हुश्शू
रतननाथ सरशार
अनुवाद - शमशेर बहादुर सिंह
चौथा दौरा
हुश्शू का वार
हवेली में टिके पाजी पजोड़े,
बिकी ईंटें, हुए कड़ियों के कोड़े!
लाला जोती परशाद को बीच का रास्ता पकड़ने से दिली नफरत थी। या कूंड़ी के इस पार या उस पार! अगर पीने पर आए तो दिन-रात गैन, हर घड़ी चूर, हर दम धुत्त, सिवा शराब के और कोई शगल ही नहीं। खाना पीना, ओढ़ना-बिछौना, सब शराब! और अगर छोड़ दी तो एक कतरा भी हराम। अगर डाक्टर नुस्खे में भी तजवीजें तो भी न पिएँ। इन दो सूरतों से किसी हाल में भी खाली नहीं रहते थे। या तो उसके नाम से इस कदर नफरत कि जहर से बदतर समझते थे, या इस कदर इसके गुलाम कि बे-पिए जरा चैन नहीं।
अब इससे कुल्ली नफरत हो गई थी। दरगाही लाल की दुकान की कारगुजारियाँ और बोतलवाले की फजीहतों का हाल किसको नहीं मालूम! हाँ, यह अलबत्ता किसी को नहीं मालूम कि घर में जाके बोतलों और कारूरे (यानी पेशाब) की शीशी तक को न छोड़ा। यह किसी को मालूम नहीं था। शराब और शराबी और शराब के बेचनेवाले और खरीदनेवाले और शराब के बर्तन - सब के दुश्मन।
एक दिन उन्होंने यह उपच की ली कि एक कलवार की दुकान पर गए, जिसकी दुकान उनके मकान से मिली हुई थी। उस कलवार ने मकान से कोई चार सौ कदम के फासले पर एक हवेली बनवाई थी। दस रुपए महीने किराये की। लाला जोती परशाद साहब उसके पास गए।
जोती - लाला, तुम्हारा नया मकान खाली है?
कलवार - जी हाँ, खाली है।
ज - क्या किराया है?
क - है तो बारह रुपए, मगर आपसे दस लेंगे।
ज - (बारह रुपए दे कर) लो और कुंजी हमको दो।
क - हजूर दस दें। आप ही रहेंगे ना?
ज- नहीं बारह देंगे, जिसमें ऐसा न हो कि कोई और गाहक बारह का देनेवाला आए और तुम हमको निकाल दो।
क - जी नहीं। ऐसी बात है? आप चाहे रुपए भी लेते जायँ!
ज - हम खरा मामला रखते हैं। अपना आदमी साथ कर दो।
क - बहुत अच्छा!
लाला जोती परशाद साहब कलवार के आदमी को ले कर चले।
आदमी - हजूर का मकान कहाँ है?
ज - मुल्तान, पंजाब में।
आदमी - हजूर बड़ा खरा सौदा करते हैं। पेशगी बारह दे दिए झपाक से।
ज - भई मैं उंतीसवें दिन तन्खाह देता हूँ। और छै-छै महीने का किराया पेशगी। और नाज, घी और लकड़ी एक साल भर के लिए भर रखता हूँ। और कपड़ा बंबई से मँगाता हूँ। और कस्साब को महीने भर के गोश्त के दाम पहले ही दे देता हूँ।
आदमी - लाला ने भी बहुत आदर-भाव किया।
ज - यही मकान है ना?
आदमी - जी हाँ। (ताला खोलके) मकान क्या है कि दिलकुशा है!
ज - अजी हम इसको दिलकुशा बना देंगे।
आदमी - फिर जहाँ हजूर रहें, वहाँ दिलकुशा क्यों न बन जाय!
ज - जोड़ियाँ भी अच्छी लगाई हैं। शहतीर और तख्ते सब साखू के हैं! और बहुत मजबूत मकान बना है।
आदमी - सरकार चूने की जुड़ाई हुई है, सीसा पिलाया है।
ज - हमारा इस मकान से जी खुश हुआ, और लाला का हमसे - कि ऐसा खरा किरायेदार मिला।
1 - फिर हैं भी तो आप ऐसे ही।
यह कह कर आदमी ने सलाम किया और रुख्सत हुआ। और कोई बीस दिन बाद लाला जोती परशाद साहब फिर कलवार की दुकान पर गए, और साहब-सलामत पीछे की, बारह रुपए पहले दुकान पर रख दिए।
क - बंदगी सरकार, कहिए मजे से?
ज - जी हाँ, लाला।
क - यह बारह रुपए कैसे?
ज - किराया मकान!
क - अभी तो इकादसी-इकादसी पंद्रह दिन हुए। तेरस-चौदह अमावस और आज परेवा है। बीस ही दिन तो हुए।
ज - हाँ, मगर मैं आज कलकत्ते जाता हूँ। एक महीने में आऊँगा।
क - फिर जल्दी कौन-सी थी? जब आते तो दे देते।
ज - हमको दो महीने तीन महीने का पेशगी किराया दे देना गौं है, यह गौं नहीं है कि तुम्हारा आदमी तकाजे को आए।
क - क्या मजाल है, यह भी कोई बात है भला!
ज - नहीं! यही नहीं, बल्कि कैसा ही काम हुआ, आदमी को न भेजिएगा। लोग समझेंगे, जरूर तकाजे को आया है।
क - भला जो किसी बात को भेजना पड़ा। कोई बात ऐसी ही हुई।
ज - तो खत लिख भेजा, बस।
क - बहुत अच्छा। अब आपकी क्या खातिर करूँ!
ज - बस अब मैं रुखसत!
क - हजूर, रईस कहाँ के हैं!
ज - मुल्तान के।
क - यहाँ कहीं आप नौकर हैं हजूर?
ज - नहीं, मैंने यहाँ सदरबाजार में मुर्गी-अंडों का ठेका लिया है।
क - हाँ, इसमें तो बड़ी फायदा होगी। हजूर का नाम क्या है?
ज - हमारा नाम चुलबुली सिंह। हम ठाकुर हैं।
क - हजूर कलकत्ता से चिट्ठी भेजेंगे?
ज - हाँ भेजेंगे, और जो सौगात कहोगे लेते आएँगे। अब रुख्सत।
क - (थोड़ी दूर साथ जाके) अच्छा सरकार बंदगी!
लाला जोती परशाद साख बिठाके रुख्सत हुए, और कलवार और उसका आदमी खुश कि अच्छा किरायेदार मिला है। पेशगी किराया दे गया। और अभी महीना खत्म भी होने नहीं आया कि बाहर रुपए मौजूद। उनकी बड़ी तारीफें कीं, वाह क्या आदमी है - लाखों में एक!
लाला जोती परशाद जो घर गए तो चचा ने कहा - तुमने कोई मकान किराये पर लिया है। हमने खबर पायी है कि मकान लिया है। यह कैसा मकान है और इसकी क्या जरूरत थी? उन्होंने कहा - जी, मैंने मकान नहीं लिया है। मकान एक दोस्त ने लिया है। मैंने दिलवा दिया है। अच्छा मकान है। चचा ने कहा - कहाँ - हाँ वहीं मैं जो सोचता था कि भई यह मकान क्या होगा।
इतने में जोती परशाद के एक दिली दोस्त ने उनके चचा से उनके सामने कहा -किवला, अब इनका मिजाज सही है। मगर कोई ऐतबार नहीं। जहाँ एक दफा आदमी सिड़ी हुआ, फिर उसका तमाम उम्र ऐतबार नहीं करना चाहिए। एक शाही जर्राह सिड़ी हो गया। बड़े-बड़े हकीमों के इलाज में पाँच छै महीने में फायदा हुआ। एक रोज बादशाह को फस्द खुलवाने की जरूरत हुई। हकीमों से पूछा कि अगर फलाँ जर्राह से जो दीवाना हो गया था, फस्द खुलबाऊँ तो कोई हर्ज तो नहीं है। हकीमों ने कहा - हरगिज ऐसा इलाज न कीजिएगा। पागल का कोई एतबार नहीं। बादशाह ने उस जर्राह को बुलवाया, और कहा - हम फस्द खुलवाना चाहते हैं, उसने कहा - बेहतर, गुलाम हाजिर है। पूछा - अगर खून जरा देर तक न बंद हो तो क्या करो? कहा - जहाँपनाह, एक और गहरा चिर्का लगा दूँ। बस हकीमों ने आपस में इशारा किया, और बादशाह ने मुस्करा कर कहा - अच्छा जब जरूरत होगी, तो हम बुला लेंगे। जर्राह सात बार फर्राशी सलाम करके रवाना हुआ। बादशाह ने कहा - खुदा ने बहुत बचाया। इस सौदाई का वाकई कोई एतबार नहीं।
ज - आपकी ऐसी-तैसी।
च - जी नहीं, अब फज्ले-इलाही है।
दोस्त - हाँ अब चेहरे से भी वह वहशत नहीं बरसती है।
च - मुझे कुछ कहना है। खूब बात याद आई। (अलैहदा ले जा कर) भला पागल के मुँह पर कोई पागल को पागल कहता है!
दोस्त - जी, मैं मजाक में कहता था।
च - उनके सामने तो ऐसी बात करनी ही न चाहिए।
दोस्त - अब मिजाज बिलकुल सही है।
अब सुनिए कि एक रोज कलवार का अपने नए मकान की तरफ से गुजर हुआ। सोचा कि चलो ठाकुर चुलबुली सिंह से मिल लो, शायद कलकत्ते से आ गए हों। मुलाकात भी हो जायगी, खैरसल्ला भी दरयाफ्त कर लेंगे। और शायद कोई सौगात लाए हों तो वह भी ले लेंगे। गए तो दूर से मकान को बंद पाया। समझे कि अभी कलकत्ते से नहीं पलटे।
मगर ताज्जुब हुआ कि इतने बड़े आदमी और घर का दरवाजा बंद और ताला लगा हुआ। देख कर सोचा कि मालूम होता है कि आदमी किसी काम को बाहर गया है। दिन का वक्त तो है ही, ताला बंद करके चला गया। आता होगा। दो-एक आदमी साथ कलकत्ते गए होंगे।
यह सोच कर पटुए की दुकान पर बैठ गए।
कलवार - यह मोहल्ला बहुत आबाद है।
पटुआ - हाँ, यही दो चार मोहल्ले तो आबाद हैं। उधर चौक और नक्खास, इधर ये दो-तीन मोहल्ले, बस।
क - अमीनाबाद में आबादी बहुत है।
प - अमीनाबाद से बढ़ कर कौन मोहल्ला है?
क - सदर में भी आबादी अच्छी है।
प - चौक और अमीनाबाद में बड़ी आबादी है।
क - हाँ बस चौक के इधर-उधर वीराना है। ...ये ठाकुर जो इस सामनेवाले मकान में रहते थे वह क्या अभी कलकत्ते से नहीं पलटें?
प - ठाकुर कौन? ठाकुर तो यहाँ कोई नहीं रहते थे।
क - हाँ? तुम्हारे कहने से नहीं रहते थे!
प - हाँ, हमारे कहने से मोहल्ले भर में पूछ लो! इसमें तो कोई लाला रहते थे।
क - लाला! लाला कौन? कौन बनिए थे कि कायस्थ? अब कब से नहीं रहते? ...यह चले क्यों गए?
प - और चले न जाते तो रहते कहाँ?
क - यह क्यों? अरे, यह इतना बड़ा मकान जो है। पल्टन की पल्टन इसमें रह सकती है।
प - अरे, तो, लाला, काहे में पल्टन रहती? वह तो जबसे आपने मकान उनके हाथ बेच डाला और उन्होंने एक शख्स पार के रहनेवाले के हाथ ईंट और लकड़ी और जोड़ियाँ खुदवाके बेच लीं, तब से खंडल पड़ा हुआ है, रहते वह काहे में?
क - क्या! खंडल!
प - जी हाँ, खंडल, अरे, चल कर देख न लो!
क - तुम कहते किस मकान को हो जी?
प - यही इस सामनेवाले मकान को, जो तुमने बनवाया है।
क - और यह तुम क्या कहते हो? बेचा किस पाजी ने?
प - बेचा या नहीं, मगर उन्होंने तो खोदके कोड़े कर लिए।
क - उनकी ऐसी तैसी।
प - चलो। क्या जाने क्या कहते हो!
इतने में पंसारी ने कहा - सलाम लाला! उन्होंने सलाम का जवाब दिया और कहा - मकान देखने आए है!
पंसारी - बनवाया क्या, और बेचा क्या, और अब देखने क्या आए हो!
क - अरे यारो, यह माजरा क्या है? जो है वह यही कहता है! क्या सचमुच मकान को उसने जड़ से खुदवा डाला?
आगे बढ़े तो एक भिश्ती मिला। कहा - लाला, यह क्या सूझी कि मकान बनवाके बेच-बाच डाला। मियाँ भिश्ती का इतना कहना था कि उन्होंने मकान की डयोढ़ी देखी। बाहर से ताला। इधर-उधर खंडल। सन्नाटा पड़ा हुआ। न शहतीर न कड़ी। तख्ता, बटिंगा, न जोड़ियाँ न ईंट। देख कर बहुत चौंके! - खाली जमीन और एक बड़ा-सा दरवाजा, और उसमें ताला।
पटुआ - क्या मकान बेचा था या गिरौ रक्खा था? उन्होंने तो खोद-खाद के लकड़ी दरवाजे ईंट-पींट सब को पटेल डाला।
क - हमको तो मार डाला। कहीं का न रक्खा।
पंसारी - और अब तक क्या सोते थे?
क - कौन जानता था कि इतना बड़ा बेइमान निकलेगा?
पटुआ - मार ही डाला तुमको।
क - हम जानते हैं वह कलकत्ते गए और आदमियों के सिपुर्द कर गए, आदमियों ने बेच डाला और भाग गए। हम तो कहीं के न रहे। और तुम लोगों ने भी न रोका। हमसे न कहा।
पंसारी - यह क्या जानते थे। हम तो जानते थे कि मकान बिक गया।
क - पाऊँ तो कच्चा ही खा जाऊँ। नाम तो दुकान पर लिखा हुआ है और घर का पता भी लिखा है, और छावनी में नौकर भी था।
पंसारी - तो फिर उसका काम नहीं है। आदमियों ने पाजीपना किया होगा!
क - हमारा गला तो काट लिया। मगर है आदमियों ही का काम! क्योंकि वह ऐसे आदमी नहीं हैं। खरा आदमी है।
पटुआ - जहाँ का पता मालूम हो, बस वहाँ पूछिए।
क - सदर जाएँगे। वहाँ मुर्गी-अंडों की आढ़त है।
बड़े लाला रो-पीटके घर आए। वहाँ आदमी से कहा। उसको यकीन न आया। लड़के से लाला ने कहा, लड़के को बेहद ही रंज हुआ। तीनों मिल कर फिर उस मुकाम पर वापिस गए। लड़के ने पड़ोसियों से दरियाफ्त करना शुरू किया।
लड़का - अरे यार घनस्याम, तुम्हारी दुकान से तो नुस्खा-वुस्खा बँधवाने आते होंगे। कुछ जानते हो कि हमारा गला काटके कहाँ चल दिया!
घनस्याम (पंसारी) - वह तो यहाँ रहते ही बहुत कम थे। हमने तो दो दफा देखा था, बस। यह कार्रवाई तो खुले-बंदो हुई।
लड़का - और तुम लोग क्या समझे थे?
प - हम सोचते थे कि तुमको यह हुआ क्या? दिवाला क्यों निकाल दिया!
लड़का - और भला कोई उनके पास आता जाता था?
प - हमने तो कोई नहीं देखा था।
पटुआ - अरे भाई, वह तो निकलता ही कम था। हमने अच्छी तरह सूरत भी नहीं देखी थी। मकान बेचा, ईंट, कड़ियाँ बिक गईं और तुमने कानों-कान नहीं सुना?
लड़का - सदर जाते हैं हम। पता-वता वहाँ ही मिलेगा।
आदमी - हमसे तो कहता था कि मैं उस मकान को दिलकुशा बना दूँगा।
क - बना गया ना? 'दिलकुशा' भी उजाड़ है। इसको भी उजाड़ कर गया। आदमी बड़ा चलित्तरबाज निकला! क्या झप से बारह टेंट से निकाले और खरा असामी बना! और फिर महीना होने पाया कि चट से बारह और दिए!
क - हमको बस यह चाट देके मार डाला।
लड़का - कहीं का न रक्खा।
इतने में एक कूबड़िन ने आके कहा कि वह तो जमीन भी बेचे डालता था, मगर जिसने ईंट और लकड़ी मोल ली, उसने जो इधर-उधर तहकीकात की तो मालूम हुआ कि पराया मकान है। बस बेंच-बाच के चलता हुआ। लोगों ने पूछा कहाँ रहता है। कहा - यह तो मुझे नहीं मालूम, मगर एक दिन उसने सालन में चचींडे इसी मकान में पकाए थे, तो उसका नौकर चचींडे मेरी ही दुकान से ले गया था। कोई मुसलमान है।
लाला को न लाला जोती परशाद का पता यहाँ मिला और न ईंट लकड़ी के खरीदार का। यहाँ से इक्का करके सदर चले। सदर में पहुँचे, तो एक कलवार के मकान पर गए। उससे अपनी मुसीबत का हाल कहा और साथ लिया। इधर-उधर ठाकुर चुलबुली सिंह का हाल पूछा। कहीं पता न चला।
सवाल - यहाँ ठाकुर चुलबुली सिंह कहाँ रहते हैं?
मोची - कौन कहाँ रहते हैं?
सवाल - ठाकुर चुलबुली सिंह।
मोची - हमें नहीं मालूम, कहाँ रहते हैं।
सवाल - (दूसरे से) ठाकुर चुलबुली सिंह यहाँ कोई रहते हैं?
1 - हमको नहीं मालूम। किसी और से पूछो।
2 - हमसे पूछो। ठाकुर चुलबुली सिंह इमली के कौल में रहते हैं।
यहाँ से दोनो कलवार, पहले कलवार का लड़का और आदमी एक मिस्तरी के पास गए। मिस्तरी इस सदर बाजारवाले कलवार का दोस्त था।
कलवार - चुलबुली सिंह ठाकुर की जानते हो? यहाँ कहीं पता नहीं मिलता, और काम ऐसा है कि मैं क्या बताऊँ।
मिस्तरी - चुलबुली सिंह यहाँ तो कोई नहीं रहते।
क - तुमसे बढ़के यहाँ का जाननेवाला कौन है?
मि - सदर में तो इस नाम का कोई नहीं है।
लड़का - अंडे और मुर्गी का ठेका लेते हैं।
मि - उसका ठेका तो एक बाबू के पास है, जो हुसैनगंज में रहते हैं। चुलबुली सिंह यहाँ कोई नहीं।
आदमी - और मुल्तान के रहनेवाले हैं।
मि - अजी वह कहीं के हों! यहाँ के तो नहीं हैं। यहाँ तो इसका ठेका एक बंगाली बाबू लेते हैं।
क - मार ले गया, भाई साहब! अब क्या मिलेगा। मकान को अच्छा दिलकुशा बना गया।
मिस्तरी ने कहा - कुछ तो हँसी आती है और कुछ रंज होता है। अच्छा किरायेदार बसाया। मकान ही टहला दिया। और ये क्या कान में तेल डालके बैठे रहे! मकान के कोड़े हो गए और मालिक को मालूम ही नहीं!
लड़का - और रहते एक ही शहर में हैं।
मि - और रहते एक ही जगह हैं। मगर तुमको यह क्या हो गया?
लड़का - मैं तो परसों काशीजी से आया। मैं उसके चकमे में कब आता! अफसोस है। लाला को धोखा दे गया और ये न समझे कि जिस मकान के उन्होंने दस कहे थे उसके वह बारह काहे को देता! मगर लालच में आके दो रुपए के लिए हजारों का माल इन्होंने खोया! और इत्ता भी न हआ कि किसी दिन जाके देखें तो कि मकान में क्या होता है। और मकान बिक भी गया, खुद भी गया। सब कुछ हो गया!
आदमी - अरे लाला, वह बड़ा नटखट था। आते ही दस के बारह कर दिए और पहले ही दे गया। और फिर बीसवें दिन आके बारह रुपए रख दिए।
मि - कहीं ढूँढ़के निकालना चाहिए।
क - बड़ा धोखा खाया। तो मिले तो चचा ही बनाके छोड़ूँ बचाजी को! और कहता था कि मकान को परिस्तान बनाऊँगा!
मि - भई ऐसी दिल्लगी तो हमने नहीं सुनी थी।
रो-पीट कर यहाँ से भी ये रवाना हुए। अब और भी मायूसी हो गई। राह में दो-चार आदमियों से जिक्र किया। सबने इनको उल्लू बनाया कि भई वाह, क्या घोड़े बेचके सोए थे, कि दस कदम पर मकान और किसी को कानो-कान खबर नहीं, और सिर्फ बिक ही नहीं गया, बल्कि खुद-खुदाके ईंट और लकड़ी और जोड़ियाँ तक बिक गईं। अब जाके पुलिय में रपट लिखाओ, कि तहकीकात हो।
यहाँ से ये हैरान-परेशान पुलिस में गए। वहाँ से एक हेड और दो जवान तहकीकात को भेजे गए। उन्होंने खंडल को देख कर कहा - मुमकिन नहीं कि किसी का मकान खुद जाय और उसको कानों-कान खबर न हो। यह नई बात है। यह वारदात कभी नहीं हुई थी। डयोढ़ी का दरवाजा खोला तो एक कागज पर यह शेर और इबारत खुशखत लिखी हुई थी -
'लाला साहब, मिजाज कैसी है?
और हवेली - वह ऐसी-तैसी है!
अंडा क्यों आपका य' ढीला है?
सच कहो - क्या मकाँ पटीला है!
कहीं कुत्ते हैं और कहीं लंगूर,
रमना इक बन गया मकान, हजूर :
न है साये का नाम, ना दालान :
जिस तरफ देखिए - खुला मैदान।
आक्शन कर दिया बजा कर ढोल,
बिक गई ईंट कीड़ियों के मोल!
सच कहो! क्या तुम्हें पछाड़ा है!
है मकाँ या कोई अखाड़ा है!
कुश्तियाँ मैं निकालता हूँ नित,
कैसा मारा है चारों शाने चित!
जोड़ियाँ-खिड़कियाँ भी बेचीं सब :
है मेरे बाएँ हाथ का करतब :
हूँ मैं धोखे-धड़ी में तेरा बाप।
क्या मखादीन बन गए थे आप?
है जमाने में जिस कदर कलवार
हूँ मैं उन सब के नाम से बेजार।
उनका सब माल मैं लुटा दूँगा
मुफलिसा-बेग उन्हें बना दूँगा!
कि, ये गीदी पिला के इक चुल्लू
आदमी को बनाते हैं उल्लू
इनकी ख्वारी में है खुशी मेरी
नम्दा बाँधूँगा दुम में - हत्तेरी!
यह पढ़ कर पुलिसवालों ने कहकहा लगाया, और मोहल्लेवालों ने भी हँसना शुरू किया। और कलवार और उसका आदमी बहुत झल्लाया। शहर भर में इसी का चर्चा था। घर-घर यही जिक्र था - यही शोर था! जो सुनता था, लोट जाता था कि वाह क्या, खरा असामी मिला! बारह रुपए पहले ठहराए, बारह बीस दिन के बाद दिए - और मकान का मकान घुमा लिया! बाज शौकीन खुद उस मुकाम पर गए और खुदे हुए मकान और उस पर लिखी हुई नज्म को देख कर बहुत ही हँसे, लोट-लोट गए, पेट में बल पड़-पड़ गए कि वाह रे उस्ताद! वल्लाह, क्या सूझी है! अब किसी को मकान काहे को बे-समझे-बूझे कोई देगा! क्योंकि शहर भर में डुग्गी पिट गई। कलवार ने बड़ी कोशिश की कि ठाकुर चुलबुली सिंह कहीं मिलें, मगर उनका पता कहाँ! जहाँ कोई शख्स किसी मालिक-मकान के पास गया कि मकान किराये पर दीजिए - तो छूटते ही वह कहता था कि मकान तो हाजिर है मगर कहीं ठाकुर चुलबुली सिंह के भाई न बन जाइएगा। और जब कभी कोई मालिक-मकान किसी किरायेदार को दिक करे - बरसात के दिन हैं और मकान टपक रहा है, या मरम्मत वगैरह नहीं करता - तो किरायेदार झल्लाके कहता था कि ठाकुर चुलबुली सिंह की तरह गप्पा न दिया हो तो सही! हत्तेरे की! बहुत से जालियों और उठाईगीरों, चोरों-उचक्को का हाल सुना होगा, मगर लाला जोती परशाद साहब ने सब के कान काटे। और दिल्लगी यह कि यह सब कार्रवाई इस सबब से नहीं की कि रुपया मिले, या बेइमानी करें, नहीं। मतलब सिर्फ यही था कि शराबी और कलवार दोनों की जिल्लत हो। और कलवार ऐसे मुफलिस हो जायँ कि टका उनके पल्ले न रहे। इस हुश्शूपने को मुलाहजा फरमाइए कि खामखाह पराए बदशगुन के लिए अपने नाक कटाई।
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