आजाद-कथा - खंड 2 - 82 Munshi Premchand द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आजाद-कथा - खंड 2 - 82

आजाद-कथा

(खंड - 2)

रतननाथ सरशार

अनुवाद - प्रेमचंद

प्रकरण - 82

सुरैया बेगम चोरी के बाद बहुत गमगीन रहने लगीं। एक दिन अब्बासी से बोलीं - अब्बासी, दिल को जरा तकसीन नहीं होती अब हम समझ गए कि जो बात हमारे दिल में है वह हासिल न होगी।

शीशा हाथ आया न हमने कोई सागर पाया;साकिया ले तेरी महफिल से चले भर पाया।सारी खुदाई में हमारा कोई नहीं।

अब्बासी ने कहा - बीबी, आज तक मेरी समझ में न आया कि वह, जिसके लिए आप रोया करती हैं, कौन हैं? और यह जो आजाद आए थे, यह कौन हैं। एक दिन बाँकी औरत के भेष में आए, एक दिन गोसाई बनके आए।

सुरैया बेगम ने कुछ जवाब न दिया। दिल ही दिल में सोची कि जैसा किया वैसा पाया। आखिर हुस्नआरा में कौन सी बात है जो हममें नहीं। फर्क यही है कि वह नेकचलन हैं और मैं बदनाम।

यह सोच कर उनकी आँखें भर आईं, जी भारी हो गया। गाड़ी तैयार कराई और हवा खाने चलीं। रास्ते में सलारू और उसकी वकील साहब नजर पड़े। सलारू कह रहा था - जनाब, हम वह नौकर हैं जो बाप बनके मालिक के यहाँ रहते हैं। आपको हमारी इज्जत करनी चाहिए। इत्तिफाक से वकील साहब की नजर इस गाड़ी पर पड़ी। बोले - खैर बाप पीछे बन लेना जरी जा कर देखो तो, इस गाड़ी में कौन सवार है? सलारू ने कहा, हुजूर, मैं फटेहालों हूँ, कैसे जाऊँ! आप भारी-भरकम आदमी हैं, कपड़े भी अच्छे-अच्छे पहने हैं। आप ही जायँ। वकील साहब ने नजदीक आ कर कोचवान से पूछा - किसकी गाड़ी है? कोचवान पंजाब का रहने वाला पठान था। झल्ला कर बोला - तुमसे क्या वास्ता, किसी की गाड़ी है!

सलारू बोले - हाँ जी, तुमको इससे क्या वास्ता कि किसकी गाड़ी है? हट जाओ रास्ते से। देखते हैं कि सवारियाँ हैं, मगर डटे खड़े हैं। अभी जो कोई उनका अजीज साथ होता तो उतर के इतना ठोकता कि सिट्टी-पिट्टी भूल जाती। तुम वहाँ खड़े होनेवाले कौन हो?

वकील साहब को एक तो यही गुस्सा था कि कोचवान ने डपटा, उस पर सलारू ने पाजी बनाया। लाल-लाल आँखों से घूर कर रह गए, पाते तो खा ही जाते।

सलारू - यह तो न हुआ कि कोचवान को एक डंडा रसीद करते। उलटे मुझ पर बिगड़ रहे हो।

कोचवान चाहता था कि उतर कर वकील साहब की गरदन नापे, मगर सुरैया बेगम ने कोचवान को रोक लिया और कहा - घर लौट चलो।

बेगम साहब जब घर पहुँचीं तो दारोगा जी ने आ कर कहा कि हुजूर, घर से आदमी आया है। मेरा पोता बहुत बीमार है। मुझे हुजूर, रुखसत दो। यह लाला खुशवक्त राय मेरे पुराने दोस्त हैं, मेरी एवज काम करेंगे।

सुरैया बेगम ने कहा - जाइए, मगर जल्द आइएगा।

दूसरे दिन सुरैया बेगम ने लाला खुशवक्तराय से हिसाब माँगा। लाला साहब पुराने फैशन की दस्तार बाँधे, चपकन पहने, हाथ में कलमदान लिए आ पहुँचे।

सुरैया बेगम - लाला, क्या सरदी मालूम होती है, या जूड़ी आती है, लेहाफ दूँ।

लाला साहब - हुजूर, बारहों महीने इसी पोशाक में रहता हूँ। नवाब साहब के वक्त में उनके दरबारियों की यही पोशाक थी। अब वह जमाना कहाँ, वह बात कहाँ, वह लोग कहाँ। मेरे वालिद 6 रुपया माहवारी तलब पाते थे। मगर बरकत ऐसी थी कि उनके घर के सब लोग बड़े आराम से रहते थे। दरवाजे पर दो दस्ते मुकर्रर थे। बीस जवान। अस्तबल में दो घोड़े। फीलखाने में एक मादा हाथी! एक जमाना वह था कि दरवाजे पर हाथी झूमता था। अब वह कोने में जान बचाए बैठे हैं।

यह कहते-कहते लाला साहब नवाब साहब की याद करके रोने लगे।

एकाएक महरी ने आ कर कहा - हुजूर, आज फिर लुट गए। लाला साहब भी पगड़ी सँभालते हुए चले। सुरैया बेगम झपटी कि चल कर देखें तो, मगर मारे रंज के चलना मुश्किल हो गया। जिस कोठरी में लाला साहब सोए थे उसमें सेंध लगी हैं। सेंध देखते ही रोएँ खड़े हो गए। रो कर बोलीं - बस अब कमर टूट गई। मुहल्ले में हलचल मच गई। फिर थानेदार साहब आ पहुँचे, तहकीकात होने लगी।

थानेदार रात को इस कोठरी में कौन सोया था?

लाला साहब - मैं! ग्यारह बजे से सुबह तक।

थानेदार - तुम्हें किस वक्त मालूम हुआ कि सेंध लगी।

लाला साहब - दिन चढ़े।

थानेदार - बड़े ताज्जुब की बात है कि रात को कोठरी में आदमी सोए, उसके कल्ले पर सेंध दी जाय ओर उसको जरा भी खबर न हो। आप कितने दिनों से यहाँ नौकर हैं? आपको पहले कभी न देखा।

लाला साहब - मैं अभी दो ही दिन का नौकर हूँ। पहले कैसे देखते।

सुरैया बेगम की रूह काँप रही थी कि खुदा ही खैर करे। माल का माल गया और यह कंबख्त इज्जत का अलग गाहक है। खैर, थानेदार साहब तो तहकीकात करके लंबे हुए। इधर सुरैया बेगम मारे गम के बीमार पड़ गईं। कई दिन तक इलाज होता रहा, मगर कुछ फायदा न हुआ। आखिर एक दिन घबरा कर हुस्नआरा को एक खत लिखवाया जिसमें अपनी बेकरारी का रोना रोने के बाद आजाद का पता पूछा था और हुस्नआरा को अपने यहाँ मुलाकात करने के लिए बुलाया था। हुस्नआरा बेगम के पास यह खत पहुँचा तो दंग हो गईं। बहुत सोच-समझ कर खत का जवाब लिखा।

'बेगम सहब की खिदमत में आदाब!

आपका खत आया, अफसोस! तुम भी उसी मरज में गिरफ्तार हो। आपसे मिलने का शौक तो है, मगर आ नहीं सकती, अगर तुम आ जाओ तो दो घड़ी गम-गलत हो। आजाद का हाल इतना मालूम है कि रूम की फौज में अफसर हैं। सुरैया बेगम, सच कहती हूँ कि अगर बस चलता तो इसी दम तुम्हारे पास जा पहुँचती। मगर खौफ है कि कहीं मुझे लोग ढीठ न समझने लगें।

तुम्हारी

हुस्नआरा'

यह खत लिख कर अब्बासी को दिया। अब्बासी खत ले कर सुरैया बेगम के मकान पर पहुँची, तो देखा कि वह बैठी रो रही हैं।

अब सुनिए कि वकील साहब ने सुरैया बेगम की टोह लगा ली। दंग हो गए कि या खुदा, यह यहाँ कहाँ। घर जा कर सलारू से कहा। सलारू ने सेचा, मियाँ पागल तो हैं ही, किसी औरत पर नजर पड़ी होगी, कह दिया शिब्बोजान हैं। बोला - हुजूर, फिर कुछ फिक्र कीजिए। वकील साहब ने फौरन खत लिखा -

'शिब्बोजान, तुम्हारे चले जाने से दिल पर जो कुछ गुजरी, दिल ही जानता हो। अफसोस, तुम बड़ी बेमुरव्वत निकलीं। अगर जाना ही था तो मुझसे पूछ कर गई होतीं। यह क्या कि बिना कहे सुने चल दीं, अब खैर इसी में है कि चुपके से चली आओ। जिस तरह किसी को कानोंकान खबर न हुई और तुम चल दीं, उसी तरह अब भी किसी से कहो न सुनो, चुपचाप चली आओ। तुम खूब जानती हो कि मैं नामीगिरानी वकील हूँ।

तुम्हारा

वकील'

सलारू ने कहा - मियाँ, खूब गौर करके लिखना और नहीं हम एक बात बतावें। हमको भेज दीजिए, मैं कहूँगा, बीबी, वह तो मालिक हैं, पहले उनके गुलाम से तो बहस कर लो। गो पढ़ा-लिखा नहीं हूँ; मगर उम्र भर लखनऊ में रहा हूँ!

वकील साहब ने सलारू को डाँटा और खत में इतना और बढ़ा दिया, अगर चाहूँ तो तुमको फँसा दूँ। लेकिन मुझसे यह न होगा। हाँ, अगर तुमने बात न मानी तो हम भी दिक करेंगे।

यह खत लिख कर एक औरत के हाथ सुरैया बेगम के पास भेज दिया। बेगम ने लाला साहब से कहा - जरा यह खत पढ़िए तो। लाला साहब ने खत पढ़ कर कहा, यह तो किसी पागल का लिखा मालूम होता है। वह तो खत पढ़ कर बाहर चले गए और सुरैया बेगम सोचने लगीं कि अब क्या किया जाय? यह मूजी बेतरह पीछे पड़ा। सबेरे लाला खुशवक्त राय सुरैया बेगम की डयोढ़ी पर आए तो देखा कि यहाँ कुहराम मचा हुआ है। सुरैया बेगम और अब्बासी का कहीं पता नहीं। सारा महल छान डाला गया, मगर बेगम साहब का पता न चला। लाला साहब ने घबरा कर कहाँ - जरा अच्छी तरह देखो, शायद दिल्लगी में कहीं छिप रही हों। गरज सारे घर में तलाशी की, मगर बेफायदा।

लाला साहब - यह तो अजीब बात है। आखिर दोनों चली कहाँ गईं? जरा असबाब-वसबाब तो देख लो, है या सब ले-देके चल दीं।

लोगों ने देखा कि जेवर का नाम भी न था। जवाहिरात और कीमती कपड़े सब नदारद।

***