कपूर साहब की फैमिली
देविका ने मोबाइल पर नजर गड़ाए हुए अशोक से कहा। ‘’सुनो ओ.एल.एक्स. पर कितना बढि़या सोफासेट विद सेंटर टेबल है। दाम भी ज्यादा नहीं है। हम लोग अपने पुराने सोफे को निकाल कर यह खरीद ले तो कैसा रहेगा?’’
अखबार पढ़ते हुए उसने उचटती द्दष्टि से पत्नी की ओर देखा। ‘’भई देख लो। पहले घर-गृहस्थी के जरूरी खर्चे निकल जाए फिर यह रईसी दिखाना।‘’
वह तुनक गयी। ‘’हॅू, तुम हमेशा यही कहोगे। सारी उम्र खुद को समझाते बीत जाएगी। पुराने सोफे को निकालने से कुछ मिलेगा। कुछ मैंने बचाए हैं।’’
शाम को दोनों सोफासेट बेचने वाले के घर रवाना हुए। जिस सोसाइटी में वे लोग रहते थे वह इस इलाके की सबसे पुरानी सोसाइटी में से एक थी। बाहरी दीवालों का झड़ता प्लास्टर भी यह गवाही दे रहा था। प्लास्टर भले ही झड़ रहा हो लेकिन सिक्यूरिटी चाक-चौबन्द थी। गार्ड ने गेट पर उन्हें रोककर गाड़ी बाहर ही पार्क करने को कहा। अन्दर केवल रेजिडेन्टस् की गाडि़यॉं जा सकती हैं। रजिस्टर पर बाकायदा एंट्री कराने के बाद उसने पूछा कि किसके यहॉं जाना है। इंटरकॉम पर फोन करके तसल्ली करने के बाद गार्ड ने उन्हें अन्दर जाने दिया। सोसाइटी की लुब्धक हरियाली का मनोरम चाक्षुक द्दश्य निहारते वे बढ़ते गए। एक-दो लोगों से पूछते हुए वे अन्तत: सही फ्लैट के सामने पहॅुंच गए। पन्द्रह मंजिली बिल्डिंग के भूतल पर ही उन लोगों का फ्लैट था। दरवाजा एक महिला ने खोला। उसके चेहरे पर हलकी लकीरों की शुरूआत हो चुकी थी। वह उन दोनों को देखकर जान-पहचान वाले की तरह मुस्करायी। ‘’वेलकम। आइए आप लोग।’’ वह उन्हें कॉरिडोर से होती हुई ड्राइंग रूम में ले गयी। उसके पति टी.वी. देख रहे थे। वे खड़े हो गए। देविका को हाथ जोड़कर नमस्ते की और अशोक से तपाक से हाथ मिलाया। ‘’बैठिए ना आप लोग।’’ दोनों के बैठने के बाद पुरूष ने कहा। ‘’यही वह सोफा है जिसे हम बेचना चाहते हैं।’’ सचमुच ओ.एल.एक्स. पर पोस्ट की गयी फोटो में इसे ही तो दिखाया गया था। अंग्रेजी के एल अक्षर के आकार का विशालकाय सोफा था। एक तरफ इतना चौड़ा कि दीवान का काम भी लिया जा सकता है। एक व्यस्क आराम से सो सकता है। देविका को तसल्ली हुई कि अलग से दीवान नहीं खरीदना पड़ेगा। कोई भी घर में आता है तो खामखाह एक बेडरूम खाली करना पड़ता है। अशोक सोचने लगा कि क्या इतना बड़ा सोफा उसके ड्राइंगरूम में व्यवस्थित हो पाएगा। साथ में दो कुशन और मैंचिंग कलर का सेंटर टेबल भी थे। सोफे पर गद्दे और तकिये करीने से लगे हुए थे। यह सब भी सोफासेट के साथ ही था।
‘’मेरा नाम श्याम कपूर है। बैंक में था अब वी.आर.एस. ले लिया। क्या करता...ट्रांसफर मुरादनगर कर दिया था। न तो घर से रोज आना-जाना पॉंसिबल था और न वहॉं परमानेंटली रहना। हालॉंकि रिटायरमेंट के आठ साल बचे थे पर...। प्रॉपर्टी डिलिंग शुरू की थी पर मजा नहीं आया इसलिए छोड़ दिया। और वाइफ....।’’
‘’हॉं मैं खुद बताती हॅूं।’’ उनकी पत्नी ने हाथ उठाकर उन्हें रोका। ‘’मैं सविता हूँ। मैं भी बैंक में काम करती हूँ। पहले सत्तर किलोमीटर दूर के ब्रांच से आना-जाना करती थी। जॉम में फँस जाऊँ तो फोन पर बता देती कि आज खाना खुद बना लेना या सब्जी बना लेना मैं आकर रोटी बेल दूँगी।’’ वे बोलते-बोलते हँस पड़ी। देविका को उनकी हँसी फीकी लगी। ‘’दो बच्चे हैं। बिटिया की शादी हो चुकी है। हस्बैंड-वाइफ ओरेकल में अच्छी पोस्ट पर हैं। बेटा फॉरेन में सेटेल है। वही शादी कर ली। दो साल पहले आया था।‘’ उनकी आवाज मंद होती जा रही थी। अचानक उठकर वे बोलीं। ‘’आप लोग आराम से सोफा की कण्डीशन देखिए। मैं चाय बनाती हूँ।’’
‘’अरे नहीं प्लीज तकलीफ मत कीजिए।’’ देविका बोलती रह गयी। उसे लगा कि वे ऑंखें पोछती हुई गयी हैं।
अशोक एक ग्राहक की नजर से सोफे का मुआयना करने लगा। काफी बड़ा और भब्य था। कपूर साहब के अनुसार दो-तीन साल पुराना है। दोनों कुशन भी ठीक-ठाक दिख रहे थे। सेंटर टेबल काफी फब रहा था। दाम था तेरह हजार पॉंच सौ। औरतें किसी चीज को अधिक बारीकी से पकड़ लेती हैं। देविका ने सोफा के फटे कवर को देख लिया। वह ऑंखों के इशारे से अशोक को कुछ बताना चाहती थी लेकिन उसका ध्यान कपूर साहब की बातों में था। पूरा का पूरा कवर बदलना पड़ेगा। सामान और मजदूरी मिलाकर सोफा असल में बीस-बाइस हजार का पड़ जाएगा। ‘’भाई साहब कुछ कम कीजिए।’’ देविका की बातों से ऐसा लगा कि वह चीज पसंद कर चुकी है। वे हलके से हॅसे। ‘’ओ.एल.एक्स. में ऐसे ही सोफा तीस-पैंतीस हजार का मिल रहा है। हमें नया चाहिए इसलिए निकाल रहे हैं।’’
उनकी पत्नी तब तक ट्रे में चाय और खाने की ढ़ेर सारी चीजें लेकर आ गयीं। टेबल पर ट्रे रखे जाने पर अशोक और देविका ने देखा। बिस्कुट, नमकीन, घर की बनी मठरी के साथ बूँदी के लड्डू भी थे। ‘’अरे इतना सब....! आपने बेकार में तकलीफ की।’’ देविका हैरान हुई।
‘’इसमें तकलीफ की क्या बात।’’ वे उसके पास बैठ गयीं। ‘’सब कुछ खाना है। बस देखकर छोड़ने के लिए नहीं लायी हूँ।’’
ढ़ेर सारी बातें होने लगीं। दोनों महिलाऍं अलग बात कर रही थीं और अशोक कपूर साहब के साथ गुफ्तगू में लग गया। टीचर की अनुपस्थिति में चिडि़यों की तरह कलरव करते बच्चों की आवाज में जो शोर होता है कुछ वैसा ही माहौल बन गया।
‘’आपका घर बहुत सुन्दर है।’’ अशोक ने दिल से तारीफ की। चौकोर ड्राइंग रूम में एक तरफ डाइनिंग टेबल लगी हुई थी। इसके ऊपर टी.वी. स्क्रीन था। दीवालों के रंग से मेल खाते परदे भले लग रहे थे। सामने एक दरवाजा और पूरी दीवाल पर बड़ी सी खिड़की थी। बाहर खूब हरियाली थी। ‘’सब इन्हीं का काम है।’’ कपूर साहब ने अपनी पत्नी की ओर संकेत किया। ‘’आप यकीन नहीं करेंगे, हैं तो ये बैंक मैनेजर पर मिजाज से बिल्कुल इंटिरियर डिजाइनर हैं।’’
‘’जब से मेरा बेटा बाहर गया है फोन भी कभी-कभार ही करता है। एक हम बेशर्म हैं कि आए-दिन हाल-चाल पूछते रहते हैं।’’ सविता जी की बात को देविका ने घर-घर की कहानी समझा। ‘’अपनी पसंद से शादी की। हमें कोई प्रॉब्लम नहीं पर मॉं-बाप को क्यों भूल गया।’’ उनकी आवाज के दर्द को सुनकर देविका ने उनका हाथ अपनी हथेलियों में ले लिया। ‘’भगवान पर भरोसा रखिए।’’ जिस मर्ज का कोई इलाज ने हो उसके लिए भगवान ही याद आएगा।
‘’पता है बहनजी।’’ वे बोलीं। फिर खुद ही रूक गयीं। ‘’सॉरी आप मुझसे काफी छोटी हैं। बहनजी से ऐसा लगता है कि हम लोग हमउम्र हैं।’’
‘’कोई बात नहीं...।’’ वह आत्मीयता से बोली।
‘’मैंने अपने बेटे के लिए इस फ्लैट का सबसे अच्छा कमरा..… मास्टर बेडरूम, रिनोवेट करवाया। उसके लिए अलग फ्रिज रखा। वार्डरोब में उसकी पसंद के कपड़े, जींस, उसके बचपन के खिलौने तक सजाकर शीशे के सेल्फ में रखे। बाथरूम को तुड़वाकर यूरोपियन ढ़ंग से बनवाया। सब कुछ यह सोचकर किया कि वह अपनी वाइफ के साथ यही रहेगा। कई लोगों ने मुझसे कहा कि आप दोनों अकेले रहते हैं एक पोर्शन किराए पर लगा दीजिए। उस पोर्शन का बाहर जाने का रास्ता भी अलग से है। पर मैं ऐसे लोगों को गुस्से से बुरा-भला कह देती थी। लेकिन वो एक दिन के लिए भी यहॉं नहीं ठहरा। एक दिन जब फोन पर मैं आपा खो बैठी तो कहने लगा कि मॉम यू पीपुल्स आर इमोशनल फुल्स्।’’ वे ऑंखें पोछ रही थीं। ‘’इंसान की पहली सवारी उसके मॉं-बाप की गोद और पीठ होती है। उधर उसके पास दो गाडि़यॉं हो गयीं तो क्या वह हमें भूला देगा?’’ देविका और अशोक दोनों को लगा कि उनकी ऑंखों में जल कहॉं बचा है। सब भाप बनकर उड़ गया। बस कीचड़ बचा है।
कपूर साहब का ध्यान उनकी तरफ गया। ‘’भई इनका यही हाल है। जब उसकी याद आएगी तो रोना-धोना शुरू कर देगीं। अरे हर किसी की अपनी जिन्दगी होती है। अगर बेटा लाइफ इनजॉय कर रहा है तो तुम्हें इससे खुश होना चाहिए। इसमें दुखी होने की क्या बात है।’’ उन दोनों से अनुरोध किया। ‘’आप लोग चाय पीजिए...खामखाह ठंडी हो जाएगी।’’
उनकी पत्नी को भी सहसा ख्याल आया कि मेहमानों से कुछ लेने को कायदे से मनुहार करना चाहिए। वे लड्डू का प्लेट उठाकर आगे बढ़ाने लगीं। ‘’अभी घर की बनी मठरी चखना बाकी है।’’
सोफासेट की बात पीछे छूट गयी।
कपूर साहब सहसा उठे। ‘’आइए आपको मैं अपना गार्डन दिखाता हूँ।’’ सामने अहाते में गमले नहीं जमीन से जुड़े अशोक के पेड खड़े थे। कुछ हिस्से पर लकड़ी के रंग के टाइल्स बिछे थे तो बाकी जगह पर घास उगी हुई थी। अहाते के बाहर सड़क पर गाडि़यॉं खड़ी थीं। सोसाइटी के चारदीवारी के बाहर हरियाली का एक बड़ा टुकड़ा लहलहा रहा था। उसके बाद शहर की मुख्य सड़क पर ट्रैफिक अविराम गति से चल रहा था। ताजी हवा का झोंका खाकर देविका और अशोक के चेहरे पर बरबस मुस्कान छा गयी। ‘’इस तरफ टेनिस कोर्ट है। मैं भी शाम को हाथ आजमाने चला जाता हूँ। अपनी उम्र का जोड़ीदार मिल गया तो ठीक है वरना आज के कसरती नौजवानों के साथ खेलता हूँ। भई टेनिस में इतना तो पता है कि मैं हारूगॉं लेकिन शतरंज का खेल मुझे कभी समझ में नहीं आया कि हार-जीत कैसे होती है।’’ उन्होंने अपनी पत्नी की ओर तिर्यक द्दष्टि डाली। सविता जी बोलीं। ‘’हॉं एक ही चाल दस बार सिखाओ तब भी इनकी समझ में नहीं आता है।’’
अशोक सोचने लगा कि पुरानी सोसाइटी में इतना मनोरम द्दश्य मिलने की उम्मीद किसने की थी।
‘’हमारे यहॉं पार्किंग को लेकर कभी झगड़ा नहीं होता है। यहॉं किसी की रिजर्व पार्किंग नहीं है। कोई भी कहीं पर गाड़ी खड़ी कर सकता है।’’ कपूर साहब हॅंस रहे थे। ‘’बस घर के दरवाजे पर न करे। इसलिए अपनी पुरानी मोटरसाइकिल गेट पर लगा रखी है।’’ देवकी ने पीछे घूमकर देखा। दीवालों से लटकते गमलों पर तरह-तरह के फूल-पौधे झूल रहे थे। ‘’सब इन्हीं की देन है। खाली वक्त में कुछ न कुछ करती रहती हैं।’’ कपूर साहब ने सविता जी की ओर इशारा किया।
‘’आप इतनी सुघड़ हैं। कितनी क्रिएटिविटी हैं आपके अन्दर। इतना उदास होने की क्या जरूरत है?’’ अशोक हौसला बढ़ाने की गरज से बोला।
‘’आप लोगों के आने से बहुत अच्छा लगा।’’ सविता जी बोलीं। ‘’सोफा ले चाहे न ले लेकिन कभी-कभार आते रहिएगा। हमलोग आसपास ही तो रहते हैं। जरूरी नहीं कि हर रिश्ता खून का या शादी का हो। अब देखिए ना मिलकर कितना अच्छा लगा।’’
‘’जरूर आएगें।’’ देविका ने उनके दोनों हाथों को अपनी हथेलियों में थाम लिया।
लौटते हुए दोनों को तीन चक्रों वाली सुरक्षा में बने फ्लैटों की हर खिड़की और बॉलकनी से कोई झॉंकता हुआ प्रतीत हो रहा था। प्यार और अपनेपन के भूखे तो आखिर सभी होते हैं। गौरेया का छोटा सा घोंसला हो या गरूड़ का बैलगाड़ी के पहिए जैसा महाकाय बसेरा। जरूरत सभी की एक जैसी ही है।
लौटते हुए दोनों को तीन चक्रों वाली सुरक्षा में रह रहे फ्लैटों की हर खिड़की और बॉलकनी से कोई झॉंकता प्रतीत हो रहा था। प्यार और अपनेपन के भूखे आखिर सभी होते हैं।
मनीष कुमार सिंह।