Azad Katha - 2 - 66 books and stories free download online pdf in Hindi

आजाद-कथा - खंड 2 - 66

आजाद-कथा

(खंड - 2)

रतननाथ सरशार

अनुवाद - प्रेमचंद

प्रकरण - 66

शाहजादा हुमायूँ फिर कई महीने तक नेपाल की तराई में शिकार खेल कर लौटे तो हुस्नआरा की महरी अब्बासी को बुलवा भेजा। अब्बासी ने शाहजादा के आने की खबर सुनी तो चमकती हुई आई। शाहजादे ने देखा तो फड़क गए। बोले - आइए, बी महरी साहबा हुस्नआरा बेगम का मिजाज तो अच्छा है? अब्बासी - हाँ, हुजूर!

शाहजादा - और दूसरी बहन? उनका नाम तो हम भूल गए।

अब्बासी - बेशक, उनका नाम तो आप जरूर ही भूल गए होंगे। कोठे पर से धूप में आईना दिखाए, घूरा-घरी किए और लोगों से पूछे - बड़ी बहन ज्यादा हसीन हैं या छोटी? है ताज्जुब की बात कि नहीं?

शाहजादा - हमें तो तुम हसीन मालूम होती हो।

अब्बासी - हुजूर तो मुझे शर्मिंदा करते हैं। अल्लाह जानता है, क्या मिजाज पाया है। यही हँसना-बोलना रह जाता है हुजूर!

शाहजादा - अब किसी तरकीब से ले चलो।

अब्बासी - हुजूर, भला मैं कैसे ले चलूँ! रईसों का घर, शरीफों की बहूबेटियों में पराए मर्द का क्या काम।

शाहजादा - कोई तरकीब सोचो, आखिर किस दिन काम आओगी?

अब्बासी - आज तो किसी तरह मुमकिन नहीं। आज एक मिस आनेवाली हैं।

शाहजादा - फिर किसी तरकीब से मुझे वहाँ पहुँचा दो। आज तो आँखें सेकने का खूब मौका है।

अब्बासी - अच्छा, एक तदबीर है। आज बाग ही में बैठक होगी। आप चल कर किसी दरख्त पर बैठ रहें।

शाहजादा - नहीं भाई, यह हमें पसंद नहीं। कोई देख ले तो नाहक उल्लू बनूँ। बस, तुम बागबान को गाँठ लो। यही एक तदबीर है।

अब्बासी ने आ कर माली को लालच दिया। कहा - अगर शाहजादा को अंदर पहुँचा दो तो दो अशर्फियाँ इनाम दिलवाऊँ। माली राजी हो गया। तब अब्बासी ने आ कर शाहजादे से कहा - लीजिए हजरत, फतह है! मगर देखिए, धोती और मिर्जई पहननी पड़ेगी और मोटे कपड़े की भद्दी सी टोपी दीजिए, तब वहाँ पहुँच पाइएगा।

शाम को हुमायूँ फर ने माली का वेश बनाया और माली के साथ बाग में पहुँचे तो देखा कि बाग के बीचोंबीच एक पक्का और ऊँचा चबूतरा है और चारों बहने कुर्सियों पर बैठी मिस फैरिंगटन से बातें कर रही हैं। माली ने फूलों का एक गुलदस्ता बना कर दिया और कहा - जा कर मेज पर रख दो। हुमायूँ फर ने मिस साहब को झुक कर सलाम किया और एक कोने में चुपचाप खड़े हो गए।

सिपहआरा - हीरा-हीरा, यह कौन है?

हीरा - हुजूर, गुलाम है आपका। मेरा भाँजा है।

सिपहआरा - क्या नाम है?

हीरा - लोग हुमायूँ कहते हैं हुजूर!

सिपहआरा - आदमी तो सलीकेदार मालूम होता है। अरे हुमायूँ, थोड़े फूल तोड़ ले और महरी को दे दे कि मेरे सिरहाने रख दे।

शाहजादा ने फूल तोड़ कर महरी को दिए और फूलों के साथ रूमाल में एक रुक्का बाँध दिया। खत का मजमून यह था -

'मेरी जान,

अब सब्र की ताकत नहीं। अगर जिलाना हो तो जिला लो, वरना कोई हिकमत काम न आएगी!

हुमायूँ फर'

जब शाहजादा हुमायूँ फर चले गए तो सिपहआरा ने माली से कहा - अपने भाँजे को नौकर रख लो।

माली - हुजूर, सरकार ही का नमक तो खाता है! यों भी नौकर है, वों भी नौकर है।

सिपहआरा - मगर हुमायूँ तो मुसलमानों का नाम होता है।

माली - हाँ हुजूर, वह मुसलमान हो गया है।

दूसरे दिन शाम को सिपहआरा और हुस्नआरा बाग में आईं तो देखा, चबूतरे पर शतरंज के दो नक्शे खिंचे हुए हैं।

सिपहआरा - कल तक तो ये नक्शे नहीं थे। अहाहा, हम समझ गए। हुमायूँ माली ने बनाए होंगे।

माली - हाँ हुजूर, उसी ने बनाया है।

सिपहआरा - बहन, जब जानें कि नक्शा हल कर दो।

हुस्नआरा - बहुत टेढ़ा नक्शा है। इसका हल करना मुश्किल है (माली से) क्यों जी, तुम्हारे भाँजे को शतरंज खेलना किसने सिखाया?

माली - हुजूर, उसको शौक है, लड़कपन से खेलता है।

हुस्नआरा - उससे पूछो, इस नक्शे को हल कर देगा?

माली - कल बुलवा दूँगा हुजूर!

सिपहआरा - इसका भाँजा बड़ा मनचला मालूम होता है।

हुस्नआरा - हाँ, होगा। इस जिक्र को जाने दो।

सिपहआरा - क्यों-क्यों, बाजीजान! तुम्हारे चेहरे का रंग क्यों बदल गया?

हुस्नआरा - कल इसका जवाब दूँगी।

सिपहआरा - नहीं, आखिर बताओ तो? तुम इस वक्त खफा क्यों हो?

हुस्नआरा - यह मिरजा हुमायूँ फर की शरारत है।

सिपहआरा - ओफ ओह! यह हथकंडे!

हुस्नआरा - (माली से) सच-सच बता; यह हुमायूँ कौन है? खबरदार जो झूठ बोला!

सिपहआरा - भाँजा है तेरा?

माली - हुजूर! हुजूर!

हुस्नआरा - हुजूर-हुजूर लगाई है, बताता नहीं। तेरा भाँजा और यह नक्शे बनाए?

माली - हुजूर, मैं माली नहीं हूँ, जाति का कायस्थ हूँ, मगर घर-बार छोड़ कर बागवानी करने लगा। हमारा भाँजा पढ़ा-लिखा हो तो कौन ताज्जुब की बात है।

हुस्नआरा - चल झूठे, सच-सच बता। नहीं अल्लाह जानता है, खड़े-खड़े निकलवा दूँगी।

सिपहआरा अपने दिल में सोचने लगी कि हुमायूँ फर ने बेतौर पीछा किया। और फिर अब तो उनको खबर पहुँच ही गई है तो फिर माली बनने की क्या जरूरत है!

हुस्नआरा - खुदा गवाह है! सजा देने के काबिल आदमी है। भलमनसी के यह मानी नहीं हैं कि किसी के घर में माली या चमार बन कर घुसे। यह हीरा निकाल देने लायक है। इसको कुछ चटाया होगा। जभी फिसल पड़ा।

माली के होश उड़ गए। बोला - हुजूर मालिक हैं। बीस बरस से इस सरकार का नमक खाता हूँ; मगर कोई कुसूर गुलाम से नहीं हुआ। अब बुढ़ापे में हुजूर यह दाग न लगाएँ।

हुस्नआरा - कल अपने भाँजे को जरूर लाना।

सिपहआरा - अगर कुसूर हुआ है तो सच-सच कह दे।

माली - हुजूर, झूठ बोलने की तो मेरी आदत नहीं।

दूसरे दिन शाहजादा ने माली को फिर बुलवाया और कहा - आज एक बार और दिखा दो।

माली - हुजूर, ले चलने में तो गुलाम को उज्र नहीं, मगर डरता हूँ कि कहीं बुढ़ापे में दाग न लग जाय।

शाहजादा - अजी वह मौकूफ कर देंगी तो हम नौकर रख लेंगे।

माली - सरकार, मैं नौकरी को नहीं, इज्जत को डरता हूँ।

शाहजादा - क्या महीना पाते हो?

माली - 6 रुपए मिलते हैं हुजूर!

शाहजादा - आज से छः रुपए यहाँ से तुम्हारी जिंदगी भर मिला करेंगे। क्यों, हमारे आने के बाद औरतें कुछ कहती नहीं थीं?

माली - आपस में कुछ बातें करती थीं; मगर मैं सुन नहीं सका। तो मैं शाम को आऊँगा।

शाहजादा - तुम डरो नहीं, तुम्हारा नुकसान नहीं होने पाएगा।

माली तो सलाम करके रवाना हुआ और हुमायूँ फर दुआ माँगने लगे कि किसी तरह शाम हो। बार-बार कमरे के बाहर जाते, बार-बार घड़ी की तरफ देखते। सोचे, आओ जरा सो रहें। सोने में वक्त भी कट जायगा और बेकरारी भी कम हो जायगी। लेटे; मगर बड़ी देर तक नींद न आई। खाना खाने के बाद लेटे तो ऐसी नींद आई कि शाम हो गई। उधर सिपहआरा ने हीरा माली को अकेले में बुला कर डाँटना शुरू किया। हीरा ने रो कर कहा - नाहक अपने भाँजे को लाया। नहीं तो यह लथाड़ क्यों सुननी पड़ती।

सिपहआरा - कुछ दीवाना हुआ है बुड्ढे! तेरा भाँजा और इतना सलीकेदार? इतना हसीन?

हीरा - हुजूर, अगर भाँजा न हो तो नाक कटवा डालूँ।

सिपहआरा - (महरी से) जरा तू इसे समझा दे कि अगर सच-सच बतला दे तो कुछ इनाम दूँ।

महरी ने माली को अलग ले जा कर समझाना शुरू किया - अरे भले आदमी बता दे। जो तेरा रत्ती भर नुकसान हो तो मेरा जिम्मा।

हीरा - इस बुढ़ौती में कलंक का टीका लगवाना चाहती हो?

महरी - अब मुझसे तो बहुत उड़ो नहीं, शाहजादा हुमायूँ फर के सिवा और किसकी इतनी हिम्मत नहीं हो सकती। बता, थे वहीं कि नहीं?

हीरा - हाँ आए तो वही थे।

महरी - (सिपहआरा से) लीजिए हुजूर, अब इसे इनाम दीजिए।

सिपहआरा - अच्छा हीरा, आज जब वह आएँ तो यह कागज दे देना।

इत्तिफाक से हुस्नआरा बेगम भी टहलती हुई आ गईं। वह भी दफ्ती पर एक शेर लिख लाई थीं। सिपहआरा को दे कर बोलीं - हीरा से कह दो, जिस वक्त हुमायूँ फर आएँ, यह दफ्ती दिखा दे।

सिपहआरा - ऐ तो बाजी, जब हुमायूँ फर हों भी?

हुस्नआरा - कितनी सादी हो? जब हों भी?

सिपहआरा - अच्छा, हुमायूँ फर ही सही! यह शेर तो सुनाओ।

हुस्नआरा - हमने यह लिखा है -

असीरे हिर्स वशहवत हर कि शुद नाकाम मीबाशद;

दरीं आतश कसे गर पुख्ता बाशद खाम मीबाशद।

(जो आदमी हिर्स और शहवत में कैद हो गया, वह नाकाम रहता है। इस आग में अगर कोई पका भी हो तो भी कच्चा रहता है।)

हीरा ने झुक कर सलाम किया और शाम को हुमायूँ फर के मकान पहुँचा।

हुमायूँ - आ गए? अच्छा, ठहरो। आज बहुत सोए।

हीरा - खुदावंद, बहुत खफा हुई और कहा कि हम तुमको मौकूफ कर देंगे।

हुमायूँ - तुम इसकी फिक्र न करो।

हीरा - हुजूर, मुझे आध सेर आटे से मतलब है।

झुटपुटे वक्त हुमायूँ हीरा के साथ बाग में पहुँचे। यहाँ हीरा ने दोनों बहनों के लिखे हुए शेर हुमायूँ फर को दिखाए। अभी वह पढ़ ही रहे थे कि हुस्नआरा बाग में आ गई और हीरा को बुला कर कहा - तुम्हारा भाँजा आया?

हीरा - हाजिर है हुजूर!

हुस्नआरा - बुलाओ।

हुमायूँ ने आ कर सलाम किया और गरदन झुका ली।

हुस्नआरा - तुम्हारा क्या नाम है जी?

हुमायूँ - हुमायूँ।

हुस्नआरा - क्यों साहब, मकान कहाँ है?

हुमायूँ -

घर बार से क्या फकीर को काम;

क्या लीजिए छोड़े गाँव का नाम?

हुस्नआरा - अक्खाह, आप शायर भी हैं।

हुमायूँ - हुजूर, कुछ बक लेता हूँ।

हुस्नआरा - कुछ सुनाओ।

हुमायूँ - हुक्म हो तो जमीन पर बैठ जाऊँ।

सिपहआरा - बड़े गुस्ताख हो तुम। कहीं नौकर हो?

हुमायूँ - जी हाँ हुजूर, आजकल शाहजादा हुमायूँ फर की बहन के यहाँ नौकर हूँ।

इतने में बड़ी बेगम आ गईं। हुमायूँ फर मारे खौफ के भाग गए।

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