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दाँत

दाँत

सुमंगली आँगन में पड़ी अपनी चारपाई पर बैठी थी। उसके झुर्रियों से भरे पोपले मुँह पर हँसी आ गई। अस्सी की उम्र में भी उसकी हँसी पाँच साल के मासूम सी थी। वह इस समय आँगन में खेल रहे बच्चों को देख रही थी और किशना कि शैतानी पर उसे हँसी आ गई। बिट्टो ने दादी से शिकायत की, ‘देखो दादी। किशना न तो ठीक से खेल रहा है न खेलने दे रहा है। ‘ सुमंगली ने किसी जज के समान बिट्टो की शिकायत सुनते हुए कहा ‘क्यों रे छोरे! क्यों खेल खराब कर रहा है। ‘

‘दादी। ये मुझे अपने साथ नहीं खिला रही हैं‘ ‘क्यों बिट्टो!‘ ‘ये बाहर जा कर और लडक़ों के साथ क्यों नहीं खेलता। एक तो इसे हमारा खेल आता नहीं और जबरदस्ती गोटियों के ऊपर आकर खड़ा हो जाता है‘ ‘तो सिखा न उस। ‘ ‘वो नहीं सीखता‘ ‘सीखेगा, क्यों नहीं सीखेगा। तू सिखा तो सही‘ ‘हाँ मैं सीखूगाँ दादी लेकिन से सिखाएगी नहीं‘ ‘सिखाएगी। मैं हूँ न यहीं बैठी। देखती हूँ। ‘

फरयादी ने फैसला सुना और एक आज्ञाकारी की तरह तुरंत जज के फैसले पर अमल किया। सुमंगली फिर बच्चों के खेल में खो गई। थोडी देर में चंदा ने चारों बच्चों को रात के खाने के लिए आवाज़ दी। लेकिन बच्चे खेल कहाँ छोडऩे वाले थे। अत: चंदा को खुद ही उठकर आना पड़ा, वो भी जानती थी कि जब तक इन को घसीट कर नहीं लाएंगे तब तक वो हिलेंगे नहीं। बच्चे खेल में खोए थे जब चंदा गोटियों पर आकर खड़ी हो गई। फिर क्या था इससे पहले कि वो चिल्लाना शुरू करती बच्चे दौडक़र रसोईघर में गए और अपनी अपनी थाली उठा ली। चंदा के चेहरे पर विजयी मुस्कान दौड़ गई, फिर सुमंगली की तरफ मुडक़र कहा- ‘अम्माजी! चौका बस उठने ही वाला है, आदमियों ने खाना खा लिया है, बच्चे खा रहे हैं, उसके बाद मैं और बरखा भी बैठ जाएंगे। तीन रोटियाँ सेंक दी हैं।

सुमंगली के तीन लडक़े थे- बिशनलाल, रतनलाल और सोहनलाल, दो बहुएँ-चंदा और बरखा, बिशन की दो लड़कियाँ निम्मो और चारू, रतन को किशना और बिट्टो थे। एक अच्छे खासे जीवन की साँझ वह अब सुख और शांति में बिताना चाहती थी। शायद इसीलिए वह लडक़ों के काम में दख़ल नहीं देती थी, हाँ लडक़े अपनी सुविधानुसार उससे सलाह-मशविरा कर लेते थे। तब वह अपने अनुभव और ज्ञान का पूरा लाभ देती थी।

अपने समय में उसने बहुत इज़्जत बटोरी थी, हालाँकि इसके लिए उसने काफ़ी कुछ सहा भी था। जब शादी कर के आई थी तब एक क्रूर ससुराल और उसकी सास-ननदों से उसका पाला पड़ा था। शुरु में उसे सताया तो खूब गया लेकिन यह सब ज़्यादा देर न चला। अक़सर कठोर सास और ननदों का उद्देश्य बहू को दबाव में रखकर उसके रोने-धोने और शिक़ायत में सुख की प्राप्ति था। लेकिन सुमंगली की प्रतिक्रिया अजीब होती थी। वह उनकी अपेक्षा के विपरीत न तो रोती थी, न विरोध करती थी और न शिकायत। वह ऐसी प्रताडऩा पर एकदम शांत हो जाती और उसका विद्रोह उस शांत भाव में झलकता जो विरोधियों को मुँह चिढ़ाता और उन्हें ये एहसास दिलाता कि उनकी सारी कोशिशें विफल हो गईं। इस लिए कुछ ही समय बाद सुमंगली अपनी जगह बनाने में सफल हो गई।

पति से उसे मार तो मिलती थी लेकिन वह यह सोच के सह लेती थी कि जहाँ पति से इतना प्रेम मिल रहा है वहाँ दो चार लात भी सही है, और सबसे बड़ा संतोष तो इस बात का था कि वह औरों की तरह उसे कभी किसी के सामने न पीटता था और न ही घुड़कियाँ देता था। वह यह समझता था कि सुमंगली को पीटने या कुछ भी कहने का अधिकार केवल उसी को है, जिसमें वो बँटवारा बिल्कुल नहीं झेल सकता था। इन बातों के कारण समय के साथ उसकी इज़्ज़त गाँव की अन्य औरतों से कहीं ज़्यादा होने लगी।

सुमंगली आज भी सोचती है तो दंग रह जाती है कि वो सदी कहाँ गायब हो गई और कैसे उस समय के सब लोगों में केवल वह ही अकेली बची है। वो जानती थी कि आदमियों को अपने काम में औरतों की दख़लंदाज़ी बिल्कुल पसंद नहीं इसलिए वह अपने लडक़ों के काम में कोई हस्तक्षेप नहीं करती थी।

इस वक्त सुमंगली अपने लिए आलू भून रही थी और रोटियों को बट्टे से कूट रही थी। दरअसल बात ये थी कि उसके मुँह में गिनकर आठ दाँत बचे थे, जो उसके मुँह की दायीं ओर थे। वास्तव में उसके चार ही दाँत थे, जो ऊपर की ओर थे। उनके नीचे के चार दाँत सोने के थे। इसलिए औरों की तरह वह सामान्य भोजन नहीं करती थी, हालाँकि अच्छा खाने की चाह में कभी-कभी अपने आठ दाँतों को बड़ा कष्ट दे देती थी और डरती भी थी कि कहीं ये भी न चले जाएं।

***

शाम के वक्त तीनों भाई खेत से लौटे थे और एक गंभीर समस्या पर चर्चा कर रहे थे। हाथ-मुँह धोकर वे आँगन में ही बैठ गए और जलपान का इंतजार करते-करते विचार-विमर्श में मग्न हो गए।

चंदा लोटे में चाय और चार-पाँच गिलास लेकर पहुँची।

‘क्या बात है आज खेत में कुछ हुआ क्या?‘

रतन बोला ‘नहीं भाभी, कुछ हुआ नहीं, हम भाई लोग मिलकर ये सोच रहे थे कि अपने खेत के बगल में बूढ़े दानू का खेत है, आज वो अपने खेत बेचने की बात कर रहा था, अगर हम खरीद लें तो कैसा रहे?‘

‘सोच समझकर खरीदना, वो बुढ़वा बहुत चालू चीज़ है, आज तक उसने एक भी सीधा सौदा नहीं किया, जिसने भी उससे सौदा किया है, रोया है। ‘

बिशन ने बात को और साफ़ करते हुए कहा ‘यही तो बात है चंदा, उससे सावधानी से सौदा करना होगा, लेकिन जो ज़मीन वो बेचना चाहता है वह हमारे खेतों के किनारे है, अगर हमने खरीद ली तो सडक़ तक की सारी ज़मीन हमारी ही हमारी होगी, लेकिन अगर किसी और ने खरीदी तो उसे अपने खेत तक जाने के लिए हमारे ही खेत से गुजऱना पड़ेगा, दूसरी बड़ी बात यह है कि बुड्डे के खेत में एक कुँआ भी है जहाँ अगर बोङ्क्षरग करा दी जाए तो अपने आस-पास के सारे खेतों को पानी मिलना आसान हो जाएगा‘

सोहन ने सुमंगली की ओर देख कर चिल्लाते हुए पूछा ‘क्यों अम्मा क्या कहती हो?‘

सुमंगली बिट्टो की चोटी में फूल गूँथ रही थी जो बिट्टो ने सारी दोपहर लगाकर इक_ किए थे। दोपहर में चारों बच्चे खेलते-खेलते बगल के बँसवाड में निकल गए थे और वहाँ से तरह-तरह का सामान उठा कर लाए थे, जिसके लिए उनको अपनी-अपनी माँओं से अच्छी मार पड़ी थी। लेकिन शाम को जब सोकर उठे तो सारी मार भूल चुके थे और अपने खेलों में फिर मस्त हो गए। बिट्टो ने पहले ही अपने फूल दादी के कमरे में छुपा दिए थे और अब उसे अचानक याद आया। फूल लेकर दादी के पास पहुँची थी और दादी भी कम बच्ची न थी, उसका भी मन अब इन्हीं चीज़ों से बहलता था, सो वो भी मग्न थी। सोहन फिर चिल्लाया ‘अम्मा। कुछ सुनती हो?‘ सुमंगली का ध्यान भंग हुआ।

सोहन के चेहरे पर आँखें गड़ाकर उसे पहचानते हुए बोली-‘क्या!‘ ‘लो यहाँ सारी रामकथा समाप्त हो गई और इनको पता ही नहीं कि राम कौन?‘ सब ने सोचा की माँ से सलाह लेकर देखते हैं, उन्हें भी इन सबका कुछ न कुछ पता तो होगा। सारी बात फिर से दुहराई गई।

सारी बात गौर से सुनने के बाद सुमंगली ने कहा ‘सौदा तो अच्छा है लेकिन दानू बड़ी टेढ़ी खीर है, चंदा सही कहती है, आज तक उसने टेढ़े सौदे ही किए हैं। सौदा करते वक्त उससे साफ़-साफ़ बात करने को कहना और जहाँ कहीं वह किसी भी प्रकार की शर्त लगाए, उससे सावधान हो जाना। यह भी देखना कि वह कोई गोल-मोल बात न करे। हो सके तो गाँव के दो-चार बड़े-बूढ़ों के सामने ही सौदे की बात करना। सौदा पटे तो ही करना वरना छोड़ देना, उसकी बातों में आकर कोई गलत सौदा मत कर बैठना। इंच के हिसाब से और मीटर के हिसाब से सौदा करने मत जाना, उसे साफ-साफ कहना की पूरा का पूरा खेत हमें चाहिए और उसका सीधा दाम बता। ‘

तीनों भाइयों ने गौर से सुना और तय किया कि दानू है तो धाँधलेबाज़ लेकिन हम भी तो बछिया के ताऊ नहीं हैं। सो अगले दिन ही जाकर सौदा पटा लिया गया। सुमंगली को हैरानी यह जानकर हुई कि दानू ने पूरे खेत का एक ही दाम लगाया और वही दाम लेकर चुप बैठ गया। अपनी हैरानी उसने बच्चों पर ज़ाहिर भी की लेकिन उन्होंने प्रसन्नता के उन्माद में इतना ही कहा, ‘बेकार फिकर करती हो अम्मा, सौदा तो हो चुका और बुड्डे ने रुपए भी ले लिए हैं। ‘ सुमंगली चुप हो गई और अपने काम में लग गई।

पिछली फसल अच्छी हुई थी और इसी कारण तीनों ये खेत खरीद सके। तीनों बहुत खुश थे क्योंकि नया खेत मिलने के अलावा उनके खेतों की ङ्क्षसचाई अब और आसान हो गई थी। और तो और तीनों ने मिल-जोड़ कर जो रुपए खेत के लिए जुटाए थे उसमें से कुछ रुपए, खेत की जोताई, पम्प लगाने के लिए, बीज खरीदने इत्यादि के लिए बच रहे थे। तीनों ने खेत की जोताई और बुआई भी की और उसके चारों तरफ बाड़ तक लगा दिया।

***

आज तीनों भाई मिलकर पम्प लगावा रहे थे।

हक्के-बक्के से तीनों एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे। ‘क्यूँ सोहन! तू तो कहता था कि कुँए में पानी काफी ऊपर तक रहता है। ‘

‘हाँ भैया! बरसात में एक बार बुढ़वे ने दिखाया तो था। ‘ ‘खेत खरीदते वक्त नहीं देखा? देखा तो था। मगर कुछ दिखा नहीं ठीक से। अंदर तो अंधेरा ही अंधेरा था, दिखता कैसे? सो बरसात वाली बात पर भरोसा कर लिया। ‘

बिशन ने माथा ठोंक लिया एक ही तो चीज़ तेरे भरोसे छोड़ी थी। उफ्फ... ‘तभी दाँत निपोरता दानू भी खेत की एक पगडंडी पर आकर बैठा। ‘क्यूँ भैया! पम्पी लगा रहे हो?‘

तीनों ठगे से उसकी ओर मुड़े। ‘अपने बचे-खुचे दाँत बाहर निकाल कर आगे बोला, ‘मगर पानी तो बहुत नीचे है। बोङ्क्षरग लगवाओगे कैसे?‘

यह सुनते ही तीनों का पारा चढ़ गया।

सोहन ने मुठ्ठियां भींचते हुए कहा, ‘पहले नहीं बता सकते थे। खेत बेचते व़क्त तो कह रहे थे कि कुआँ लबालब भरा रहता है। और तुम अच्छी तरह से जानते हो कि इस कुएँ की वजह से हमने तुम्हारे खेत खरीदे वरना दक्खिन पट्टी वाले पटवारी के खेत भी खरीद सकते थे। कितने सस्ते में बिक रहे थे। उफ्फ। ‘ कहते-कहते एक पछतावे की आह सी निकल पड़ी। जो सुनी किसी ने नहीं।

‘कहा था, अब भी कहता हूँ.... लबालब भरा रहता है। ‘ कुटिल मुस्कान के साथ दानू ने अपना वाक्य पूरा किया, ‘...मगर... मगर ....केवल बरसात में.… ह हा हा। ‘अभी दानू और भी कुछ कहना चाह रहा था कि गुस्से से कंपकंपाते सोहन ने उछलकर दानू की गर्दन पकड़ ली और दानू चिल्लाने लगा। ‘अरे मार डाला रे मार डाला... कोई बूढ़े को बचाओ... अरे दीन-दुखियों का दुनिया में कोई है क्या...गरीब आदमी को गुंडागर्दी से लूट रहे हैं.... अरे मुझ गरीब को कोई बचाओ..बचाओ रे बचाओ...‘

रतन ने सोहन को दानू से अलग किया लेकिन तब तक खेत में क़ाफी भीड़ जमा हो गई थी।

***

शाम के समय तीनों भाई भुनभुनाते हुए घर में दाखि़ल हुए। घर की सभी औरतों को मालूम चल रहा था कि कुछ गडबड ज़रूर है। सोहन ने दोनो भाभियों को जाकर सारा हाल कह सुनाया। सोहन भन्नाते हुए बोला, ‘पम्प सेट लगाना बहुत मंहगा पड़ेगा, पानी बहुत नीचे चला गया है। रतन भय्या बीच में न आते तो उसका आज ही राम-नाम सत्य कर देता था। कहता है कि अगर तुम लोग खेत वापस करना चाहो तो उसी पैसे में मुझे वापस कर सकते हो। ‘ बिशन ने सोहन के बौखलाहट पर कुछ ध्यान न देते हुए कहा, ‘खेत की जुताई पर और बीज पर अगर इतना खर्चा न हुआ होता तो सच में उसे वापस दे देते। अच्छा फँसाया बूढे ने। ‘ चंदा बोली ‘तो उसको कहो की जुताई और बीज और बाड़ के तार वगैराह के पैसे दे दे और उसी दाम में खेत वापस ले ले। ‘

‘हमने कहा तो था लेकिन इतना सीधा समझा है उसको, सड़ी-सी सूरत बनाकर बोला मैंने कहा था क्या खेत जोतने को, हाँ जैसा खेत मैंने तुम्हें बेचा था वैसा ही बनाकर फिर मुझे बेच दो। ‘ चंदा ने कहा-‘ये कैसी बच्चों जैसी बात की...‘सोहन बोला-‘बच्चों जैसी नहीं बहुत कुटिल बात की.... बच्चे तो हम बन गए। ‘ चंदा ने बिशन की ओर ताकते हुए पूछा-‘अब क्या करेंगे जी। ‘

‘करना क्या है, धूर्त ने कोई रास्ता ही नहीं छोडा। और रुपयों का इंतज़ाम करना पडेगा। ‘ ‘लेकिन कहाँ से?‘

‘यही तो मैं भी सोच रहा हूँ। ‘

इस ङ्क्षचता ने घर के सभी लोगों की नींद उडा दी थी। घर का वातावरण भारी हो गया था।

***

बरखा तोरई काट रही थी। अचानक किशना का विलाप सुनकर उस ओर दौड़ी। देखा तो किशना ज़ोर-ज़ोर से रो रहा था, उसके मुँह से खून बह रहा था, बिट्टो उसके कपड़े की धूल झाड़ रही थी और निम्मो और चारू उसे चुप कराने में लगी थीं।

बरखा ने लगभग चीखते हुए पूछा, ‘क्या हुआ? किसने मारा? किशना की ये हालत किसने की?‘

लड़कियाँ सहम गईं और उनसे कुछ बोलते ना बना। बरखा ने बिट्टो को झकझोरते हुए पूछा-‘कुछ बोलती क्यों नहीं?‘

सहमी हुई बिट्टो बोली- ‘अपने से गिर गया... ड्योढ़ी पर.. जोर से… और चोट लग गई....‘ पहले तो बरखा को यक़ीन न आया। लेकिन किशना और ज़ोर से रोने लगा और रोते- रोते पुष्टि की ‘..और... मेला दाँत भी...टूट गया। ‘

बरखा ने उसे गोद में उठाया और आँचल से पोंछते हुए बोली-‘मेरा राजा बेटा... मेरा सोना बेटा.. तू तो बहुत बहादुर है… रोते नहीं… चल चुप हो जा। ‘

‘लेकिन मेला दाँत.....‘ इतना कह के फिर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। किशना की असली समस्या बरखा को समझ में आई। वह चोट से उतना दु:खी न था जितना दाँत के खो देने पर।

वह बोली-‘अच्छा है, वो दाँत अच्छा नहीं था, अब तुझे अच्छा वाला दाँत आएगा। ‘

‘सच्ची‘

किशना को खुश होते देख बिट्टो ने भी उसको सांत्वना देने के लिए कहा-‘सच्ची किशना। अबकी तुझे सोने के दाँत निकलेंगे, देखना। ‘

बरखा हँस पड़ी, ‘हट पगली। सोने के दाँत थोड़े न होते हैं। ‘

‘होते हैं अम्मा। मैंने अपनी आँखों से देखे हैं। कसम से..‘

‘सोने के दाँत… तूने कहाँ देख लिए‘

‘दादी के पुराने दाँत टूटने के बाद नए सोने के दाँत निकले हैं। ‘

‘ धत पागल। ‘

बरखा उसकी बात हँसी में टाल गई। लेकिन वहीं पर आटा गूँथ रही चंदा को ये बात हज़म न हुई। उसने सोचा कुछ न कुछ बात ज़रूर होगी वरना बिट्टो इतने आश्वासन के साथ कैसे कह सकती है।

***

रात को जब चंदा लेटी तो इसी ख्याल में थी कि कैसे पता करे कि बिट्टो की बात कितनी सही है। बिशन खेत से थका हारा आकर लेटा था, इसके बावजूद उसकी आँखों में नींद नहीं थी। ये बात चंदा जानती थी और नींद न आने का कारण भी।

‘क्यों जी। कुछ बात बनी। ‘

‘नहीं चंदा। दो-चार जगह बात करके देखा, लेकिन कोई अपना सगा नही, जो उधार दे दे। जहाँ उधार मिल भी रहा है वहाँ इतना ब्याज लगा दिया जाता है कि ब्याज ही चुकाते रह जाएंगे और मूल चुकाने के समय उसी कुँए में कूदना पड़ेगा। ‘

‘ऐसा क्यों कहते हो?‘

बिशन ने कोई जवाब नहीं दिया। चंदा को यह डर भी सता रहा था कि कहीं उससे उसके गहने न माँग लिए जाएं। कोई न कोई उपाय तो उसे ढूँढऩा ही होगा ताकि उसके गहने सुरक्षित रहें। बात बदलते हुए उसने पूछा-

‘अच्छा। एक बात पूँछूँ। ‘

‘दस पूछ‘

‘अम्मा के मुँह में क्या सोने के दाँत उगे हैं‘

बिशन खिलखिला के हँस दिया। चंदा अपने बेतुके सवाल पर झेंप गई।

‘तूने कहाँ सुना‘

‘बिट्टो कह रही थी‘

‘हाँ। अम्मा के मुँह में सोने के दाँत तो हैं लेकिन उगे नहीं हैं बापू ने बनवाए हैं। ‘

‘बाबूजी ने? लेकिन क्यों?‘

‘दादी के मरने के बाद से खेतों की पूजा के लिए माँ को जाना पडता था। तूझे तो पता है कि मकर संक्रांति की पूजा के बाद ही हम खेती शुरु करते हैं...‘

‘...हाँ.. हाँ..‘

‘....और ये पूजा माँ ही करती है....‘

‘...हूँ....‘

‘..... जिस साल दादी मरी थी उस साल गज़ब की फसल उगी थी और हमारे खेतों में सबसे बेहिसाब फसल उगी थी। बाबूजी का मानना था....और धीरे-धीरे सारे गाँव का मानना था कि ये सब माँ के हाथों पूजा करवाने का फल था। बाबूजी बड़े प्रसन्न थे, इतने कि उन दिनों जब माँ का एक दाँत टूटा तो बाबूजी ने उन्हें सोने का दाँत लगवाया, और अगले चार साल तक क्रम से हर साल माँ का एक दाँत टूटता और बाबूजी सोने का दाँत लगवाते। माँ के मुँह में कुल चार सोने के दाँत हैं। ‘

‘फिर बाद में उन्होंने बाकी के दाँत सोने के क्यों नहीं लगवाए?‘

‘हूँ... पता नहीं। उन चार दाँतों के बाद अगला दाँत कई सालों बाद गिरा, तब तक शायद उनको रुचि न रही हो या शायद बजट में न हो या...पता नहीं। वैसे माँ के ज़्यादातर दाँत तो बाबूजी के गुजऱने के बाद ही गिरे हैं। ‘

इस बातचीत ने बिशन का ध्यान उसकी समस्या से कहीं दूर हटा दिया था और वो उसी कहीं दूर में खोया-खोया कब सो गया उसे पता न चला। इधर चंदा के दिमाग में जाने क्या खलबली मची थी। काफ़ी देर तक अपने आँचल को चबाते-चबाते जब उसने कुछ पूछने के लिए बिशन की ओर देखा तो वो सो चुका था। उसके बाद उसके पास भी सोने के अलावा और कोई चारा नहीं था।

***

आज सुबह से चंदा माँ की खूब सेवा में लगी थी। सुमंगली को बात कुछ समझ नहीं आ रही थी और बरखा को भी हज़म नहीं हो रही थी। बातों बातों में चंदा ने माँ के सोने के दाँत देखने की ख्वाइश की। सुमंगली को अचंभा हुआ कि इसे कहाँ से पता चला और एक बुरा ख्याल दिमाग में घर कर गया। उसने अपना पूरा मुँह खोल के दिखाया तो चंदा को अपनी आँखों पर यकीन नहीं आया। उसकी आँखों की चमक देखकर सुमंगली डर गई।

जिसका डर सुमंगली को सता रहा था वही हुआ। चंदा ने घर के सभी सदस्यों को यह समझा दिया कि उनकी समस्या का समाधान सुमंगली के दाँतों से निकल सकता है। हाँ बेटों को समझाते समय उसे काफी विरोध का सामना करना पड़ा, परंतु अंतत: सफल हुई।

सोहन को समझाना आसान था, उसे बस इतना ही समझाना पड़ा कि दानू के मुँह पर अगर तमाचा मारना है तो उसके कुँएं में पम्प लगाना ही होगी और उसके सामने उन खेतों पर लहलहाती फसल खड़ी करनी होगी और यह सब संभव है, माँ के दाँतो से।

रतन को मनाना टेढ़ी खीर थी। लेकिन उसके लिए उसने पहले बरखा को शीशे में उतारा, जो काफ़ी आसान था। बरखा से कहा-‘गहने पहने का शौक सुना था, महंगी साड़ी पहनने का शौक सुना था और तो और सजने सँवरने का शौक भी सुना था लेकिन ये सोने के दाँत लगाने का शौक कौन सा शौक है भइय्या... वो भी उसे जिसकी एक टाँग कबर(कब्र) में लटक रही हो। अरे बुढिय़ा दाँत देने को राजी हो जाए तो उसी के घर में खुशहाली आएगी, उसी के बच्चे जिएंगे, मगर वो क्यों देने लगी। वो है कि अपने बच्चों से कोई मोह नहीं और ये तीनों मर्द उस पर जान छिडक़ते हैं, जब देखो माँ ये... माँ वो। मैं उनकी जगह होती तो कुछ न पूछती... कुछ न बताती... सीधे बुढिय़ा के दाँत उखाड़ लेती। अब रतन भइय्या को देखो रात दिन मेहनत करते हैं ताकि किशना और बिट्टो को अच्छे से अच्छा खाने और ओढऩे को मिले। कुँए की ङ्क्षचता ने उनकी क्या हालत कर दी है, न ठीक से खाते हैं न चैन से बैठते हैं, तीन ही दिन में आधे नजऱ आ रहे हैं, चेहरे से रंग गायब। उनकी ङ्क्षचता का सारा समाधान बुढिय़ा अपने मुँह में लिए बैठी है और वो हैं कि माँ के खिलाफ़ कुछ सुनने को तैयार नहीं। तुम ही कुछ क्यों नहीं समझाती। मुझे तो इस बात का भी डर है कि कहीं ये होनहार बेटे अपनी माँ के दाँत बचाने के चक्कर में हम सुहागनों के गहने न उतरवा लें। ‘

उस रात अपने कमरे में चंदा और बिशन् में ज़बरदस्त झगड़ा हुआ। नौबत यहाँ तक आ गई कि बिशन ने चंदा पर हाथ तक उठा दिया। गुस्से में कमरे से बाहर निकला और फिर घर से। किसी को कुछ समझ नहीं आया कि बात क्या हुई जो इतनी बढ़ गई। सबने यही समझा कि घर की समस्याओं का दबाव अब सबके जीवन में भी दिखने लगा है।

बिशन रातभर बाहर ही रहा और सारी रात सोचता ही रहा। ज़्यादा सोचने पर उसे चंदा की बात सही लगी। आखिर वो बेचारी भी तो गलत नहीं कह रही, कुछ सालों में निम्मो की शादी करनी है और फिर चारू की भी; उसके बारे में अभी से नहीं सोचेंगे तो कब....? और माँ की तो उम्र हो चली है, उसे सोने के दाँत का क्या करना है। सही भी है कि अगर कुँआ अपना हो गया तो फसल अच्छी होगी और फसल अच्छी हो गई तो माँ को कोई गहना भी बनवा सकते हैं। वैसे भी माँ ने अपने सारे गहने तो बहुओं को दे डाले। या फिर पूरे के पूरे नकली दाँत भी लगवा सकते हैं, आज तक दूसरी ज़रूरतों के चलते माँ के दाँतों के बारे में कभी नहीं सोचा और उन्होंने भी कभी नहीं कहा। जब इतने साल बिना दाँत के चल गए तो कुछ दिन के लिए और न चल जाएंगे। लेकिन वे दाँत भी तो नहीं माँग सकता, पिताजी ने बनवाया था।

***

अंतत: तीनों भाइयों ने हिम्मत कर के बात कह ही डाली। सुमंगली को हैरानी तो ज़रूर हुई कि इन तीनों ने इतनी हिम्मत कर कैसे ली, लेकिन वो तैयार बैठी थी।

तुम्हारे पिताजी ने कोई ताजमहल तो बनवाया नहीं है, ये ही बनवाके दिया मुझे और तुम चाहते हो कि ये भी मैं तुम्हें दे दूँ। आज वो जि़न्दा होते तो क्या तब भी तुम ये हिमाकत करते। तुम लोगों ने अगर अपना कुछ दिया हो तो मुझसे ले लो, मगर वो जो तुम्हारा है ही नहीं वो कैसे माँग सकते हो। माँगना ही है तो अपने पिताजी से माँगो, और अगर वे हाँ कह दें तो ले लेना। ‘

चंदा ने पीछे से चुटकी ली-‘बहुत तेज़ हो अम्मा, अब बाबूजी का भूत बुलवाओगी क्या? सीधे-सीधे दे क्यों नहीं देती। इस उमर में सोने का लालच अच्छा नहीं। धरम-करम करो ताकि तुम्हारा परलोक सुधर जाए। तुम्हारे अपने बच्चे ही तो कुछ माँग रहे हैं और फिर कह भी रहे हैं कि लौटा देंगे। ‘

‘मुझे अच्छी तरह से पता है कि क्या लौटाएंगे...‘

सोहन बोला-‘अच्छा माँ! एक बात बता। हमारी तक़लीफें तो तुझे नजऱ नहीं आती मगर मान ले अगर पिताजी ङ्क्षजदा होते और उन्हें ज़रूरत होती तो क्या तू तब भी ऐसा ही करती। ‘

सुमंगली अपनी ही मुँह से निकली बात में फँस गई। कुछ न सूझा कि क्या कहे सो कह बैठी-‘मेरे दाँत तो अच्छी तरह से जम गए हैं, वे न निकलेंगे। ‘

इतना कहने की देर थी कि चंदा चमक उठी और सुमंगली पर लगभग झपटते हुए बोली-‘अम्मा! ङ्क्षचता न करो। वह हम पर छोड़ दो।

***

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