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प्रभात की ऊषा

प्रभात की ऊषा

संध्या की याद घर के हर कोने में बसी थी, प्रभात किसी भी कोने में बैठकर माँ और दोनों बच्चों से छुपकर रो लिया करता था जिससे उसका मन थोड़ा हल्का हो जाया करता था। माँ तो जानती थी लेकिन बच्चे अभी यह सब जानने के लिए बहुत छोटे थे, शिव दो साल का था और शिवानी तो अभी दो महीने की ही हुई थी।

शिवानी का जन्म एक जाने माने अस्पताल में हुआ था लेकिन उस डॉक्टर से न जाने क्या गलती हुई जिसने संध्या की जान ले ली। प्रभात ने अस्पताल और डॉक्टर के खिलाफ केस भी कर दिया, लेकिन संसार का कोई भी संस्थान प्रभात को संध्या नहीं दे सकता था और न ही शिबा और शिवानी को माँ लौटा सकता था।

माँ के सहयोग से प्रभात दोनों छोटे बच्चों को पालने की पूरी कोशिश कर रहा था, लेकिन संध्या की यादों को भूल नहीं पा रहा था अतः प्रभात अवसादग्रस्त हो गया। अवसाद से निकलने के लिए प्रभात यह घर छोड़ कर सन शाइन सोसाइटी में फ्लैट लेकर रहने लगा।

सामने वाले फ्लैट में ऊषा अपनी माँ के साथ रहती थी, ऊषा की माँ ने औपचारिकतावश उन लोगों को चाय पर बुलाया एवं प्रभात की माँ से कहा, “बहन जी! आपको किसी भी चीज की जरूरत पड़े तो बेझिझक बता देना।” प्रभात की माँ ने उनका धन्यवाद किया और आकर अपने फ्लैट में सामान व्यवस्थित करने लगी।

ऊषा सरकारी नौकरी करती थी विदेश मंत्रालय में सहायक के पद पर कार्यरत थी। कुछ समय में ही दोनों परिवारों में अच्छे संबंध बन गए, प्रभात की माँ को जब भी कहीं काम से जाना होता तो दोनों बच्चों को ऊषा की माँ के पास छोड़ जाती।

शनिवार रविवार को छुट्टी में ऊषा को भी बच्चों के साथ खेलने को मिलता जिससे ऊषा भी खुश रहने लगी और इस खुशी का निखार उसके चेहरे पर भी नजर आने लगा।

चालीस वर्षीय ऊषा ने अपने पिता की मृत्यु के पश्चात अपने छोटे भाई व बहन को पढ़ाने-लिखाने और उनकी शादियाँ करने में ही अपनी पूरी जवानी होम कर दी, लेकिन अपनी शादी के बारे में नहीं सोचा।

प्रभात के बच्चे ऊषा के साथ काफी घुल मिल गए और उसको ही अपनी माँ समझने लगे। शाम को शिव अपने दरवाजे पर खड़ा होकर ऊषा के आने की प्रतीक्षा करता रहता था, ऊषा भी अपने कार्यालय से जल्दी वापस आने लगी। प्रभात भी जल्दी ही आ जाता था और आने के बाद शिव को लेने ऊषा के घर चला जाता।

ऊषा अपने और प्रभात के लिए चाय बना लाती और कहती, “प्रभात जी आप चाय पीओ तब तक मुझे शिव के साथ थोड़ा और खेलने को मिल जाएगा।” चाय पीने के बाद प्रभात जब शिव को ले जाने लगता तो शिव कह देता, “पापा आप जाओ, में थोड़ी और देर आंटी के साथ खेलूँगा, आंटी बहुत अच्छी है मुझे बहुत प्यार करती है बिलकुल मम्मी की तरह।”

प्रभात कहता, “लेकिन बेटा! शिवानी अकेली है, वो किसके साथ खेलेगी?” तब तक ऊषा शिवानी को अपनी गोद में उठाकर ले आई और उसको खिलाने लगी। प्रभात बोला, “फिर मैं भी यहीं तुम लोगों के साथ खेलूँगा, अब तब ही घर चलेंगे जब माँ खाना बना लेगी।”

प्रभात और ऊषा के बीच नज़दीकियाँ बढ़ती जा रही थीं, सुबह प्रभात ऊषा को उसके कार्यालय छोडते हुए अपने कार्यालय निकल जाता फिर शाम को भी साथ लेकर आता, इस तरह दोनों साथ साथ ही कार्यालय आने जाने लगे और उनको एक दूसरे के साथ ज्यादा समय बिताने का मौका मिलने लगा, दोनों ही धीरे धीरे अपने अपने अवसाद से निकल रहे थे और एक दूसरे के नजदीक आ रहे थे।

प्रभात की माँ को दोनों की इस तरह की नज़दीकियाँ खटकने लगी और उसने बच्चों का ऊषा के घर आना जाना प्रतिबंधित कर दिया। प्रभात की माँ को दो तीन बातों से दिक्कत होने लगी थी एक तो ऊषा प्रभात से पाँच वर्ष बड़ी थी और दूसरे माँ को लगता था कि ऊषा बांझ है इसलिए उसके बच्चे नहीं हुए और कहीं वह हमारे बच्चों पर कोई तांत्रिक क्रिया न कर दे, बच्चों को किसी तरह का नुकसान न पहुंचा दे।

माँ के इस व्हवहार से बच्चे सबसे ज्यादा परेशान हो गए, प्रभात को भी बहुत खराब लग रहा था, ऊषा और उसकी माँ तो अचानक हुए इस बदलाव से बहुत दुखी हो गए। ऊषा की माँ कुछ कुछ कारण समझ तो रही थी और जल्दी ही इसका हल भी निकालना चाह रही थी लेकिन मौका नहीं मिल रहा था।

एक दिन जब प्रभात और ऊषा दोनों ही कार्यालय चले गए, दोनों बच्चे भी सो रहे थे तब ऊषा की माँ प्रभात के घर यह निश्चय करके गई कि आज प्रभात की माँ की गलत फहमी दूर करके ही आऊँगी।

ऊषा की माँ ने पूछ ही लिया, “क्या हो गया था बहु को?”

प्रभात की माँ बोली, “कुछ नहीं, बस शिवानी के जन्म के समय डॉक्टर की गलती की भेंट चढ़ गयी।”

प्रभात की माँ के मन में जो संदेह पैदा हो गया था उसके बारे में हाथ के हाथ पूछ बैठी, “बहन जी! आपकी बेटी ऊषा तो काफी उम्र की हो गयी, इसकी शादी क्यों नहीं की आपने? क्या इसके नारीत्व में कोई कमी है?”

ऊषा की माँ को इस मौके का ही इंतज़ार था इसलिए उसने प्रभात की माँ के संदेह को दूर करने के लिए सब कुछ बता देना ही उचित समझा।

ऊषा की माँ ने कहना शुरू किया ...........

“ऊषा के पिताजी बहुत ही हंसमुख, सुंदर सुडौल शरीर वाले आकर्षक नौजवान थे। हम एक दूसरे से बहुत प्यार करते थे, वे विदेश मंत्रालय में प्रशासनिक अधिकारी थे और मैं घर पर रहकर उनकी प्रतीक्षा किया करती थी। हमारे तीन बच्चे हो गये थे जिसमे ऊषा सबसे बड़ी, इससे छोटा लड़का और उससे छोटी एक और लड़की। ऊषा के पापा कहा करते थे कि तीनों बच्चों को अच्छी शिक्षा देकर बड़े अधिकारी बनाएँगे।

ऊषा ने अपनी बी॰ ए॰ की पढ़ाई पूरी की थी और हमने पश्चिम विहार में अपनी कोठी बनाई थी। ऊषा के पिता ने कोठी अपने बेटे के नाम पर ही बनाई थी और कहते थे कि लड़कियां तो अपनी अपनी ससुराल चली जाएंगी, बाद में भी सब कुछ बेटे का ही होगा इसलिए पहले ही इसके नाम कर देता हूँ, मैंने भी उस समय कोई ऐतराज नहीं किया।

हमें अभी कुछ ही दिन हुए थे पश्चिम विहार की कोठी में गए हुए कि अचानक ऊषा के पिता को हार्ट अटैक आया एवं देखते ही देखते सब कुछ खत्म हो गया।

ऊषा के पिता के गुजर जाने के बाद ऊषा को उनकी जगह नौकरी तो मिली लेकिन एक क्लर्क की नौकरी। लेकिन बाद में अपनी मेहनत व काबिलियत से सहायक के पद पर पहुँच गयी। ऊषा ने अपने छोटे भाई को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलवाई और अपनी छोटी बहन को भी खूब पढ़ाया। कभी भी ऊषा ने मुझे और अपने बहन भाई को कोई भी कमी महसूस नहीं होने दी, वे दोनों जो भी मांगते ऊषा हमेशा उनको लाकर देती।

ऊषा के कार्यालय का ही एक लड़का ऊषा से प्यार करने लगा था, लेकिन ऊषा को इतनी फुर्सत कहाँ थी जो उसके प्यार का ढंग से जवाब दे सके। एक दिन उस लड़के ने घर आकर मेरे से ऊषा का हाथ मांगा, मैं उस समय स्वार्थी हो गयी थी, सोचने लगी कि अगर ऊषा चली जाएगी तो घर में कमाने वाला कोई नहीं रहेगा, घर कैसे चलेगा, इन दोनों छोटे भाई बहन की पढ़ाई कैसे होगी और यह सब सोच कर मैंने उस लड़के के सामने यह शर्त रख दी कि अगर ऊषा से शादी करनी है तो तब तक इंतज़ार करना होगा जब तक इसके दोनों छोटे भाई बहन अपने पैरों पर खड़े नहीं हो जाते।

उस लड़के के घर वालों ने तो इंतज़ार नहीं किया और उसकी शादी कहीं दूसरी जगह कर दी लेकिन मेरी गलती के कारण, मेरे स्वार्थ के कारण मैंने ऊषा की शादी नहीं की।

ऊषा ने अपने छोटे भाई और अपनी छोटी बहन की शादी बड़ी धूम धाम से की, वे दोनों अपनी ग्रहस्थी में खुश रहने लगे, दोनों को अच्छी नौकरियाँ मिल गईं।

पूरा परिवार खुश था, घर में छोटा बच्चा आया था, ऊषा की खुशी का तो ठिकाना ही नहीं था। ऊषा पूरा पूरा दिन उस छोटे बच्चे के साथ खेलती रहती जो उसकी भाभी को अच्छा नहीं लगता था और एक दिन ऊषा की भाभी ने ऊषा की गोद से यह कह कर अपना बेटा छीन लिया, “तुम्हारा क्या भरोसा, तुम्हारे अपने बच्चे तो हुए नहीं, पता नहीं हमारे बेटे को कुछ कर दोगी तो?” ऊषा को यह बात अंदर तक चुभ गयी, जिस ऊषा ने अपने छोटे बहन भाई को अपने बच्चे मान कर पाला अब उसी पर इतनी बड़ी तोहमत लगा रही थी उसकी अपनी भाभी। ऊषा ने यह बात अपने भाई के सामने रखी तो उसने अपनी पत्नी का पक्ष लेते हुए ऊषा से कह दिया, “दीदी! अगर आपको मेरे घर में रहना है तो मेरी पत्नी के अनुसार ही रहना पड़ेगा, उसकी सब बातें सुननी पड़ेंगी अन्यथा आप अपने रहने का कहीं अलग प्रबंध कर सकती हैं।”

तभी ऊषा ने यह फ्लैट खरीदा एवं मुझे अपने साथ लेकर यहाँ आ गयी, बहन जी! मेरी ऊषा खरा सोना है, मैं ही स्वार्थी थी जो उसका घर नहीं बसने दिया।’’

प्रभात की माँ को अब अपने पर ग्लानि हो रही थी कि उसने एक त्यागी, तपस्वी, परोपकारी, सदाचारी लडकी के बारे में क्यों ऐसा सोचा।

शाम को जब ऊषा कार्यालय से वापस आई तो उसने प्रभात की माँ को अपने घर में ही बैठा पाया। घर में घुसते ही प्रभात की माँ ने ऊषा को अपने पास बिठा लिया एवं कहने लगी, “बेटी! मैंने तेरे जैसे त्यागिनी, तपस्विनी, परोपकारी एवं सदाचारी लड़की नहीं देखी, मेरे पोता पोती बिन माँ के बच्चे हैं, क्या तू उनकी माँ बनना पसंद करेगी?”

प्रभात भी पीछे से ऊषा के घर में ही आ गया था और शिव भी साथ में ही था, शिव ऊषा के गले से लिपट गया और कहने लगा, “आंटी! बन जाओ न हमारी माँ।” और यही बात प्रभात ने भी कह दी, “उषा! अब हाँ भी कर दो और बन जाओ इन अपने बच्चों की माँ,” ऐसा कहते हुए प्रभात ने शिवानी को ऊषा की गोद में दे दिया।

ऊषा की आँखों में खुशी के आँसू थे और ऊषा प्रभात की हो गयी थी।

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