अलादीन का चिराग़ - National Story Competition - Jan Neetu Singh Renuka द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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अलादीन का चिराग़ - National Story Competition - Jan

अलादीन का चिराग़

नीतू सिंह रेणुका

बचपन से ही मुझे कहानियाँ सुनने का बड़ा शौक़ है। आज भी है। मगर आज की कहानियों और बचपन की कहानियों में इतना ही अंतर है कि अब वे कहानियाँ ही सुनने में अच्छी लगती हैं जो सच्चाई के क़ारीब होती हैं। इसके विपरीत बचपन में वो कहानियाँ सुनने में अच्छी लगती थीं जो अजीबो-गरीब होती थीं; जादुई होती थीं, कल्पना से भरी होती थीं। उन कहानियों में से जो सबसे दिलचस्प कहानियाँ होती थीं वो इच्छापूर्ति करने वाले जिन की होती थीं और हम उन्हें ही सुनना पसंद भी करते थे।

ऐसे में जब कहानियाँ सुनने की ज़िद किया करती थी तो अक़सर अलादीन और उसके चिराग़ की कहानी सुनने को मिलती थी। हम अपनी नन्हीं-नन्हीं आँखें फाड़कर जिन्न के करिश्मे सुना करते थे। जब थोड़ी और बड़ी हुई तो टी.वी पर अलिफ लैला की कहानियाँ देखीं जिससे मेरी कल्पना को छोटे परदे पर एक स्वरुप मिला। और तो और उस पर कार्टून फिल्में भी देखने को मिलने लगीं। यहाँ तक कि अलादीन का चिराग़ तो स्कूल के पाठ्यक्रम में भी शामिल हो गया, जिससे जिन्न के अस्तित्व पर मेरा विश्वास और दृढ़ होता चला गया। इस अद्भुत बात ने मस्तिष्क के किसी कोने में घर कर लिया कि अगर कोई जिन्न वश में हो तो बड़े-बड़े काम आसान हो जाते हैं।

तभी से इच्छा थी कि काश मेरे वश में भी एक जिन्न होता; काश मैं भी किसी चिराग़ को घिसकर जिन्न निकालती और मनचाहे नंबर पाती, परीक्षा में अव्वल आती; अपनी हर इच्छित वस्तु फटाफट पा लेती।

परंतु बचपन की इस कल्पना ने बड़े होने की आपा-धापी में अपना अस्तित्व खो दिया। समय के साथ-साथ यह भ्रम भी दूर होता गया कि ऐसी भी कोई वस्तु होती है। फिर भी जाने क्यों मन में यह इच्छा कभी-कभी तीव्र हो उठती कि काश सच में कोई ऐसा जिन्न होता जो मेरे जीवन की समस्याओं को हल कर पाता; मुझे नौकरी दिला पाता; मेरी पसंद का सामान ला देता। ऐसे में अभिलाषाऐं तो असीम थीं लेकिन पूरा करने के लिए कोई जिन्नात नहीं।

जब जिन्न के बारे में सुना था उसके करीब दो दशकों के बाद एक मामूली सी घटना पर यह एहसास हुआ कि जिन्न तो मेरे पास ही था, बस रगड़ने की देरी थी। वैसे तो जीवन में बड़ी-बड़ी घटनाऐं घटित होती हैं लेकिन बड़ी से बड़ी घटना पर हम टीका-टिप्पणी कर उसे नज़र-अंदाज़ कर जाते हैं और कभी-कभी एक मामूली से भी मामूली घटना या छोटे से छोटा वाक्य, मन में परिवर्तन कर जाता है। कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ।

उन दिनों मैं परीक्षा की तैयारी में बड़ी व्यस्त रहती थी। अगले दो महीनों में मेरे कॉलेज का इम्तहान और फिर आगे की पढ़ाई के लिए प्रवेश परीक्षा, वह सब कुछ होने वाला था जिसपर मेरा भविष्य टिका था। सुबह चार बजे उठकर प्रवेश-परीक्षा की तैयारी में लगती थी। फिर कॉलेज में परीक्षा से संबंधित स्पेशल लेक्चरों में बैठती थी। कॉलेज से सीधा ट्यूशन के लिए जाती थी। और ट्यूशन से फिर घर लौटती थी। ट्यूशन की जगह घर से काफी दूर थी और अक्सर मुझे घर लौटने में देर हो जाती थी। उस पर दिनभर की थकान तोड़ डालती थी।

आज मुझे ट्यूशन से लौटने में रात के साढ़े नौ बज गए। थकी-हारी घर के सामने पहुँची और अपनी साइकिल खड़ी करके गेट खोला। रात के सन्नाटे में गेट के चीखने की आवाज़ भी बड़ी मधुर लग रही थी। किसी तरह मैं ढकेलकर साइकिल अंदर तो ले आई परंतु थकावट के कारण गेट वापस बंद करने की हिम्मत नहीं हो रही थी।

ऐसे अलसाए क्षणो में अनायास ही मेरे मुँह से निकला "काश मेरे पास जिन्न होता तो मैं उसे गेट बंद करने को कह देती।" मेरे इस तुच्छ से विचार पर मुझे खुद हैरानी हुई कि मुझे भला गेट बंद करने के लिए जिन्न की क्या आवश्यकता, यह तो मैं स्वयं भी कर सकती हूँ। फिर जाने कहाँ से मुझमें स्फूर्ति जागी और मैंने सलीके से गेट बंद किया। गेट बंद करते ही मुझे एहसास हुआ कि मैंने किसी चिराग़ को अभी-अभी रगड़ा जिसमें से जिन्न प्रकट हुआ।

फिर मैं यह सोचने पर बाध्य हुई कि ऐसी कौन सी वस्तु है जिसे मैं पाने में असमर्थ हूँ और कहीं से कोई जिन्न ही आएगा तो मुझे दिला पाएगा।

उस दिन के बाद से जब भी कोई अभिलाषा मन में आती तो मैं अपने अंदर के चिराग़ को रगड़ कर उसी जिन्न को बुलाती जिसने उस दिन गेट बंद किया था। मैंने परीक्षा के लिए कड़ी मेहनत की और उतीर्ण हुई; जिसके लिए मैं हमेशा किसी जिन्नात की मदद की कल्पना करती थी। मैंने अपनी पसंदीदा नौकरी पाई और मेरी पहली गाड़ी और मेरे सपनों का वह घर जो मुझे जिन्न दिलानेवाला था मैंने स्वयं ही ख़रीदा।

अल्लाद्दीन का एक चिराग़ आज भी मेरे अंदर सँभाल कर रखा हुआ है, जिसे मैं अपनी हर महत्वकांक्षा के साथ रगड़ती हूँ।

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