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वस्तुगत

वस्तुगत

सुबह—सुबह प्रातः छः बजे प्रतिभा की नींद खुली, तो आज फिर उसके सामने अपने अस्तित्व को सिद्ध करने की चुनौती सामने खड़ी थी। उसकी माँ अपनी बेटी के स्वतंत्र अस्तित्व को नकारते हुए कह रही थी— “बस, मेरी एक ही इच्छा थी कि अपनी बेटी का कन्यादान मैं अपने हाथों से कर दूँ, पता नहीं किस घड़ी मुझे मौत आ जाए ! पर तुम बाप—बेटी की चलती रही, तो मेरे मन की मन में ही रह जाएगी ! ”

पिछले दो वर्षों से प्रतिभा की माँ की संतुष्टि के लिए प्रतिभा के पिता उसके लिए सुयोग्य—वर की तलाश में हैं, किन्तु न तो अभी तक उन्हें कोई सुयोग्य वर मिल सका है, जिसे वे अपनी बेटी का जीवन—साथी बना सकें, न ही प्रतिभा अभी विवाह करना चाहती है। कुछ सुयोग्य और कुलीन युवक मिले भी हैं, परंतु उनकी दहेज की लालसा देखकर प्रतिभा के पिता का उनसे मोह भंग हो गया इसलिए दोबारा वे उन युवकों से या उनके अभिभावकों से संपर्क करने का कोई औचित्य नहीं समझते।

माँ की तड़प देखकर प्रतिभा का हृदय रो उठा। पिछले दस वर्षों से प्रतिभा की माँ अपनी एक ही इच्छा — कन्यादान करने की इच्छा को लेकर समय—असमय बेटी की उन्नति के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करती रही है। दस वर्ष पहले प्रतिभा की माँ का ऑपरेशन हुआ था। शुगर की मरीज होने के कारण ऑपरेशन के पश्चात् माँ का घाव पूरी तरह नहीं भर पाया था। उनके घाव से आज भी मवाद का रिसाव होता रहता है। इसीलिए वह माँ की तड़प को देखकर तड़प उठती है, परन्तु कन्यादान करके पुण्य कमाने की माँ की इच्छा से वह क्रोधित हो उठती है — “मम्मी, मैंने कितनी बार कहा है, मैं आपकी बेटी हूँ, कोई वस्तु नही हूँ, जिसे दान करके आप पुण्य कमाना चाहती हैं !” प्रतिभा आँखें मलते हुए बड़बड़ायी।

प्रतिभा जब दसवीं कक्षा की छात्रा थी, तब से आज तक माँ उसका विवाह करने की बात कहती रही है, किन्तु पिता ने बेटी की इच्छा और आधुनिक युग की माँग को ध्यान में रखते हुए उसकी शिक्षा जारी रखी थी। आज भी वे बेटी की न्यायोचित इच्छाओं का दमन करने के पक्ष में नहीं है। बेटी की उन्नति और समाज में उसकी सकरारात्मक—सुदृढ़ स्वीकार्यता उनके जीवन के प्रमुख उद्देश्यों में से एक है। पिता की प्रेरणा और सहयोग के साथ अपनी स्वयं की लगन और परिश्रम से प्रतिभा ने एम.एस.सी इलैक्ट्रॉनिक्स प्रथम श्रेणी में दो वर्ष पूर्व उत्तीर्ण की थी और उसी वर्ष जे.आर.एफ की परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करके मेरिट में द्वितीय स्थान प्राप्त किया था। अब उसको जे.आर.एफ के अंतर्गत रिसर्च स्कॉलर के रूप में काम करते हुए कुछ रुपये भी मिलते हैं। उन रुपयों का एक छोटा अंश ही वह अपने लिए खर्च कर पाती है, बड़ा अंश वह घर में देती है। फिर भी, उसकी माँ आज तक उसके स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर पायी है।

कन्यादान की बातें सुनकर प्रतिभा के हृदय में आज क्षण—भर के लिए माँ की मृत्यु का भय भर गया था, किन्तु अगले ही क्षण भय का स्थान क्रोध ने ले लिया था— “पिछले दस साल से मैं कन्यादान की इन्हीं बातों को सुनती आ रही हूँ। मैं इन दस सालों में लाखों—करोड़ों बार कह चुकी हूँ कि मैं भी भाई की तरह इस घर की संतान हूँ, कोई निर्जीव वस्तु नहीं, पर इन्हें अभी तक यह समझ में नहीं आया हैं।” क्रोध में प्रतिभा तब तक झुँझलाती चिल्लाती ही रही, जब तक माँ ने उसे दो—चार खरी—खोटी नहीं सुनायी। उसकी झुँझलाहटयुक्त दलील सुनकर माँ ने उसके पिता से अपनी चिर—परिचित शैली में कहा

“पढ़-लिखकर इसकी जुबान कितनी लम्बी हो गयी है, देख लिया आपने ? या अभी भी कोई कसर बाकी है ? बेटी को सिर पे चढ़ाके ये दिन भी देखना पड़ेगा, मुझे पहले ही पता था।”

माँ की बातें सुनकर प्रतिभा की व्यथा बढ़ गयी। धीरे—धीरे उसके मन की पीड़ा दृढ़ संकल्प में बदलने लगी। अनायास ही उसने आज कुछ ऐसा करने का संकल्प कर लिया, जिससे माँ को यह समझा सके कि वह एक जीती—जागती, संवेदनशील और बुद्धिसंपन्न—विवकेशील प्राणी है, जिसकी अपनी भावनाएँ हैं; अपने विचार हैं। अपने इन्हीं भावों—विचारों के अनुरूप वह अपना जीवन जीना चाहती है।

अपने संकल्प को कार्यरूप में परिणत करने के लिए माँ की ओर देखे बिना ही प्रतिभा बिस्तर से उठकर कमरे से बाहर आयी और घर से बाहर कहीं जाने की तैयारी करने लगी। प्रतिभा के इस व्यवहार से माँ अपने मन में कुढ़ने लगी। उनके होंठ फड़कने लगे, लेकिन अब उनके मन की कुढ़न शब्दों में रूपान्तरित नहीं हो रही थी। उनके चेहरे की भाव—भगिमा को देखकर विश्वास के साथ कहा जा सकता था कि वे अपनी बटी के तर्कों से सहमत नहीं थीं और रूढि़यों का खण्डन होते देखकर बहुत खिन्न थीं। प्रतिभा भी स्वयं को उचित अनुभ्व करते हुए तथा माँ को परोक्ष रूप से जिद्दी तथा विवकेशून्य मानते हुए कुछ समयोपरान्त किसी को कुछ बताये बिना घर से निकल गयी।

बेटी के बिना बताये घर से जाने पर माँ को चिन्ता हाने लगी। कुछ अनहोनी न कर बैठे, यह सोच—साचेकर माँ कभी खुद को कोसने लगती, तो कभी अपने पति पर आरोप लगाने लगती कि बाप के लाड़—प्यार ने ही उसे इतना बिगाड़ दिया है कि आज न तो जवान बेटी को किसी बड़े—छोटे की शरम या ड़र रह गया है, न ही उसको सही—गलत की पहचान है। माँ का लगभग एक—डेढ़ घंटा इसी प्रकार बीता, जब तक कि प्रतिभा घर वापिस नहीं लौट आयी।

जब प्रतिभा घर वापिस लौटी, तब उसके चेहरे पर विचित्र—सा संतोष था ; शान्ति थी ; आँखों में चमक थी। घर लौटने के बाद भी उसने किसी से बात नहीं की, सीधे अपने कमरे में जाकर अध्ययन करने लगी। माँ भी अब निश्चिंत हो गयी थी, इसलिए वे अपने काम में वयस्त हो गयीं।

प्रतिभा के घर लौटने के एक घंटा पश्चात् डोर बेल बजी। प्रतिभा के पिता ने दरवाजा खोला, देखा कि एक सर्वथा अपरिचित अधेड़ युगल अन्दर आने के लिए उत्सुक हैं। उन्हें देखकर अनुमान लगाया जा सकता था कि वे दोनों पति—पत्नी किसी सभ्य—संपन्न परिवार के स्वामी है। अतः प्रतिभा के पिता ने कोई प्रश्न किये बिना उन्हें अंदर बुला लिया और चाय—नाश्ता लाने के लिए प्रतिभा को पुकारा। शायद प्रतिभा को अतिथियों के आने की पहले से ही सूचना थी, इसलिए पिता के पुकारते ही वह चाय—नाश्ता लेकर प्रस्तुत हो गयी और अतिथियों के साथ पिता—पुत्री दोनों बातें करने लगे। अतिथियों ने प्रतिभा की माँ को भी अपनी बातों में सम्मिलित होने का विनम्र आग्रह किया। उनके आग्रह पर प्रतिभा की माँ शीघ्र ही वहाँ उपस्थित होकर उनकी बातों में सम्मिलित हो गयीं। बातों का सिलसिला आगे बढ़ने लगा। कुछ समय तक बातचीत करते रहने के पश्चात् आगन्तुक दंपति ने वहाँ आने का कारण बताते हुए कहा —

“हम अपनी बिटिया के लिए आपके बेटे को माँगने आए हैं ! विश्वास कीजिए, आपके बेटे को कभी कोई कष्ट नहीं होगा !”

“ यह क्या कह रहे हैं आप ?” प्रतिभा की माँ ने उनके कथन को स्पष्ट न समझ पाने की मुद्रा में कहा।

“बहन जी ! ईश्वर की कृपा से घर में सुख—संपदा और संस्कारों की कोई कमी नहीं है ! दो बेटियाँ हैं। दोनों योग्य हैं और अच्छा—खासा कमाती हैं। बस दामादों की कमी है, जो संस्कारी हों और घर—परिवार को सम्हाल सकें। प्रतिभा बिटिया को देखा, तो हम इसके संस्कारों से बहुत प्रभावित हुए। इसने बताया था कि इसका एक भाई भी है, जो वर्षों से नौकरी की तलाश में भटक रहा है ! हमें तो बस संस्कारी दामाद चाहिए, नौकरी नहीं हो, तो भी चलेगा !” आगंतुक दंपति ने बातचीत आगे बढ़ायी।

“अच्छा ! आप मेरे बेटे को अपनी बेटी के लिए माँगने आये हैं ? पर मैं आपको बता देना चाहती हूँ, बेटा मंगनी में देने की चीज नहीं होता है ! बेटा माँगने की जो गलती आपने इस घर में की है, कहीं दूसरी जगह मत कर देना, आप मुँह की खाओगे और बहुत मार भी पड़ेगी !” प्रतिभा की माँ ने बेटे की माँ होने का गर्व करते हुए कहा, तो प्रतिभा ने आगंतुक दंपति के पक्ष में प्रश्नात्मक मुद्रा ग्रहण करते हुए कहा —

“वाह, मम्मी ! बेटा दान में देने—लेने की वस्तु नहीं है जबकि बेटी दान में देने की वस्तु है ! क्यों ? क्या मैंने उसी गर्भ से जन्म नहीं लिया, जिस गर्भ से भाई जन्मा है ? क्या मेरे शरीर में वही रक्त नहीं दौड़ रहा है, जो भाई के शरीर में है ? मैं भाई की अपेक्षा अधिक योग्य हूँ ; अधिक कमाती हूँ ; परिवार के प्रति अधिक दायित्व निबाहती हूँ, फिर भी मैं दान में देने की वस्तु हूँ, क्यों ?”

“तेरी क्यों का उत्तर मेरे पास नहीं है ! मैं बस इतना जानती हूँ, बेटा दान की वस्तु नहीं है और कन्यादान की परम्परा सदियों से चली आ रही है। बेटा वंश चलाता है ; बुढ़ापे का सहारा होता है और मरने के बाद बेटे के हाथों से श्राद्ध—तर्पण ही मोक्ष दिलाता है !” माँ ने अपना पक्ष दृढ़तापूर्वक प्रस्तुत किया ।

“मम्मी जी, ये सारे काम बेटी भी कर सकती है ! आप बेटी को एक बार अवसर तो दीजिए ! प्लीज ! एक बार, बस एक बार अपनी बेटी को वस्तु समझना बंद करके उसे बेटे के समान अवसर और अधिकार दीजिए और तब उसे कर्तव्य के पथ पर चलता देखिए ! आपकी बेटी कभी भी, कहीं भी बेटे की अपेक्षा बेहतर ही परिणाम देगी ! और रही मोक्ष दिलाने की बात, तो जो बेटा आज तक अपने माता—पिता की सेवा के रूप में उन्हें एक गिलास पानी नहीं पिला सका, अपने हाथों से कमाकर अन्न का एक कण नहीं खिला सका, आप कैसे कह सकती हैं कि केवल वही बेटा आपको मोक्ष दिला सकता है ?”

“हाँ, बहन जी ! प्रतिभा उचित कह रही है ! हमारी दो बेटियाँ हैं। आज तक उन्होंने हमें बेटे की कमी का अनुभव नहीं होने दिया है। हम आपका बेटा माँगने नहीं, यह एहसास कराने के लिए यहाँ आए हैं कि अंधविश्वासों और रूढि़यों से बाहर आइये ! जमाना बदल गया है। आज बेटियाँ नित्य नयी ऊँचाइयों पर झंडा गाड़ रही हैं, उन्हें उनके अस्तित्व से वंचित मत कीजिए !” आगंतुक अतिथियों ने प्रतिभा का समर्थन करते हुए कहा। प्रतिभा की माँ के मुख से कोई शब्द नहीं निकला, किंतु उनके चेहरे पर आते—जाते भाव बता रहे थे कि उनके मनोमस्तिष्क पर बेटी का पक्ष प्रबल हो रहा था। ऐसा प्रतीत हो रह था कि शायद अब वे बेटी के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकृति प्रदान कर सकती हैं ।

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