औरत ज़ात Saadat Hasan Manto द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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औरत ज़ात

औरत ज़ात

महाराजा ग से रेस कोर्स पर अशोक की मुलाक़ात हुई। इस के बाद दोनों बेतकल्लुफ़ दोस्त बन गए।

महाराजा ग को रेस के घोड़े पालने का शौक़ ही नहीं ख़बत था। उस के अस्तबल में अच्छी से अच्छी नसल का घोड़ा मौजूदत था। और महल में जिस के गुन्बद रेस कोर्स से साफ़ दिखाई देते थे। तरह तरह के अजाइब मौजूद थे।

अशोक जब पहली बार महल में गया तो महाराजा ग ने कई घंटे सर्फ़ करके उसको अपने तमाम नवादिर दिखाए। ये चीज़ें जमा करने में महाराजा को सारी दुनिया का दौरा करना पड़ा था। हर मुल्क का कोना कोना छानना पड़ा था। अशोक बहुत मुतअस्सिर हुआ। चुनांचे उस ने नौजवान महाराजा ग के ज़ौक़-ए-इंतिख़ाब की ख़ूब दाद दी।

एक दिन अशोक घोड़ों के टप लेने के लिए महाराजा के पास गया। तो वो डार्क रुम में फ़िल्म देख रहा था। उस ने अशोक को वहीं बुलवा लिया। सकीटन मिलीमीटर फ़िल्म थे जहाँ महाराजा ने ख़ुद अपने कैमरे से लिए थे। जब प्रोजैक्टर चला तो पिछली रेस पूरी की पूरी पर्दे से दौड़ गई। महाराजा का घोड़ा इस रेस में वन आया था।

इस फ़िल्म के बाद महाराजा ने अशोक की फ़र्माइश पर और कई फ़िल्म दिखाए। स्विटज़रलैंड, पैरिस, न्यूयार्क, हूनू लूलू, हवाई, वादी-ए-कश्मीर........ अशोक बहुत महज़ूज़ हुआ ये फ़िल्म क़ुदरती रंगों में थे।

अशोक के पास भी सकीटन मिलीमीटर कैमरा और प्रोजैक्टर था। मगर उस के पास फिल्मों का इतना ज़ख़ीरा नहीं था। दरअसल उस को इतनी फ़ुर्सत ही नहीं मिलती थी कि अपना ये शौक़ जी भर के पूरा करसके।

महाराजा जब कुछ फ़िल्म दिखा चुका तो उस ने कैमरे में रोशनी की और बड़ी बेतकल्लुफ़ी से अशोक की रान पर धप्पा मार कर कहा। “और सुनाओ दोस्त।”

अशोक ने सिगरेट सुलगाया “मज़ा आगया फ़िल्म देख कर”

“और दिखाऊँ”

“नहीं नहीं”

“नहीं भई एक ज़रूर देखो........ मज़ा आजाएगा तुम्हें” ये कह कर महाराजा ग ने एक सन्दूकचा खोल कर एक रील निकाली और प्रोजैक्टर पर चड़ा दी “ज़रा इत्मिनान से देखना”

अशोक ने पूछा “क्या मतलब?”

महाराजा ने कमरे की लाईट औफ़ कर दी “मतलब ये कि हर चीज़ ग़ौर से देखना ये कह कर उस ने प्रोजैक्टर का सोइच दबा दिया।”

पर्दे पर चंद लमहात सिर्फ़ सफ़ैद रोशनी थरथराती रही, फिर एक दम तस्वीरें शुरू होगईं। एक अलिफ़ नंगी औरत सोफे पर लेटी थी। दूसरी सिंगार मेज़ के पास खड़ी अपने बाल संवार रही थी।

अशोक कुछ देर ख़ामोश बैठा देखता रहा........ इस के बाद एक दम उसके हलक़ से अजीब-ओ-ग़रीब आवाज़ निकली। महाराजा ने हंस कर उस से पूछा “क्या हुआ?”

अशोक के हलक़ से आवाज़ फंस फंस कर बाहर निकली “बंद करो यार बंद करो।”

“क्या बंद करो?”

अशोक उठने लगा महाराजा ग ने उसे पकड़ कर बिठा दिया “ये फ़िल्म तुम्हें पूरे का पूरा देखना पड़ेगा।”

फ़िल्म चलता रहा। पर्दे पर ब्रहंगी मुँह खोले नाचती रही। मर्द और औरत का जिन्सी रिश्ता मादरज़ाद उर्यानी के साथ थिरकता रहा। अशोक ने सारा वक़्त बेचैनी में काटा। जब फ़िल्म बंद हुआ और पर्दे पर सिर्फ़ सफ़ैद रोशनी थी तो अशोक को ऐसा महसूस हुआ कि जो कुछ उस ने देखा था। प्रोजैक्टर की बजाय उसकी आँखें फेंक रही हैं।

महाराजा ग ने कमरे की लाईट ऑन की और अशोक की तरफ़ देखा और एक ज़ोर का क़हक़हा लगाया। “क्या होगया है तुम्हें?”

अशोक कुछ सिकुड़ सा गया था। एक दम रोशनी के बाइस उसकी आँखें भींची हुई थीं। माथे पर पसीने के मोटे मोटे क़तरे थे। महाराजा ग ने ज़ोर से उस की रान पर धप्पा मारा। और इस क़दर बेतहाशा हंसा कि उसकी आँखों में आँसू आगए। अशोक सोफे पर से उठा। रूमाल निकाल कर अपने माथे का पसीना पोंछा। “कुछ नहीं यार।”

“कुछ नहीं क्या........ मज़ा नहीं आया”

अशोक का हलक़ सूखा हुआ था। थूक निगल कर उस ने कहा। “कहाँ से लाए ये फ़िल्म?”

महाराजा ने सोफे पर लेटते हुए जवाब दिया “पैरिस से ........ पेरी........ पेरी!”

अशोक ने सर को झटका सा दिया। “कुछ समझ में नहीं आता”

“क्या?”

“ये लोग........ मेरा मतलब है कैमरे के सामने ये लोग कैसे........ ”

“यही तो कमाल है........ है कि नहीं?”

“है तो सही।” ये कह कर अशोक ने रूमाल से अपनी आँखें साफ़ कीं। “सारी तस्वीरें जैसे मेरी आँखों में फंस गई हैं।”

महाराजा ग उठा। “मैंने एक दफ़ा चंड लेडीज़ को ये फ़िल्म दिखाया”

अशोक चिल्लाया। “लेडीज़ को?”

“हाँ हाँ........ बड़े मज़े ले ले कर देखा उन्हों ने”

“ग़लत”

महाराजा ने बड़ी संजीदगी के साथ कहा। “सच्च कहता हूँ........ एक दफ़ा देख कर दूसरी दफ़ा फिर देखा। भींचती, चिल्लाती और हंसती रहीं।”

अशोक ने अपने सर को झटका सा दिया “हद होगई है........ मैं तो समझता था वो.... बेहोश होगई होंगी।”

“मेरा भी यही ख़्याल था, लेकिन उन्हों ने ख़ूब लुत्फ़ उठाया।”

अशोक ने पूछा “क्या यूरोपीयन थीं?”

महाराजा ग ने कहा। “नहीं भाई........ अपने देस की थीं........ मुझ से कई बार ये फ़िल्म और प्रोजैक्टर मांग कर ले गईं........ मालूम नहीं कितनी सहेलीयों को दिखा चुकी हैं........ ”

“मैंने कहा........ ” अशोक कुछ कहते कहते रुक गया

“क्या?”

“एक दो रोज़ के लिए ये फ़िल्म दे सकते हो मुझे?”

“हाँ हाँ ले जाओ!” ये कह कर महाराजा ने अशोक की पसलीयों में ठोंका दिया। “साले किस को दिखाएगा।”

“दोस्तों को”

“दिखा जिस को भी तेरी मर्ज़ी!” ये कह कर महाराजा ग ने प्रोजैक्टर में से फ़िल्म का असपोल निकाला। उस को दूसरे असपोल चढ़ा दिया और डिब्बा अशोक के हवाले कर दिया। “ले पकड़........ऐश कर!”

अशोक ने डिब्बा हाथ में ले लिया तो उस के बदन में झुरझरी सी दौड़ गई। घोड़ों के टप लेना भूल गया और चंद मिनट इधर उधर की बातें करने के बाद चला गया।

घर से प्रोजैक्टर ले जा कर उस ने कई दोस्तों कोय फ़िल्म दिखाया। तक़रीबन सब के लिए इंसानियत की ये उर्यानी बिलकुल नई चीज़ थी। अशोक ने हर एक का रद्द-ए-अमल नोट किया। बाअज़ ने ख़फ़ीफ़ सी घबराहट और फ़िल्म का एक एक इंच ग़ौर से देखा। बाअज़ ने थोड़ा सा देख कर आँखें बंद करलीं। बाअज़ आँखें खुली रखने के बावजूद फ़िल्म को तमाम-ओ-कमाल तौर पर न देख सके। एक बर्दाश्त न कर सका और उठ कर चला गया।

तीन चार रोज़ के बाद अशोक को फ़िल्म लौटाने का ख़्याल आया तो उस ने सोचा क्यों ना अपनी बीवी को दिखाऊँ चुनांचे वो प्रोजैक्टर अपने घर ले गया। रात हुई तो उस ने अपनी बीवी को बुलाया। दरवाज़े बंद किए। प्रोजैक्टर का कनैक्शन वग़ैरा ठीक किया। फ़िल्म निकाला। उस को फुट किया। कमरे की बत्ती बुझाई और फ़िल्म चला दिया।

पर्दे पर चंद लमहात सफ़ैद रोशनी थरथराई। फिर तस्वीरें शुरू हुई। अशोक की बीवी ज़ोर से चीख़ी। तड़पी। उछली। उसके मुँह से अजीब-ओ-ग़रीब आवाज़ निकलीं। अशोक ने उसे पकड़ कर बिठाना चाहा तो इस ने आँखों पर हाथ रख लिए और चीख़ना शुरू कर दिया। “बंद करो........ बंद करो”

अशोक ने हंस कर कहा “अरे भई देख लो........ शरमाती क्यों हो”

“नहीं नहीं” ये कह कर उस ने हाथ छुड़ा कर भागना चाहा

अशोक ने उसको ज़ोर से पकड़ लिया वो हाथ जो उसकी आँखों पर था। एक तरफ़ खींचा। इस खींचातानी में दफ़अतन अशोक की बीवी ने रोना शुरू कर दिया। अशोक के ब्रेक से लग गई। उस ने तो महज़ तफ़रीह की ख़ातिर अपनी बीवी को फ़िल्म दिखाया था।

रोती और बड़बड़ाती उसकी बीवी दरवाज़ा खोल कर बाहर निकल गई। अशोक चंद लमहात बिलकुल ख़ालीउज़्ज़हन बैठा नंगी तस्वीरें देखता रहा। जो हैवानी हरकात में मशग़ूल थीं, फिर एक दम इस ने मुआमला की नज़ाकत को महसूस किया। इस एहसास ने उसे ख़जालत के समुंद्र में ग़र्क़ कर दिया........ उस ने सोचा मुझ से बहुत ही नाज़ेबा हरकत सरज़द हुई। लेकिन हैरत है कि मुझे इस का ख़्याल तक न आया........ दोस्तों को दिखाया था। ठीक था। घर में और किसी को नहीं, अपनी बीवी........ अपनी बीवी को........ इस के माथे पर पसीना आगया।

फ़िल्म चल रहा था। मादर ज़ाद ब्रहंगी मुख़्तलिफ़ आसन इख़्तियार करती दौड़ रही थी। अशोक ने उठ कर सोइच औफ़ कर दिया........ पर्दे पर सब कुछ बुझ गया। मगर उस ने अपनी निगाहें दूसरी तरफ़ फेर लीं। उस का दिल-ओ-दिमाग़ शर्मसारी में डूबा हुआ था। ये एहसास उस को चुभ रहा था कि उस से एक निहायत ही नाज़ेबा........ निहायत ही वाहीयात हरकत सरज़द हुई। उस ने यहां तक सोचा कि वो कैसे अपनी बीवी से आँख मिला सकेगा।

कमरे में घुप अंधेरा था। एक सिगरेट सुलगा कर उस ने एहसास-ए-नदामत को मुख़्तलिफ़ ख़्यालों के ज़रीया से दूर करने की कोशिश की। मगर कामयाब न हुआ। थोड़ी देर दिमाग़ में इधर उधर हाथ मारता रहा। जब चारों तरफ़ से सरज़निश हुई तो ज़च बच होगया। और एक अजीब सी ख़्वाहिश उसके दिल में पैदा हुई कि जिस तरह कमरे में अंधेरा है इसी तरह उसके दिमाग़ पर भी अंधेरा छा जाये।

बार बार उसे ये चीज़ सता रही थी। “ऐसी वाहीयात हरकत और मुझे ख़्याल तक न आया।”

फिर वो सोचता बात अगर सास तक पहुंच गई........ सालियों को पता चल गया। मेरे मुतअल्लिक़ क्या राय क़ायम करेंगे ये लोग कि ऐसे गिरे हुए अख़लाक़ का आदमी निकला........ ऐसी गंदी ज़हनीयत कि अपनी बीवी को........

तंग आकर अशोक ने सिगरेट सुलगाया। वो नंगी तस्वीरें जो वो कई बार देख चुका था उसकी आँखों के सामने नाचने लगीं........ उन के अक़ब में उसे अपनी बीवी का चेहरा नज़र आता। हैरान-ओ-परेशान, जिस ने ज़िंदगी में पहली बार उफ़ूनत का इतना बड़ा ढेर देखा हो। सर झटक कर अशोक उठा और कमरे में टहलने लगा। मगर इस से भी उस का इज़्तिराब दूर न हुआ।

थोड़ी देर के बाद वो दबे पांव कमरे से बाहर निकला। साथ वाले कमरे में झांक कर देखा। उसकी बीवी मुँह सर लपेट कर लेटी हुई थी। काफ़ी देर खड़ा सोचता रहा। कि अंदर जा कर मुनासिब-ओ-मौज़ूं अल्फ़ाज़ में इस से माफ़ी मांगे। मगर ख़ुद में इतनी जुर्रत पैदा न कर सका। दबे पांव लौटा और अंधेरे कमरे में सोफे पर लेट गया। देर तक जागता रहा, आख़िर सो गया।

सुबह सवेरे उठा। रात का वाक़्य इस के ज़हन में ताज़ा होगया। अशोक ने बीवी से मिलना मुनासिब न समझा और नाश्ता किए बग़ैर निकल गया।

ऑफ़िस में उस ने दिल लगा कर कोई काम न किया। ये एहसास उस के दिल-ओ-दिमाग़ के साथ चिपक कर रह गया था। “ऐसी वाहीयात हरकत और मुझे ख़्याल तक न आया।”

कई बार उस ने घर बीवी को टेलीफ़ोन करने का इरादा किया मगर हर बार नंबर के आधे हिन्दसे घुमा कर रीसीवर रख दिया। दोपहर को घर से जब उस का खाना आया। तो उस ने नौकर से पूछा “मेमसाहब ने खाना ख़ालिया?”

नौकर ने जवाब दिया। “जी नहीं........ वो कहीं बाहर गए हैं।”

“कहाँ?”

“मालूम नहीं साहब!”

“कब गए थे?”

“ग्यारह बजे”

अशोक का दिल धड़कने लगा। भूक ग़ायब होगई। दो चार नवाले खाए और हाथ उठा लिया। उसके दिमाग़ में हलचल मच गई थी। तरह तरह के ख़्यालात पैदा हो रहे थे........। ग्यारह बजे........ अभी तक लौटी नहीं........ गई कहाँ है........ माँ के पास? क्या वो उसे सब कुछ बता देगी?........ ज़रूर बताएगी। माँ से बेटी सब कुछ कह सकती है........ हो सकता है बहनों के पास गई हो........ सुनेंगी तो क्या कहेंगी?........ दोनों मेरी कितनी इज़्ज़त करती थीं। जाने बात कहाँ से कहाँ पहुंचेगी........ ऐसी वाहीयात हरकत और मुझे ख़्याल तक न आया........

अशोक ऑफ़िस से बाहर निकल गया। मोटर ली और इधर उधर आवारा चक्कर लगाता रहा। जब कुछ समझ में न आया तो इस ने मोटर का रुख़ घर की तरफ़ फेर दिया। “देखा जाएगा जो कुछ होगा।”

घर के पास पहुंचा तो इस का दिल ज़ोर ज़ोर से धड़कने लगा। जब लिफ़्ट एक धचके के साथ ऊपर उठी तो उस का दिल उछल कर इस के मुँह में आगया।

लिफ़्ट तीसरी मंज़िल पर रुकी। कुछ देर सोच कर इस ने दरवाज़ा खोला। अपने फ़्लैट के पास पहुंचा तो उस के क़दम रुक गए। उस ने सोचा कि लोट जाये। मगर फ़्लैट का दरवाज़ा खुला और उस का नौकर बीड़ी पीने के लिए बाहर निकला। अशोक को देख कर उस ने बीड़ी हाथ में छुपाई और सलाम किया। अशोक को अंदर दाख़िल होना पड़ा।

नौकर पीछे पीछे आरहा था। अशोक ने पलट कर इस से पूछा। “मेमसाहब कहाँ हैं?”

नौकर ने जवाब दिया। “अंदर कमरे में?”

“और कौन है?”

“उन की बहनें साहब........ कोलाबे वाले साहब की मेमसाहब और वो पार्टी बाईआं!”

ये सुन कर अशोक बड़े कमरे की तरफ़ बढ़ा। दरवाज़ा बंद था। इस ने धक्का दिया। अंदर से अशोक की बीवी की पतली मगर तेज़ आवाज़ आई “कौन है?”

नौकर बोला “साहब”

अंदर कमरे में एक दम गड़बड़ शुरू होगई। चीख़ें बुलंद हुईं। दरवाज़ों की चटख़ीयाँ खुलने की आवाज़ें आएं। खट खट फट फट हुई। अशोक कोरी डोर से होता पिछले दरवाज़े से कमरे में दाख़िल हुआ तो उस ने देखा कि प्रोजैक्टर चल रहा और पर्दे पर दिन की रोशनी में धुँदली धुँदली इंसानी शक्लें एक नफ़रतअंगेज़ मकानिकी यक आहंगी के साथ हैवानी हरकात में मशग़ूल हैं।

अशोक बेतहाशा हँसने लगा।

4जून1950-ई-