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नीरजा का विदाई समारोह

नीरजा का विदाई समारोह

कम्पनी के प्रति निष्ठा, अपने कार्य के प्रति समर्पण और इमानदारी के साथ कठोर परिश्रम करके बड़ी-बड़ी उपलब्धियाँ अपनी झोली में समेटते हुए नीरजा आज आयु के उस पड़ाव पर पहुँच चुकी थी, जहाँ पर उसके लिए अवकाश अत्यावश्यक हो गया था | उसके पैंतीस वर्ष के सेवाकाल में सभी सहकर्मियों ने उसकी प्रतिभा का लोहा माना था | सभी सहकर्मियों के साथ मधुर व्यवहार और उदार दृष्टिकोण के बल पर उसने कम्पनी के मजदूर से लेकर अधिकारियों तक के हृदय में अपने लिए विशेष जगह बना ली थी | इसलिए नीरजा के अवकाश लेने की घोषणा होने पर कम्पनी ने उसकी सेवानिवृत्ति के उपलक्ष्य में एक भव्य विदाई समारोह का आयोजन किया था |

एक ओर सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहा था, जिसमें नृत्य और संगीत की रंगारंग प्रस्तुति के साथ नाटक का मंचन हो रहा था | दूसरी ओर भोजन की व्यवस्था थी, जिसमें भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन करीने से रखे थे | समारोह में उपस्थित सभी लोग जीवन का आनंद लूट रहे थे -- कोई स्वादिष्ट भोजन का लुत्फ ले रहा है, कोई संगीत का और कोई नृत्य का | किन्तु नीरजा के चेहरे पर किसी प्रकार के आनन्द का कोई चिह्न दिखायी नहीं दे रहा था ! वह नितान्त निष्क्रिय, शान्तऔर भावशून्य मुद्रा में बैठी थी | उसके हृदयाकाश में आनन्द के स्थान पर एक रिक्तता-सी व्याप्त थी ! आने वाले कल के संभावित अकेलेपन की आशंका का बाज निरन्तर उसकी चेतना-चिड़िया को निगलने का प्रयास कर रहा था और वह अपने बचाव हेतु अतीत की स्मृतियों की गहरी बावड़ी में गोते लगा रही थी | उसके निकट उपस्स्थित कुछ लोगों को उसकी शान्त मुद्रा और भावशून्य चेहरे को देखकर बहुत कुछ असामान्य प्रतीत हो रहा था | धीरे-धीरे कुछ ही मिनटों में नीरजा की विषम मनःस्थिति की सूचना उसके निकटस्थ अन्य लोगों तक पहुँच गयी | कम्पनी में उसकी सर्वाधिक घनिष्ठ मित्र मिस लियो बर्नार्ड थी | नीरजा स्नेह से उसको मिस ली कहकर पुकारती थी | नीरजा की असामान्य दशा की सूचना पाते ही मिस ली तीव्रता से दौड़कर वहाँ आयी | उसने नीरजा के कंधों को पकड़कर लगभग झिंझोड़ने की मुद्रा में हिलाया और जोर से चिल्लायी -- "मैडम, नीरजा !"

मिस ली की चीख सुनकर नीरजा ने एक क्षण के लिए अपनी प्रतिक्रिया देते हुए अपनी मुट्ठी में दबाकर रखी हुई चिप उसके हाथ में थमायी और आँखें बन्द कर ली | अगले ही क्षण नीरजा की गर्दन एक ओर ढुलक गयी | उस क्षण वहाँ पर उपस्थित लोगों में से किसी का ध्यान जीवन-मृत्यु के बीच झूलती हुई नीरजा की ढुलकती हुई गर्दन की ओर नहीं गया, बल्कि प्रत्येक स्त्री-पुरुष का मनःमस्तिष्क उस चिप में सुरक्षित वस्तु-विषय का अनुमान लगाने में व्यस्त था, जो अचेत होने से पहले नीरजा द्वारा मिस ली को दी गयी थी | कुछ क्षणोपरान्त जब उन्हेंअपनी संवेदनहीनता के सार्वजनिक होने का अहसास हुआ, तब कम्पनी में नियुक्त डॉक्टर्स को नीरजा के उपचारार्थ यथाशीघ्र बुलाया गया, किन्तु प्रथम दृष्टि में ही डॉक्टर्स ने उसको मृत घोषित कर दिया |

अपने विदाई समारोह में नीरजा की मृत्यु से समारोह में उपस्थित लोगों में हडकम्प मच गया और प्रत्येक व्यक्ति के मन में यह जिज्ञासा थी कि आखिर नीरजा की मृत्यु अचानक कैसे हुई ? उसकी अचानक मृत्यु का क्या कारण था ? परन्तु लोगों में उससे भी प्रबल इच्छा यह जानने की थी कि नीरजा द्वारा मिस लियो बर्नार्ड को दी गयी चिप में क्या है ? अतः सभी एक स्वर में यह जानने का आग्रह कर रहे थे कि इस चिप में क्या है ? संभवतः चिप के मैटर को देखकर नीरजा की मृत्यु के किसी कारण का पता चल सके, इसलिए नीरजा की अन्तिम विदाई से पहले ही चिप में सुरक्षित मैटर को सार्वजनिक किया जाए ! सभी लोगों के आग्रह पर चिप को कम्प्यूटर में लगा दिया गया और उसका मैटर डिस्प्ले होने लगा --

मैं बहुत छोटी थी, तो माता-पिता आंगन में फुदकती हुई गौरैया से उपमा दिया करते थे, क्योंकि जब प्रातःकाल पक्षियों के लिए उसकी माँ द्वारा आंगन में अनाज के दानें बिखेर दिये जाते थे और नन्हीं-नन्हीं चिड़ियाँ उस आंगन में अपने घर की भाँति निश्चिन्त होकर दानें चुगती थीं, तब नन्हीं नीरजा (मैं) बार-बार उनके निकट जाने का प्रयास करती थी | फुदक-फुदककर दाने चुगती हुई गौरैयाँ मेरी आहट सुनते ही उड़ जाती थी और छत की मुंडेर पर बैठकर चहचहाने लगती थी | तब नन्हीं नीरजा के (मेरे) मुख से अनायास ही निकल पड़ता --" भगवान जी, मुझे भी चिरैया बना दो ! मेरा भी उड़ने का मन करता है !" जब तक मैं आंगन में बिखरे हुए अनाज के दानों के निकट रहती थी, तब तक चिड़िया नीचे नहीं आती थी | यह देखकर मेरे हृदय में सहानुभूति का ज्वार उमड़ आता था, इसलिए मैं कमरे के अन्दर चली जाती थी और दीवार की ओट लेकर दरवाजे से झाँककर देखती थी कि जैसे ही मैं अन्दर जाने के लिए मुड़ी थी, चिड़ियाँ पुनः नीचे आंगन में आकर दानें चुगने लगी थीं | तत्पश्चात मैं वहीं खड़ी होकर उनका फुदक-फुदककर दानें चुगना देखती रहती थी, ताकि वे मेरी उपस्थिति का अाभास पाकर भयभीत न हों !

बचपन की इस एक घटना को स्मरण करके आज मेरा अन्तःकरण बहुत व्यथित है ; मेरा हृदय ग्लानि से भर रहा है ! एक मूक ध्वनि बार-हार मेरे कानों में गूँज रही है --" उस आंगन में नन्हीं चिड़ियों को प्यार, पोषण और सुरक्षा का मूक आश्वासन मिलता था, इसलिए वे घर की मुंडेर से दूर कभी नहीं जाती थीं और प्रतिदिन प्रातःकाल अपनी चहचहाट से उस आंगन में आकर जीवन का आनन्द लूटते-लुटाते हुए नव-जीवन का संचार करती थी | किन्तु मैं ? मैंने एक बार उस घर-आंगन की मुंडेर को छोड़ा, तो वापिस लौटी ही नहीं ! जानती हूँ, जिस प्रकार मैं अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए परदेश में आयी थी, परिन्दे भी अनुकूल जलवायु और भोजन की खोज में दूर देशों में जाते हैं | पर परिन्दे अपनों को साथ लेकर आगे बढ़ते हैं, जबकि मैं अपने आत्मीय परिजनों को पीछे छोड़कर अकेली आगे बढ़ आयी थी ! नितान्त अकेली ! आगे बढ़ने की होड़ में जीवन की भागमभाग से मुझे इतना अवकाश ही नहीं मिला कि मैं पीछे मुड़कर देख सकूँ ; उन महान आत्माओं के विषय में सोच सकूँ, जिन्होंने जीवन की ऊँची उड़ान के लिए मेरे पंखों को परिपक्वता प्रदान की थी ! "

मेरे मन में उड़ने की आकांक्षा थी और लक्ष्य के प्रति लगन थी | अदम्य साहस से आपूरित मेरे अन्तःकरण में परिश्रम के प्रति निष्ठा थी, इसलिए मैं अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करने की क्षमता रखती थी | मैंने अपने जीवन की पहली ऊँची उड़ान तब आरम्भ की थी, जब मुझे बारहवीं कक्षा की परीक्षा में जनपद में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था | परीक्षाफल घोषित होने पर जब फोटो सहित मेरा नाम अखबार में छपा था, तब घर-परिवार में हर्षोल्लास का वातावरण था, तभी मैंने अपने पिता से कहा था -- " पापा, मैं अपनी आगे की पढ़ाई देश की राजधानी दिल्ली में करना चाहती हूँ ! " सात बीघा कृषि-भूमि की उपज से परिवार की गुजर-बसर करने वाले किसान के लिए बेटी की दिल्ली में पढ़ने की इच्छा को पूरा करना सरल नहीं था, किन्तु उससे भी अधिक कठिन था एक पिता के लिए अपनी बेटी को यथोचित अवसर न देकर उसकी प्रतिभा का गला घोंट देना | अतः प्रत्येक दृष्टिकोण से भली-भाँति विचार करके मेरे पिता ने पुरखों से मिली हुई अपनी सात बीघा कृषि-भूमि को गिरवी रखकर बेटी की प्रतिभा का पोषण करने का निर्णय लिया | एक बेटी के हितार्थ लिया गया पिता का यह निर्णय उनके अन्य दोनों बच्चों -- सुयश और रिचा के लिए, जिन्होंने क्रमशः नौवीं और सातवीं कक्षा उत्तीर्ण की थी, शुभ संकेत नहीं कहा जा सकता था | फिर भी पापा के इस निर्णय पर परिवार के किसी भी सदस्य ने किसी प्रकार की कोई आपत्ति नहीं की थी, बल्कि सभी बहुत प्रसन्न थे | पापा ने मेरी इच्छा के अनुऱूप मेरी समुचित शिक्षा-व्यवस्था के लिए पूवजों की कृषि-भूमि को गिरवी रख दिया | आधुनिक भाषा में कहें तो अपनी सात बीघा जमीन का तहसील में जाकर लीगल एग्रीमेंट कर दिया, जबकि उस कृषि-भूमि के अतिरिक्त उनके पास दो बच्चों की शिक्षा-स्वास्थ्य और जीवन की अन्य आवश्यक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जमीन का एक छोटा टुकड़ा भी शेष नहीं बचा था | न ही उनके पास आय का कोई अन्य दूसरा स्रोत था | परिवार का गुजारा करने के लिए गाँव में अब उनके पास मात्र एक ही विकल्प बचा था -- पशुपालन तथा मजदूरी | परिवार के इस अद्वितीय प्रेम और त्याग से मैं अभिभूत थी और उनके त्याग के सकारात्मक परिणाम की कल्पना करके मेरा मन-मयूर उल्लास से नृत्य कर रहा था |

तीन वर्ष तक मेरे माता-पिता मजदूरी करके और भैंस का दूध बेचकर जीविका चलाते रहे | इस अन्तराल में मैंने कम्प्यूटर का बेसिक कोर्स और बी.कॉम, सुयश ने बारहवीं और रिचा ने दसवीं कक्षा उत्तीर्ण कर ली थी | सौभाग्य से बीकॉम उत्तीर्ण करते ही मुझे एक कम्पनी में पार्टटाइम जॉब मिल गयी | मैं जॉब के साथ-साथ एम.बी.ए. की पढ़ाई करने लगी थी और कठोर परिश्रम करके इतना धनार्जन करने लगी कि अपने खर्च से बचाकर कुछ रुपये गाँव में भी भेजने देती थी | मैंने मम्मी-पापा से आग्रह किया कि गाँवों, कस्बों और छोटे शहरों में रोजगार के साधन कम होने के कारण युवाओं के लिए उन्नति के अवसर नगन्य हैं, इसलिए सुयश और रिचा को लेकर दिल्ली आ जाएँ, ताकि उन दोनों के कैरियर को अच्छा प्लेटफॉर्म मिल सके | किन्तु मेरे बार-बार आग्रह करने पर भी दिल्ली आने के लिए न पापा तैयार हुए, न सुयश और रिचा | पापा का कहना था, पुरखों की जमीन को छोड़कर शहर में रहना उन्हें रुचता नहीं है | सुयश और रिचा मम्मी-पापा को गाँव में अकेला छोड़कर दिल्ली नहीं आना चाहते थे | उनका यह भी तर्क था कि दिल्ली जैसे बड़े शहर में, जहाँ जीवन के लिए आधारभूत वायु और पानी शुद्ध और पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं, वहाँ उन्नति के मायने बेमानी हो जाते हैं |

एम.बी.ए. करने के पश्चात् दस लाख रुपये वार्षिक के पैकेज पर एक मल्टीनेशनल कम्पनी में मेरा प्लेसमेंट हो गया और मुझे हैदराबाद जाना पड़ा | दिल्ली आने के बाद से ही मैं अपने हृदय पर एक भार का अनुभव करती रही थी कि मेरी शिक्षा के लिए पापा ने अपने पूर्वजों से विरासत में मिली हुई कृषि-भूमि गिरवी रख दी थी, जिसमें आज भी उनके प्राण बसते हैं | अपनी निर्धनता के कारण वे आज तक उस भूमि का अल्पांश भी नहीं छुड़ा पाये थे, फिर भी अपनी सारी भूमि को छुड़ा लेने का सपना आज भी उनकी आँखों में सुरक्षित था |

पापा के सपने को साकार करने की लगन में मितव्ययिता से जीवनयापन करते हुए मैंने एक वर्ष के अपने वेतन से इतने रुपयों का संग्रह कर लिया था कि मेरी शिक्षा के लिए गिरवी रखी हुई पूर्वजों की भूमि का कुछ भाग मुक्त कराया सके ! इस आशा-उत्साह में मैंने यथाशीघ्र गाँव जाने का कार्यक्रम बना लिया | जब रुपये लेकर मैं गाँव पहुँची, पापा को बहुत बड़ा आर्थिक संबल मिला था | लेकिन मेरे लिए गाँव में आधुनिक भौतिक सुख-साधनों के अभाव में चौबीस घंटे का समय काटना कठिन हो गया | बिजली का ऐसा अभाव कि दम घोंटू गर्मी में भी न ठंडी हवा की कोई व्यवस्था थी और न रात के अंधेरे में उजले प्रकाश की व्यवस्था थी | दूसरी ओर मच्छरों का इतना विकट आतंक था कि शाम होते ही उनकी भिनभिनाहट मानों घोषणा करने लगी थी कि वह क्षेत्र मनुष्यों के लिए वर्जित है | इन समस्याओं को आगे रखकर मैंने एक बार पुनः पापा के सामने सुयश और रिचा को महानगर में जाकर कैरियर सँवारने के विषय में कहा, किन्तु वे अपनी बात पर अडिग रहे |

इस बार मम्मी-पापा ने मुझे मेरी उम्र बताकर विवाह करने की नसीहत भी दी | मैंने उनसे कहा कि विवाह की परम्परा को निबाहने के लिए मैं अपनी स्वाधीनता को दाँव पर नहीं लगा सकती ! विवाह के विषय में मेरा नकारात्मक और सपाट उत्तर सुनकर पापा का उखड़ना स्वाभाविक था | उन्होंने मुझे चेतावनी देते हुए कहा -- " पेड़ जब पतझड़ हो जाते हैं, तो अपने पत्ते बदलते हैं | वे अपनी जड़ें कभी नहीं छोड़ते हैं | हमारी सांस्कृतिक परम्पराएँ हमारी जडें हैं | इन्हें छोड़ने की भूल कभी मत करना !" उस समय मैं पापा से बहस नहीं करना चाहती थी और न ही मैं वैवाहिक बंधन में पड़कर अपनी स्वतन्त्रता के साथ समझौता करने के पक्ष में थी | अतः गाँव से मैं अगले ही दिन हैदराबाद वापिस लौट गयी | गाँव से लौटते ही मुझे कम्पनी की ओर से अमेरिका आने का ऑफर मिला | उन्नति के पथ पर जीवन में आगे बढ़ने का मेरे पास यह एक अच्छा अवसर था, जिसे मैंने प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लिया और अमेरिका आ गयी | उसके बाद अगले तीन वर्ष तक मैं गाँव में नहीं गयी | इतना अवश्य था कि मैंने इस समयान्तराल में गिरवी रखी हुई सारी कृषि-भूमि को मुक्त कराने के लिए गाँव में पर्याप्त रुपया भेज दिया था |

पूर्वजों की भूमि को वापिस पाकर पापा का जैसे आत्मसम्मान वापिस लौट आया था | सुयश ने जीविकोपार्जन के लिए दूध का व्यापार कर लिया था और रिचा को गाँव के प्राइमरी विद्यालय में अध्यापिका के पद पर नियुक्ति मिल गयी थी | अब पापा को किसी प्रकार का कोई तनाव नहीं था, सभी प्रकार से संतुष्ट थे | लेकिन स्वास्थ्य बिगड़ने के कारण पापा अब बहुत दुर्बल हो गये थे | अपने जीवित रहते वे अपने तीनों बच्चों का घर बसा हुआ देखना चाहते थे, इसलिए एक बार पुनः मुझ पर घर की बड़ी बेटी होने का भावात्मक दबाव बनाते हुए उन्होंने मेरे समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा | मेरा अब भी वही उत्तर था | हारकर पापा ने सुयश और रिचा का विवाह सम्पन्न करा दिया | रिचा के विवाह के एक महीना पश्चात् एक दिन अचानक हृदयाघात से पापा समय से पहले ही स्वर्ग सिधार गये | पापा की मृत्यु का आघात सहन न कर पाने के कारण कुछ माह पश्चात ही मम्मी का भी देहान्त हो गया |

मम्मी-पापा के स्वर्गवास के पश्चात् सुयश और रिचा अपनी-अपनी गृहस्थी में व्यस्त हो गये और प्रगतिशील परिवेश में अपने प्रतिद्वंद्वियों से आगे बढ़ने की होड़ में मैंने भी अपने आत्मीयों को भुला दिया | उस समय अपनी व्यस्तता के कारण न उनके पास मेरे लिए समय था और न मेरे पास उनसे मिलने का अवकाश था | मेरे पास भौतिक उपलब्धियों से प्रभूत सुख का दर्प था, तो उनके पास स्वजनों के प्रेम-विश्वास और त्याग-तपस्या से उत्पन्न मन की शान्ति थी | उन दोनों से मेरा जीवन-दर्शन भिन्न था ; जीवन का लक्ष्य भिन्न था ; विचार भिन्न थे, इसलिए हमारी जीवनधारा विपरीत दिशाओं में बहने लगी थी और बहुत ही शीघ्र गाँव से मेरा नाता टूट गया |

आज जीवन के अन्तिम पडाव पर पहुँचकर जब मेरी शारीरिक शक्ति क्षीण हो चली है ; अंग-प्रत्यंग शिथिल हो रहे हैं, तब मेरी बौद्धिक उपलब्धियाँ तथा भौतिक सुख-सुविधाएँ मुझे नितान्त निरर्थक तथा महत्त्वहीन-सी प्रतीत होने लगी हैं ! आज मेरे हृदय में उन लोगों के सान्निध्य की आकांक्षा प्रबल होती जा रही है, जिनके लिए मेरे होंठो की एक स्मिति उनके स्वयं के जीवन-मरण से अधिक महत्त्व रखती थी | आज मेरा अन्तःकरण अपने स्नेहिल अश्रु-जल से उन सम्बन्धों को पुनर्जीवित करने के लिए व्यग्र है, जिन्हें मैने धन की अपेक्षा तुच्छ समझकर भुला दिया था ; मेरा चित्त उस परम्परा-विटप को सींचने के लिए व्याकुल हो रहा है, जिसे मैंने वर्षों पहले सूखने के लिए छोड़ दिया था | आज मुझे पापा की वह चेतावनी बार-बार याद आ रही है -- "पेड़ जब पतझड़ हो जाते हैं, तो अपने पत्ते बदलते हैं, जड़ें नहीं छोड़ते हैं | हमारी सांस्कृतिक परम्पराएँ हमारी जडें हैं | इन्हें छोड़ने की भूल कभी मत करना !" लेकिन अब शायद पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ भी संभव नहीं है, क्योंकि मृत्यु मेरे निकट ...और ...अधिक ....निकट... आ ...र..ही...!

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