तकिया
श्रेया ने बेड पर पड़ा अपना सूटकेस खोला और फटाफट सामान निकालकर फैलाने लगी। उसे पता था कि अगले दिन सुबह-सुबह सम्मेलन है और उसे अभी ही तैयारी कर लेनी होगी, वरना वह सुबह समय से तैयार नहीं हो पाएगी। और सम्मेलन के लिए देरी हो जाएगी।
सारा मेकअप का सामान ड्रेसिंग टेबल पर फटाफट सजा डालने के लिए उसने सूटकेस खोला तो उसके नीचे दबा पड़ा सफ़ेद नेक-बैंड नज़र आया। श्रेया को घर से निकलते वक़्त डॉ वोहरा की वाइफ मिलीं, जिन्होंने डॉ वोहरा के लिए यह नेक-बैंड दिया था और बताया कि डॉ वोहरा इसे जल्दी-जल्दी में भूल गए, मगर अब इसकी बहुत ज़रूरत महसूस हो रही है। वो तो अच्छा था कि श्रेया एक दिन बाद सेमिनार के लिए निकल रही थी, तो उसके हाथ भिजवाया जा सका, वरना चार दिन के सम्मेलन में, बिना नेक-बैंड के तो, डॉ वोहरा की हालत ख़राब हो जाएगी।
उस सफ़ेद पट्टे पर नज़र पड़ते ही श्रेया ने सबसे पहले उस ज़िम्मेदारी से छुटकारा पाना चाहा। ज्Þयादा रात को किसी के कमरे में जाना भी ठीक नहीं है।
वह बेड टेबल पर पड़े टेलिफोन पर लपकी और बग़ल में रखी टेलिफोन लिस्ट से रिसेप्शन का नंबर डायल किया।
‘ये डॉ सुमन वोहरा किस कमरे में ठहरे हैं?’
‘सुमन मैडम तो....अं… जी...रूम नं. 418 में ठहरी हैं।’
‘प्लीज, मैडम नहीं सर। वो सर हैं।’
‘ओह, सॉरी मैडम। हम तो अब तक मैडम समझ रहे थे। सुमन नेम इस सो कन्फ्Þयूज़िग। आई एम सो सॉरी।’
‘इट्स ओके। मगर रूम न. 418 है कहाँ?’
‘मैडम, आप के ठीक ओपोजित वाला डोर ही 418 है।’
‘ओह....ओके, थैंक्यू।’
श्रेया रूम न. 418 की बेल बजा रही थी कि उसके हाथ से वो सफ़ेद पट्टा छूट गया और उसे उठाकर उसने दुबारा बेल बजाई।
.....तो ये थी तकिए की असली कहानी जिसमें तकिए का कहीं अता-पता नहीं।
***
मि. पांडे अपने केबिन के बाहर आ गए थे और अलग-अलग वर्क स्टेशनों के बीच टहल रहे थे, जैसे सबके काम का हवाई दौरा कर रहे हों। जो स्टाफ उनके अंडर आता था, वो उनके जूते की खट-खट से ही काम में व्यस्त दिखलाई पड़ने लगा।
उन्होंने शैलेश की सीट के पीछे हॉल्ट लिया।
‘सम्मेलन का मेरा टीए-डीए बिल अब तक पुटअप किया?’
‘बस सर वही कर रहा था। आप चलिए न सर, आधे घंटे में आप के ही केबिन में लेकर आता हूँ।’
‘हम्म’
होना तो यह चाहिए था कि शैलेश को खोद लेने के बाद मि. पांडे का कोटा पूरा हो जाता और वह शांति से अपने केबिन में चले जाते और फिर एक-आध घंटे बाद आकर पूजा नहीं तो राजेश को खोदकर जाते। मगर ऐसा हुआ नहीं। वह अब भी वर्क स्टेशनों के बीच गश्त लगा रहे थे।
प्रमीला ध्यान से पांडे सर की हरकतों को नोट कर रही थी और यह नोट करके उसने परिपत्र बनाया कि कुछ तो है जो पांडे सर के पेट में कुलबुला रहा है और वो बोले बग़ैर रह नहीं पा रहे। तो उसने अपने आपको उनका संभाव्य श्रोता बनाकर प्रस्तुत किया।
‘अरे सर आपने यह टाई कहाँ से ली? आप पर बहुत जँच रही है। सोच रही हूँ, मैं भी अपने हज़्बैंड के लिए एक लूँ।’
‘ये। ओ हो… अच्छा। यह तो मेरी बेटी इंग्लैंड से लाई थी मेरे लिए।’
‘बहुत बढ़िया है सर। ...और....सर...सब कैसा है?’
‘सब बढ़िया ही है।’
प्रमीला को जो सूत्र चाहिए था वह मिल गया। उसने इस सूत्र को पकड़ लिया है और अब वो इसी के सहारे सारी बात उगलवा कर रहेगी।
प्रमीला ने एक भौंह उठाकर पांडे सर की बुझी-बुझी आँखें ऐसे देखीं जैसे उसमें घुसकर भीतर पड़े सारे राज़ को आँखों से ही बाहर खींच लेगी।
‘ही’ मतलब। सर, ‘ही’ का मतलब सब बढ़िया नहीं है। क्या बढ़िया नहीं है सर? प्लीज़ बताइए न। मुझसे हो सकेगा तो मैं आपकी परेशानी दूर करने की कोशिश करूँगी। और कुछ नहीं तो… वो कहते हैं न.... दर्द बांटने से कम होता है...’
‘अरे नहीं-नहीं मुझे कोई परेशानी-वरेशानी, दर्द-वर्द नहीं है। बस यह सब देखकर दु:ख हो रहा है।’
‘क्या सब सर? क्या देखकर दु:ख हो रहा है?’
‘हम्म! क्या बताऊँ? हमारे ऑफिस के लोगों का स्तर कैसे गिरता जा रहा है?’
प्रमीला ने पास पड़ी एक ख़ाली कुर्सी खींचते हुए कहा ‘सर बैठिए न। बैठ जाइए... कौन-सा स्तर? किसने क्या कर दिया सर? ज़रा खुल के बताइए न सर।’
‘देखो! किसी को कहना मत। मगर....’
‘नहीं नहीं सर। बिल्कुल नहीं। क़सम से मैं किसी को कुछ नहीं बताऊँगी। आप बताइए तो सर। हुआ क्या है?’
‘अरे वो अपनी श्रेया मैडम हैं न!’
‘हां सर! क्या हुआ उन्हें?’
‘हुआ नहीं। जो उन्होंने किया मुझे उम्मीद नहीं थी।’
‘हॉ सर! क्या कह रहे हैं? श्रेया मैडम तो ऐसी नहीं हैं। ....वैसे किया क्या उन्होंने?’
‘अरे ये सम्मेलन हुआ न.....ये’
‘हां सर। दिल्ली वाला.... आप जल्दी चले आए। बाक़ी लोग आ रहे हैं, दोपहर-शाम तक।’
‘हां-हां यही। मैं सम्मेलन से एक दिन पहले डॉ वोहरा के साथ बहुत व्यस्त था। शाम में डॉ वोहरा से कुछ डिस्कस करना था, तो उनके होटल पहुंचा। तो देखा रिसेप्शन पर श्रेया मैडम खड़ी थी और चेक-इन कर रही थीं।’
‘सर चेक-इन करने में क्या बुराई है?’
‘ओफ्फो! मुझे बोलने तो दो। मेरी उनसे हाय-हैलो हुई और मैं वोहरा के कमरे की ओर बढ़ गया।’
‘फिर क्या हुआ सर?’
‘फिर जब मैं वोहरा के यहाँ से आ रहा था तो अभी लिफ्ट में खड़ा था और लिफ्ट बंद होने से पहले मैंने देखा, श्रेया मैडम अपने क मरे से निकलीं और सीधे उनके सामने, याने वोहरा के कमरे के, बाहर जा खड़ी हुईं और उनके हाथ से कुछ सफ़ेद-सफ़ेद मुलायम सा सामान नीचे गिरा और उन्होंने उठा लिया और दरवाज़ा खुलने तक मेरी लिफ्ट बंद हो गई।’
‘मुलायम-मुलायम, सफ़ेद-सफ़ेद क्या हो सकता है? सर कहीं तकिया तो नहीं था?’
‘मैं भी यही सोच रहा हूँ।’
‘हाँ सर यह तो अच्छी बात नहीं है।’
जैसे अपने आप में ही खोए हुए से मि. पांडे ‘अच्छी बात तो बिल्कुल नहीं है। बिल्कुल धीरज नहीं। वहाँ पहुँचते ही.... सीधे....क मरे में.....उफ’ बुदबुदाते हुए चले गए और अगले दो घंटे तक बाहर नहीं आए। शैलेश टीए-डीए बिल लेकर नहीं पहुंचा, तब भी नहीं।
इधर प्रमीला इतनी ज़बरदस्त ख़बर अपने पेट में कैसे दबाए रख सकती है जबकि परिचालन के लिए पूरा मसालेदार परिपत्र तैयार था। तो वो मि. पांडे के पलटते ही रिया के डेस्क पर जा पहुँची।
रिया अपनी फेवरेट वेबसाइट से समर स्पेशल कुर्ते आर्डर कर रही थी। प्रमीला को देखते ही बोली।
‘प्रमीला देख कितने कूल कुर्ते आए हैं, इस बार सेल में। वो भी सेवेंटीफाई परसेंट आॅफ में। कूल ना?’
‘वो छोड़। मैं तुझे ऐसी कूल बात बताऊँगी कि तू ये कुर्ते भूल जाएगी।’
‘अच्छा! भला ऐसी भी कौन सी बात है?’
प्रमीला ने बोलना शुरू किया कि रिया अपनी आँखें बड़ी करती गई।
‘और पता है क्या?’
‘क्या?’
‘डॉ वोहरा एक दिन पहले क्यूँ गए थे?’
‘क्यूँ?’
‘ताकि वे अपने कमरे की सेटिंग ठीक श्रेया मैडम के सामने वाले कमरे में कर सकें।’
‘हाँ सही कह रही है बे। ये तो मैंने सोचा ही नहीं।’
फिर रिया अचानक से खड़ी हुई और बोली ‘देख लगता है काजल पुछ गया है और लिपस्टिक निकल गई है। मैं ज़रा टचअप करके आती हूँ।’
इतना बोलकर उसने ड्राअर में हाथ डाला और रूमाल के बीच, मोबाइल लपेटकर, वह वाश रूम निकल ली।
वाश रूम पहुँच कर रिया ने फटाफट प्रीती को फोन लगाया।
‘प्रीती.... अबे सुन ना.... सुन ना पागल.... वो पांडे सर हैं न.....हां वही....श्रेया मैडम ने उनका दिल तोड़ दिया। बेचारे देवदास बने फिर रहे हैं। ....ये पूछ कि क्या नहीं हुआ.....’
रिया तो वॉश रूम को ख़ाली समझकर सब कुछ बकती चली गई और पेट की सारी बातें ख़ाली करके वापस अपनी सीट पर आकर बैठ गई। मगर वॉश रूम के एक टॉयलेट में भारती थी। जो बाहर आई तो उसके पेट में कुलबुलाहट होने लगी।
***
लंच के बाद का समय था। ऑफिस के आधे लोग खाना खाकर लौट चुके थे और आधे आने बाक़ी थे। श्रेया अपना पर्स लटकाए और सूटकेस टांगे ऑफिस में घुसी।
प्रमीला और रिया उनके आगमन की ख़बर सुनते ही पुलकित हुईं और तुरंत उनके टेबल को जा घेरा।
‘अरे मैडम, आ गईं। कैसा रहा टूर?’
श्रेया ने अपना पर्स टेबल पर रखते हुए और सूटकेस टेबल के नीचे जगह बनाकर अटकाते हुए मुस्कुराकर कहा-‘अच्छा रहा।’
‘अच्छा रहा....या...बहुत ही अच्छा रहा।’
प्रमीला और रिया ने एक दूसरे को देखा और इस दुहरे अर्थ के लिए मुस्कुरा दीं।
श्रेया कुछ समझी नहीं और बस मुस्कुरा दी।
‘और मैडम, बहुत थकी हुई लग रही हैं। लगता है,रात भर सोई नहीं।’ रिया ने प्रमीला को आंख मारकर कहते हुए,जैसे ख़ुद ही के लिए शाबाशी बटोरी।
श्रेया ने देखा नहीं। वह अपना सिस्टम आन करते हुए बोली-‘हाँ सुबह की फ्लाइट हो तो, आधी रात में ही उठकर भागना पड़ता है। नींद ख़राब हो ही जाती है।’
‘हां वो तो है। .... ख़ैर हॉटेल कैसा था? सुना है वहाँ तकिए कम देते हैं।’ कहकर दोनों अपनी-अपनी हंसी दबाने की कोशिश में खी-खी करने लगीं और श्रेया उन्हें देखकर अचंभित हो रही थी।
वह हैरान सी बोली-‘नहीं तो ....किसने कहा....मेरे कमरे में तो दो-दो तकिए दिए थे।’
प्रमिला और रिया खी-खी करती हुईं निकल गईं।
....और इस तरह तकिया इस कहानी का मुख्य पात्र हो गया।
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