बड़ों-छोटों ने समझाया कि भाई -

ऐब भी करने को हुनर चाहिए!

आदमी की तरह पिया करो। यह नहीं कि दिन-रात धुत, हर दम गैन! जब देखो नशे में चूर, दिन-रात एक खुमारी की हालत। यह क्‍या बात है? बीच का रास्‍ता पकड़ो। बहुत से आदमी बरसों से पीते है, मगर इन्‍सानियत के जामे से खारिज नहीं हो जाते, खासे मजबूत, तंदुरुस्‍त, हट्टे-कट्टे सुर्ख-सफेद बने हुए हैं। लाख-लाख लोगों ने समझाया इन्‍होंने एक की न मानी।

एक रोज इत्‍तफाक से एक लेक्‍चर सुनने गए जिसमें अमरीका की एक मिस ने शराबखोरी की बड़ी बुराइयाँ कीं और कहा कि हिंदुस्‍तान-से गर्म मुल्‍क के लिए शराब बड़ी नुक्‍सान की चीज है। यहाँ इसकी कोई जरूरत ही नहीं। जब इंगलिस्‍तान और कश्‍मीर-से ठंडे मुल्‍कों में लोग बगैर शराब के रहते हैं तो हिंदुस्‍तान से गर्म मुल्‍क में क्‍यों नहीं रह सकते। तुम लोगों को चाहिए कि शराब के नाम से कोसों दूर भागो और जहाँ इसकी बोतल देखो फौरन तोड़ डालो।

उस लेक्‍चर का असर उन पर ऐसा पड़ा कि शराब के दुश्‍मन हो गए। आदमी में हवास ही हवास होते हैं। इनके हवास बिला इजाजत ऐसे चंपत हुए कि लंदन तक पता नहीं। लेक्‍चर के कमरे से हो हल्‍ला मचाना शुरू किया, और वहीं से लेक्‍चर देते चले। आदमी तबीअतदार थे, पढ़े-लिखे, एम.ए.; फेलो आफ दि कलकत्‍ता युनिवर्सिटी। लेक्‍चर के कमरे से चले तो हल्‍ला मचाते और स्‍पीच देते हुए चले। जिधर सींग समाई उधर निकल गए। पागल की दाद न फरियाद - मार बैठेगा। चलते-चलते एक दफा याद आया कि राह में कलवार की दुकान है - दौड़ के भागे और उस रास्‍ते से कतरा के चले, ताकि कलवारीखाने के पास भी न फटकें, साया भी किसी शराबी का न पड़ने पाए। चलते-चलते राह में एक और कलवारीखाना याद आया। वहाँ से भी रस्सियाँ तुड़ाके भागे, यह जा, वह जा। इत्‍तफाक से एक आदमी जो बोतलें मोल लेता फिरता था, अपनी शामत का मारा इनको मिला। बस गजब ही तो हो गया।

जोती - अरे यार बोतलें बेचते ही कि मोल लेते हो?

बोतलवाला - हजूर मोल लेते हैं।

ज - हमारे पास कोई दो सौ खाली बोतलें हैं। किस हिसाब से लोगे?

ब - हजूर सफेद एक आने की और काली तीन पैसे की और अद्धा आध आने की।

ज - दो सौ की दो सौ खरीद लोगे?

ब - जी हाँ, दो सौ हों चाहे पान सौ।

ज - अच्छा हम रुक्‍का लिखे देते हैं, तुम बोतलों का टोकरा रहने दो। हम यहाँ सर्राफ की दुकान पर बैठे हैं। हमारे आदमी को रुक्‍का दो और सब बोतलें लदवा लाओ। दाम चाहे आज दो, चाहे कल। मगर हमारे आदमी को अपना मकान दिखा दो।

ब - और हजूर का मकान कहाँ पर है?

ज - झाऊलाल का पुल देखा है? - कहो, हाँ।

ब - जी हाँ देखा है। वहाँ किस जघों पर है?

ज - वहाँ मिर्जा हैदर अली बेग वकील की कोठी और बाग पूछ लेना। वहीं हम भी रहते हैं।

ब - हजूर का नाम क्‍या लूँ?

ज - हमारा नाम नरायनदास और हमारे आदमी का नाम दुर्गा जंडैल।

सर्राफ की दुकान पर पहुँच कर आपने कागज के एक पर्चे पर यह इबारत लिखी -

अगर कहीं शराब की बोतल देख पाओ तो फौरन तोड़ डालो, शराबी को मार बैठो, मतवाले को चटाख से टीप लगाओ। फिर हाथ मलके एक और दो! हात्‍तेरे की - और लेगा, गीदी?

झाँसा दिया तुमने खूब हुश्‍शू

बोतलवाले की ऐसी-तैसी!

चला है वहाँ से बड़ा मखादीन बन के! बोतल लेने चले है! दो सौ बोतलों की चाट पर झाँसे में आ गया। खुश तो बहुत होगें। बच्‍चाजी बोतल मोल लेंगे। पाँच जूते और हुक्‍के का पानी! हात्‍तेरे की।

सँभले रहना बचाजी, हुशियार,

बोतल के एवज मिलेगी पैजार।

यह लिख कर उस आदमी को दिया और वह खुश-खुश झाऊलाल के पुल की तरफ चला। रास्‍ते में उसकी बीवी मिली। पूछा - टोकरा और बोतलें कहाँ हैं? उसने हँस कर जवाब दिया - अरी सुसरी, आज घिरे हैं! एक लाला हैं नरायनदास वह दो सौ बोतलें एकदम से बेचे डालते हैं। यह चिट्ठी लिए उनके घर जाता हूँ। एक बोतल नारंगी की ला रखना और कलेजी भी कलवारीखाने से ले आना, और चटनी खूब चटपटी बना रखना।

बीवी की भी बाँछे खिल गईं। याँ तो जूँ की तरह रेंगती हुई चलती थी या अब तनके सीना उभारके चलने लगी। इधर बोतलवाले का नजर से ओझल होना था, कि लाला जोती परशाद साहब (जिनका तखल्‍लुस 'हुश्‍शू है) सर्राफ की दुकान से उठे और बोतल के झौए के पास जा कर एक बोतल उठाई, और उसका लेबिल पढ़ा -

'पिलसनर बीअर!'

दो चार दफा 'बीअर' कह कर जोर से पटका तो अट्ठारह टुकड़े। हात्‍तेरे गीदी की। उसके बाद दूसरी बोतल उठाई -

'फाइन ओल्‍ड का काग पिंग!' तीन-चार दफा यह नाम पुकार कर फेंकी। सत्रह टुकड़े हो गए - हात्‍तेरे की! इसके बाद तीसरी बोतल पर प्‍यार की नजर डाली -

'ओल्‍ड टाम!' बहुत हँसे। फर्माया - बहुत पी। अच्‍छा, तू भी ले!

कार्लो विंटनर!' इसको जोर से दीवार पर पटका तो चकनाचूर, फर्माया, इसमें खटमल की बू आती है। पाँचवीं बोतल को बड़ी इनायत की नजर से देखा और 'सेंट जूलियन' पढ़ कर कहा, खूबसूरत अद्धा है और दरख्‍त के तने पर फेंका, और अद्धे के टूटने की आवाज से बहुत ही खुश हुए, गोया लाखों रुपए मिल गए। छठी बोतल उठाई थी कि इतने में सर्राफ ने दुकान से उतर के कहा - लाला नरायनदास साहब, यह आप क्‍या कर रहे हैं?

उन्‍होंने बोतलवाले से कहा था कि मेरा नाम नरायनदास है, इसी से वह समझाने लगा, कि लाला नरायनदास साहब आप क्‍या कर रहे हैं? इतने में इनका जनून देख कर कई राह-चलते खड़े हो गए और उन्‍होंने यह भीड़ और मेला देख कर झौए को उठाके एक दफा ही दे पटका, और भागे।

अब बोतलवाले की सुनिए कि खुश-खुश झाऊलाल के पुल पर मिर्जा हैदर अली बेग की कोठी पर पहुँचा। देखा मिर्जा साहब हुक्‍का पी रहे हैं। सलाम करके कहा - हजूर नरायनदास का मकान कहाँ है?

मिर्जा - नरायनदास? नरायनदास तो यहाँ कोई नहीं हैं।

बो - हजूर, व‍ह जिनका नौकर दुर्गा जंडैल है।

मिर्जा - (हँस कर) यहाँ न कोई कंडैल है न जंडैल है।

बो - पता तो यहाँ का दिया था। साँवले से हैं। नाटा कट है।

मिर्जा - अरे भाई यहाँ कोई नरायनदास नहीं रहते।

वह पर्चा ले कर बोतलवाला अपना-सा मुँह लिए हुए बैरंग वापिस आया तो देखा लाला हवा हुआ है - झौआ औंधा पड़ा हुआ है। अरे! कोई बोतल इधर टूटी पड़ी है कोई उधर चकनाचूर। किसी के अट्ठारह, किसी के दस टुकड़े। सर पीट लिया। सर्राफ से पूछा। उसने कहा - कोई सिड़ी मालूम होता है। बोतलों को उठाए, पढ़े और जमीन पर, दरख्‍त पर, दीवार पर दे पटके और हँसे!

बोतलवाला आँखों में आँसू ले आया। सर्राफ ने कहा - उनका आदमी कहाँ है? वह बोला - अरे आदमी कैसा! जब उनके मकान का कहीं पता भी हो! वहाँ तो कोई इस नाम का रहता ही नहीं। आज अच्‍छे का मुँह देख कर उठे थे! रोते नहीं बनती।

इस मुसीबत के साथ घर गया, जोरू खुश हुई कि दो सौ बोतलें लेके आया। शराब की बोतल में से चौथाई यानी पाव बोतल पी चुकी थी। जवान औरत कोई सत्रह बरस का सिन, औ रंगत भी खुलती थी। बन-ठनके बैठी थी कि मियाँ आने के साथ ही रीझ जायँगे। देखा तो चेहरे पर फटकार बरस रही है, उदास, झौआ देखा तो - जल्‍ले जलाल हू!

बीवी - अरे! टूटी बोतलें!

मियाँ खामोश बैठ रहे, जैसे जूते पड़े हों।

बीवी - यह क्‍या हुआ?

मियाँ - थोड़ी-सी पिलाओ।

बीवी - (पत्‍थर के प्‍याले में थोड़ी-सी उँडेल कर) लो! यह टूटी बोतलें कैसी! (कलेजी सामने रख दी)

मियाँ ने शराब पी, और ठंडा पानी खूब तनके पिया, और मारे रंज के पड़के सोए तो तड़के की खबर लाए।

बीवी बेचारी बनी-ठनी, सँवर करके तैयार, मियाँ बेजार - जल्‍ले जलाल हू! समझे क्‍या थी, हुआ क्‍या! लाला जोती परशाद साहब 'हुश्‍शू' ने ऐन करियाल में गुल्‍ला लगाया। दो बजे मियाँ की आँख खुली। बीवी को जगा कर सारी कैफियत सुनाई। उसको भी बेहद मलाल हुआ, और रोने लगी। मियाँ ने उठ कर आँसू पोंछे, मुँह धोया, समझाया कि - चलो अब जो कुछ हुआ वह हुआ, गुसैयाँ मालिक है! यह कह कर बोतल की बची हुई शराब दोनों ने पी और लाला नरायनदास साहब को दोनों ने पानी पी-पीके कोसा। इसके बाद खुदा जाने क्‍या कार्रवाई हुई, जिसको अल्‍लाह ही बेहतर जानता है।

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