आजाद-कथा - खंड 2 - 76 Munshi Premchand द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आजाद-कथा - खंड 2 - 76

आजाद-कथा

(खंड - 2)

रतननाथ सरशार

अनुवाद - प्रेमचंद

प्रकरण - 76

आजाद को साइबेरिया भेज कर मिस क्लारिसा अपने वतन को रवाना हुई और रास्ते में एक नदी के किनारे पड़ाव किया। वहाँ की आब-हवा उसको ऐसी पसंद आई कि कई दिन तक उसी पड़ाव पर शिकार खेलती रही। एक दिन मिस-कलरिसा ने सुबह को देखा कि उसके खेमे के सामने एक दूसरा बहुत बड़ा खेमा खड़ा हुआ है। हैरत हुई कि या खुदा, यह किसका सामान है। आधी रात तक सन्नाटा था, एकाएक खेमे कहाँ से आ गए! एक औरत को भेजा कि जा कर पता लगाए कि ये कौन लोग है। वह औरत जो खेमे में गई तो क्या देखती है कि एक जवाहिरनिगार तख्त पर एक हूरों को शरमाने वाली शाहजादी बैठी हुई है। देखते ही दंग हो गई। जा कर मिस क्लारिसा से बोली - हुजूर, कुछ न पूछिए, जो कुछ देखा, अगर ख्वाब नहीं तो जादू जरूर है। ऐसी औरत देखी कि परी भी उसकी बलाएँ ले।

क्लारिसा - तुमने कुछ पूछा भी कि हैं कौन?

लौंडी - हुजूर, मुझ पर तो ऐसा रोब छाया कि मुँह से बात ही न निकली। हाँ, इतना मालूम हुआ कि एक रईसजादी है और सैर करने के लिए आई है।

इतने में वह औरत खेम से बाहर निकल आई। क्लारिसा ने झुक कर उसको सलाम किया और चाहा कि बढ़ कर हाथ मिलाएँ, मगर उसने क्लारिसा की तरफ तेज निगाहों से देख कर मुँह फेर लिया। वह कोहीक्राफ की परी मीडा थीं। जब से उसे मालूम हुआ कि क्लारिसा ने आजाद को साइबेरिया भेजवा दिया है, वह उसके खून की प्यासी हो रही थी। इस वक्त क्लारिसा को देखकर उसके दिल ने कहा कि ऐसा मौका फिर हाथ न आएगा, मगर फिर सोचा कि पहले नरमी से पेश आऊँ। बातों-बातों में सारा माजरा कह सुनाऊँ, शायद कुछ पसीजे।

क्लारिसा - तुम यहाँ क्या करने आई हो?

मीडा - मुसीबत खींच लाई है, और क्या कहूँ। लेकिन आप यहाँ कैसे आईं?

क्लारिसा - मेरा भी वही हाल है। वह देखिए, सामने जो कब्र है उसी में वह दफन है जिसकी मौत ने मेरी जिंदगी को मौत से बदतर बना दिया है। हाय! उसकी प्यारी सूरत मेरी निगाह के सामने हैं, मगर मेरे सिवा किसी को नजर नहीं आती।

मीडा - मैं भी उसी मुसीबत में गिरफ्तार हूँ। जिस जवान को दिल दिया, जान दी, ईमान दिया, वह अब नजर नहीं आता, उसको एक जालिम बागवान ने बाग से जुदा कर दिया। खुदा जाने, वह गरीब किन जंगलों में ठोकरें खाता होगा।

क्लारिसा - मगर तुम्हें यह तसकीन तो हैं कि तुम्हारा यार जिंदा है और कभी न कभी उससे मुलाकात होगी। मैं तो उसके नाम को रो चुकी। मेरे और उसके माँ-बाप शादी करने पर राजी थे, हम खुश थे कि दिल की मुरादें पूरी होंगी, मगर शादी के एक ही दिन पहले आसमान टूट पड़ा, मेरे प्यारे को फौज में शरीक होने का हुक्म मिला। मैंने सुना तो जान सी निकल गई। लाख समझाया, मगर उसने एक न सुनी। जिस रोज यहाँ से रवाना हुआ, मैंन खूब मातम किया और रुखसत हुई। यहाँ रात-दिन उसकी जुदाई में तड़पा करती थी, मगर अखबारों में लड़ाई के हाल पढ़ कर दिल को तसल्ली देती थी। एका-एक अखबार में पढ़ा कि उसकी एक तुर्की पाशा से तलवार चली, दोनों जख्मी हुए, पाशा तो बच गया, मगर वह बेचारा जान से मारा गया। उस पाशा का नाम आजाद है। यह खबर सुनते ही मेरी आँखों में खून उतर आया, दिल में ठान लिया कि अपने प्यारे के खून का बदला आजाद से लूँगी। यह तय करके यहाँ से चली और जब आजाद मेरे हाथों से बच गया तो मैंने उसे साइबेरिया भेजवा दिया।

मीडा यह सुन कर बेहोश हो गई।

***