आजाद-कथा - खंड 2 - 90 Munshi Premchand द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आजाद-कथा - खंड 2 - 90

आजाद-कथा

(खंड - 2)

रतननाथ सरशार

अनुवाद - प्रेमचंद

प्रकरण - 90

नेपाल की तराई में रिसायत खैरीगढ़ के पास एक लक व दक जंगल है। वहाँ कई शिकारी शेर का शिकार करने के लिए आए हुए हें। एक हाथी पर दो नौजवान बैठे हुए हैं। एक का सिन बीस-बाईस बरस का है, दूसरे का मुश्किल से अट्ठारह का। एक का नाम है वजाहत अली, दूसरे का माशूक हुसैन। वजाहत अली दोहरे बदन का मजबूत आदमी है। माशूक हुसैन दुबला-पतला छरहरा आदमी है। उसकी शक्ल-सूरत और चाल-ढाल से ऐसा मालूम होता है कि अगर इसे जनाने कपड़े पहना दिए जायँ, तो बिलकुल औरत मालूम हो। पीछे-पीछे छह हाथी और आते थे। जंगल में पहुँच कर लोगों ने हाथी रोक लिए ताकि शेर का हाल दरियाफ्त कर लिया जाय कि कहाँ है। माशूक हुसैन ने काँप कर कहा - क्या शेर का शिकार होगा? हमारे तो होश उड़ गए। अल्लाह के लिए हमें बचाओ। मेरी तो शेर के नाम से ही जान निकल जाती है। तुमने तो कहा था हिरनी और पाढ़े का शिकार खेलने चलते हैं।

वजाहत अली - वाह इसी प कहती थीं कि हम बन-बन फिरे हैं। भूत-प्रेत से नहीं डरते। अब क्या हो गया कि जरा सा शेर का नाम सुना और काँप उठीं!

माशूक हुसैन - शेर जरा सा होता है! ऐ, वह इस हाथी का कान पकड़ ले तो चिंघाड़ कर बैठ जाय। निगोड़ा हाथी बस देखने ही भर को होता है। इसके बदन में खून कहाँ। बस, पानी ही पानी है।

वजाहत अली - अब्बल तो शेर का शिकार नहीं है, और अगर शेर आया भी तो हम उसका मुकाबिला कर सकेंगे। अट्ठारह-अट्ठारह निशानेबाज साथ हैं। इनमें दो तीन आदमी तो ऐसे बढ़े हुए हैं कि रात के वक्त आवाज पर तीर लगाते हैं। क्या मजाल कि निशाना खाली जाय। तुम घबराओ नहीं, ऐसा लुत्फ आएगा कि सारी उम्र याद करोगी।

माशूक हुसैन - तुम्हें कसम है, हमें यहाँ से कहीं भेज दो। अल्लाह! कब यहाँ से छुटकारा होगा। ऐसी बुरी फँसी कि कुछ कहा नहीं जाता।

नवाब साहब ने मुसकिरा कर पूछा - किससे?

माशूक हुसैन - ऐ, हटो भी! तुम्हें दिल्लगी सूझी है और हम क्या सोच रहे हैं। शेर ऐसा जानवर, एक थप्पड़ में देव को सुला दे। आदमी जरी सा भुनगा, चले हैं शेर के शिकार को! हाथी रोक लो, नहीं अल्लाह जानता है, हम हाथी पर से कूद पड़ेंगे। बला से जान जाय या रहे।

नवाब - हैं-हैं। जान तुम्हारे दुश्मनों की जाय। आखिर इतने आदमियों को अपनी जान प्यारी है या नहीं? कोई और भी चूँ करता है?

माशूक - इतने आदमी जायँ चूल्हें में। इन मुओं को जान भारी हुई है। यह घर से लड़ कर आए हैं। जोरू ने जूतियाँ मार-मार कर निकाल दिया है। इनकी और मेरी कौन सी बराबरी। हमें उतार दो, हम अब जायँगे।

नवाब - जरा ठहरो तो, मैं बंदोबस्त किए देता हूँ। किसी बड़े दरख्त पर एक मचान बाँध देंगे। बस वहीं से बैठ के देखना

माशूक - वाह, जरी सा मचान और जंगल का वास्ता। अकेली डर न जाऊँगी? हाँ, तुम भी बैठो तो अलबत्ता!

नवाब - यह तो बड़े शर्म की बात है कि हम मर्द हो कर मचान पर बैठें और लोग शिकार खेलें।

माशूक - इन लोगों से कह दो कि हमारे दोस्त की यही राय है। डर किस बात का है? साफ-साफ कह दो कि यह औरत हैं और हमारा इनके साथ निकाह होने वाला है।

नवाब - यह नहीं हो सकता। यह मशहूर करना कि एक कमसिन औरत को मर्दाना कपड़े पहना कर यहाँ लाए हैं, मुनासिब नहीं। इतने में आदमियों ने आ कर कहा - हुजूर, सामने एक कछार है। उसमें एक शेरनी बच्चों के पास बैठी है। इसी दम हाथी को पेल दीजिए।

इतना सुनना था कि नवाब साहब ने खिदमतगार को हुक्म दिया - इनको एक शाली रूमाल और पचास अशर्फियाँ आज ही देना। हाथी के लिए पेल का लफ्ज खूब लाए! सुभान-अल्लाह।

इस पर मुसाहबों ने नवाब साहब की तारीफों के पुल बाँध दिए।

एक - सुभान-अल्लाह, वाह मेरे शाहजादे। क्यों न हो।

दूसरा - खुदा आपको एक हजार बरस की उम्र दे। हातिम का नाम मिटा दिया। रियासत इसे कहते हैं।

नवाब - अच्छा, अब सब तैयार हो और कछार की तरफ हाथी ले चलें।

माशूक - अरे लोगों, यह क्या अंधेर हैं। आखिर इतनों में किसी के जोरू जाँत भी है या सब निहंग-लाडले, बेफिकरे, उठाऊ-चूल्हे ही जमा हैं। खुदा के लिए इनको समझाओ। इतनी सी जान, गोली लगी और आदमी टें से रह गया। आदमी में है क्या! अल्लाह करे, शेर न मिले। मुई बिल्ली से तो डर लगता है। शेर की सूरत क्योंकर देखूँगी। भला इतना बताओ कि बँधा होगा या खुला? तमाशे में हमने शेर देखे थे, मगर सब कठघरों में बंद थे।

एकाएक दो पासियों ने आ कर कहा कि शेरनी कछार से चली गई! नवाब साहब ने वहीं डेरा डाल दिया और माशूक हुसैन के साथ अंदर आ बैठे।

नवाब - यह बात भी याद रहेगी कि एक बेगम साहब बहादुरी के साथ शेर का शिकार खेलने को गईं?

माशूक - ऐ वाह! जो शरीफजादी सुनेगी, अपने दिल में यही कहेगी कि शरीफ की लड़की और इतनी ढीठ। भलेमानस की बहू-बेटी वह है कि जंगल के कुत्ते का नाम सुनते ही बदन के रोएँ खड़े हो जायँ। अकेले कमरे में बिल्ली आए तो थरथर काँपने लगे। ख्वाब में भी रस्सी देखे तो चौंक पड़े। अच्छी पट्टी पढ़ाते हो !

दूसरे दिन नवाब साहब ने शिकारी लिबास पहना। खेमे से निकले। माशूक हुसैन भी पीछे से निकले मगर इस वक्त बेगमों की पोशाक में थे और बेगम भी कौन? वही सुरैया, जो मिस पालेन बनी हुई पादरी साहब के साथ रही थी। ऐसा मालूम हुआ, कोई परी पर खोले चली आती है। नवाब साहब ने कहा -

आगाजे इश्क ही में हमें मौत आ गई,आगाह भी न हाल से वह बेखबर हुआ।

सुरैया बेगम ने तिनक के कहा - बस, यह मनहूस बातें हमें एक आँख नहीं भातीं। मरने-जीने का कौन जिक्र है?

नवाब - सुनिए हुजूर! जो आप आँखें दिखलाएँगी तो हम भी बिगड़ जाएँगे। इतना याद रखिए।

सुरैया - खुदा के लिए जरा हया से काम लो। इन सबके सामने हमें रुसवा न करो। वह शरीफजादी क्या, जो शर्म से मुँह मोड़े। इतने आदमी खड़े हैं और तुमको कुछ ख्याल ही नहीं।

खुदा का कहर, बुतो का एताब रहता है,इस एक जान प' क्या-क्या अजाब रहता है।

सुरैया - बस, हम न जायँगे। चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय।

नवाब साहब ने कदमों पर टोपी रख दी, और कहा - मार डालो, मगर साथ चलो; वरना घुट-घुट के जान जायगी।

बारे खुदा-खुदा करके बेगम साहब उठीं। इतने में चौकीदार ने आ कर कहा - खुदावंद, दो शेर जंगल में दिखाई दिए हैं। अब भी मौका है, वरना शेरनी की तरह वह भी भाग जाएँगे और फिर शिकार न मिलेगा।

बेगम - आदमी कैसे मुए जान के दुश्मन हैं!

नवाब साहब ने हुक्म दिया कि हाथी को बैठाओ। पीलबान ने 'बरी-बरी' कह कर हाथी को बैठाया। तब जीना लगाया गया। बेगम साहब ने जीने पर कदम रखा, मगर झिझक कर उतर गईं।

नवाब - पहली बार तो बेझिझक बैठ गई थीं, अबकी डरती हो।

बेगम - ऐ लो, उस बार कहा था कि मुर्गाबी का शिकार होगा।

नवाब - शेर का शिकार आसान है, मुर्गाबी का शिकार मुश्किल है।

बेगम - चलिए, रहने दीजिए। हमने कच्ची गोलियाँ नहीं खेली हैं। यहाँ रूह काँप रही है कि या खुदा, क्या होगा?

नवाब - होगा क्या? कुछ भी नहीं।

आखिर बेगम साहब भी बैठीं। नवाब साहब भी बैठे। हवाली-मवाली भी दूसरे हाथियों पर बैठे और हाथी झूमते हुए चले। थोड़ी देर के बाद लोग एक झील के पास पहुँचे। शिकारी ने कहा - झील में पानी कम है, हाथी निकल जाएँगे।

बेगम - क्या कहा! क्या इस समुंदर में से जाना होगा?

नवाब - अभी दम के दम में निकले जाते हैं।

बेगम - कहीं निकले न? हमें यहाँ डुबोने लाए हो? जरी हाथी का पाँव फिसला और चलिए, पानी के अंदर गोते खाने लगे।

नवाब साहब ने बहुत समझाया, तब बेगम साहब अपने हाथी को झील के अंदर डालने राजी हुई, मगर आँखें बंद कर लीं और गुल मचाया कि जल्दी निकल चलो। पाँच हाथी तो साथ-साथ चले, दो पीछे थे। नवाब साहब ने कहा - अब आँखें खोल दो, आधी दूर चले आए हैं, आधी दूर और बाकी है। बेगम ने आँखें खोलीं तो झील की कैफियत देख कर खिल उठीं। किनारों पर ऊँचे-ऊँचे दरख्त झूम रहे थे। कोई झील के पानी को चूमता था, किसी की शाखें झील की तरफ झुकी थीं। बेगम ने कहा - अब हमें डर नहीं मालूम होता। मगर अल्लाह करे, कोई शेर आज न मिले।

नवाब - खुदा न करे।

बेगम - वाह! आ जाय क्या मजाल है। हम मंतर पढ़ देंगे।

नवाब - भला आप इतनी हुई तो!

बेगम - अजी, मैं तुम सबको बनाती हूँ, डर कैसा! मगर कहीं शेर सचमुच निकल आए, तो गजब ही हो जाय। सुनते ही रोएँ खड़े होते हैं।

इस झील के उस पार कछार था और कछार में एक शेरनी अपने बच्चों को लिए बैठी थी। खेमे के आदमियों ने कहा - हुजूर, अब हाथी रोक लिए जाँय। सुरैया बेगम काँप उठीं। हाय! क्या हुआ। यह शेरनी कहाँ से निकल आई। या तो उसको कजा लाई है या हमको।

नवाब साहब ने हुक्म दिया, खेदा किया जाय। तीस आदमी बड़े-बड़े कुत्ते ले कर कछार की तरफ दौड़े। सुरेया बेगम बहुत सहमी हुई थीं। फिर भी शिकार में एक किस्म का लुत्फ भी आता था। एकाएक दूर से रोशनी दिखाई दी। बेगम ने पूछा - वह रोशनी कैसी है? नवाब बोले - शेरनी निकली होगी और शायद हमला किया हो। इसीलिए रोशनी की गई कि डर से भाग जाय।

शेरनी ने जब आदमियों की आवाज सुनी, तो घबराई। बच्चों को एक ऐसी जगह ले गई जहाँ आदमी का गुजर मुहाल था। खेदे के लोग समझे कि शेरनी भाग गई। सुरैया बेगम यह खबर सुन कर खिलखिला कर हँस पड़ीं। लो, अब खेलो शिकार, बड़े वह बन कर चले थे! हमारी दुआ और कबूल न हो?

नवाब - आज बे-शिकार किए न जायँगे। लो, कसम खाई।

नवाब साहब रईस तो थे ही, कसम खा बैठे। एक मुसाहब ने कहा - हुजूर, मुमकिन है कि शेर आज न मिले। कसम खाना ठीक नहीं।

नवाब - हम हरगिज खाना न खायँगे जब तक शेर का शिकार न करेंगे। इसमें चाहे रात हो जाय, शेर का जंगल में न मिलना कैसा?

बेगम - खुदा तुम्हारी बात रख ले।

मुसाहब - जैसी हुजूर की मर्जी।

बेगम - खुदा के लिए अब भी चले चलो। क्या तुम पर कोई जिन सवार है या किसी ने जादू कर दिया है। अब दिन कितना बाकी है?

नवाब - दिन कितना ही हो, हम शिकार जरूर करेंगे!

बेगम - तुम्हें बाएँ हाथ का खाना हराम है जो शेर का शिकार खेले बगैर जाओ।

नवाब - मंजूर! जब तक शेर का शिकार न करेंगे, खाना न खाएँगे।

बेगम - बात तो यही है, खुदा तुम्हारी बात रख ले। ओ लोगो, कोई इनको समझाओ, यह किसी का कहना नहीं मानते, कोई सलाह देने वाला भी है या नहीं?

एक मुसाहब - हुजूर ने तो कसम खा ली, लेकिन साथ के सब आदमी भूखे-प्यासे हैं, उनके हाल पर रहम कीजिए, वरना सब हलकान हो जायँगे।

नवाब - हमको किसी का गम नहीं है, कुछ परवा नहीं है। अगर आप लोग हमारे साथी हैं तो हमारा हुक्म मानिए।

बेगम - शाम होने आई, और शिकार का पता नहीं, फिर अब यहाँ ठहरना बेवकूफी है या और कुछ?

बरकत - हुजूर ही के सब काँटे बोए हैं।

इतने में खेदेवालों ने कहा - खुदाबंद, अब होशियार रहिए। शेरनी आती है। अब देर नहीं है। कछार छोड़ कर पूरब की तरफ भागी थी। हम लोगों को देख कर इस जोर से गरजी कि होश उड़ गए, अट्ठाईस आदमी साथ थे, अट्ठाईसों भाग गए। उस वक्त कदम जमाना मुहाल था। शेर का कायदा है कि जब गोली लगती है तो आग हो जाता है। फिर गोली के बाप की नहीं मानता। अगर बम का गोला भी हो तो वह इस तरह आएगा जैसे तोप का गोला आता है। और शेरनी का कायदा है कि अगर अपने बच्चों के पास हो और सारी दुनिया के गोले कोई ले कर आए तो भी मुमकिन नहीं कि उसके बच्चों पर आँच आ सके।

बेगम - बँधी है या खुली हुई है? तमाशेवाले शेरों की तरह कठघरे में बंद है न?

मुसाहब - हाँ-हाँ, साहब, बँधी हुई है।

बेगम - भला उसको बाँधा किसने होगा?

अब एक दिल्लगी सुनिए। एक हाथी पर दो बंगाली थे। उन्होंने इतना ही सुना था कि नवाब साहब शिकार के लिए जाते हैं। अगर यह मालूम होता कि शेर के शिकार को जाते हैं तो करोड़ बरस न आते। समझे थे कि झीलों में चिड़ियों का शिकार होगा। जब यहाँ आए और सुना कि शेर का शिकार है तो जान निकल गई। एक का नाम कालीचरण घोष, दूसरे का शिवदेव बोस था। इन दोनों में यों बातें होने लगी।

बोस - नवाब हमको बड़ा धोखा दिया, हम नहीं जानता था कि यह लोग हमारा दुश्मन है।

घोष - हम इनसे समझेगा। ओ शाला फील का बान, हमारे को कीधर ले जाएगा?

फीलबान ने हाथी को और भी तेज किया तो यह दोनों साहब चिल्लाए।

बोस - ओ शाला!

घोष - ओ शाला फील का बान, अच्छा हम साहब के यहाँ तुम्हारा नालिश करेगा। अरे बाबा, हम लोग जाने नहीं माँगता। शेर शाला का मुकाबिला कौन करने सकता?

फीलबान - बाबू जी, डरो नहीं। अभी तो शेर दूर है। जब हौदा पकड़ लेगा तब दिल्लगी होगी, अभी शाला-शाला कहते जाओ।

बोस - अरे भाई, तुम हमारे का बाप, हमारे का बाप का बाप, हम हाथी को फेरने माँगता। ओ शाला, तुम आरामजादा।

फीलबान - अच्छा बाबू, देते जाओ गालियाँ। खुदा की कसम, शेर के मुँह में हाथी न ले जाऊँ तो पाजी।

बोस - बाप रे बाप, हमारे को बचाओ, हम रिश्वत देगा। हमारा बाप है, माँ है, सब तुम है।

जितने आदमी साथ थे, सब हँस रहे थे। इन दोनों की घबराहट देखने काबिल थी। कभी फीलबान के हाथ जोड़ते, कभी टोपी उतार कर खुदा से दुआ माँगते थे, कभी जंगल की तरफ देख कर कहते थे - बाबा, हमारा जान लेने को हम यहाँ आया। हमारा मौत हमको यहाँ लाया। अरे बाबा, हम लोग लिखने-पढ़ने में अच्छा होता है। हम लोग बिलायत जा कर अंगरेजी सीखता है। हम कभी शेर का शिकार नहीं करता, हमारा अपना जान से बैर नहीं है। ओ फील का बान, हम खबर के कागज में तुम्हारा तारिप छापेगा।

फीलबान - आप अपनी तारीफ रहने दें।

घोष - नहीं, तुम्हारा नाम हो जायगा। बड़ा-बड़ा लोग तुम्हार नाम पढ़ेगा तो बोलेगा, यह फील का बान बड़ा होशियार है, तुम पचास-साठ का नौकर हो जायगा। हम तुमको नौकर रखा देगा।

फीलबान - पचार-साठ! इतने रुपए मैं रखूँगा कहाँ? अच्छा दूसरी शादी कर लूँगा, मगर तारीफ किस बात की लिखिएगा। जरा हाथी दौड़ाऊँ?

बोस - तुम बड़ा नटखट है। ओ शाला, तुम फिर दौड़ाया?

जब झील के करीब पहुँचे, तो दोनों बंगाली और भी डरे। घोष ने पूछा - ओ फील का बान, इस झील में कित्ता गहरा?

फीलवान ने कहा - हाथी डुबाव है?

घोष - और इस झील के अंदर से हम लोग को जाने होगा भी।

फीलबान - जी हाँ, इसी में से जाने होगा भी।

घोष - और जो हाथी का पाँव फिसल गई तो हम लो का क्या...।

फीलबान - अगर हाथी का पाँव फिसल गई तो तुम लोग का टाँग और नाक टूट जाएगा, बस और कुछ न होगा, और मुँह बिगड़ जायगी तुम लोग की।

घोष - और तुम शाला कहाँ से बचने सकेगा?

फीलबान - हम उम्र भर हाथी पर चढ़ा किए हैं। हाथी फिसले तो डर नहीं और वह जाय तो खौफ नहीं।

घोष - बाबा, तुम्हारी हाथी पानी से डरती है या नहीं? हमसे शाच-शाच कह दो।

फीलबान - तुम इतना डरता था तो आया क्यों!

घोष - अरे बाबा, गोली लगने से तो सब कोई डरता है? जान फेरके आने सकेगा नहीं।

फीलबान ने हाथी को झील में डाला, तो इन दोनों ने वह चिल्ल-पों मचाई कि कुछ न पूछो। एक बोला - हम डूब गया, तो हमारा जागीर किसके पास जायगा!

फीलबान मुसकिरा कर बोला - वहीं से सब लिख के भेज दीजिएगा।

घोष - ओ शाला, तू हमारा जान लेगा! तुम जान लेगा शाला!

फीलबान - बाबू, गोल-माल न करो, खुदा को याद करो।

घोष - गोल-माल तुम करता है कि हम करता है?

बोस - हाथी हिलेगी तो हम तुमको ढकेल देगा, तुम मर जायगा!

घोष - अरे बाबा, घूस ले-ले, हम बहुत से रुपए देने सकता।

फीलबान - अच्छा, एक हजार रुपया दीजिए तो हम हाथी को फेर दें। भले आदमी, इतना नहीं सोचते कि पाँच हाथी तो उस पार निकल गए और एक हाथी पीछे आ रहा है। किसी का बाल बाँका नहीं हुआ तो क्या आप ही डूब जायँगे! क्या जान आप ही की प्यारी है?

घोष - अरे बाबा, तुम बात न करे। तुम हाथी का ध्यान करे, जो पाँव फिसलेगी तो बड़ी गजब हो जायगा।

फीलबान - अजी, न पाँव फिसलेगी, न बड़ी गजब होगा। बस चुपचाप बैठे रहिए। बोलिए चालिए नहीं।

घोष - किस माफिक नहीं बोलेगा, जरूर करके बोलेगा, ओ शाला! तुम्हारा बाप आज ही मर जाय।

फीलबान - हमारा बाप तो कब का मर चुका, अब तुम्हारी नानी मरने की बारी है।

फीलबान ने मारे शरारत के हाथी को दो-तीन बार अंकुश लगाया, तो दोनों आदमी समझे कि बस, अब जान गई। आपस में बातें करने लगे -

घोष - आमी दुई जानी डूबी जावो।

बोस - ई, हाथीवाला बड़ो बोरू।

घोष - जोनी आए बची आज, तेखे दली कोरा आम आर शिकार खेलने जाबेना।

बोस - तुमी अमाए जाबरदस्ती नीए एछो।

घोष - आमारा प्रान भवाए आचे।

घोष - हाथी रोक ले ओ शाला!

फीलबान - बाबू जी, अब हाथी हमारे मान का नहीं। अब इसका पाँव फिसला चाहता है, जरा सँभले रहिएगा।

नवाब साहब ने दोनों आदमियों का रोना-चीखना सुना तो महावत से बोले- खबरदार जो इनको डराएगा तो तू जानेगा।

घोष - नवाब शाब, हमारा मदद करो, अब हम जाता है बैकुंठ।

महावत ने आहिस्ता से कहा - बैकुंठ जा चुके, नरक में जाओगे।

इस पर घोष बाबू बहुत बिगड़े और गालियाँ देने लगे। तुम शाला को पानी के बाहर जाके हम मार डालेगा।

महावत ने कहा - जब पानी के बाहर जा सको न।

घोष - नवाब शाब, यह शाला हमारे को गाली देता।

नवाब - गाली कैसी बाबू, आप इतना घबराते क्यों हैं?

घोष - हमारे को यह शाला गाली देते हैं।

नवाब - क्यों बे, खबरदार जो गाली-गलौज की।

फीलबान - हुजूर, मैं ऐसी सवारी से दरगुजरा, इनको चारों तरफ मौत ही मौत नजर आती है। इन्हें आप शिकार में क्यों लाए?

बोस - अरे शाले का शाला, तुम बात करेगा, या हाथी को देखेगा? अरे बाबा, अब हम ऐसी सवारी पर न आएगा।

बारे हाथी उस पार पहुँचा, तो इन दोनों की जान में जान आई। बोस बाबू बोले - नवाब शाब, हम इसी का साथ बड़ा तकलीफ पाया। यह महावत हमारा उस जन्म का बैरी है बाबा, हम ऐसा शिकार नहीं खेलना चाहता, अब हम हाथी पर से उतर जायगा।

नवाब साहब ने फीलबान को हुक्म दिया कि हाथी को बैठाओ और बाबू लोगों से कहा - अगर आप लोगों को तकलीफ होती है तो उतर जाइए। इस पर घोष और बोस दोनों सिर पीटने लगे - अरे बाबा, इस जंगल के बीच में तुम हमको छोड़के भागना माँगता। हम जायगा कहाँ? इधर जंगल, उधर जंगल। हमारे को घर पहुँचा दो।

नवाब साहब ने कहा - अगर एक हाथी को अकेला भेज दूँ तो शायद शेर या सुअर या कोई अन्य जानवर हमला कर बैठे, हाथी जख्मी हो जाय और महावत की जान पर आ बने। आप लोग गोली चलाने से रहे, फिर क्या हो?

घोष - आपको अपना हाथी प्यारा, फील का बान प्यारा, हमारा जान प्यारा नहीं। फील का बान सात-आठ रुपए का नौकर, हमर लोग हेडक्लर्की करता और क्या बात करेगा। हम जान नहीं रखता, वह जान रखता है?

नवाब - अच्छा, फिर बैठे रहो, मगर डरो नहीं।

घोष - अच्छा अब हम न बोलेगा।

बोस - कैसे न बोलेगा, तुम न बोलेगा? तुम न बोलेगा तो हम बोलेगा।

घोष - तुम शाला सुअर है। तुम क्या बोलेगा? बोलेगा तो हम तुमको कतल कर डालेगा। शाला हमारे को फाँस के लाया और अब जान लेना माँगता है।

बोस - (धोती सँभाल कर) तुम दुष्ट चुप रहो। तुम नीच कोम है।

घोष - बोलेगा तो हम हलाल करेगा।

बोस - (दाँत दिखा कर) हम तुमको दाँत काट लेगा।

घोष - अरे तुम बोके जाय शाला बोदजात, दुष्ट।

बोस - तुम नीच कोम, छोटा को, भीख माँगनेवाला सुअर।

दोनों में खूब तकरार हुई। कभी घोष ने घूँसा ताना, कभी बोस ने पैंतरा बदला; मगर दोनों में कोई वार न करता था। दोनों कुंदे तोल-तोल कर रह जाते थे। नवाब साहब ने यह हाल देखा तो चाहा कि दोनों को अलग-अलग हाथियों पर बिठाएँ, मगर घोष ने मंजूर न किया, बोले - यह हमारा देश का, हम इसका देश का, और कोई हमारा देश का नहीं।

इतने में आदमियों ने ललकार कर कहा - खबरदार, शेरनी निकली जाती है। हुक्म हुआ है कि हाथी इस तरफ बढ़ाओ। सब हाथी बढ़ाए गए। एक दरख्त की आड़ में शेरनी दो बच्चे लिए हुए दबकी खड़ी थी। नवाब साहब ने फौरन गोली सर की, वह खाली गई। नवाब साहब ने फिर बंदूक सर की, अब की गोली शेरनी के कल्ले पर जा पड़ी। गोली खाना था कि वह झल्ला कर पलट पड़ी और तोप के गोले की तरह झपटी। आते ही उसने एक हाथी को थप्पड़ लगाया तो वह चिंघाड़ कर भागा। नवाब साहब ने फिर बंदूक चलाई, मगर निशाना खाली गया। शेरनी ने उसी हाथी को जिसे थप्पड़ मारा था, कान पकड़ कर बैठा दिया। बारे चौथा निशाना ऐसा पड़ा कि शेरनी तड़प कर गिर पड़ी।

इधर तो यह कैफियत हो रही थी, उधर बंगाली बाबू दोनों हौदे के अंदर औंधे पड़े थे। आँखें दोनों हाथें से बंद कर ली थी। बेगम साहब ने उन्हें हौदे में बैठे न देखा तो पूछा - क्या वह दोनों बाबू भाग गए?

फीलबान - नहीं खुदाबंद, मैं हाथी बढ़ाए लाता हूँ।

हाथी करीब आया तो नवाब साहब दोनों बंगालियों को देख कर इतना हँसे कि पेट में बल पड़-पड़ गए।

नवाब - अब उठोगे भी या सोते ही रहोगे? बाबू जी तो बोलते ही नहीं।

बेगम - क्या अच्छे आदमी थे बेचारे!

नवाब - मगर चल बसे। अभी बातें कर रहे थे।

बेगम - अब कुछ कफन-दफन की फिक्र करोगे या नहीं।

फीलबान ने कंधा पकड़ कर हिलाया तो बोस बाबू उठे। उठते ही शेरनी की लाश देखी, तो काँप कर बोले - नवाब शाब, शाच-शाच बोलो कि यह मिट्टी का शेर है या ठीक-ठीक शेर है? हम समझ गया कि मिट्टी का है।

नवाब - आप तो हैं पागल।

घोष - आप लोग जान को कुछ नहीं समझता?

बोस - ये लोग गँवार हैं। हम लोग एम.ए.,बी.ए. पास करता है। हम लोग बहुत सा बात ऐसा करता है कि आप लोग नहीं करने सकता।

नवाब - अच्छा, अब हाथी से तो उतरो।

फीलबान - बाबू साहब, शेरनी तो मर गई; अब क्या डर है।

दोनों बाबुओं ने हाथी से उतर कर शेरनी की तरफ देखना शुरू किया, मगर आगे कोई नहीं बढ़ता।

बोस - आगे बढ़ो महाशाई।

घोष - तुम्हीं बढ़ो, तुम बड़ा मर्द है तो तुम बढ़े।

नवाब - बढ़ना नहीं। खबरदार, बढ़े और शेर खा गया।

घोष - बाबा, अब चाहे जान जाता रहे, पर हम उसके पास जरूर करके जायगा।

यह कह कर आप आगे बढ़े, मगर फिर उलटे पाँव भागे और पीछे फिर कर भी न देखा।

***