Teen Didi... Jija Panch Ashok Mishra द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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Teen Didi... Jija Panch


दीदी तीन...

जीजा पांच

Ashok Mishra

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दीदी तीन...जीजा पांच

आज आपको एक कथा सुनाने का मन हो रहा है। एक गांव में बलभद्दर (बलभद्र) रहते थे। क्या कहा...किस गांव में? आप लोगों की बस यही एक खराब आदत है...बात पूछेंगे, बात की जड़ पूछेंगे और बात की फुनगी पूछेंगे। तो चलिए, आपको सिलसिलेवार कथा सुभता हूं। सिलसिलेवार कथा सुनाने के लिए मेरा भी एक पात्र बनना बहुत जरूरी हो जाता है।...तो मेरे गांव में एक बलभद्दर रहते थे। अब आप यह मत पूछिएगा कि मेरा गांव कहां है? मेरा गांव कोलकाता में हो सकता है, लखनऊ में हो सकता है, आगरा में हो सकता है, तमिलनाडु, केरल, हिमाचल प्रदेश या पंजाब के किसी दूर—दराज इलाके में भी हो सकता है। कहने का मतलब यह है कि मेरा गांव हिंदुस्तान के किसी कोने में हो सकता है, अब यह आप की बुद्धि—विवेक पर निर्भर है कि आप इसे कहां का समझते हैं, कहां का नहीं।

हां, तो बात यह हो रही थी कि मेरे गांव में एक बलभद्दर रहते थे। उसी गांव में रहते थे छेदी नाई। तब मैं उन्हें इसी नाम से जानता था। उस समय मैं यह भी नहीं जानता था कि ‘छेदी बडका दादा' (पिता के बड़े भाई) यदि शहर में होते तो छेदी सविता कहे जाते। उन दिनों जातीयता का विष इस कदर समाज में व्याप्त नहीं था। तब ब्राह्मण, ठाकुर, पासी, कुम्हार आदि जातियों में जन्म लेने के बावजूद लोग एक सामाजिक रिश्ते में बंधे रहते थे। यह रिश्ता जातीय रिश्ते से काफी प्रगाढ़ था। लोग इस सामाजिक मर्यादा का निर्वाह बिना कोई सींग—पूछ हिलाए करते रहते थे। अगर अमीरी—गरीबी का अंतर छोड़ दें, तो जाति कहीं से भी सामाजिक रिश्तों में बाधक नहीं थी। तो कहने का मतलब यह था कि छेदी जाति के नाई होने के बावजूद गांव में किसी के भाई थे, तो किसी के चाचा। किसी के मामा, तो किसी के भतीजे। हर व्यक्ति उनसे अपने रिश्ते के अनुसार बातचीत और व्यवहार करता था। छेदी बडका दादा को तब यह अधिकार था कि वे किसी भी बच्चे को शरारत करते देखकर उसके कान उमेठ सकें, दो धौल जमाते हुए सीधे रस्ते पर चलने की सीख दे सकें। कई बार वे मुझे भी यह कहते हुए दो कंटाप जड़ चुके थे, ‘आने दो पंडित काका को। तुम्हारी शिकायत करता हूं। तुम इन लडकों के साथ बिलाते (बरबाद) जा रहे हो।' पंडित काका बोले, तो मेरे बाबा जी। आसपास की चौहद्दी में मेरे बाबा ‘पंडित काका' के नाम से ही जाने जाते थे। यहां तक कि मेरे पिता, चाचा और बुआ तक उन्हें पंडित काका ही कहती थीं। हां, तो बात चल रही थी बलभद्दर की और बीच में कूद पड़े छेदी बडका दादा।

बात दरअसल यह थी कि एक दिन भांग के नशे में बलभद्दर की कथा छेदी बडका दादा ने मुझे सुनाई थी। और अब कागभुसुंडि की तरह यह कथा मैं आप सबको सुनाने जा रहा हूं। आप लोग सुनकर गुनिये। हां, तो बात यह हो रही थी कि मेरे गांव में एक बलभद्दर रहते थे। उनका इकलौते बेटे थे श्याम सुंदर। श्याम सुंदर की उम्र जब सोलह—सत्रह साल की हुई, तो उसके घर ‘वीडियो' आने लगे। वीडिओ का मतलब नहीं बूझे। अजीब बुड़बक हैं आप लोग। आप लोगों को हर बात बुझानी पड़ती है। वीडिओ का मतलब है ‘वर देखुआ अधिकारी।' उन दिनों लडके—लड़कियां दस—बारह साल के हुए नहीं कि शादी का जुआ (हल का अगला भाग, जो बैल के कंधे पर रखा जाता है) उठाकर उनके कंधे पर रख दिया जाता था। लो बच्चू! दिन भर पगुराते रहते हो, अब बैठकर मिया—बीवी पगुराओ। तो कहने का मतलब यह है कि श्याम सुंदर के पगुराने का समय आ गया था। नाक—थूक बहाने की उम्र से ही लड़कियों के पिता, भाई, जीजा—चाचा श्याम सुंदर को देखने आते रहे, जाते रहे। कई लोग तो दहेज की मांग सुनकर ही गांव के बाहर से ही खिसक लेते थे। कुछ लोगों ने हिम्मत की भी, तो कभी लडका पसंद नहीं आया, तो कभी लडके के परिवार की हैसियत। कई बार तो ऐसा भी हुआ कि बलभद्दर को लडकी वाले ही पसंद नहीं आए।

और फिर एक दिन गांववालों को पता चला कि श्याम सुंदर की शादी तय हो गई है। गांव वाले भी खुश हो गए कि चलो..कई साल से टलता आ रहा था। इस बार पूड़ी—तरकारी खाने को मिलेगा। शादी की बात तय होने की देर थी कि बर—बरीच्छा, तिलक आदि कार्यक्रम भी जल्दी—जल्दी निपटा दिए गए। बलभद्दर को यह भी डर था कि कहीं गांव का ही कोई विघ्न संतोषी शादी में अडंगा न लगा दे। उन दिनों आज की तरह लडके का कमाऊपन तो देखा नहीं जाता था। बस, लडके की सामाजिक हैसियत, जमीन—जायदाद और घर का इतिहास देखा जाता था। आज की तरह लड़कियों को दिखाने का भी चलन नहीं था। तब लडकी के भाई और बाप को ही देखकर गुण—अवगुण, रूप—रंग आदि का फैसला हो जाता करता था।

तो साहब! मेरे गांव में जो बलभद्दर रहते थे, उनके बेटे के विवाह का दिन नजदीक आ पहुंचा। नई पीढ़ी को शायद ही पता हो कि आज से चार—साढ़े चार दशक पहले तक शादी—ब्याह, तिलक, मुंडन, जनेऊ आदि जैसे धार्मिक और सामाजिक समारोहों में नाई की क्या अहमियत होती थी। नाई महाराज गायब तो मानो, सब कुछ ठप। चलती गाड़ी का चक्का जाम। साल भर नाई को बात—बात पर झिडकने वाले गांव के बड़े—बड़े दबंग लोग भी नाई की उन दिनों लल्लो—चप्पो करते रहते थे। नाई के हर नखरे दांत निपोरते हुए लोग बर्दाश्त करते थे। भले ही मन ही मन कह रहे हों, ‘सरऊ रहो। तनिक काम—काज निपट जाय, फिर बताइत है नखरा केहका कहत हैं। जब फसल मा हिस्सा लेय अइहो, तबहिं सारी कसर निकाल लेब।' शादी के दिन सुबह से ही छेदी नाई की खोज होने लगी। यों तो छेदी बडका दादा का पूरा परिवार काम में जुटा हुआ था। उनकी धर्मपत्नी यानी हमारी बडकी अम्मा आटा गूंथने में लगी हुई थीं। उनकी दोनों पतोहें भी कोई न कोई काम कर रही थीं। छेदी बडका दादा के दोनों बेटे कुछ ही देर पहले शादी से संबंधित कामकाज निबटाकर लौटे थे। छेदी बडका दादा को हर दो मिनट बाद खोजा जाने लगता और उन्हें घर के आसपास ही मौजूद देखकर घरवाले चौन की सांस लेते। दूल्हे की मां कई बार चिरौरी कर चुकी थी, ‘भइया छेदी! देखना समधियाने में कोई बात बिगड़ न जाए। मेरा लडका तो बुद्धू है। तुम जानकार आदमी हो, सज्ञान हो। तुम्हीं लाज रखना।' छेदी ने गुड़ का बड़ा—सा टुकड़ा मुंह में डालते हुए कहा, ‘काकी! तुम चिंता न करो। मैं हूं न।'

छेदी बडका दादा की बुद्धि का लोहा पूरे गांव—जवार के लोग मानते थे। अगर पिछले एकाध दशक की बात छोड़ दी जाए, तो पंडित और नाई को बड़ा हाजिर जवाब और चतुर माना जाता था। छेदी नाई वाकई चतुर सुजान और हाजिर जवाब थे। एक बार की बात है। वे मेरी छोटी दादी के नैहर गए। उन दिनों दादी अपने नैहर में थीं। जब छेदी वहां पहुंचे, तब तक सब लोग खा—पी चुके थे। दादी की मां ने पानी—धानी लाकर पिलाया और कहा, ‘बेटा! अभी थोड़ी देर में खाना लाती हूं, तब तक तुम नहा—धो लो।' छेदी यह कहकर वहां उपस्थित लोगों से बतियाने लगे कि मैं सुबह नहा धो चुका हूं। उधर घर में दादी की मां ने जल्दी—जल्दी आटा साना और तवे पर मोटी—मोटी रोटियां बनाने लगीं। चूंकि, सारे बर्तन जूठे पड़े थे, तो दादी की मां ने पाटा—बेलन पर रोटियां बेलने की बजाय हाथ से ही ‘थप्प—थप्प' रोटियां बढ़ानी शुरू कीं। बातचीत के दौरान भी उनका ध्यान रोटियों पर ही लगा रहा। तवे पर ‘थप्प' की आवाज के सहारे उन्होंने अनुमान लगा लिया कि कितनी रोटियां बनाई गई हैं। जब वे खाने बैठे, तो उनके सामने दो रोटियां, थोड़ा—सा भात, कटोरी में सब्जी और अचार—सिरका दिया गया। उन्होंने दोनो रोटियां खा ली, तो दादी की मां ने पूछा, ‘बेटा! और रोटियां चाहिए?'

छेदी ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘हां नानी! दे दीजिए।' दादी की मां ने दो रोटियां और लाकर रख दीं। आंगन में बैठी मेरी दादी (गांव के रिश्ते से मेरी दादी उनकी काकी और उनकी मां नानी लगती थीं) और उनकी मां से बतियाते—बतियाते, गांव—जंवार का हालचाल बताते—बताते वह दो रोटियां भी चट कर गए। थाली में जब रोटियां खत्म हो गईं, तो दादी की मां ने एक बार फिर पूछा, ‘छेदी बेटा! और रोटियां चाहिए कि नहीं?' छेदी ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘नानी! एक रोटी और दे दीजिए।' यह कहना था कि दादी की मां सन्न रह गईं। दरअसल, उन्होंने चार ही रोटियाां बनाई थीं। उन्होंने खिसियाए हुए स्वर में कहा, ‘बेटा..रोटियां तो चार ही बनाई थी। भात खा लो। नहीं तो थोड़ी देर रुके, मैं रोटियां और सेक देती हूं।' छेदी ने लोटे से गटागट पानी पीने के बाद कहा, ‘रहने दीजिए नानी.. अब बनाने की जरूरत नहीं है। इतने से ही पेट भर जाएगा।' मेरी दादी ने यह सुनकर छेदी को प्यार से झिडकते हुए कहा, ‘अम्मा! इसका पेट भर गया है। यह इतना मुरहा है कि ओसारे में बैठा यह रोटियां गिनता रहा होगा। इसने जान—बूझकर और रोटी मांगी है।' दादी की बात सुनकर छेदी ठहाका लगाकर हंस पड़े। जब दादी लौटकर ससुराल आईं, तो वे जब भी मिलतीं, तो उलाहना देते, ‘काकी! तोहरे नैहरे मां हम्मै भर पेट खाना नहीं मिला।' यह सुनते ही दादी मुस्कुराती हुई खूब खरी खोटी सुनाती थीं।

उनकी बुद्धि की एक और मिसाल आपके सामने पेश करता हूं। उन दिनों मैं लखनऊ में दसवीं कक्षा में पढ़ता था। हर साल गर्मी की छुट्टियों में गांव जाना तय रहता था। एक दिन का वाकया है। मेरे छोटे भाई के बाल छेदी बडका दादा काट रहे थे। उनके आगे मैं अपना ज्ञान बघार रहा था, ‘बडका दादा...आपको मालूम है? पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है और चंद्रमा पृथ्वी का चक्कर लगाता है। और इतना ही नहीं, पृथ्वी अपनी धुरी पर भी नाचती है। एकदम लट्टू की तरह।'

मेरे इतना कहते ही छेदी बडका दादा खिलखिलाकर हंस पड़े, ‘तुम्हारा पढना—लिखना सब बेकार है। यह बताओ गधेराम...अगर पृथ्वी माता सूरज भगवान का चक्कर लगाती हैं, तो हम सब लोगों को मालूम क्यों नहीं चलता। अब तुम कहते हो कि धरती मइया अपनी धुरी पर नाचती भी हैं। तो यह बताओ, उन्हें नचाया किसने? जैसे लट्टू थोड़ी देर नाचने के बाद रुककर गिर जाता है, वैसे ही अब तक धरती मइया क्यों नहीं गिरीं। और अगर वे गिरतीं, तो अब तक चलते—चलते हम लोग किसी गड़ही—गड़हा (गड्ढे) में गिर गए होते। हमारे घर—दुवार किसी ताल—तलैया में समा गए होते।'

उनकी इस बात का जवाब मेरे पास नहीं था। मैं लाख तर्क देता रहा, स्कूल में रटे गए सारे सिद्धांत बघारा, लेकिन वहां बैठे लोग छेदी नाऊ का ही समर्थन करते रहे। तब सचमुच मुझे सापेक्षता का सिद्धांत नहीं पता था। या यों कहिए कि ट्रेन में बैठने पर खिडकी से देखने पर पेड़ों के भागने का उदाहरण नहीं सूझा था। आखिर था तो दसवीं क्लास का अदना—सा स्टूडेंट। खैर...।

बात कुछ इस तरह हो रही थी कि मेरे गांव में जो बलभद्दर रहते थे, उनके बेटे श्याम सुंदर की बारात दो घंटे लेट से ही सही दुल्हन के दरवाजे पहुंच गई। थोड़े बहुत हो—हल्ला के बाद द्वारपूजा, फेरों आदि का कार्यक्रम भी निपट गया। इस झमेले में दूल्हा और छेदी काफी थक गए। लेकिन मजाल है कि छेदी ने दूल्हे का साथ एक पल को भी छोड़ा हो। वैसे भी उन दिनों दूल्हे के साथ साए की तरह लगा रहना, नाई का परम कर्तव्य माना जाता था। इसका कारण यह है कि तब के दूल्हे ‘चुगद' हुआ करते थे। ससुराल पहुंचते ही वे साले—सालियों से ‘हाय—हेल्लो या चांय—चांय' नहीं किया करते थे। साले—सालियों से खुलते—खुलते दो—तीन साल लग जाते थे। हां, तो आंखें मिचमिचाते छेदी दूल्हे के हमसाया बने उसके आगे—पीछे फिर रहे थे। सुबह के सात—आठ बजे कलेवा खाने के बाद कन्या पक्ष की ओर से किसी ने हल्ला मचाया, ‘दूल्हे को कोहबर के लिए भेजो।' यह गुहार सुनते ही छेदी चौंक उठे। थोड़ी देर पहले ही दूल्हे के साथ उन्होंने झपकी ली थी। लेकिन बलभद्दर ने जैसे ही दूल्हे से कहा, ‘भइया, चलो उठो। कोहबर के लिए बुलावा आया है।'

छेदी ने जमुहाई लेते हुए दूल्हे के सिर पर रखा जाने वाला ‘मौर' उठा लिया और बोले, ‘श्याम भइया, चलो।'

जनवासे से पालकी में सवार दूल्हे के साथ—साथ पैदल चलते छेदी नाऊ उन्हें समझाते जा रहे थे, ‘भइया, शरमाना नहीं। सालियां हंसी—ठिठोली करेंगी, तो उन्हें कर्रा जवाब देना। अपने गांव—जवार की नाक नहीं कटनी चाहिए। लोग यह न समझें कि दूल्हा बुद्धू है, वरना ससुराल वाले तो भइया तुम्हें जिंदगी भर ताना मारेंगे। सालियां—सलहजें हंसी उड़ाएंगी।'

पालकी में घबराए से दूल्हे राजा बार—बार यही पूछ रहे थे, ‘कोहबर में क्या होता है, छेदी भाई। तुम तो अब तक न जाने कितने दूल्हों को कोहबर में पहुंचा चुके हो। तुम्हें तो कोहबर का राई—रत्ती मालूम होगा।'

‘कुछ खास नहीं होता, भइया। हिम्मत रखो और कर्रे से जवाब दो, तो सालियां किनारे नहीं आएंगी।' छेदी नाई मुस्कुराते हुए दूल्हे को सांत्वना दे रहे थे। तब तक पालकी दरवाजे तक पहुंच चुकी थी। पालकी से उतरकर दूल्हा सीधा कोहबर में चला गया और छेदी कोहबर वाले कमरे के दरवाजे पर आ डटे। घंटा भर लगा कोहबर का कार्यक्रम निपटने में। इसके बाद दूल्हे को एक बड़े से कमरे में बिठा दिया गया। रिश्ते—नाते सहित गांव भर की महिलाएं और लड़कियां दूल्हे के इर्द—गिर्द आकर बैठ गईं। लड़कियां हंस—हंसकर दूल्हे से चुहुल कर रही थीं। उनके नैन बाणों से श्याम सुंदर लहूलुहान हो रहे थे। कुछ प्रौढ़ महिलाएं लड़कियों की शरारत पर मंद—मंद मुस्कुरा रही थीं। तभी एक प्रौढ़ महिला ने दूल्हे से पूछा, ‘भइया, तुम्हारे खेती कितनी है?'

सवाल सुनकर भी दूल्हा तो सालियों के नैन में उलझा रहा, लेकिन छेदी नाई सतर्क हो गए। उन्हें याद आया, चलते समय काका ने कहा था, ‘बेटा बढ़ा—चढ़ाकर बताना।' सो, उन्होंने झट से कहा, ‘बयालिस बीघे....।' दूल्हा यह सुनकर प्रसन्न हो गया। मन ही मन बोला, ‘जियो पऋे! तूने गांव की इज्जत रख ली।' इसके बाद दूसरी महिला ने बात आगे बढ़ाई, ‘दूल्हे के चाचा—ताऊ कितने हैं?' रेडीमेड जवाब तैयार था छेदी नाई के पास, ‘वैसे चाचा तो दो हैं, लेकिन चाचियां चार हैं।'

यह जवाब भी सुनकर दूल्हा मगन रहा। वह अपनी सबसे छोटी साली को नजर भरकर देखने के बाद फिर मन ही मन बोला, ‘जियो छेदी भाई...क्या तीर मारा है।' पहली वाली महिला ने ब्रह्मास्त्र चलाया, ‘और बुआ?'

छेदी ने एक बार फिर तुक्का भिड़ाया, ‘बुआ तो दो हैं, लेकिन फूफा साढ़े चार।' सवाल का जवाब सुनते ही दूल्हा कुनमुना उठा। दूल्हे ने अपना ध्यान चल रहे वार्तालाप पर केंद्रित किया और निगाहों ही निगाहों में उसे उलाहना दी, ‘अबे क्या बक रहा है?' लेकिन बात पिता के बहिन की थी, सो उसने सिर्फ उलाहने से ही काम चला लिया। तभी छेदी भी सवाल दाग बैठे, ‘और भउजी के कितनी बहिनी हैं?'

वहां मौजूद महिलाएं चौंक गईं। एक सुमुखी और गौरांगी चंचला ने मचलते हुए पूछ लिया, ‘कौन भउजी?' छेदी के श्यामवर्णी मुख पर श्वेत दंतावलि अंधेरे में चपलावलि—सी चमक उठी, ‘अपने श्याम सुंदर भइया की मेहरारू...हमार भउजी...।' इस बार दूल्हे ने प्रशंसात्मक नजरों से छेदी को देखा। दोनों की नजर मिलते ही छेदी की छाती गर्व से फूल गई, मानो कह रहे हों, ‘देखा...किस तरह इन लोगों को लपेटे में लिया।'

सुमुखी गौरांगी चंचला ने इठलाते हुए कहा, ‘चार...जिसमें से एक की ही शादी हुई है...तुम्हारे भइया के साथ। बाकी अभी सब कलोर हैं।' तभी एक दूसरी श्यामवर्णी बाला ने नाखून कुतरते हुए पूछ लिया, ‘हमरे जीजा जी के कितनी बहिनी हैं। सब मस्त हैं न!'

छेदी के मुंह से एकाएक निकला, ‘दीदी तो तीन हैं, लेकिन जीजा पांच।' इधर छेदी के मुंह से निकला यह वाक्य पूरा भी नहीं हो पाया था कि दूल्हा यानी श्याम सुंदर अपनी जगह से उछला और छेदी पर पिल पड़ा, ‘तेरी तो...नालायक! बप्पा ने इज्जत बढ़ाने के लिए कहा था कि इज्जत उतारने के लिए? नसियाकाटा..हमरी बहिन की ई बेइज्जती...अब तुमका जिंदा ना छोड़ब..।' इसके बाद क्या हुआ होगा। इसकी आप कल्पना कर सकते हैं। मुझे इसके बारे में कुछ नहीं कहना है, कोई टिप्पणी नहीं करनी है। हां, मुझे छेदी बडका दादा का यह समीकरण न तो उस समय समझ में आया था और न अब समझ में आया है। अगर आप में से कोई इस समीकरण को सुलझा सके, तो कृपा करके मुझे भी बताए कि जब श्याम सुंदर के दीदी तीन थीं, तो जीजा पांच कैसे हो सकते हैं।

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Ashok Mishra

Resident Editor

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