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शायद, मैं डरती हूँ

शायद, मैं डरती हूँ

यह कहानी है अदिति की। अपनी ज़िन्दगी में मदमस्त रहने वाली अदिति, अपने नाम की तरह स्वछंद ज़िन्दगी जीती थी, उसे किसी व्यक्ति विशेष से न तो कोई लगाव था, न ही उसे दुनिया की फ़िक्र थी। सुबह हैडफ़ोन के साथ ज़िन्दगी शुरू करके जो निकलती, फिर दुनिया की सारी ख़ुशी उसकी कल्पना की डोर में बँध कर उसके साथ हो जाती। उसकी बस एक ही आदत थी, वह सोचती ज़्यादा थी। दुनिया के हर तौर तरीके को बदलने वाली अदिति एक दिन खुद बहुत गहरी सोच में डूबी थी, एक अप्रत्याशित घटना ने उसके लिए काफी कुछ बदला था, मगर इससे ज़्यादा वो काफी कुछ सोचने पर मजबूर हो गयी थी।

अपने पैरों पर खड़े होने के सपने के साथ अदिति एक नए शहर में तो जा पहुँची, मगर शहर कितना ही बड़ा हो, हर व्यक्ति का नज़रिया अच्छा और सोच उतनी बड़ी नहीं होती। कई छोटी-छोटी समस्याएँ थीं, जिन्हें वह चाह कर भी सुलझा नहीं पा रही थी।एक रोज़ अपने ऑफिस से निकलते ही सबसे पहले उसने बस का रुख किया। मगर बस कहाँ हर गली-गली तक पहुँचती है, आख़िरकार रोज़ाना की तरह वह बस स्टॉप से बाहर निकल कर शटल ऑटो के लिए पहुँची। ऑटो में कोई नहीं था, मगर ये तो हर कभी हो जाता था। वैसे भी जहाँ आपको जाना है, वहाँ के लिए अगर एक बार में आपको ऑटो मिल जाये, तो शायद आप उस दिन के लिए भाग्यवान हैं। ट्रेवलिंग वाली थकावट के बाद सुकून से दो पल बैठने को मिलना ही बड़ी बात होती है। अदिति ऑटो में बैठ गयी, ऑटो वाले ने पहला सवाल किया "सीधे फ्रीगंज जाओगे या रास्ते में कहीं उतरना है"

वह बोली "फ्रीगंज साइड ही है रस्ते में" यह कह कर वह अपने मोबाइल में लग गयी

अचानक ही ऑटो वाला बोला "मैडम जॉब करते हो या पढ़ रहे हो?" "जॉब, भैया" यह सवाल आजकल अदिति के लिए उतना ही साधारण हो गया था, जितना आपको कहाँ जाना है, उसके लिए जगह बताना।

"इतनी-सी उम्र से जॉब करते हो? शादी हो गयी आपकी?" वैसे तो यह सवाल ही अजीब था, मगर उसने कहा,"भैया ये जॉब की ही उम्र होती है, अगर कोई नौकरी करने के हिसाब से छोटा है, तो वह शादी करने के हिसाब से बड़ा थोड़ी हो सकता है।"

बीच-बीच में वह सवारी के लिए आवाज लगाते हुए, ऑटो चालू कर काफी रास्ता पार कर चुका था। अब अदिति को उसका बात करने का ढंग अजीब लगने लगा था, मगर कभी-कभी लोगों को पंचायत की आदत होती है, वह सोच ही रही थी कि अगली सवारी कब मिलेगी, इसी बीच अगला सवाल आया "तो bf तो होगा ही आपका?" "नहीं, मगर आप बेकार के सवाल बंद कर के, सवारी ढूँढे तो बेहतर होगा।" उसने तपाक से जवाब दिया।

थोड़े वक़्त बाद वह गेट कि तरफ खसक आई, उसके मन में एक हल्का-सा डर भी था, तो किसको कॉल करे यह भी सोच रही थी, ऐसा नहीं कि उसमें हिम्मत नहीं थी, मगर जब आप पहली बार ऐसी किसी स्थिति में होते हैं, तो आपके दिमाग में कुछ और नहीं आता। आधे रास्ते में उस ऑटो वाले ने तीसरा और उस दिन का अंतिम सवाल कहा "क्या मैं आपसे थोड़ी देर बात कर सकता हूँ, इस बार वो हल्का-सा पीछे कि ओर पलटा था, अदिति के हाथ पर उसकी उँगलियाँ छुई थी की अदिति बोल पड़ी

"गाडी रोको, अभी इसी वक़्त!"

"अरे मैडम आप तो डर गयी" ड्राइवर बोला

"बात डरने और डराने की नहीं है, उसने बैग से अपना छोटा-सा स्विस नाइफ निकालते हुए कहा, गाडी रोको और आइंदा किसी भी लड़की को अकेले समझने की गलती मत करना, तुम जैसों से डरता कोई नहीं, मगर तुम्हारे कारण घर के लोग डरते हैं"

गाडी से उतरते हुए वह दूसरी खड़े ऑटो में जा बैठी

वो घर तो सुरक्षित पहुँच गयी, मगर सोच रही थी की आखिर उसकी गलती क्या थी। हर बार की तरह जा कर सब माँ को बताना तो चाहती थी, मगर जानती थी वो चिंता करेंगी, और शायद अकेले जाने न दें।आधी बोतल पानी पीने पर भी जब उसे सुकून न मिला, तो एक माज़ा आर्डर कर दी, गुस्सा थी खुद पर की एक थप्पड़ भी रसीद नहीं किया उसने, न कोई शिकायत, न किसी को कोई कॉल, मगर किसे बताती और क्या? और चलो बता भी देती तो इससे क्या फ़र्क़ पड़ेगा।

बैग टटोलते हुए पेप्पर स्प्रे दिखा, मुस्कुरा रही थी खुद की बेवकूफी पर और उसके डर पर, की यह पहले क्यों नहीं दिखा।डर था, मगर उससे ज़्यादा गुस्सा था, स्थिति पर, खुद पर, इस डर पर और आखिर ऐसा क्यों हुआ इस बात पर...

क्या उसे हामी भर देनी थी, "शादी हो गयी" इस सवाल पर या उसे नहीं होते हुए भी मान लेना चाहिए था की उसका बॉयफ्रेंड है। आजतक यह सवाल सोसाइटी में स्टेटस का आइकॉन बन चुका था, मगर क्या ऐसे रहगुज़रों से बचने के लिए भी अब उसे बॉयफ्रेंड होने का ठप्पा लगाना होगा? क्या एक बॉयफ्रेंड का होना या शादी का मंगलसूत्र और कुमकुम उसे इन परिस्थितियों से बचा सकता था? मगर जो शादीशुदाओं के साथ उसने ऐसी वारदातों की खबर उसने पढ़ी थी, उसका क्या???

ऐसे कई सवाल थे मन में, मगर कन्फ्यूज्ड थी आखिर कौन ऐसी गंभीर मुद्दों पर चर्चा करेगा। सब सोचती हुई, घड़ी पर निगाह पड़ी तब याद आया मैडम घर की राह लो, वरना कॉल आ जायेगा... और लो मोबाइल के वाईब्रेशन ने कन्फर्म कर दिया।

रात को लम्बे समय तक सोचती रही, आखिर एक बार के लिए हिम्मत न करती तो क्या हुआ होता, मेरी जगह कोई और लड़की इस स्थिति में होती तो क्या वो मुझसे ज़्यादा डरी होती? क्या मुझे कम्प्लेन करनी चाहिए? मगर रोज़ाना अकेले ही जाना है, अगर उसने मुझे अगवाह करवा लिया, तो क्या करुँगी? अगर मैंने थप्पड़ मारा होता, तो उसने क्या हाथा-पाई की होती? अपने सारे डर भगा के एक दफा सोचा कल कम्प्लेन कर ही देती हूँ, मगर वेरिफिकेशन के लिए तो पुलिस घर आएगी, फिर से घर वाले टेंशन में आ जायेंगे।

सोचते-सोचते कब आँख लग गयी पता नहीं चला।

दूसरी रोज़ आते हुए सोचा, मुँह बाँध कर निकलूँ, मगर मैं क्यों बाँधू मुँह, मेरी क्या गलती.... काफी समय तक सोचती रही, सोचते-सोचते ही एक रचना बन गयी

कभी-कभी कहीं कतार में खड़ी साइड हट जाती हूँ,

कभी भीड़ से बचने के लिए एक सेफ कोना तलाशती हूँ,

मैं उन हवसखोरों की हरकतों से नहीं, अपना आपा खो देने से बचती हूँ...

कभी कमेंट पास करने वालों पर चिल्लाती नहीं,

कभी इशारे करने वालों को जवाब नहीं देती,

उन्हें जवाब देने से नहीं, बस अंजाम से कतराती हूँ...

कभी गलत अंदाज़ लोगों को भी नज़रअंदाज़ कर देती हूँ,

कभी समय और जगह को देख अपनी चाल बड़ा लेती हूँ,

मैं तुमसे नहीं, शायद रोज़ अखबार में पढ़ी हज़ारों ख़बरों से डरती हूँ...

कभी रुस्वा होती हूँ, कभी खुद की कायरता पर गुस्सा करती हूँ,

कभी समय से पहले, लेट होने पर घर में इक्तिला करती हूँ,

मैं लोगों के इरादों से नहीं डरती, परिवार की चिंता से डर जाती हूँ...

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