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पछतावा

पछतावा

इन्द्रजीत कैार

एक था कुत्ता गाँव। जैसा कि नाम से स्पश्ट है यहाँ कुत्ते ही निवास करते थे। मुक्ताकाष के नीचे आराम से विचरण करना, भौंकना, गड्ढों से पानी पीना, आस-पास के गाँव से छोटे जानवरों को पकड़कर लाना और मारकर खा जाना यही उनकी दिनचर्या थी। छोटा-मोटा व्यापार भी वो कर लेते थे। कुल मिलाकर सभी आराम से प्राकृतिक रुप से कुत्तावस्था में रह रहे थे।

इनमें से एक कुत्ता कुछ ज्यादा ही सामाजिक था। आवष्यकता पड़ने पर अन्य कुत्तों की सेवा में तत्पर रहता। कोर्इ बाहरी जानवर भी आता तो वह जोर-जोर से भैांक कर लोंगों को आगाह करता। उसकी लोकप्रियता गाँव में बढ़ती जा रही थी। हर एक के मुँह पर उसका ही नाम चढ़ा था। उसके आते ही हर कुत्ता खुषी से अपनी पँछ हिलाता और पैर से जमीन की मिट्टी हटाकर बैठने की जगह बनाता। जाड़े में तो कर्इ कुत्ते अपनी बोरी उतारकर जमीन पर बिछा देते। किसी के पास भोजन के नाम पर सिर्फ एक मरा चहा होता तो अपना पेट काटकर उसे अर्पित करने में जरा भी नहीं हिचकिचाता। यह सब देखकर कुछ कुत्ते उसके आस-पास सदैव घमते रहते। वह बीच में रहता व चारों तरफ चिपके साथी। वह चलता-फिरता ग्रह व उसका चक्कर लगाते छोटे-मोटे उपग्रह। एक स्वंय से प्रकाषित और बाकी...।

एक बार सभी गाँववासियों ने सोचा कि क्यँ न एक सभा कर इस सामाजिक कुत्ते का आभार प्रकट किया जाय व चुनाव कराकर उसे नेता घोशित किया जाय। आखिर सर्वसम्मति से कुछ दिनों बाद चुनाव की तिथि घोशित हुर्इ। लोकतंत्र की नयी व्यवस्था थी अत: बिना बथ कैप्चरिंग के उसे नेता चुन लिया गया। चन्दा इकट्ठा करके एक ऊँची सी कुर्सी उसे दे दी गयी। इस तरह उस कुत्ते को वैधानिक रुप से समाज सेवा का प्रमाण मिल गया। हाँ, इस सभा में यह भी तय हो गया था कि हर दो वर्श पर चुनाव होगा तथा यह कुर्सी थोड़ी सी ऊँची कर दी जायेगी। कारण यह कि इससे बैठने वाले की दृश्टि व्यापक से व्यापकतर हो जायेगी तथा कुत्ता-समाज की समस्याओं को हर कोणेां से समझकर हल निकालना आसान हो जायेगा।

हांलाकि समय बीतने के साथ नेता-कुत्ते ने गाँव के विकास के लिये कर्इ योजनायें बनायीं पर सबके लिये अर्थाभाव एक रोड़ा बन रहा था। बहुत सोच-विचार के बाद उसने गाँव में टैक्स प्रथा लाग की। सड़क पर चलने का, पानी पीने का, गाँव से बाहर जाने का, वहाँ से वापस आने का, लाये गये माँस की मात्रा आदि पर टैक्स लगा दिया। बदले में उस नेता ने नालियाँ बनवाने, सुरक्षित माहौल देने, सफार्इ व्यवस्था आदि कर्इ कार्य करवाये। इन कायोर्ं में कर्इ उपकार्य भी हुये जिसकी जिम्मेदारी उपग्रहों ने ले लिये। उदाहरण स्वरुप एक बार उस कुत्ते की विकास सम्बंधित बैठकी चल रही थी। बड़ी योजनाओं के ठेके पर निर्णय लिये जाने थे अत: स्वच्छता का ध्यान रखते हुये चारों तरफ बैठे बाकी कुत्तों के मुँह के नीचे एक-एक कटोरा रख दिया गया। भर जाने की अवस्था की भी आपातकालीन व्यवस्था कर दी गयी। ‘क्यँ न बाहर से माँस लाकर यहाँ दुकाने खोलकर बेचीं जांय?... गाँव वाले फालत भाग-दौड़ से बच जायेंगें।’ घेरे हुये साथियों में से एक ने यह सुझाव दिया। सुझाव गँव वालों के हित में था अत: नेता ने मान लिया। इसके लाभ का हिस्सा साथियों के लिये हितकर था अत: उन्होंने स्वंय ही गाँव की सीमा पर दुकाने खोल लीं। व्यापार चलता रहा। गाँव की व्यवस्था चलती रही। दुकानें और भी खुलती रहीं। बोरी तथा नाले के पानी को बोतलों में पैक करके भी बेचना “शुरू हो गया था।

अब तो नेता की कुर्सी ऊँची होते-होते बरगद, नीम और पीपल के पेड़ के बराबर पहुँच गयी थी। एक-दो बार गाँव वालों का मन था कि परिवर्तन लाया जाय पर दुकान वाले साथियों ने थोड़ा अधिक माँस खिलाकर उन्हें मना लिया था। जो नहीं माने उन्हें ओढ़ने के लिये बोरी भी दे दी गयी फिर भी जो अड़े रहे वो धरती से परिवार सहित कब गायब हो गये पता ही नहीं चला। समय धीरे-धीरे बीतता गया। समाजवादी व कल्याणकारी व्यवस्था से “शुरू यह अभियान पँजीवाद के गोद में समा चुका था। एक साथ गड्ढे का पानी आराम से पीने की परम्परा ने टैक्स के हिसाब से पीना “शुरू करवा दिया जो कुर्सी के ज्यादा करीब थे उनके लिये बोतलबन्द पानी मिल जाता।

इस बार चुनाव के बाद तो गजब हो गया। कुर्सी की ऊँचार्इ पेड़ों के भी ऊपर हो गयी। अब इस समाजसेवी कुत्ते को हवा और धप सब अति अवस्था में दिख रहे थे। इतना ऊँचा पहुँचकर उसे खुद में भगवान होने का बोध घर कर गया था। नीचे के लोग उसे कीड़े-मकौड़े लग रहे थे। इस नषे में उसके दिमाग में न जाने क्या चला कि एक कुक्कुर सभा बुला ली। सभी बड़े खुष थे। कोर्इ पँछ हिला रहा था तो कोर्इ त​िख़्तयाँ टाँगे नारे लगा रहा था। उनका नेता सीना चौड़ा कर आत्ममुग्ध भाव भरा हुआ था। उसने चारों तरफ देखा और सभा को सम्बोधित करते हुये कहा, ‘मित्रों, आप धप में विचरण करतें हैं और हवा में सांस लेतें हैं। बड़ा अच्छा लगता है। मैं चाहता हँ आप अधिक से अधिक धप खांये और हवा में साँस लेते रहें। इधर-उधर घमें।...मित्रों, मैं हमेषा गाँव की भलार्इ के बारे में ही सोचता रहता हँ।...आपके विकास के बारे में मनन करता हँ...पर मित्रों, इन सबके लिये और भी पैसे की आवष्यकता है। (थोड़ी देर रुककर )...मैं चाह रहा हँ, आप जो धप खा रहें हैं, उसका भी मीटर लगा दिया जाय। हवा को भी इस दायरे में रखा जाय। मैं कब तक इत्ता ऊपर चढ़कर आपलोंगों को फ्री में हवा और धप भेजता रहँगा।...सुनिये, मैने एक विकास मॉडल तैयार किया है जो आपको विकसित गाँवों की श्रेणी में रख देगा। (सभी कुत्तों की पँछे रुक जातीं हैं और कान खड़े हो जातें हैं)... एक बड़ा सा गाँव के आकार का पटरा ऊँचार्इ पर लगाया जायेगा। जो पैसा देगा उसके घर के ऊपर पटरे वाले भाग में छेद कर दिया जायेगा ताकि उसे हवा, धप और पानी मिल सके। यहीं पर मीटर भी फिट कर दिया जायेगा। इन पैसों से विकास की योजनायें क्रियान्वित की जायेंगी। इसी के साथ मैं अपनी बात खत्म करता हँ...(हाथ जोड़कर) ...आप लोग खब विचरण करिये। विकास के पथ पर अग्रसर होइये। हवा ,धप और पानी का आनन्द लें, धन्यवाद।’

उपग्रही कुत्तों को छोड़कर अन्य किसी ने भी न तालियां बजायीं और न ही पंछें हिलायीं। सभी उन दिनों को याद कर रहे थे जब वे प्राकृतिक रुप से कुत्तावस्था में रह रहे थे। वह दिन और भी ज्यादा ध्यान में आ रहा था जब नेता की दृश्टि व्यापक करने के लिये उसकी कुर्सी ऊँची की गयी थी।

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