आजाद-कथा - खंड 2 - 97 Munshi Premchand द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आजाद-कथा - खंड 2 - 97

आजाद-कथा

(खंड - 2)

रतननाथ सरशार

अनुवाद - प्रेमचंद

प्रकरण - 97

सुरैया बेगम का मकान परीखाना बना हुआ था। एक कमरे में वजीर डोमिनी नाच रही थी। दूसरे में शहजादी का मुजरा होता था।

फीरोजा - क्यों फैजन बहन, तुमको इस उजड़े हुए शहर की डोमिनियों का गाना काहे को अच्छा लगता होगा?

जानी बेगम - इनके लिए देहात की मीरासिनें बुलवा दो।

फैजन - हाँ, फिर देहाती तो हम हैं ही, इसका कहना क्या?

इस फिकरे पर वह कहकहा पड़ा कि घर भर गूँज उठा और फैजन बहुत शरमाईं। जानी बेगम ने कहा - बस यही बात तो हमें अच्छी नहीं लगती। एक तो बेचारी इतनी देर के बाद बोलीं, उस पर भी सबने मिल कर उनको बना डाला।

फहीमन डोमिनी मुजरा करने लगी। उसके साथ दो औरतें सारंगी लिए थीं, एक तबला बजा रही थी और एक मजीरे की जोड़ी। उसके गाने की शहर में धूम थी।

बंदनवार बाँधो सब मिलके मालिनियाँ।

इसको उसने इस तरह अदा किया कि जिसने सुना, लट्टू हो गया।

जानी बेगम - चौथी के दिन तीस-चालीस तवायफों का नाच होगा!

नजीर बेगम - कश्मीरी नहीं आते, हमें उनकी बातों में बड़ा मजा आता है।

हशमत बहू - नवाब साहब को जनाने में नाच कराने की चिढ़ है।

फीरोजा - सुनो बहन! जो औरत बदी पर आए तो उसकी बात ही और है, नहीं तो शरीफजादी के लिए सबसे बड़ा परदा दिल का है।

फैजन - फहीमन, यह गीत गाओ -

'डात गयो कोऊ टोना रे।'

फीरोजा - क्या गाओ गीत! गीत कंडेवालियाँ गाती हैं!

जानी - और इनको ठुमरी, टप्पे, गजल से क्या मतलब। नकटा गाओ।

फीरोजा और जानी बेगम की बातें सुन कर मुबारक महल बिगड़ गईं।

फीरोजा - बहन, हमारी बातों से बुरा न मानना।

मुबारक - बुरा मान कर ही क्या लूँगी।

जानी - ऐसी बातें से आपस में फसाद हो जाता है।

फीरोजा - यह लड़वाती हैं बहन, सच कहती हूँ!

मुबारक - तुम दोनों एक-सी हो, जैसे तुम वैसे वह, न तुम कम, न वह कम, शरीफों में बैठने लायक नहीं हो। पढ़-लिख कर भी यह बातें सीखीं!

जानी - देखिए तो सही, अब दिल में कट गई होंगी।

मुबारक - मैं ऐसों से बात तक नहीं करती।

फीरोजा - (तिनक कर) जितना दबो, उतना और दबाती हैं, तुम बात नहीं करती, यहाँ कौन तुमसे बात करने के लिए बेकरार है।

मुबारक - महरी, हमारी पालकी मँगवाओ, हम जायँगे।

बेगम साहब को खबर हुई तो उन्होंने दोनों को समझा-बुझा कर राजी कर दिया।

शाम हुई, रोशनी का इंतजाम होने लगा। बेगम ने कहा - फर्राशों को हुक्म दो कि बारहदरी को झाड़-कँवल से सजाएँ, कमरे और दालानों में साफ चाँदनियाँ बिछें, उन पर ऊनी और चीनी गलीचे हों। महरी ने बाहर जा कर आगा साहब से ये बातें कहीं - बोले, हाँ-हाँ साहब, सुना। बेगम साहब से कहो किया तो हमको इंतजाम करने दें, या खुद ही बाहर चली आएँ। आखिर हमको कोई गँवार समझी हैं? कल से इंतजाम करते-करते हम शल हो गए और जब बरात आने का वक्त आया तो हुक्म देने लगीं कि यह करो, वह करो। जा कर कह दो कि बाहर का इंतजाम हमारे ताल्लुक है। आप क्यों दखल देती हैं। हम अपने बंदोबस्त कर लेंगे।

महरी ने अंदर जा कर बेगम साहब से कहा - हुजूर, बाहर का सब इंतजाम ठीक है। बारहदरी के फाटक पर नौबतखाना है, उस पर कारचोबी झूल पड़ी है, कहीं कंबल और गिलास हैं, कहीं हरी और लाल हाँड़ियाँ। रंग-बिरंग के कुमकुमे बड़ी बहार दिखाते हैं।

हशमत बहू - दरवाजे पर यह शौर कैसा हो रहा है?

महरी - हुजूर, शोर की न पूछें, आदमियों की इतनी भीड़ लगी हुई है कि कंधे से कंधा छिलता है। दुकानें भी बहुत सी आई हैं। तंबोली लाल कपड़े पहने दूकानों पर बैठे हैं। हाथों में चाँदी के कड़े, थालियों में सुफेद पान, एक थाली में छोटी इलायचियाँ, एक में डलियाँ, कत्था इत्र में बसा हुआ, सफाई के साथ गिलौरियाँ बना रहा है। एक तरफ साकिनों की दुकानें हैं। बिगड़े-दिल दमों पर दम लगाते हैं,बे-फिकरे टूटे पड़ते हैं।

फीरोजा - सुनती हो फैजन बहन, चलो जरा बाहर देख आए, यह नाक-भौं क्यों चढ़ाए बैठी हो। क्या घर से लड़ कर आई हो!

फैजन - हमारे पीछे क्यों पड़ी हो, हम न किसी से बोलें, न चालें।

हशमत - हाँ फीरोजा, यह तुममे बड़ी बुरी आदत हैं।

फीरोजा - लड़वाओ, वह तो सीधी-सादी हैं, शायद तुम्हारे भर्रों में आ जायँ।

जानी - फीरोजा बेगम जिस महफिल में न हों वह बिलकुल सूनी मालूम हो।

फीरोजा - हमें अफसोस यही है कि हमसे मुबारक महल बहन खफा हो गईं। अब कोई मेल करवा दे।

मुबारक - बहन, तुम बड़ी मुँहफट हो।

फीरोजा - अब साफ-साफ कहूँ तो बुरा मानो, जरी-जरी सी बात में चिटकती हो। आपस में हँसी-दिल्लगी हुआ करती हैं। इसमें बिगड़ना क्या? फैजन बुरा माने तो एक बात भी है, यह बेचारी देहात में रहती हैं, यहाँ के राह-रस्म क्या जानें, मगर तुम शहर की हो कर बात-बात में रोए देती हो। रही मैं, मैं तो हाजिर-जवाब हूँ ही। हाँ, जानी बेगम की तरह जबाँदराज नहीं!

जानी - अब मेरी तरफ झुकीं।

हशमत - चौमुखा लड़ती हैं, उफ री शोखी!

अब दूल्हा के यहाँ का जिक्र सुनिए। वहाँ इससे भी ज्यादा धूम-धाम थी। नौजवान शाहजादे और नवाबजादे जमा थे। दिल्लगी हो रही थी।

एक - यार, आज तो बे सरूर जमाए जाना मुनासिब नहीं।

दूसरा - मालूम होता है, आज पीके आए हो।

पहला - अरे मियाँ, खुदा से डरो, पीनेवाले की ऐसी-तैसी।

दूल्हा - जरूर पीके आए हो। आप हमारी बरात के साथ न चलिए।

दीवानखाने में बुजुर्ग लोग बैठे पुराने जमाने की बातें कर रहे थे। एक मौलवी साहब बोले - न अब वह लोग हैं, न जमाना। अब किसके पास जायँ, कोई मिलने के काबिल ही नहीं। इल्म की तो अब कदर ही नहीं। अब तो वह जमाना है कि गाली खाए, मगर जवाब न दे।

ख्वाजा साहब - अब आप देखें कि उस जमाने में दस, बीस, तीस की नौकरियाँ थीं, मगर वाहर रे बरकत। एक भाई घर में नौकर है और दस भाई चैन कर रहे हैं।

रात के दस बजे नवाब साहब महल में नहाने गए। चारों तरफ बंदनवार बँधी हुई थीं। आम, अमरूद और नारंगियाँ लटक रही थीं। नीचे एक सौ एक कोरे घड़े थे, एक मटके पर इक्कीस टोंटी का बधना रखा था और बधने में जौ लगे हुए थे। दूल्हा की माँ ने कहा - कोई छींके-वींके नहीं, खबरदार कोई छींकने न पाए। घर-भर में बच्चों को मना कर दो कि जिसको छींक आए, जब्त करे। अब दिल्लगी देखिए कि इस टोकने से सबको छींक आने लगी। किसी ने नाक को उँगली से दबाया, कोई लपक के बाहर चला गया। दूल्हा ने लुंगी बाँधी, बदन में उबटन मला गया। बहनें सिर पर पानी डालने लगीं।

दूल्हा - कितना सर्द पानी है। ठिठुरा जाता हूँ।

महरी - फिर हुजूर, शादी करना कुछ दिल्लगी है।

बहन - दिल में तो खुश होंगे। आज तुम्हें भला सर्दी लगेगी।

नहा कर दूल्हा ने खड़ाऊँ पहनी, कमरे में आए, कपड़े पहने! मशरू का पायजामा, जामदानी का अँगरखा, सिर पर पगड़ी के इर्द-गिर्द मोती टंके हुए, बीच में पुखराज का रंगीन नगीना, कमर में शाली पटका, पगड़ी पर फूलों का सेहरा, हाथ में लाल रेशमी रूमाल और कंधे पर हरा दुशाला, पैरों में फुँदनेदार बूट।

जब दूल्हा बाहर गया तो बेगम साहब ने लड़कियों से कहा - अब चलने की तैयारी करो। हमको बरात से पहले पहुँच जाना चाहिए। दूल्हा की बहनें अपने-अपने जोड़े पहनने लगीं। महरियों-लौंडियों को भी हुक्म हुआ कि कपड़े बदलो। जरा देर में सुखपाल और झप्पान दरवाजे पर ला कर लगा दिए गए। दोनों बहनें चलीं। दाएँ-बाएँ महरियाँ, मशालचियों के हाथ में मशालें, सिपाही और खिदमतगार लाल फुँदनेदार पगड़ियाँ बाँधे साथ चले। जिस तरफ से सवारी निकल गई, गलियाँ इत्र की महक से बस गईं। यही मालूम होता था कि परियों का उड़न-खटोला है।

जब दोनों बहनें समधियाने पहुँच गईं, तो नवाब साहब की माँ भी चलीं। वहाँ दुलहिन की माँ ने इनकी पेशवाई की। इत्र-पान से खातिर हुई और डोमिनियों को नाच होने लगा।

थोड़ी देर के बाद दूल्हा के यहाँ से बरात चली, सबके आगे हाथी पर निशान था। हाथी के सामने अनार और हजारे छूट रहे थे। हाथियों के पीछे अंगरेजी बाजेवालों की धूम थी। फिर सजे हुए घोड़े सिर से पाँव तक जेवर से लदे चले आते थे। साईस उनकी बाग पकड़े हुए थे और दो सिपाही इधर-उधर कदम बढ़ाते चले जाते थे। दूल्हा के सामने शहनाई बज रही थीं। तमाशा देखने वाले यह ठाठ-बाट देख कर दंग हो रहे थे।

एक - भई, अच्छी बरात सजाई; और खूब आतशबाजी बनाई है। आतशबाजी क्या बनवाई है, यों कहिए कि चाँदी गलवाई है।

दूसरा - अनार तो आसमान की खबर लाता है, मगर धुआँ आसमान के भी पार हो जाता है।

तख्त ऐसे थे कि जो देखता, दाँतों अँगुली दबाता। एक हाथी ऐसा नादिर बना था कि नकल को असल कर दिखाया था। बाज-बाज तख्त आदमियों को मुगालता देते थे, खास कर चंडूबाजों का तख्त तो ऐसा बनाया था कि चंडूवालों को शर्माया। एक चंडूबाज ने झल्ला कर कहा - इन कुम्हारों को हमसे अदावत है। खुदा इनसे समझे। एक महफिल की तसवीर बहुत ही खूबसूरत थी। फर्श पर बैठे लोग नाच देख रहे हैं, बीच में मसनद बिछी है, दूल्हा तकिया लगाए बैठा है और सामने नाच हो रहा है। सबके पीछे एक आदमी हाथी पर बैठा रुपए लुटाता आता था और शोहदे गुल मचाते थे। एक-एक रुपए पर दस-दस गिरे पड़ते थे। जान पर खेल कर पिले पड़ते थे।

यह वही सुरैया बेगम हैं जो अभी कल तक मारी-मारी फिरती थीं। जिनको सारी दुनिया में कहीं ठिकाना न था, वही सुरैया बेगम आज शान से दुलहिन बनी बैठी हैं और इस धूम-धाम से उनकी बरात आती है। माँ, बाप, भाई, बहन, सभी मुफ्त में मिल गए। इस वक्त उनके दिल में तरह-तरह के खयाल आते थे - यहाँ किसी को मालूम न हो जाय कि यही सराय में रहती थी, इसी का नाम अलारक्खी भठियारी था, फिर तो कहीं की न रहूँ। इस खयाल से उन्हें इतनी घबराहट हुई कि इधर दरवाजे पर बरात आई और उधर वह बेहोश हो गईं। सबने दुलहिन को घर लिया। अरे खैर तो है। यह हुआ क्या, किसी ने मिट्टी पर पानी डाल कर सुँघाया। दुलहिन की माँ इधर-उधर दौड़ने लगी।

हशमत - ऐ, वह हुआ क्या अम्माँजान?

फीरोजा - अभी अच्छी खासी बैठी हुई थीं। बैठे-बैठे गश आ गया।

बाहर दूल्हा ने यह खबर सुनी तो अपनी महरी को बुलवाया और समझाया कि जाके पूछो, अगर जरूरत हो तो डॉक्टर को बुलवा लूँ। महरी ने आ कर कहा - हुजूर, अब तबियत बहाल है, मगर पसीना आ रहा हे और पानी-पानी करती हैं। नवाब साहब की जान में जान आई। बार-बार तबीयत का हाल पूछते थे। जब दुलहिन की हालत दुरुस्त हो गई तो हमजोलियों ने दिक करना शुरू किया।

जानी - आखिर इस गश का सबब क्या था? हाँ, सब समझी। अभी सूरत देखी नहीं और गश आने लगे।

फीरोजा - ऐ नहीं, क्या जाने अगली-पिछली कौन बात याद आ गई।

जानी - सूरत से तो खुशी बरसती है, वह हँसी आई। ऐ, लो वह फिर गरदन झुका ली।

हशमत - यहाँ तो पाँव-तले से मिट्टी निकल गई।

फीरोजा - मजा तो जब आता कि निकाह के वक्त गश आता, मियाँ को बनाते तो, कि अच्छे सब्जकदम हो।

अब सुनिए कि महल से बराबर खबरें आ रही हैं कि तबियत अच्छी है, मगर नवाब साहब को चैन नहीं आता। आखिर डॉक्टर साहब को बुलवा ही लिया। उनका महल में दाखिल होना था कि हमजोलियों ने उन पर आवाजें कसने शुरू किए।

एक - मुआ सूँस है कि आदमी, अच्छे भदभद को बुलाया।

दूसरी - तोंद क्या, चार आनेवाला फर्रुखाबादी तरबूज है।

तीसरा - तम्बाकू का पिंडा है या आदमी है?

चौथी - कह दो, र्को अच्छा हकीम बुलावें, इस जंगली हूश की समझ में क्या खाक आएगा।

पाँचवीं - खुदा की मार ऐसे मुए पर!

डॉक्टर साहब कुर्सी पर बैठे, नए आदमी थे, उर्दू वाजिबी ही वाजिबी समझते थे। बोले - दारोद होते कौन जाओ?

महरी - नहीं डॉक्टर साहब, दारोद तो नहीं बतातीं, मगर देखते-देखते गश आ गाय।

डॉक्टर - गास की को बोलते?

महरी - हुजूर मैं समझती नहीं। घास क्या!

डॉक्टर - गास किसको बोलते? तुम लोग क्या गोल-माल करने माँगता। हम जुबान देखे।

फीरोजा - नौज ऐसा हकीम हो। डॉक्टर की दुम बना है।

जानी - कहो, नब्ज देखें।

डॉक्टर - नाबुज कैसा बात। हम लोग नाबुज देखना नहीं माँगता, जुबान दिखाए, जुबान, इस माफिक।

डॉक्टर साहब ने मुँह खोल कर जबान बाहर निकाली।

फीरोजा - मुँह काहे को घंटावेग की गड़हिया है।

जानी - अरे महरी, देखती क्या है, मुँह में धुल झोंक दे।

हशमत - एक दफा फिर मुँह खोले तो मैं पंखे की डंडी हलक में डाल दूँ।

डॉक्टर - जिस माफिक हम जुबान दिखाया, उस माफिक हम देखना माँगता। सब भाई लोग हँसी करता। जुबान दिखाने में क्या बात है।

फीरोजा - नवाब साहब से कहो, पहले इसके दिमाग का इलाज करें।

सुरैया बेगम जब किसी तरह जबान दिखाने पर राजी न हुई तो डॉक्टर साहब ने नब्ज देख कर नुस्खा लिखा और चलते हुए! सुरैया का जी कुछ हलका हुआ। मगर इसी वक्त मेहमानों के साथ उन्होंने एक ऐसी औरत को देखा जो उनसे खूब वाकिफ थी, वह मैके में इनके साथ बरसों रह चुकी थी। होश उड़ गए कि कहीं यह पूरा हाल सबसे कह दे तो कहीं की न रहूँ। इस औरत का नाम ममोला था। वह एक शरीर, आवाजें कसने लगी। एक लड़के को गोद में ले कर उसके साथ खेलने लगी और बातों बातों में सुरैया बेगम को सताने लगी। हम खूब पहचानते हैं। सराय में भी देखा था, महल में भी देखा था। अलारक्खी नाम था। इन फिकरों ने सुरैया बेगम को और भी बेचैन कर दिया, चेहरे पर जर्दी छा गई। कमरे में जा कर लेट रहीं, उधर ममोला ने भी समझा कि अगर ज्यादा छेड़ती हूँ तो दुलहिन दुश्मन हो जायगी। चुप हो रही।

बाहर महफिल जमी हुई थी। दूल्हा ज्यों ही मसनद पर बैठा, एक हसीना नजाकत के साथ कदम उठाती मसफिल में आई। यारों ने मुँह-माँगी मुराद पाई। एक बूढ़े मियाँ ने पोपले मुँह से कहा - खुदा खैर करें। इस पर महफिल भर ने कहकहा लगाया और वह परी भी मुसकिरा कर बोली - बूढ़े मुँह मुँहासे, इस बुढ़ौती में भी छेड़छाड़ की सूझी! आपने हँस कर जवाब दिया - बीबी, हम भी कभी जवान थे, बूढ़े हुए तो क्या, दिल तो वही है।

यह परी नाचने खड़ी हुई तो ऐसा सितम ढाया कि सारी महफिल लोट-पोट हो गई। नौजवानों में आहिस्ता आहिस्ता बातें होने लगीं।

एक - बे अख्तियार जी चाहता है कि इसके कदमों पर सिर रख दूँ।

दूसरा - कल ही परसों हमारे घर न पड़ जाय तो अपना नाम बदल डालूँ, देख लेना।

तीसरा - कसम खुदा की, मैं तो इसकी गुलामी करने को हाजिर हूँ, पूछो तो कहाँ से आई है।

चौथा - शीन-काफ से दुरुस्त है।

पाँचवाँ - हमसे पूछो, मुरादाबाद से आई है।

हसीना ने सुरीली आवाज में एक गजल गाई। इस गजल ने महफिल को मस्त कर दिया। एक साहब की आँखों से आँसू बह चले, यह वही साहब थे जिन्होंने कहा था कि हम इसे घर डाल लेंगे। लोगों ने समझाया - भई, इस रोने-धोने से क्या मतलब निकलेगा। यह कोई शरीफ की बहू-बेटी तो है नहीं, हम कल ही शिप्पा लड़ा देंगे। मगर इस वक्त तो खुदा के वास्ते आँसू न बहाओ, वरना लोग हँसेंगे। उन्होंने कहा - भाई, दिल को क्या करूँ, मैं तो खुद चाहता हूँ कि दिल का हाल जाहिर न हो, मगर वह मानता ही नहीं तो मेरा क्या कुसूर है।

यह हजरत तो रो रहे थे। और लोग उसकी तारीफें कर रहे थे। एक ने कहा - यह हमारे शहर की नाक हैं। दूसरा बोला - इसमें क्या शक। आप बहुत ही मिलनसार, नेक, खुश-मिजाज हैं। तीसरे साहब बोले - ऐ हजरत, दूर-दूर तक शोहरत हे इनकी? अब इस शहर में जो कुछ हैं, यही हैं।

इस जलसे में दो-चार देहाती भी बैठे थे। उनको यह बातें नागवार लगीं। मुन्ने मियाँ बोले - वाह, अच्छा दस्तूर है शहर का, पतुरिया को सामने बिठा लिया।

छुट्टन - हमारे देश में अगर पतुरिया को कोई बीच में बिठाए तो हुक्का पानी बंद हो जाय।

गजराज - पतुरिया बैठे काहे को, पनही न खाय?

नवाब - जी हाँ, शहरवाले बड़े ही बेशरम होते हैं।

आगा - देहातियों की लियाकत हम बेचारे कहाँ से लाएँ?

गजराज - हई है, हम लोग इज्जतदार हें। कोई नंगे-लुच्चे नहीं हैं।

आगा - तो जनाब, आप शहर की मजलिस में क्यों आए?

गजराज - काहे को बुलाया, क्या हम लोग बिन बुलाए आए?

आगा - अच्छा, अब गुस्से को थूक दीजिए।

जब ये लोग जरा ठंडे हुए, तो उस हसीना ने एक फारसी गजल गाई, इस पर एक कमसिन नवाबजादे ने जो पंद्रह-सोलह साल से ज्यादा न था, ऊँची आवाज में कहा - वाह जानमन, क्यों न हो! इस लड़के के बाप भी महफिल में बैठे थे, मगर इस लड़के के जरा भी शरम न आई।

इसके बाद तायफा बदली गई। यह आ कर महफिल में बैठ गई और इसके पीछे साजिंदे भी बैठ गए।

नवाब - ऐं, खैरियत तो है? ऐ साहब, नाचिए-गाइए।

हसीना - कल से तबियत खराब है। दो-एक चीजें आपकी खातिर से कहिए तो गा दूँ।

नवाब - मजा किरकिरा कर दिया, तुम्हारे नाच की बड़ी तारीफ सुनी है।

हसीना - क्या अर्ज करूँ। आज तो नाचने के काबिल नहीं हूँ।

यह कह कर, उसने एक ठुमरी शुरू कर दी। इधर बड़े नवाब साहब महल में गए और जहाँ दुलहिन का पलंग था, वहाँ बैठे। खवास ने चिकनी डली, इलायची, गिलौरियाँ पेश कीं। इत्र की शीशियाँ सामने रखीं। बड़े नवाब साहब हुक्का पीने लगे।

सुरैया बेगम की माँ परदे की आड़ से बोली - आदाब अर्ज है।

बड़े नवाब - बंदगी, खुदा करे, इसकी औलाद देखो।

बेगम - खुदा आपकी दुआ कबूल करे। शुक्र है कि इस शादी की बदौलत आपकी जियारत हुई।

बड़े नवाब - दुलहिन से पूछूँ। क्यों बेटी, मेरे लड़के से तुम्हारा निकाह होगा। तुम उसे मंजूर करती हो?

सुरैया बेगम ने इसका कुछ जवाब न दिया। बड़े नवाब साहब ने कई मरतबा वही सवाल पूछा, मगर दुलहिन ने सिर उपर न उठाया। आखिर जब हशमत बहू ने आ कर कहा - क्या सबको दिक करती हो, जी तो चाहता होगा कि बेनिकाह ही चल दो, मगर नखरों से बाज नहीं आती हो। तब सुरैया बेगम ने आहिस्ता से कहा - हूँ।

बड़ी बेगम - आपने सुना?

बड़े नवाब - जी नहीं, जरा भी नहीं सुना।

बड़ी बेगम ने कहा - आप लोग जरा खामोश हो जायँ तो नवाब साहब लड़की की आवाज सुन लें। जब वह खामोश हो गई तो दुलहिन ने फिर आहिस्ता से कहा - हूँ।

उधर नौशा के दोस्त उससे मजाक कर रहे थे।

एक - आपसे जो पूछा जाय कि निकाह मंजूर है या नहीं, तो आप घंटे भर तक जवाब न दीजिएगा।

दूसरा - और नहीं तो क्या, हाँ कह देंगे?

तीसरा- जब लोग हाथ-पैर जोड़ने लगें, तब आहिस्ते से कहना, मंजूर है।

चौथा - ऐसा न हो, तुम फौरन मंजूर कर लो और उधरवाले हमारी हँसी उड़ाएँ।

दूल्हा - दूल्हा तो नहीं बने मगर बरातें तो बहुत देखी हैं। अगर आप लोगों की यही मरजी है तो मैं दो घंटे में मंजूर करूँगा।

अब मेहर पर तकरार होने लगी। दुलहिन के भाई ने कहा - मेहर चार लाख से कम न होगा। बड़े नवाब साहब बोले - भाई, और भी बढ़ा दो, चार लाख मेरी तरफ से, पूरे आठ लाख का मेहर बँधे।

निकाह के बाद किश्तियाँ आईं, किसी में दुशाला, किसी में भारी-भारी हार, तश्तरियों में चिकनी डली, इलायची, पान, शीशियों में इत्र। किस किश्ती में मिठाइयाँ और मिश्री के कूजे। जब काजी साहब रुखसत हो गए तो दूल्हा ने पाँच अशर्फियाँ नजर दिखाईं। नवाब साहब बाहर आए। थोड़ी देर के बाद महल से शरबत आया। नवाब साहब ने इक्कीस अशर्फियाँ दीं। दुलहिन के खिदमतगार ने पाँच अशर्फियाँ पाईं। पहले तो दुशाला माँगता रहा, मगर लोगों के समझाने से इनाम ले लिया। दुलहिन के लिए जूठा शरबत भेजा गया। महफिलवालों ने शरबत पिया, हार गले में डाला, इत्र लगाया और पान खा कर गाना सुनने लगे। इतने मे अंदर से आदमी दूल्हा को बुलाने आया। दूल्हा यहाँ से खुश-खुश चला। जब ड्योढ़ी में पहुँचा तो उसकी बहनों ने आँचल डाला और ले जा कर दुलहिन के मसनद पर बिठा दिया। डोमिनियों ने रीत-रस्म शुरू की। पहले आरसी की रस्म अदा की।

फीरोजा - कहिए, 'बीबी, मुँह खोलो! मैं तुम्हारा गुलाम हूँ।'

नवाब - बीबी मुँह खोलो, मैं तुम्हारे गुलाम का गुलाम हूँ।

हशमत - जब तक हाथ न जोड़ोगे, मुँह न खोलेंगी।

मुबारक महल - ऊपर के दिल से गुलाम बनते हो, दिल से कहो तो आँखें खोल दें।

नवाब - या खुदा, अब और क्योंकर कहूँ, बीबी तुम्हारा गुलाम हूँ। खुदा के लिए जरा सूरत दिखा दो।

दूल्हा ने एक दफा झूठ-मूठ गुल मचा दिया, वह आँखें खोलीं, सखियों ने कहा - झूठ कहते हो, कौन कहता है, आँख खोली।

डोमिनी - बेगम साहब, अब आँखें खोलिए, बेचारे गुलाम बनते-बनते थक गए। आप फकत आँख खोल दें। वह आपको देखे, आप चाहे उन्हें न देखें।

फीरोजा - वाह, दूल्हा तो चाहे पीछे देखे, यह पहले ही घूर लेंगी।

आखिर सुरैया बेगम ने जरा सिर उठाया और नवाब साहब से चार आँखें होते ही शरमा कर गर्दन नीचे कर ली।

नवाब - कहिए, अब आँखें खोलीं या अब भी नहीं खोलीं?

फीरोजा - अभी नाहक आँखें खोलीं, जब कदमों पर टोपी रखते तब आँखें खोलती।

दूल्हा ने इक्कीस पान का बीड़ा खाया, पायजामे में एक हाथ से इजारबंद डाला और तब सास को सलाम किया। सास ने दुआ दी और गले में मोतियों का हार डाल दिया। अब मिश्री चुनवाने की रस्म अदा हुई। दुलहिन के कंधे, घुटने, हाथ वगैरह पर मिश्री के छोटे-छोटे टुकड़े रखे गए और दूल्हा ने झुक-झुकके खाए। सुरेया बेगम को गुदगुदी मालूम हो रही थी। सालियाँ दूल्हा को छेड़ रही थीं। किसी ने चुटकी ली, किसी ने गुद्दी पर हाथ फेरा, यह बेचारे इधर-उधर देख कर रह जाते थे।

जानी - फीरोजा बेगम जैसी चरबाँक साली भी न देखीं होगी।

नवाब - एक चरबाँक हो तो कहूँ, यहाँ तो जो है, आफत का परकाला है और फीरोजा बेगम का तो कहना ही क्या, सवार को घोड़े पर से उतार लें।

फीरोजा - क्या तारीफ की है,वाह-वाह!

जानी - क्या कुछ झूठ है? तुम्हारी जबान क्या, कतरनी है!

फीरोजा - और तुम अपनी कहो, दूल्हा को उसी वक्त से घूर रही हो। उनकी नजर भी पड़ती है तुम्हीं पर।

जानी - फिर पड़ा ही चाहे, पहले अपनी सूरत तो देखो।

फीरोजा - सुरैया बेगम गाती खूब है और बताने में तो उस्ताद हैं, कोई कथन इनके सामने क्या नाचेगा, कहो एक घुँघरू बोले, कहो दोनों बोलें और तलवार पर तो ऐसा नाचती हैं कि बस, कुछ न पूछो।

जानी - सुना, किसी कथक ने दिल लगाके नाचना सिखाया है। नवाब साहब की चाँदी है, रोज मुफ्त का नाच देखेंगे।

हशमत - भई, इतनी बेहयाई अच्छी नहीं, हँसी-दिल्लगी का भी एक मौका होता है।

फीरोजा - हमारी समझ ही में नहीं आता कि वह कौन सा मौका होता है, बरात के दिन न हँसें-बोले तो फिर किस दिन हँसें-बोलें?

इस तरह हँसी-दिल्लगी में रात कट गई। सबेरे चलने की तैयारियाँ होने लगीं। दुलहिन की माँ-बहनें सब की सब रोने लगीं। माँ ने समधिन से कहा - बहन, लौंडी देती हूँ, इस पर मिहरबानी की निगाह रहे। वह बोलीं - क्या कहती हो? औलाद से ज्यादा है। जिस तरह अपने लड़कों को समझती हूँ उसी तरह इसको भी समझूँगी। इसके बाद दूल्हा ने दुलहिन को गोद में उठा कर सुखपाल पर सवार किया। समधिनें गले मिल कर रुखसत हुई।

जब बरात दूल्हा के घर पर आई, तो एक बकरा चढ़ाया गया, इसके बाद कहारियाँ पालकी को उठा कर जनानी ड़योढ़ी पर ले गईं। तब दूल्हा की बहन ने आ कर दुलहिन के पाँव दूध से धोए और तलवे में चाँदी की वरक लगाए। इसके बाद दूल्हा ने दुलहिन के दामन पर नमाज पढ़ी। फिर खीर आई, पहले दुलहिन के हाथ पर रख कर दूल्हा को खिलाई गई, फिर दूल्हा के हाथ पर खीर रखी गई और दुलहिन से कहा गया कि खाओ, तो वह शरमाने लगी। आखिर दूल्हा की बहनों ने दूल्हा का हाथ दुलहिन के मुँह की तरफ बढ़ा दिया। इस तरह यह रस्म अदा हुई, फिर मुँह दिखावे की रस्म पूरी हुई और दूल्हा बाहर आया।

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