रविंद्रनाथ टैगोर MB (Official) द्वारा जीवनी में हिंदी पीडीएफ

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रविंद्रनाथ टैगोर

रवीन्द्रनाथ टैगोर


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का जीवन परिचय

रबीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 7 मई, 1861 को कलकत्ता के प्रसिद्ध जोर सांको भवन में हुआ था। आपके पिता देबेन्द्रनाथ टैगोर (देवेन्द्रनाथ ठाकुर) ब्रह्म समाज के नेता थे। आप उनके सबसे छोटे पुत्र थे। आपका परिवार कोलकत्ता के प्रसिद्ध व समृद्ध परिवारों में से एक था।

भारत का राष्ट्र—गान आप ही की देन है। रवीन्द्रनाथ टैगोर की बाल्यकाल से कविताएं और कहानियाँ लिखने में रुचि थी। रवीन्द्रनाथ टैगोर को प्रकृति से अगाध प्रेम था।

एक बांग्ला कवि, कहानीकार, गीतकार, संगीतकार, नाटककार, निबंधकार और चित्रकार थे। भारतीय संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ रूप से पश्चिमी देशों का परिचय और पश्चिमी देशों की संस्कृति से भारत का परिचय कराने में टैगोर की बड़ी भूमिका रही तथा आमतौर पर उन्हें आधुनिक भारत का असाधारण सृजनशील कलाकार माना जाता है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर की शिक्षा

रवीन्द्रनाथ टैगोर की प्राथमिक शिक्षा सेंट जेवियर स्कूल में हुई। उनके पिता देवेन्द्रनाथ ठाकुर एक जाने—माने समाज सुधारक थे। वे चाहते थे कि रवीन्द्रनाथ बडे होकर बैरिस्टर बनें। इसलिए उन्होंने रवीन्द्रनाथ को कानून की पढ़ाई के लिए 1878 में लंदन भेजा लेकिन रवीन्द्रनाथ का मन तो साहित्य में था फिर मन वहाँ कैसे लगता! आपने कुछ समय तक लंदन के कॉलेज विश्वविद्यालय में क़ानून का अध्ययन किया लेकिन 1880 में बिना डिग्री लिए वापस आ गए।

रवीन्द्रनाथ टैगोर का साहित्य सृजन

साहित्य के विभिन्न विधाओं में सृजन किया।

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ की सबसे लोकप्रिय रचना श्गीतांजलिश् रही जिसके लिए 1913 में उन्हें नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।

आप विश्व के एकमात्र ऐसे साहित्यकार हैं जिनकी दो रचनाएं दो देशों का राष्ट्रगान बनीं। भारत का राष्ट्र—गान श्जन गण मनश् और बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान श्आमार सोनार बांग्लाश् गुरुदेव की ही रचनाएं हैं।

गीतांजलि लोगों को इतनी पसंद आई कि अंग्रेजी, जर्मन, फ्रैंच, जापानी, रूसी आदि विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में इसका अनुवाद किया गया। टैगोर का नाम दुनिया के कोने—कोने में फैल गया और वे विश्व—मंच पर स्थापित हो गए।

रवीन्द्रनाथ की कहानियों में क़ाबुलीवाला, मास्टर साहब और पोस्टमास्टर आज भी लोकप्रिय कहानियां हैं।

रवीन्द्रनाथ की रचनाओं में स्वतंत्रता आंदोलन और उस समय के समाज की झलक स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।

सामाजिक जीवन

16 अक्तूबर 1905 को रवीन्द्रनाथ के नेतृत्व में कोलकाता में मनाया गया रक्षाबंधन उत्सव से श्बंग—भंग आंदोलनश् का आरम्भ हुआ। इसी आंदोलन ने भारत में स्वदेशी आंदोलन का सूत्रपात किया।

टैगोर ने विश्व के सबसे बड़े नरसंहारों में से एक जलियांवाला कांड (1919) की घोर निंदा की और इसके विरोध में उन्होंने ब्रिटिश प्रशासन द्वारा प्रदान की गई, श्नाइट हुडश् की उपाधि लौटा दी। श्नाइट हुडश् मिलने पर नाम के साथ श्सरश् लगाया जाता है।

निधन

7 अगस्त, 1941 को कलकत्ता में इस बहुमुखी साहित्यकार का निधन हो गया।

काबुलीवाला

मेरी पाँच बरस की लड़की मिनी से घड़ीभर भी बोले बिना नहीं रहा जाता। एक दिन वह सवेरे—सवेरे ही बोली, ष्बाबूजी, रामदयाल दरबान है न, वह श्काकश् को श्कौआश् कहता है। वह कुछ जानता नहीं न, बाबूजी।ष् मेरे कुछ कहने से पहले ही उसने दूसरी बात छेड़ दी। ष्देखो, बाबूजी, भोला कहता है — आकाश में हाथी सूँड से पानी फेंकता है, इसी से वर्षा होती है। अच्छा बाबूजी, भोला झूठ बोलता है, है न?ष् और फिर वह खेल में लग गई।

मेरा घर सड़क के किनारे है। एक दिन मिनी मेरे कमरे में खेल रही थी। अचानक वह खेल छोड़कर खिड़की के पास दौड़ी गई और बड़े जोर से चिल्लाने लगी, ष्काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले!ष्

कँधे पर मेवों की झोली लटकाए, हाथ में अँगूर की पिटारी लिए एक लंबा सा काबुली धीमी चाल से सड़क पर जा रहा था। जैसे ही वह मकान की ओर आने लगा, मिनी जान लेकर भीतर भाग गई। उसे डर लगा कि कहीं वह उसे पकड़ न ले जाए। उसके मन में यह बात बैठ गई थी कि काबुलीवाले की झोली के अंदर तलाश करने पर उस जैसे और भी

दो—चार बच्चे मिल सकते हैं।

काबुली ने मुसकराते हुए मुझे सलाम किया। मैंने उससे कुछ सौदा खरीदा। फिर वह बोला, ष्बाबू साहब, आप की लड़की कहाँ गई?

मैंने मिनी के मन से डर दूर करने के लिए उसे बुलवा लिया। काबुली ने झोली से किशमिश और बादाम निकालकर मिनी को देना चाहा पर उसने कुछ न लिया। डरकर वह मेरे घुटनों से चिपट गई। काबुली से उसका पहला परिचय इस तरह हुआ। कुछ दिन बाद, किसी जरुरी काम से मैं बाहर जा रहा था। देखा कि मिनी काबुली से खूब बातें कर रही है और काबुली मुसकराता हुआ सुन रहा है। मिनी की झोली बादाम—किशमिश से भरी हुई थी। मैंने काबुली को अठन्नी देते हुए कहा, ष्इसे यह सब क्यों दे दिया? अब मत देना।ष् फिर मैं बाहर चला गया।

कुछ देर तक काबुली मिनी से बातें करता रहा। जाते समय वह अठन्नी मिनी की झोली में डालता गया। जब मैं घर लौटा तो देखा कि मिनी की माँ काबुली से अठन्नी लेने के कारण उस पर खूब गुस्सा हो रही है।

काबुली प्रतिदिन आता रहा। उसने किशमिश बादाम दे—देकर मिनी के छोटे से ह्रदय पर काफी अधिकार जमा लिया था। दोनों में बहुत—बहुत बातें होतीं और वे खूब हँसते। रहमत काबुली को देखते ही मेरी लड़की हँसती हुई पूछती, ष्काबुलीवाले, ओ काबुलीवाले! तुम्हारी झोली में क्या है?

रहमत हँसता हुआ कहता, ष्हाथी।ष् फिर वह मिनी से कहता, ष्तुम ससुराल कब जाओगी?

इस पर उलटे वह रहमत से पूछती, ष्तुम ससुराल कब जाओगे?

रहमत अपना मोटा घूँसा तानकर कहता, ष्हम ससुर को मारेगा।ष् इस पर मिनी खूब हँसती।

हर साल सरदियों के अंत में काबुली अपने देश चला जाता। जाने से पहले वह सब लोगों से पैसा वसूल करने में लगा रहता। उसे घर—घर घूमना पड़ता, मगर फिर भी प्रतिदिन वह मिनी से एक बार मिल जाता।

एक दिन सवेरे मैं अपने कमरे में बैठा कुछ काम कर रहा था। ठीक उसी समय सड़क पर बड़े जोर का शोर सुनाई दिया। देखा तो अपने उस रहमत को दो सिपाही बाँधे लिए जा रहे हैं। रहमत के कुर्ते पर खून के दाग हैं और सिपाही के हाथ में खून से सना हुआ छुरा।

कुछ सिपाही से और कुछ रहमत के मुँह से सुना कि हमारे पड़ोस में रहने वाले एक आदमी ने रहमत से एक चादर खरीदी। उसके कुछ रुपए उस पर बाकी थे, जिन्हें देने से उसने इनकार कर दिया था। बस, इसी पर दोनों में बात बढ़ गई, और काबुली ने उसे छुरा मार दिया।

इतने में ष्काबुलीवाले, काबुलीवालेष्, कहती हुई मिनी घर से निकल आई। रहमत का चेहरा क्षणभर के लिए खिल उठा। मिनी ने आते ही पूछा, श्श्तुम ससुराल जाओगे?ष् रहमत ने हँसकर कहा, ष्हाँ, वहीं तो जा रहा हूँ।

रहमत को लगा कि मिनी उसके उत्तर से प्रसन्न नहीं हुई। तब उसने घूँसा दिखाकर कहा, ष्ससुर को मारता पर क्या करुँ, हाथ बँधे हुए हैं।

छुरा चलाने के अपराध में रहमत को कई साल की सजा हो गई।

काबुली का ख्याल धीरे—धीरे मेरे मन से बिलकुल उतर गया और मिनी भी उसे भूल गई।

कई साल बीत गए।

आज मेरी मिनी का विवाह है। लोग आ—जा रहे हैं। मैं अपने कमरे में बैठा हुआ खर्च का हिसाब लिख रहा था। इतने में रहमत सलाम करके एक ओर खड़ा हो गया।

पहले तो मैं उसे पहचान ही न सका। उसके पास न तो झोली थी और न चेहरे पर पहले जैसी खुशी। अंत में उसकी ओर ध्यान से देखकर पहचाना कि यह तो रहमत है।

मैंने पूछा, ष्क्यों रहमत कब आए?

ष्कल ही शाम को जेल से छूटा हूँ,ष् उसने बताया।

मैंने उससे कहा, ष्आज हमारे घर में एक जरुरी काम है, मैं उसमें लगा हुआ हूँ। आज तुम जाओ, फिर आना।

वह उदास होकर जाने लगा। दरवाजे़ के पास रुककर बोला, ष्जरा बच्ची को नहीं देख सकता?

शायद उसे यही विश्वास था कि मिनी अब भी वैसी ही बच्ची बनी हुई है। वह अब भी पहले की तरह ष्काबुलीवाले, ओ काबुलीवालेष् चिल्लाती हुई दौड़ी चली आएगी। उन दोनों की उस पुरानी हँसी और बातचीत में किसी तरह की रुकावट न होगी। मैंने कहा, ष्आज घर में बहुत काम है। आज उससे मिलना न हो सकेगा।

वह कुछ उदास हो गया और सलाम करके दरवाजे से बाहर निकल गया।

मैं सोच ही रहा था कि उसे वापस बुलाऊँ। इतने मे वह स्वयं ही लौट आया और बोला, ष्श्यह थोड़ा सा मेवा बच्ची के लिए लाया था। उसको दे दीजिएगा।

मैने उसे पैसे देने चाहे पर उसने कहा, श्आपकी बहुत मेहरबानी है बाबू साहब! पैसे रहने दीजिए।श् फिर जरा ठहरकर बोला, ष्आपकी जैसी मेरी भी एक बेटी हैं। मैं उसकी याद कर—करके आपकी बच्ची के लिए थोड़ा—सा मेवा ले आया करता हूँ। मैं यहाँ सौदा बेचने नहीं आता।

उसने अपने कुरते की जेब में हाथ डालकर एक मैला—कुचौला मुड़ा हुआ कागज का टुकड़ा निकला और बड़े जतन से उसकी चारों तह खोलकर दोनो हाथों से उसे फैलाकर मेरी मेज पर रख दिया। देखा कि कागज के उस टुकड़े पर एक नन्हें से हाथ के छोटे—से पंजे की छाप हैं। हाथ में थोड़ी—सी कालिख लगाकर, कागज पर उसी की छाप ले ली गई थी। अपनी बेटी इस याद को छाती से लगाकर, रहमत हर साल कलकत्ते के गली—कूचों में सौदा बेचने के लिए आता है।

देखकर मेरी आँखें भर आईं। सबकुछ भूलकर मैने उसी समय मिनी को बाहर बुलाया। विवाह की पूरी पोशाक और गहनें पहने मिनी शरम से सिकुड़ी मेरे पास आकर खड़ी हो गई।

उसे देखकर रहमत काबुली पहले तो सकपका गया। उससे पहले जैसी बातचीत न करते बना। बाद में वह हँसते हुए बोला, ष्लल्ली! सास के घर जा रही हैं क्या?

मिनी अब सास का अर्थ समझने लगी थी। मारे शरम के उसका मुँह लाल हो उठा।

मिनी के चले जाने पर एक गहरी साँस भरकर रहमत जमीन पर बैठ गया। उसकी समझ में यह बात एकाएक स्पष्ट हो उठी कि उसकी बेटी भी इतने दिनों में बड़ी हो गई होगी। इन आठ वषोर्ं में उसका क्या हुआ होगा, कौन जाने? वह उसकी याद में खो गया।

मैने कुछ रुपए निकालकर उसके हाथ में रख दिए और कहा, ष्रहमत! तुम अपनी बेटी के पास देश चले जाओ।

साभार— रबीन्द्रनाथ टैगोर की कहानियाँ

अनधिकार प्रवेश

एक दिन प्रातरूकाल की बात है कि दो बालक राह किनारे खड़े तर्क कर रहे थे। एक बालक ने दूसरे बालक से विषम—साहस के एक काम के बारे में बाजी बदी थी। विवाद का विषय यह था कि ठाकुरबाड़ी के माधवी—लता—कुंज से फूल तोड़ लाना संभव है कि नहीं। एक बालक ने कहा कि श्मैं तो जरूर ला सकता हूँश् और दूसरे बालक का कहना था कि श्तुम हरगिज नहीं ला सकते।

सुनने में तो यह काम बड़ा ही सहज—सरल जान पड़ता है। फिर क्या बात थी कि करने में यह काम उतना सरल नहीं था ? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए आवश्यक है कि इससे संबंधित वृत्तांत का विवरण कुछ और विस्तार के साथ प्रस्तुत किया जाए।

मंदिर राधानाथ जी का था और उसकी अधिकारिणी स्वर्गीय माधवचंद्र तर्कवाचस्पति की विधवा पत्नी जयकाली देवी थीं।

जयकाली का आकार दीर्घ, शरीर दृढ़, नासिका तीक्ष्ण और बुद्धि प्रखर थी। इनके पतिदेव के जीवनकाल में एक बार परिस्थिति ऐसी हो गई थी कि इस देवोत्तर संपत्ति के नष्ट हो जाने की आशंका उत्पन्न हो गई थी। उस समय जयकाली ने सारा ब़ाकी—ब़काया देना अदा करके, हद—चौहद्दी पक्की करके और लंबे अरसे से बेदख़ल जायदाद को दख़ल—कब्जे में ला करके सारा मामला साफ—सूफ कर दिया था। किसी की यह मजाल नहीं थी कि जयकाली को उनके प्राप्य धन की एक कानी कौड़ी से भी वंचित कर सके।

स्त्री होने पर भी उनकी प्रकृति में पौरुष का अंश इतने प्रचुर परिमाण में था कि उनका यथार्थ संगी कोई भी नहीं हो सका था। स्त्रियाँ उनसे भय खाती थीं। परनिंदा, ओछी बात, रोना—धोना या नाक बजाना उन्हें तनिक भी सहन नहीं होता था। पुरुष भी उनसे डरे—डरे रहते थे। कारण यह था कि चंडी—मंडप की बैठक—बाजी में ग्रामवासी भद्र—पुरुषों का जो अगाध आलस्य व्यक्त होता था, उसे वह एक प्रकार के नीरव घृणापूर्ण तीक्ष्ण कटाक्ष से कुछ इतना धिक्कार सकती थीं कि उनकी धिक्कार आलसियों की स्थूल जड़ता को भेदकर सीधे अंतर में उतर पड़ता था।

प्रबल घृणा करने एवं उस घृणा को प्रबलतापूर्वक प्रगट करने की असाधारण क्षमता इस प्रौढ़ा विधवा में थी। विचार—निर्णय से जिसे अपराधी मान लेतीं, उसे वाणी और मौन से, भाव और भंगिमा से बिलकुल ही जलाकर भस्म कर डालना ही उनका स्वभाव था।

उनके हाथ गाँव के समस्त हर्ष—विषाद में, आपद्‌—संपद्‌ में और क्रिया—कर्म में निरलस रूप से व्यस्त रहते थे। हर कहीं अतिसहज भाव से और अनायास ही अपने लिए गौरव का स्थान अधिकार कर लिया करती थीं। जहाँ कहीं भी वह उपस्थित होतीं वहाँ उनके अपने अथवा किसी अन्य उपस्थित व्यक्ति के मन में इस संबंध में रत्ती—भर भी संदेह नहीं रहता था कि सबके प्रधान के पद पर तो वही हैं।

रोगी की सेवा में वह सिद्धहस्त थीं, पर रोगी उनसे इतना भय खाता कि कोई यम से भी क्या डरेगा! पथ्य या नियम का लेशमात्र भी उल्लंघन होने पर उनका क्रोधानल रोगी को रोग के ताप की अपेक्षा कहीं अधिक उत्तप्त कर डालता था।

यह दीर्घाकृति कठिन—स्वभाव विधवा गाँव के मस्तक पर विधाता के कठोर नियम—दंड की भाँति सदा उद्यत रहती थीं। किसी को भी यह साहस नहीं हो सकता था कि वह उन्हें प्यार करे अथवा उनकी अवहेलना करे।

विधवा निस्संतान थीं। उनके घर में उनके दो मातृ—पितृहीन भतीजे पाले—पोसे जा रहे थे। यह तो कोई नहीं कह सकता था कि पुरुष अभिभावक के अभाव में इन बालकों पर किसी प्रकार का शासन नहीं था अथवा स्नेहांध फूफी—माँ के लाड़—दुलार के कारण वे बिगड़े जा रहे थे। बड़ा भतीजा अठारह वर्ष का हो गया था। अब तक उसके विवाह के प्रस्ताव भी आने लगे थे। परिणय बंधन के संबंध में उस बालक का अपना चित्त भी कोई उदासीन नहीं था। परंतु फूफी—माँ ने उसकी इस सुख—वासना को एक दिन के लिए भी कोई प्रश्रय नहीं दिया। वह कठिन हृदयतापूर्वक कहती कि नलिन पहले उपार्जन करना आरंभ कर ले तो पीछे घर में बहू लाएगा। फूफी—माँ के मुख से निकले इस कठोर वाक्य से पड़ोसिनों के हृदय विदीर्ण हो जाते।

ठाकुरबाड़ी जयकाली का सबसे अधिक प्यारा धन था। उसके लिए उनके यत्नों का कोई अंत न था। ठाकुरजी के सेवन, मज्जन, अशन—वसन—शयन आदि में तिल—भर त्रुटि भी कदापि नहीं हो सकती थी। पूजा—कार्य में नियुक्त दोनों ब्राह्मण देवता की अपेक्षा इस एक मानवी ठकुरानी से कहीं अधिक भयभीत रहते थे। पहले एक समय ऐसा भी था कि देवता के नाम पर उत्सर्ग किया हुआ पूरा नैवेद्य देवता को मिल नहीं पाता था। परंतु जयकाली के शासनकाल में पुजापे के शत—प्रतिशत अंश ठाकुरजी के भोग में ही लगते थे।

विधवा के यत्न से ठाकुरबाड़ी का प्रांगण स्वच्छता के मारे चमचमाता रहता था। कहीं एक तिनका तक भी पड़ा नहीं पाया जा सकता था। एक पार्श्‌व में मंच का अवलंबन करके माधवी—लता का वितान फैला था। उसके किसी शुष्क पत्र के झरते ही जयकाली उसे उठाकर बाहर डाल आती थीं। ठाकुरबाड़ी की परंपरागत परिपाटी से परखी जाने वाली परिच्छन्नता एवं पवित्रता में रंच मात्र का व्याघात भी विधवा के लिए नितांत असहनीय था। पहले तो टोले के लड़के लुका—छिपी खेलने के उपलक्ष्य में इस प्रांगण में प्रवेश करके इसके किसी प्रांतभाग में आश्रय ग्रहण किया करते थे और कभी—कभी टोले की बकरियों के पठरू भी पैठकर माधवी लता के वल्कलांश का थोड़ा—बहुत भक्षण कर जाया करते थे। परंतु जयकाली के काल में न तो लड़कों को वह सुयोग मिल पाता और न छागल—शिशुओं को ही। पर्व—दिवसों के अतिरिक्त कभी भी बालकों को मंदिर के प्रांगण में प्रवेश का अवसर नहीं मिल पाता था और छागल—शिशु भी दंड—प्रहार का आघात मात्र खाकर सिंहद्वार के पास से ही तीव्र स्वरों में अपनी अजा—जननी का आह्वान करते हुए लौट जाने को विवश हो जाते थे।

परम आत्मीय व्यक्ति भी यदि अनाचारी हो तो देवालय के प्रांगण में प्रवेश करने के अधिकार से सर्वथा वंचित रहना पड़ता था। जयकाली के एक बावरची—कर—पक्क—कुक्कुट—मांस—लोलुप—भगिनी—पति महोदय आत्मीय संदर्शन के उपलक्ष्य में ग्राम में उपस्थित होकर मंदिर के प्रांगण में प्रवेश का उपक्रम कर रहे थे कि जयकाली ने शीघ्रतापूर्वक तीव्र आपत्ति प्रकट की थी, जिसके कारण उनके लिए अपनी सहोदरा भगिनी तक से संबंध—विच्छेद की संभावना उपस्थित हो गई थी। इस देवालय के संबंध में विधवा को इतनी अतिरिक्त एवं अनावश्यक सतर्कता थी कि सर्वसाधारण के निकट तो वह बहुत—कुछ आडंबर सी प्रतीत होती थी।

अन्यत्र तो जयकाली सर्वत्र ही कठिन—कठोर थीं, उन्नत मस्तक थीं, स्वतंत्र निबर्ंध थीं। परंतु केवल इस मंदिर के सम्मुख उन्होंने संपूर्ण रूप से आत्मसमर्पण कर दिया था। मंदिर में प्रतिष्ठित विग्रह के प्रति वह एकांत भाव से जननी, पत्नी, दासी आदि सब—कुछ थीं। उसके संबंध में वे सदैव सतर्क, सुकोमल, सुंदर एवं संपूर्णतरू अवनम्र थीं। प्रस्तर—निर्मित यह मंदिर तथा इसमें प्रतिष्ठित प्रस्तर—प्रतिमा ये दो वस्तुएँ ही ऐसी थीं, जो उनके निगूढ़ नारी—स्वाभाव की एकमात्र चरितार्थक के विषय थीं। यही दो वस्तुएँ उनके स्वामी और पुत्र के स्थान पर थीं। यही दो उनका समस्त थीं।

अनमोल वचन

प्रसन्न रहना बहुत सरल है, लेकिन सरल होना बहुत कठिन है।

तथ्य कई हैं, लेकिन सच एक ही है।

प्रत्येक शिशु यह संदेश लेकर आता है कि ईश्वर अभी मनुष्यों से निराश नहीं हुआ है।

विश्वास वह पक्षी है जो प्रभात के पूर्व अंधकार में ही प्रकाश का अनुभव करता है और गाने लगता है।

फूल एकत्रित करने के लिए ठहर मत जाओ। आगे बढ़े चलो, तुम्हारे पथ में फूल निरंतर खिलते रहेंगे।

चंद्रमा अपना प्रकाश संपूर्ण आकाश में फैलाता है परंतु अपना कलंक अपने ही पास रखता है।

कलाकार प्रकृति का प्रेमी है अतरू वह उसका दास भी है और स्वामी भी।

केवल खड़े रहकर पानी देखते रहने से आप सागर पार नहीं कर सकते।

हम यह प्रार्थना न करें कि हमारे ऊपर खतरे न आएं, बल्कि यह प्रार्थना करें कि हम उनका निडरता से सामना कर सकें।

गीतांजलि

यहाँ हम रवीन्द्रनाथ टैगोर (रवीन्द्रनाथ ठाकुर) की सुप्रसिद्ध रचना श्गीतांजलिश्श् को श्रृँखला के रूप में प्रकाशित करने जा रहे हैं। श्गीतांजलिश् गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर (1861—1941) की सर्वाधिक प्रशंसित रचना है। श्गीतांजलिश् पर उन्हें 1910 में नोबेल पुरस्कार भी मिला था।

मेरा शीश नवा दो अपनी

मेरा शीश नवा दो अपनी

चरण—धूल के तल में।

देव! डुबा दो अहंकार सब

मेरे आँसू—जल में।

अपने को गौरव देने को

अपमानित करता अपने को,

घेर स्वयं को घूम—घूम कर

मरता हूं पल—पल में।

देव! डुबा दो अहंकार सब

मेरे आँसू—जल में।

अपने कामों में न करूं मैं

आत्म—प्रचार प्रभोय

अपनी ही इच्छा मेरे

जीवन में पूर्ण करो।

मुझको अपनी चरम शांति दो

प्राणों में वह परम कांति हो

आप खड़े हो मुझे ओट दें

हृदय—कमल के दल में।

देव! डुबा दो अहंकार सब

मेरे आँसू—जल में।

—रवीन्द्रनाथ टैगोर

बहुत वासनाओं पर मन से

बहुत वासनाओं पर मन से हाय, रहा मर,

तुमने बचा लिया मुझको उनसे वंचित कर ।

संचित यह करुणा कठोर मेरा जीवन भर।

अनमाँगे जो मुझे दिया है

जोत गगन तन प्राण हिया है

दिन—दिन मुझे बनाते हो उस

महादान के लिए योग्यतर

अति—इच्छा के संकट से

मुझको उबार कर।

कभी भूल हो जाती चलता किंतु भी तो

तुम्हें बनाकर लक्ष्य उसी की एक लीक धरय

निठुर! सामने से जाते हो तुम जो हट पर।

है मालूम दया ही यह तो,

अपनाने को ठुकराते हो,

अपने मिलन योग्य कर लोगे

इस जीवन को बना पूर्णतर

इस आधी इच्छा के

संकट से उबार कर।

—रवीन्द्रनाथ टैगोर

चीन्हे किए अचीन्हे कितन

हुत वासनाओं पर मन से हाय, रहा मर,

तुमने बचा लिया मुझको उनसे वंचित कर ।

संचित यह करुणा कठोर मेरा जीवन भर।

अनमाँगे जो मुझे दिया है

जोत गगन तन प्राण हिया है

चीन्हे किए अचीन्हे कितने

घर कितने ही घर कोय

किया दूर को निकट, बंधु,

अपने भाई—सा पर को।

छोड़ निवास पुराना जब मैं जाता

जानें क्या हो, यही सोच घबराता,

किन्तु पुरातन तुम हो नित नूतन में

यही सत्य मैं जाता बिसर—बिसर जो ।

किया दूर को निकट, बंधु,

अपने भाई—सा पर को।

जीवन और मरण में निखिल भुवन में

जब भी, जहां कहीं भी अपना लोगे,

जनम—जनम के ऐ जाने—पहचाने,

तुम्ही मुझे सबसे परिचित कर दोगे ।

तुम्हें जान लूं तो न रहे कोई पर,

मना न कोई और नहीं कोई डर—

तुम सबके सम्मिलित रूप में जागे

मुझे तुम्हारा दरस सदा प्रभुवर हो ।

किया दूर को निकट, बंधु,

अपने भाई—सा पर को ।

—रवीन्द्रनाथ टैगोर

विपदाओं से मुझे बचाओ, यह न प्रार्थना

विपदाओं से मुझे बचाओ, यह न प्रार्थना,

विपदाओं का मुझे न होवे भय ।

दुःख से दुखे हृदय को चाहे न दो सांत्वना,

दुःखों जिसमें कर पाऊँ जय ।

जो सहाय का जुटे न संबल

टूट न जाये पर अपना बल

क्षति जो घटे जगत्‌ में केवल मिले वंचना,

अपने मन में मानूं किन्तु न क्षय ।

मेरा त्राण करो तुम मेरी यह न प्रार्थना,

तरने का बल कर पाऊँ संचय ।

मेरा भार घटा कर चाहे न दो सांत्वना,

ढो पाऊँ इतना तो हो निश्चय ।

शीश झुकाये जब आये सुख

लँ मैं चीन्ह तुम्हारा ही मुख

निखिल धरा जिस दिन दुख—निशि में करे वंचना

तुम पर करूँ न मैं कोई संशय ।

—रवीन्द्रनाथ टैगोर

विकसित करो हमारा अंतर

अंतरतर हे !

विकसित करो हमारा अंतर

अंतरतर हे !

उज्ज्वल करो, करो निर्मल, कर दो सुन्दर हे !

जाग्रत करो, करो उद्यत, निर्भय कर दो हे !

मंगल करो, करो निरलस, निसंशय कर हे !

विकसित करो हमारा अंतर

अंतरतर हे !

युक्त करो हे सबसे मुझको, बाधामुक्त करो,

सकल कर्म में सौम्य शांतिमय अपने छंद भरो

चरण—कमल में इस चित को दो निस्पंदित कर हे !

नंदित करो, करो प्रभु नंदित, दो नंदित कर हे !

विकसित करो हमारा अंतर

अंतरतर हे !