अध्यापक जो भूले नहीं Subhash Setia द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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अध्यापक जो भूले नहीं

अध्यापक जो भूले नहीं

सुभाष सेतिया

बच्चो, आप सब स्कूलों में पढ़ते जाने होंगे। ज़्यादातर स्कूलों में सहशिक्षा है जिसमें लड़कियां और लड़केे एक साथ पढ़ते हैं। इसलिए आपको अध्यापक तथा अध्यापिकाएं दोनों पढ़ाती हैं। जिस समय मैं स्कूल में पढ़ता था तब लड़के और लड़कियां अलग—अलग स्कूलों में पढ़ते थे और लड़कों को पुरूष और लड़कियों को महिला शिक्षक पढ़ाती थीं। मैं आपको आज से 50—55 साल पहले के ज़माने में ले जा रहा हूँ जब छात्र—छात्राओं तथा शिक्षकों के बीच आज जैसी निकटता और अनौपचारिकता नहीं थी। किन्तु अध्यापक—अध्यापिकाओं का ध्यान केवल परीक्षा में अच्छे अंक दिलाने पर नहीं, बच्चे के पूर्ण विकास पर रहता था।

पहली से दसवीं परीक्षा तक के स्कूली जीवन में मुझे 20—25 अध्यापकों से शिक्षा लेने का सौभाग्य मिला। इनमें से कुछ अच्छे थे, कुछ सामान्य तो कुछ ऐसे भी थे जिन्हें नकारात्मक या ‘बुरे' की श्रेणी में रखा जा सकता है। कुछ शिक्षकों ने स्नेह और प्यार से पढ़ाया तो कुछ न प्यार करते थे और न अच्छा पढ़ा ही पाते थे। कुछ अध्यापक पढ़ाने में बहुत निपुण थे और अपने विषयों के मास्टर थे लेकिन व्यवहार में बहुत रूखे और कठोर थे। शिक्षण क्षमता, व्यवहार, छात्रों के छिपे गुणों को उभारने की तरफ ध्यान तथा अन्य अनेक विशेषताओं के कारण कुछ अध्यापक ऐसे रहे हैं जिनकी छाप आज तक मेरे मन पर कायम है। ऐसे अध्यापकों को याद करके जहां आत्मसंतोष और एक तरह का आनंद महसूस होता है, वहीं उनकी चर्चा से नई पीढ़ी को कुछ सीखने को मिल सकता है। ये अनुभव अध्यापकों और छात्रों के बीच बिगड़ते संबंधों के आज के दौर में शायद कुछ दिशा भी दे सकें।

मेरा जन्म क्योंकि आज़ादी मिलने के वर्ष 1947 में हुआ इसलिए शिक्षा के क्षेत्र में पदार्पण पांचवें दशक के प्रारंभिक वर्षों में हुआ। हरियाणा के छोटे से कस्बे बहादुरगढ़ में उस समय स्कूलों की अच्छी इमारतें नहीं थीं। मेरी प्राइमरी शिक्षा चौपालों और धर्मशालाओं में हुई। अध्यापक एकदम सरल और आत्मसंतुष्ट होते थे। तीसरी कक्षा के अध्यापक साहबराम की आज भी याद आती है जो हमारे घर से ही कुछ दूर रहते थे। उनका हमारे आस—पास रहना ही हमें अनुशासित करने के लिए काफी था। हम गली, मुहल्ले में खेलते हुए सदैव सचेत रहते थे कि कहीं उधर से गुजरते हुए वे हमें देख न लें। यदि हम कभी मां—बाप का कहना नहीं मानते थे या कोई ज़िद करते तो मां तुरन्त धमकी देती थी कि जाकर बताऊं मास्टर जी को और हम रास्ते पर आ जाते थे। हम उनकी छाया से बचने के इतने आदी हो गए थे कि हाईस्कूल में जाने पर भी उनसे सामना करने से डरते रहे और वे जब भी सामने पड़ जाते हम आंखें झुकाकर हाथ जोड़कर नमस्ते करते और गली के दूसरे किनारे पर बढ़ते हुए चुपचाप आगे निकल जाते।

उन दिनों हरियाणा ( तब पंजाब था) में पांचवीं कक्षा से हाई स्कूल शुरू होता था जबकि आजकल पांचवीं तक पढ़ाई प्राइमरी स्कूल में होती है। चौथी कक्षा पास करने के बाद मैं डी ए वी हाई स्कूल में दाखिल हो गया। हमारे क्लास इंचार्ज मास्टर लक्ष्मण दास थे जो सरकारी स्कूल से रिटायर होने के बाद डी ए वी स्कूल में मामूली से वेतन पर पढ़ाने लगे थे। वे अकेले रहते थे। उनका मुझ जैसे सभी बच्चों के घरों में आना—जाना था। वे लगभग 60 साल के थे और हमें गणित पढ़ाते थे। हमारे मन में उनके लिए गहरी श्रद्धा थी और हमारे घर वाले भी उनका बहुत सम्मान करते थे। किसी बच्चे के काबू से बाहर हो जाने पर वे उसके घर चले जाते थे और सहज भाव से मां—बाप को समझाते थे और कोई भी अभिभावक उन्हें खाना खाए बिना घर से लौटने नहीं देता था। उनके प्रति श्रद्धा और आस्था की गहराई का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हम सभी बच्चे उनके पांव, सिर और कमर दबाते थे। हमारी बारी लगी हुई थी कि कौन सा लड़का किस दिन और किस समय मास्टर जी की सेवा करने जाएगा। मुझे याद है, उन्हें हाथों और पांवों की उंगलियां खिंचवाने का बहुत शौक था।

पांचवी से दसवीं कक्षा तक 6वर्ष डी.ए.वी स्कूल में पढ़ने के कारण मुझे अपने स्कूली जीवन के अधिकतम आदर्श अध्यापक वहीं मिले। इसी स्कूल के एक अध्यापक शास्त्री लालचंद को मैं सर्वश्रेष्ठ अध्यापक के रूप में याद करता हूँ। उन जैसे अध्यापक की आज के समय में कल्पना ही नहीं की जा सकती। शास्त्री लालचंद हिंदी पढ़ाते थे और हर वर्ष पंजाब विश्वविद्यालय की दसवीं की परीक्षा में हिंदी विषय में सबसे अधिक अंक पाने वाले पहले 20 छात्रों में 5—6 बच्चे हमारे स्कूल के अवश्य होते थे। लेकिन केवल अच्छे परिणाम के कारण ही वे हमारी श्रद्धा के पात्र नहीं थे। वे एक सच्चे गुरू की भांति हमारे समूचे विकास पर ध्यान देते थे। आज यह सोचकर आश्चर्य होता है कि मात्र 125 रूप्ये के मासिक वेतन पर काम करते हुए वे किस तरह अपने विषय में श्रेष्ठ परिणाम प्राप्त करने के साथ—साथ बच्चों को भाषण—प्रतियोगिताओं के लिए भी तैयार करते थे जो पुरस्कार लेकर आते थे। मैंने अपनी पहली कविता 1962 के चीनी आक्रमण से प्रेरित होकर लिखी थी, जब मैं दसवी कक्षा में पढ़ता था। मैंने अपनी कविता उन्हें दिखाई तो उन्होंने उसे बड़े ध्यान से पढ़ा, संशोधित किया और मेरी पीठ थपथपाई।

उन्होंने जीवन भर कभी ट्‌यूशन नहीं की। वे होनहार बच्चों को स्कूल के बाद घर पर बुलाकर मुफ्त पढ़ाते थे ताकि वार्षिक परीक्षा में वे अच्छे अंक ला सकें। आज का समाज कल्पना भी नहीं कर सकता कि बिना इस्तरी किए कपड़े पहनकर जब वह अध्यापक स्कूल से लौटते हुए बाज़ार से गुज़रता था तो आधे से अधिक दुकानदार अपनी गद्दी से उठकर हाथ जोड़े खड़े हो जाते थे और सिर झुकाकर उनका अभिवादन करते थे। वे पूरे शहर में ‘शास्त्री जी' के नाम से मशहूर थे।

शास्त्री जी की ममता, उदारता और प्रभाव की झलक मेरे अपने जीवन की दो घटनाओं से पहचानी जा सकती है। आठवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा के लिए फार्म भरे जा रहे थे। मैं अपने मित्र सुरेश नारंग के साथ बैठकर फार्म भर रहा था। उसने मुझे बताया कि इसके साथ अलग से फीस भी दी जाएगी। गरीब होने के कारण स्कूल की मेरी फीस माफ थी जिससे मैं समझ रहा था कि परीक्षा की फीस से भी मुझे छूट मिलेगी। जब मेरे मित्र ने बताया कि यह फीस बोर्ड में जाएगी और इस पर स्कूल का नियम लागू नहीं होगा तो मैं रूआंसा हो गया क्योंकि मुझे पता था कि मेरी मां के पास इतने पैसे नहीं हैं। मैंने उसे बताया कि मैं फार्म नहीं भर सकता। वह तत्काल किसी दूसरी क्लास में पढ़ा रहे शास्त्री जी के पास गया और कहा कि सुभाष के पास फीस के पैसे नहीं हैं इसलिए वह फार्म नहीं भर रहा। अगले पीरियड में शास्त्री जी अपनी क्लास लेने आए तो उन्होंने छोटा—सा लेक्चर दिया और कहा कि क्या आप चाहते हैं कि तुम्हारा एक मेहनती और मेधावी साथी फीस के पैसे न होने के कारण आठवीं क्लास पास न कर पाए? उन्होंने कहा कि सारी क्लास के बच्चे रिसेस में घर जाएं और अपने घर से कुछ पैसे लेकर आएं। रिसेस के बाद जब बच्चों ने आकर पैसे जमा कराए तो फीस की राशि से कहीं अधिक पैसे इकट्ठे हो गए। परीक्षा शुल्क देने के बाद जो पैसे बचे उससे मेरे लिए बूट खरीदे गए क्योंकि सर्दियां आने वाली थीं। ऐसे थे हमारे शास्त्री जी।

दूसरी घटना से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि हम छात्र लोग उनसे कितना डरते थे और उनकी नज़र से कतई नहीं गिरना चाहते थे। मैं नौंवी कक्षा में था। दीवाली की छुट्टियों के बाद स्कूल जाने के पहले दिन की बात है। उन दिनों दीवाली पर कौड़ियां खेलने का चलन था। मैं भी सवेरे—सवेरे गली के अपने साथियों के साथ कौड़ियां खेलने बैठ गया। हम खेल में इतने मस्त हो गए कि स्कूल जाने का होश ही नहीं रहा। जब मेरी मां को पता चला कि मैं स्कूल नहीं गया तो उसने मेरी अच्छी तरह खबर ली। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। मेरी मां ने कहा कि मैं अभी जाकर शास्त्री जी को बताती हूँ कि तू कौड़ियां खेलने के कारण आज स्कूल नहीं आया। मैं मां के चरणों में गिर गया और रोते व गिड़गिड़ाते हुए ऐसा न करने को कहा। उस घटना के बाद मन पर ऐसा असर हुआ कि कौड़ियां, ताश, कंचे आदि सब कुछ छूट गए। नौंवी कक्षा में पढ़ते हुए ही शास्त्री जी के सामने कई बच्चों ने सौगंध ली कि वे दसवीं की पढ़ाई पूरी होने तक कभी सिनेमा नहीं देखेंगे। मैंने यह शपथ दसवीं पास करने के दो वर्ष बाद तक निभाई। क्या ऐसे अध्यापक आजकल मिल सकते हैं?

परंतु कभी—कभी ऐसे अच्छे लोगों के साथ भी अन्याय हो जाता है। हमारे मैट्रिक कर लेने के दो वर्ष बाद किसी विवाद के कारण प्रिंसिपल की सिफारिश पर शास्त्री लालचंद को नौकरी से निकाल दिया गया। जैसे ही यह बात फैली सारे शहर में कोहराम मच गया। सभी लोग डी ए वी मैनेजमेंट के इस फैसले से नाराज़ थे। पिछले कई वर्षों के दौरान उनसे पढ़े हुए सारे विद्यार्थी, जिनमें से कुछ ऊँचे ऊँचे पदों पर पहुंच चुके थे या कालेजों में पढ़ रहे थे, एकजुट हो गए और सभी मिलकर डी ए वी मैनेजमेंट के सामने पेश हुए। इस मामले में दिलचस्प पहलू यह था कि हम लोग प्रिंसिपल का भी विरोध नहीं कर सकते थे क्योंकि वे स्वयं भी बहुत अच्छे अध्यापक थे। हमें समझ नहीं आ रहा था कि दो अच्छे अध्यापक एक दूसरे के खिलाफ क्यों हो गए। बाद में बीच का रास्ता निकाला गया और शास्त्री जी को किसी दूसरे स्कूल में नियुक्त करने का फैसला किया गया। किंतु जिस तरह नए—पुराने विद्यार्थी और शहर के लोग उनके बचाव में एकजुट हो गए वह अपने आप में अनोखी घटना थी।

अब तक याद रहने वाले अध्यापकों में स्कूल के प्रिंसिपल आत्माराम भी शामिल हैं, जिनका उल्लेख ऊपर शास्त्री लालचंद से टकराव की घटना के मामले में किया गया है। आत्माराम जी अंग्रेजी पढ़ाते थे और एक दक्ष और विद्वान अध्यापक होने के साथ—साथ कुशल प्रशासक भी थे। उन्होंने ग्रामर के जो टोटके हमें सिखाए, वे जीवन भर हमारे साथ रहे। वे शब्दों की वर्तनी सिखाने के लिए अचूक नुस्खे सुझाया करते थे। एक उदाहरण मुझे आज तक याद है। वीक (सप्ताह) और वीक (कमज़ोर) के भ्रम से बचने के लिए उन्होंने सिखाया कि जिसमें एक ‘ई' है वह कमज़ोर है और जिसमें दो ‘ई' होंगी वह दूसरे अर्थ को व्यक्त करेगा। उन्होंने कहा कि अकेला कमज़ोर होता है जबकि आप दो हों तो कमज़ोर नहीं रहेंगे।

आत्माराम जी की दया—ममता का प्रसाद भी मुझे मिला। मैंने बहुत अच्छे अंकों के साथ मैट्रिक की परीक्षा पास की थी लेकिन गरीबी के चलते कालेज की पढ़ाई करने की स्थिति में नहीं था। मुझे पता चला कि प्रभाकर (हिंदी स्नातक) की परीक्षा के माध्यम से पंजाब विश्वविद्यालय से बी ए किया जा सकता है। मैं फार्म और सर्टिफिकेट की प्रतियां सत्यापित कराने के लिए प्रिंसिपल आत्माराम जी के पास गया तो उन्होंने पूछा कोचिंग कहां से लोगे ? मैंने बताया कि बीरबल शास्त्री जी कोचिंग करते हैं उन्हीं के पास जाऊंगा। अगले दिन ही वे स्कूल से लौटते हुए शास्त्री बीरबल के पास गए और उनसे कहा कि वे मुझ से फीस न लें। यह एक अन्य अध्यापक की उदारता थी कि बीरबल शास्त्री ने मुझे तीन महीने तक निःशुल्क पढ़ाया और मैं प्रभाकर परीक्षा पास कर सका। इस तरह दो अध्यापकों की कृपा से मेरा साल नष्ट होने से बच गया।

ऐसे आदर्श अध्यापकों ने और भी बहुत से बच्चों के जीवन को प्रभावित किया होगा। हो सकता है कि आज भी ऐसे कुछ अध्यापक/अध्यापिकाएं हों जो अपने बच्चों को उन अध्यापकों की तरह ही समर्पण भाव से शिक्षा दीक्षा दे रहे हों जिनकी मैंने चर्चा की है। ये अध्यापक सच्चे गुरू से कम नहीं हैं।

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