इश्क़ इसको कहूँ तो Deepak Shah द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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इश्क़ इसको कहूँ तो

इश्क़ इसको कहूँ तो

भाग 2

उस दिन पूणिम को कुछ कुछ होश आया। उसने मलिक साहब को समझाया एक बार वो अकेले उसी जगह हो कर आऐं जहाँ उन दोनों की पहली बार मुलाक़ात हुई थी। मलिक साहब का मन न माना पर पूणिम का जी रखने के लिए वो जाने को राज़ी हो गए। उनको लगा के पूणिम के झुण्ड के वापस आने के दिन आ गए हैं तो शायद पूणिम ने अपने बापू को कोई संदेशा भेजना होगा। या बुलावा भेजना होगा। पर पूणिम ने ऐसा कुछ भी न कहा। अगले दिन तड़के मलिक साहब उस जगह जाने को रवाना हुए। आज उन्होंने पानी की मश्क़ लेजाने की ज़हमत उठाना भी लाज़मी नहीं समझा। आज उनकी चाल में फिर भारीपन था। उनसे कदम उठाए न उठते थे। दोपहर होते तक वो वापस लौट आए। इतनी जल्दी आज तक हम उस जगह से नहीं लौटे थे। जब वो लौट कर आए तो उनके चेहरे पर पहले से भी ज़्यादा परेशानी झलक रही थी। जैसे किसी गहरी उलझन में फँस गए हों। घर में आ कर वो चुपचाप अपनी आराम कुर्सी पर बैठ गए। पूणिम के कमरे में उन्होंने झाँक कर तक न देखा।

मैंने उनके पास जा कर पूछा, “क्या हुआ आप बड़े परेशान लग रहे हैं? रास्ते में कोई बात हो गई?” उन्होंने मेरी तरफ देखा तो मुझे लगा उनकी आँखों से बस आँसू छलकने को थे और मैंने उनको चेता दिया। आँसू तो उन्होंने रोक लिए पर गला रुँधा सा था। उसी रुंधी सी आवाज़ में वो बोले, “रमता तुझे लगता है पूणिम की इस हालत का ज़िम्मेदार मैं हूँ। मेरी वजह से वो आज़ाद पंछी अपने टूटे परों को रो रहा है?” “मुझे तो ऐसा नहीं लगता। क्या किसी ने कुछ कहा आपको?” उनके पास बैठ कर उनकी कुर्सी की हत्थी पर हाथ रखते हुए मैंने पूछा। अपने आँसूओं को पीते हुए उन्होंने फिर वही सवाल दोहराया।

मैंने पूछा, “किसने क्या कहा आपसे?”

मलिक साहब, “आज... उस जगह (हाथ से इशारा करते हुए) मुझे एक आदमी मिला था। जाने कोई फ़क़ीर था या कोई शैव साधू। पर उसकी आवाज़ में जादू था और चेहरे पर गज़ब का नूर। मेरे पास आकार बोला के तूने एक आज़ाद पंछी के पर तोड़े हैं। वो अपने टूटे परों को रो रहा है और तू उसे रुलाने की सज़ा पा रहा है।”

“मतलब!” मैंने पूछा।

“मैंने भी यही पूछा। पर मेरे सवाल पर पहले तो वो साधू ज़ोर से हँसा और बोला के तू इतना भी नहीं समझता। उसने कहा बेवकूफ़ तू जिसको अपने घर की रौनक समझ कर घर ले गया है वो तो काश्मीर की इन पहाड़ियों, इन वादियों का चाँद है। और बोला जिसे तू अपनी पत्नी बना कर घर ले गया है वो तो इन वादियों में मस्त बेफ़िक्र उड़ने वाला परिंदा है।”

“मतलब, पूणिम की बीमारी का कारण आप हैं। उसने ऐसा कहा?”

“उसका कहना था की पूणिम को कोई बीमारी नहीं है। पर उसकी इस हालत का कारण ये चार दीवारों की कैद है। और अगर मैं उसको फिर से पहले की सी चहकती हुई देखना चाहता हूँ तो...” कह कर वो चुप हो गए।

“तो क्या?” मुझे इस अधूरी बात को सुन कर बड़ी बेचैनी होने लगी।

“तो मुझे फिर से पूणिम को उसकी आज़ादी देनी होगी।” कह कर मलिक साहब रो पड़े।

अब मुझे उनकी परेशानी, बेचैनी, उदासी हर एहसास का कारण समझ आया। उनको हौंसला देने की कोशिश की। पर उनकी बात सुन कर मेरा जी भी ऐसा मसोस गया था कि मेरे लिए भी उनको दिलासा देना मुश्कि़ल हो गया। जैसे तैसे मैंने उनको समझाया कि वो इस बारे में पूणिम से बात करें। पर वो नहीं माने। शाम हम दोनों ने अकेले ही खाना खाया मलिक साहब ने न पूणिम को खाना खाने के लिए जगाया न मुझे ही जगाने दिया।

रात आधी बीत चुकी थी। पूणिम ने पानी के लिए आवाज़ दी। मलिक साहब ने उठ कर पानी का गिलास भरा। जैसे ही उन्होंने पूणिम को गिलास पकड़ाया पूणिम ने सवाल पूछा, “कैसा रहा वहाँ?” जैसे वो जानती हो वहाँ कुछ होने वाला था और शायद इसीलिए उसने मलिक साहब को वहाँ भेजा था। मलिक साहब ने दबी सी आवाज़ में जवाब दिया, “कुछ खास नहीं। तुम पानी पी लो।” कहकर उन्होंने पूणिम को पानी का गिलास दिया। कमरे की उस मद्धम रौशनी में भी पूणिम मलिक साहब का चेहरा जैसे साफ पढ़ सकती थी। उसने हल्की सी मुस्कान के साथ कहा, “अब हमारे बीच इतनी दूरी आ गई है जिसे भरने के लिए आपको झूठ का सहारा लेना पड़ रहा है?” मलिक साहब ने शर्म से सिर झुका लिया। फिर उन्होंने उस साधू से हुई अपनी मुलाक़ात का सारा हाल पूणिम को अक्षरशः सुना दिया। सारी बात सुन कर पूणिम ने बड़ी नरमी से जवाब दिया, “इसमें तो छुपाने जैसा कुछ भी नहीं है। आप मुझसे उस सन्यासी की बात छुपा रहे थे या अपने दिल का कोई ख़याल?”

“मैं तुमको बहुत प्यार करता हूँ पूणिम। पर उस सन्यासी की बातों सुनके लगता है मैं ही तुम्हारी बीमारी का कारण हूँ। और तुमको ठीक करने के लिए मुझे तुमको खुद से दूर भेजना होगा। और तुमसे दूर जाने का डर, तुमको हमेशा अपने पास रखने का लालच मुझे तुमसे बात करने से रोक रहा था। मुझे गलत मत समझना।” मलिक साहब ने कह कर पूणिम को गले लगा लिया।

“नहीं मैं आपको गलत नहीं समझ रही, और न ही कहीं जा रही हूँ। आप निश्चिंत हो कर सो जाईए। रात बहुत हो चुकी है।” पूणिम ने हंस के जवाब दिया।

सुबहा मलिक साहब थोड़ा हल्का महसूस कर रहे थे। उन्होंने रात वाली सारी बात मुझे बताई। वो ख़ुश थे कि पूणिम उनको छोड़ कर कहीं नहीं जा रही। कुछ पल को वो जैसे भूल ही गए कि पूणिम कितनी तक़लीफ़ में है। मैंने उनको उनके फैंसले पर एक बार फिर से सोचने का मश्वरा दिया। तब पहली और आख़री बार मैंने मलिक साहब की आँखों में अपने लिए गुस्सा देखा। पर बात आई गई हो गई। बात आई-गई हो गई। कुछ दिन और बीत गए। पूणिम की दवाई हकीम से भी आती और डॉक्टर से भी। पर पूणिम की सेहत दिन-ब-दिन गिरती ही गई। दो-चार दिन बाद मैंने एक बार फिर मलिक साहब से उस साधू की बात का ज़िक्र किया। पर इस बार मेरी बात सुन कर वो झल्लाए नहीं बल्कि सोच में पड़ गए। उठ कर पूणिम के पास जा बैठे। कड़वा घूँट भर के उन्होंने पूणिम से बात शुरू की। “पूणिम हवा में ख़ुशबू फूलों के महकने से होती है। पर अगर फूल ही न रहें तो हवा के होने का भी शायद किसी को पता न चले। तुम्हारे बिना मैं भी बस ठहरी हुई हवा से ज़्यादा कुछ भी नहीं।... तुम समझ रही हो न मैं क्या कहना चाह रहा हूँ?” मलिक साहब ने पूणिम का हाथ पकड़ा और उसका चेहरा देखने लगे। पूणिम ने धीमी आवाज़ में जवाब दिया, “मैं समझती हूँ आप क्या कहना चाह रहे हैं।... मेरे ही भले को कह रहे हैं पर बिना हवा के ख़ुशबू का क्या बनेगा?” “देखो पूणिम! ख़ुशबू फूल से होती है। उसको हवा के कोई मोहताजगी नहीं।”

“ये आप मुझे समझा रहे हैं या खुद को?”

“दोनों को। अब जो पहले समझ जाए।"

इसी तरह की बातें दोनों में होती रहीं। मलिक साहब पूणिम को समझाते कि वो अपने बापू के साथ चली जाए। कभी पूणिम जाने को राज़ी न होती और कभी होती तो कहती कि मलिक साहब साथ चलें। दोनों एक-दूसरे के गले लग कर रोए। पर कोई निष्कर्ष न निकला। पूणिम जाना चाहती थी पर मलिक साहब के बिना नहीं। मलिक साहब पूणिम के साथ रहना चाहते थे पर बंजारे की सी ज़िंदगी जीने में असमर्थ थे। कुछ देर बाद बाहर आकार उन्होंने मुझे अपनी और पूणिम की बात लफ़्ज़-ब-लफ़्ज़ कह सुनाई। मैंने उनको सलाह दी कि मौसम आ गया है, पूणिम के झुण्ड यहाँ आ गया होगा। पूणिम के बापू को घर ले आऐं। उनसे मिल के पूणिम को अच्छा भी लगेगा और शायद उनके समझाने से पूणिम मान भी जाएगी। मलिक साहब को मेरी सलाह जंच गई।

अगले दिन तड़के ही वो उस जगह के लिए रवाना हुए जहाँ पूणिम का झुण्ड ठहरा करता था। अंदाज़ा सही निकाला पूणिम का झुण्ड वहाँ आ चुका था। मलिक साहब ने पूणिम के बापू को सारा हाल सुना दिया। पूणिम की हालत सुन कर उनको दुख तो बड़ा हुआ। पर साथ ही ये चिंता भी सताने लगी कि अगर वो पूणिम को वापस लाए तो अपनी बीरादरी को क्या जवाब देंगे। और अगर कहीं मलिक साहब को उनके झुण्ड के साथ आना हुआ तो मलिक साहब की बड़ी भद होगी। दोनों ने तय किया की झुण्ड के दो-तीन और लोग जो ख़ास हैं उनसे बात की जाए। कोई न कोई रास्ता ज़रूर निकल ही आएगा। पूणिम के बापू ने उन लोगों को बुला भेजा। दो उम्रदराज़ आदमी आए। एक का नाम शंकर था दूसरे का नंदू। पूणिम के बापू ने सारा हाल उनको कह सुनाया। समस्या उनके लिए भी उतनी ही उलझन भरी थी जितनी पूणिम के बापू और मलिक साहब के लिए। रस्सी के बल सब के लिए एक बराबर ही टेढ़े होते हैं। कुछ देर की बातचीत के बाद शंकर ने सलाह दी कि पूणिम के पास चल कर ही सलाह की जाए। शायद कोई हल निकल आए। सब लोग उसकी बात से राज़ी हो गए। बिना कोई वक़्त गवाए वो लोग घर को चल दिए।

पूणिम अपने बापू को देख कर मानो भूल ही गई कि वो बीमार है। पर भूल जाने से मर्ज़ ठीक नहीं हो जाता। बेचारी चाह कर भी उठ कर अपने बापू के गले नहीं लग पाई। उसकी हालत देख कर पूणिम के बापू फूट कर रो पड़े। बाप बेटी को यूं देख कर सब की आँखें भर गईं। एक बुज़ुर्ग ने आगे बढ़ कर पूणिम के बापू को सम्भाला, “रो मत इसी परेशानी के हल के लिए तो जमाई साहब हमको यहाँ लाए हैं।” मैं सबके लिए चाय नाश्ता बना कर ले आया । वो पांचों लोग आपसे में मश्वरा करने लगे। बहुत देर तक कोई नतीजा नहीं निकला। शंकर ने सलाह दी, “एक काम हो सकता है। अगर पूणिम गर्मी में यहाँ रहे। मलिक साहब के साथ और बाकी दिन हमारे साथ। अपने झुण्ड में तो न तो पूणिम को कोई बंदिश महसूस होगी, न ही मलिक साहब को कहीं जाना पड़ेगा और न ही ये दोनों एक दूसरे से दूर होंगे।” कुछ पल सन्नाटा रहा फिर मलिक साहब ने कहा, “मैं कुछ पल सोच लूँ।” शंकर ने हाँ का इशारा किया। कुछ पल सोचने के बाद मलिक साहब ने शंकर की सलाह को अपनी रजामंदी देदी। उनके इस फैंसले पर पूणिम उनका मुँह देखती रह गई। उसे यक़ीन नहीं हो रहा था कि मलिक साहब उससे दूर रहने को राज़ी हो गए हैं। वो आँखें फाड़ कर उनको देखती रह गई। मलिक साहब ने पूणिम की तरफ देखा और मंद सा मुस्कुरा दिए। तपते अंगारों पर जैसे पानी की छींटे गिर गईं हों। पूणिम की तिलमिलाहट कुछ शांत हो गई। अजब रिश्ता था दोनों में। आँखों ही में एक दूसरे को इतना समझ जाते थे जितना समझने समझाने के लिए लोगों को अल्फ़ाज़ कम पड़ जाते हैं। बस मलिक साहब का मानना था और बात सबको जंच गई। तय हुआ कि फिलहाल जब तक पूणिम की तबीयत नासाज़ है मलिक साहब रोज़ पूणिम को सब से मिलवाने ले जाया करेंगे और जब वो पूरी तरह से दुरुस्त हो जाएगी तो झुण्ड उसको ले कर अपने सफर पर चल देगा।

फिर से वादियों में जा बसने की बात से जैसे पूणिम पर जादू सा चल गया। पाँच ही रोज़ में वो ऐसी चहकने लगी जैसे उसको कभी कुछ हुआ ही न था। पूणिम की तबीयत में इतनी जल्दी सुधार आएगा इसकी खुद पूणिम को भी उम्मीद नहीं थी। कौल के मुताबिक़ वो दिन भी आ गया जब पूणिम ने फिर एक बार अपने झुण्ड के साथ कश्मीर की गोद में खेलने के लिए रवाना हो जाना था। वो बड़ा बमुश्किल दिन था। आसमान में दिन था पर हमारी आँखों के आगे अँधेरा छाया हुआ था। मैं तो ये सोचता हूँ जब मेरा ये हाल था तो मलिक साहब और पूणिम का क्या हाल रहा होगा। किसी को खाई में गिरता देख आपका दिल बैठ जाता है बहुत होता है तो उबकाई आ जाती है पर गिरने का दर्द और खौफ़ सिर्फ गिरने वाला ही जान सकता है। बिरहा की कहानी लिखने वाला शायद कभी बिरहा के बवंडर से गुज़रा ही नहीं होता। क्योंकि बिरहा में तो साँसे मुहाल होतीं हैं कोई अफ़साना क्या कहे। इसीलिए जो मलिक साहब और पूणिम की हालत उस दिन थी उसको दुनिया का कोई हर्फ़ बयां नहीं कर सकता।

बहुत देर पूणिम मलिक साहब के गले लग के रोती रही। कई बार कहती, “मुझे नहीं जाना काश्मीर की वादियों में... जीती-मरती जैसी भी हूँ आपके साथ अच्छी हूँ।” कुछ पल के लिए हम सबको लगा शायद मलिक साहब का दिल बदल जाएगा। पर जाने कैसे मलिक साहब ने अपना दिल कड़ा कर के पूणिम को समझा-बुझा के उसके बापू के साथ विदा किया। इधर पूणिम विदा हुई उधर मलिक साहब उसकी तरफ पीठ कर के खड़े हो गए। बहुत दूर तक वो पलट-पलट कर देखती रही पर मलिक साहब ने एक बार भी पलट कर नहीं देखा। जब वो लोग आँखों से ओझल हो गए मैंने कहा, “एक बार पलट कर तो देख लेते।” मलिक साहब ने गर्दन उठाई उनकी आँखें लाल थीं कुर्ते के बाज़ू भीगे हुए। बड़ी रुंधी हुई आवाज़ में उन्होंने जवाब दिया, “… फिर मैं खुद को नहीं रोक पता।”

पूणिम को विदा हुए तीन दिन हो गए थे। मलिक साहब बिना कुछ खाए पिए बस अपने कमरे में पड़े रहे। उस दिन जो दरवाज़े पर उन्होंने कहा था अभी तक के वो उनके आख़री बोल थे। किसी बात का कोई जवाब न देते। खाना पड़ा सूख जाता पर खाने की तरफ नज़र भी न करते। मैंने कई बार पूछा कि अगर वो कहें तो मैं पूणिम को वापस लेने चला जाऊँ। बस इस सवाल पर मेरे हाथ पकड़ कर ना में सिर हिला देते। एक हफ़्ता इसी तरह बीत गया। जो हालत पूणिम की महीनों में हुई थी मलिक साहब की दिनों में हो गई। अब तो न मैं उनको छोड़ कर घर से कहीं जा सकता था और ना ही उनको इस हाल में देख पा रहा था। मलिक साहब सो रहे थे। या शायदा बेहोश थे, मैंने जी कड़ा किया और हक़ीम साहब के घर को दौड़ा। एक सांस में मैंने हक़ीम साहब को सारा हाल कहा और उनको जल्दी से घर पहुँचने की गुज़ारिश कर विनोद जी के घर की तरफ दौड़ा। विनोद जी घर पर ही थे। मैंने उनको सारा हाल कह सुनाया। मेरे बात सुनते ही विनोद जी भी मेरे साथ उसी वक़्त उठ कर दौड़ पड़े। चलते चलते उन्होंने अपनी पत्नी को वालि साहब को इत्तिल्ला करने को कह दिया। हम घर पहुँचे तो हक़ीम साहब मलिक साहब की नब्ज़ देख रहे थे। हमे देखते ही उठ खड़े हुए। “कितने दिनों से इन्होंने खाना नहीं खाया।” हक़ीम साहब ने पूछा। मैंने बता दिया आठ दिन हो गए और पानी भी शायद ही पिया हो। उन्होंने मुझे ख़ूब झाड़ लगाई कि मैं आठ दिन से क्या कर रहा था। मैंने भी उनकी झाड़ चुपचाप सुन ली। उनका गुस्सा जायज़ था। वो हक़ीम होने के साथ ही मलिक साहब के अच्छे दोस्त भी थे। और उनकी बातें सुन कर मुझे भी लगा कि मलिक साहब की इस हालत का ज़िम्मेदार शायद मैं भी हूँ। विनोद जी ने कहा, “हक़ीम साहब अब कोई दवा कीजिए। तीर तो कमान से निकल चुका।” हक़ीम साहब ने जवाब दिया, “वो तो मैं दे ही दूँगा पर पहले इनको कुछ खिलाना ज़रूरी है वरना...”, कह कर वो चुप हो गए। “मैं आपके साथ चलता हूँ। आप दवा मुझे बना कर दे दीजिएगा। रमता तू जल्दी मलिक साहब के लिए कुछ खाने को बना।” कह कर विनोद जी हक़ीम साहब के साथ चले गए।

कुछ देर बाद मलिक साहब की पत्नी, वालि साहब और उनकी पत्नी घर आ गए। तीनों ने मलिक साहब की बड़ी मिन्नतें निकालीं और जैसे तैसे उनको कुछ खाने को राज़ी किया। विनोद जी भी तब तक दवाई ले आए। दवाई देख कर मलिक साहब हल्के से मुस्कुरा दिए और बोले, “दुनिया से सभी बीमारियों को हटाना है तो सबसे पहले दुनिया से सारे हक़ीम हटा दो। दिल के मर्ज़ की दवा भी कहीं झाड-झंखाड़ पर उगती है।” हम सब एक दूसरे का मुँह देख रहे थे। विनोद जी उठ कर कमरे से बाहर चले आए और इशारे से मुझे और वालि साहब को भी बुला लिया। “मुझे लगता है हमे पूणिम को ख़बर करनी चाहिए।” विनोद जी ने कहा।

“मैंने कई बार कहा पर मलिक साहब ने मना कर दिया।” मैंने जवाब दिया।

“उनसे कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है। बस चुपचाप जा कर उसको ख़बर कर दो।” विनोद जी बोले।

“पर सिर्फ ख़बर करने से क्या होगा?” वालि साहब ने कहा।

“ज़रूरत हुई तो उसको बुला लेंगे। पर पहले उसको मलिक साहब का हाल बता के आगे जाने से रोकना ज़रूरी है।” विनोद जी ने कहा।

“मैं अभी जाता हूँ।” मैंने कहा।

“नहीं अभी रात हो चली है और मलिक साहब भी कुछ कुछ जाग रहे हैं। हम सब तड़के फिर यहाँ आ जाएंगे तब तू चले जाना।” विनोद जी ने कहा।

“हाँ ये ठीक है।” वालि साहब ने हामी भरी।

रात मलिक साहब ने दवा की ख़ुराक नहीं ली थी इसलिए तबीयत में रत्ती भर भी फ़र्क़ नहीं पड़ा था। अगले दिन तड़के ही चारों घर आ गए। उन लोगों के आते ही बिना कोई तक़ल्लुफ़ किए मैं उस जगह को दौड़ पड़ा जहाँ पूणिम का झुण्ड ठहरा करता था। वो लोग भी शायद इसके लिए तैयार हो कर आए थे। न किसी ने मुझे न कुछ कहा न कुछ पूछा। मैं सिर पर पैर रख कर दौड़ा। जी चाहता था के या तो मेरे कदम बड़े हो जाएँ या ज़मीन छोटी हो जाए। या फिर मुझे पंख लग जाएँ। कुछ भी हो बस मैं उस जगह जल्दी पहुँच जाऊँ और पूणिम से मुलाक़ात हो जाए। रास्ते भर मैंने जैसे सांस ली ही न हो बस शंकर जी से प्रार्थना करता गया। मुराद पूरी होने का यक़ीन जितना कम होता है हम उतनी ज़्यादा दुआ करते हैं। जिनती गहरी नाउम्मीदी उतनी ज़्यादा दुआ। वहाँ पहुँच कर वही देखने को मिला जिसका डर था। मैं जानता था जिस दिन पूणिम घर से गई थी उसी दिन उसके झुण्ड ने कूच करना था। मैं फिर भी वहाँ गया।

पूणिम और उसका झुण्ड वहाँ से जा चुका था। ऐसा लगा जैसे पैर पत्थर हो गए हों और बदन को किसी अजगर ने जकड़ लिया हो। एक अनजाना सा डर मुझे घेर गया। मैं वहाँ पागलों की तरह जगह-जगह भागने लगा। पूणिम का नाम ले कर चीखने लगा। बहुत देर यूँ ही बिता लेने के बाद मैं उदास मन से घर लौट गया। मैंने जब सब को पूणिम के चले जाने की ख़बर दी तो सब उदास हो गए। किसी को कुछ नहीं सूझता था अब क्या किया जाए। थक हार के सब अपने घर चले गए।

कुछ दिन और मलिक साहब की तबीयत यूं ही गिरती रही। सुबहो-शाम विनोद बाबू, उनकी पत्नी, वालि साहब और त्रिशला जी बारी बारी चक्कर मार जाते। पर उनकी तबीयत में कोई सुधार नहीं आया। हाँ! उन लोगों के ज़ोर देने पर मलिक साहब कुछ निवाले खा लेते। पर न किसी से कोई बात करते न किसी बात का कोई जवाब देते। उनकी तबीयत की ख़राबी का सिलसिला महीनों चलता रहा। धीरे-धीरे सबका घर पर आना भी कम होता गया। जब आदमी उम्मीद छोड़ देता है तो भगवान के दर पर नहीं जाता ये तो मलिक साहब का घर था। सचमुच हम सबको मलिक साहब के ठीक होने की अब कोई उम्मीद नज़र नहीं आती थी। मैं कभी भगवान से प्रार्थना करता के मलिक साहब को इस तक़लीफ़ से मुक्ति देदे। चाहे जैसे भी। फिर कभी-कभी जी में आता कि पूणिम वापस आएगी तो मलिक साहब अपने आप ठीक हो जाएँगे। थे तो वो उसी के गम में उदास।

बीमारी का सिलसिला चलता रहा और पूणिम के लौट कर आने के दिन आ गए। मुझे उम्मीद होने लगी शायद अब मलिक साहब की तबीयत में कोई सुधार आएगा। ऐसा हुआ भी। एक दिन सुबहा अचानक मलिक साहब ने आवाज़ दी, “रमताSSS! ओ रमता!” मैं चौंक के जागा। जब से मलिक साहब बीमार हुए थे मैं उनके कमरे में ही सोता था। उनकी आवाज़ मेरे कानों में ऐसे पड़ी जैसे किसी घनी अँधेरी गुफा में फँसे हुए की आँखों में रोशनी की कोई किरण पड़ी हो। मैं ख़ुशी से झूम गया। आँखों में पानी आ गया। एक ही पल में मैं उनके सामने हाथ बाँधे खड़ा था। मुझे देख कर वो धीमे से मुस्कुराए। मैं उनके बिस्तर के पास घुटनों के बल बैठा गया। मेरी आँखों से आँसू पोंछते हुए बोले, “रोता क्यों हैं रमते? जा विनोद जी और वालि साहब को बुला ला। जल्दी... सपरिवार।” मुझे समझ नहीं आया वो क्या चाह रहे थे। उनको इस हालत में छोड़ कर जाने की मुझमें हिम्मत भी नहीं थी। तभी उन्होंने फिर कहा, “किस सोच में पड़ गया? मेरी... तू जा... मैं बिल्कुल ठीक हूँ।” कह कर वो उठ कर बैठने को हुए। मैंने उनको सम्भाला। उन्होंने मुझे फिर जाने का इशारा किया। मैं ज़्यादा न नुकर नहीं कर सका और विनोद जी के घर को दौड़ पड़ा।

विनोद जी के घर पहुँच कर बिना साँस लिए मैंने उनको सारी बात बताई और घर आने का कह कर वालि साहब के घर को दौड़ पड़ा। मेरी बात सुन कर बिना वक़्त गँवाऐ विनोद जी और उनकी पत्नी हमारे घर को रवाना हुए। इधर वो लोग घर पहुँचे उधर कुछ ही मिनटों में मैं वालि साहब और उनकी पत्नी को ले कर घर पहुँच गया। जब हम घर पहुँचे तो जो देखा उस पर यक़ीन करना मुश्किल था। मलिक साहब अपनी आराम कुर्सी पर बैठे थे। साफ-सुथरा कुर्ता पाजामा डाले। हम सब को बड़ी ख़ुशी हुई शाम तक घर में जश्न का सा माहौल रहा।

शाम जब सबने घर जाने की इजाज़त मांगी तो मलिक साहब ने सबको रोटी खा कर जाने को कहा। आज कोई उनकी बात को टालने का ख़याल भी नहीं कर रहा था। दोनों औरतें मेरे साथ रसोई में खाना पकाने में लग गईं। मलिक साहब, विनोद जी और वालि साहब बाहर बैठे गपशप कर रहे थे। मलिक साहब ने कहा, “मैं थकावट महसूस कर रहा हूँ। अगर आप लोग बुरा न मानें तो मैं थोड़ी देर लेट जाऊँ?” वालि साहब बोले, “इतने तकल्लुफ की ज़रूरत नहीं है मलिक साहब आप जा कर आराम फ़र्माइए खाना बन जाएगा तो आपको उठा देंगे।” वालि साहब की बात सुन कर मलिक साहब अपने कमरे में चले गए। कुछ देर बाद खाना लगा। विनोद जी मलिक साहब के कमरे में उनको जगाने गए। कुछ देर उनको आता न देख वालि साहब भी मलिक साहब के कमरे में गए। मैं यक़्नि की कढ़ाई लिए रसोई से निकला। विनोद जी मेरे सामने खड़े थे। मेरे कन्धे पर हाथ रख कर बोले, “रमता, बुझने से पहले दिया फड़फड़ाने के लिए पूरी ताकत इकट्ठी करता है और जलता है। पर जैसे ही हमको यक़ीन होता है कि अब ये जलेगा दिया बुझ जाता है।... दिया बुझ गया।” मेरे जी जैसे पाताल में गिर गया। अब मैंने विनोद जी और वालि साहब की आँखों की तरफ गौर किया। दोनों की आँखें लाल सुर्ख थीं। आँसूओं से तर। मुझे काठ मार गया। मैं समझ गया था वो क्या कहना चाह रहे हैं। पर मैं अपनी समझ को झूठा साबित करना चाहता था। मैंने बड़ी सहमी सी आवाज़ में पूछा, “मतलब”? विनोद जी ने कोई जवाब नहीं दिया बस मुझे गले लगा लिया और फूटफूट कर रो पड़े। मलिक साहब की मौत हो चुकी थी। पूरे घर में मातम छा गया। गहरी वीरानी।

मलिक साहब को विदा हुए पाँच-छ: दिन हो गए थे। यारों के सिवा कोई रिश्तेदार तो था नहीं। इसलिए घर में मेरे सिवा कोई नहीं था। वीरानी घर में चीखती फिरती थी। पर जैसे उसको जवाब देने-सुनने वाला वहाँ कोई नहीं था। घर का दरवाज़ा अब मैं बंद ही रखता था। कभी कोई जानकार अफसोस के लिए आकार दरवाजा खटखटाता तो जैसे कोई घर में चीखती वीरानी को जुगलबंदी के लिए जोड़ीदार मिल जाता। कई बार लोग दरवाज़े से आकार लौट जाते मेरा ध्यान ही नहीं जाता। उस दिन भी यही जुगलबंदी का दौर चल रहा था। कोई दरवाज़ा खटखटा के घर की वीरानी को चुप करा रहा था और घर की वीरानी चीख चीख कर उस खटखट को दबाने में लगी थी। कुछ पल बाद मेरा ध्यान उस तरफ गया। मैंने बड़े अनमने मन से दरवाज़ा खोला। मेरी आँखें रो-रो कर सूजी हुई थीं। चेहरा भी शायद पिचक सा गया था। जैसे ही मैंने दरवाज़ा खोला मेरी सूजी हुई आँखें फटी रह गईं।

दरवाज़े पर पूणिम खड़ी थी। साथ में उसके बापू और शंकर थे। मेरी हालत देख को वो बड़ी हैरान हुई। पूणिम का चेहरा-मोहरा एक दम खिला हुआ था। उसके चेहरे की चमक देख कर लिद्दर दरिया की झलक मिलती थी। उस फ़क़ीर ने सच ही कहा था पूणिम आज़ाद परिंदा थी। उसको आज़ादी की वो रुत रास आ गई थी। पर वो शायद आधा सच था क्योंकि मलिक साहब को मैं कभी गुनहगार नहीं देखता था। मेरी हालत देख कर पूणिम बड़ी हैरान हुई। लाज़मी भी था। उसने दरवाज़े पर ही मेरी हालत का कारण पूछा। मेरी आँखों से आँसू बहने लगे। मुँह से लफ़्ज़ नहीं फूट रहा था। पूणिम बिना मेरा जवाब सुने घर के अंदर आ गई और मलिक साहब को ढूँढने लगी।

पूरे घर में मलिक साहब को न पा कर वो फिर मेरे पास आ गई। पहले उसने आराम से पूछा, “क्या हुआ रमता? उन्होंने कुछ कहा तुमको? वो कहाँ हैं?” पर मेरे आँसू थमते न देख वो और बेचैन हो गई और बौखलाहट में चिल्लाने लगी। तभी विनोद जी और उनकी पत्नी आ गए। पूणिम झट से सिद्धि जी के पास गई और मेरी हालत, मलिक साहब का पता सब पूछने लगी। उन्होंने पूणिम को पकड़ कर आराम कुर्सी पर बैठाया। विनोद जी उन दोनों आदमियों को अंदर ले आए। पूणिम उस कुर्सी पर बैठी ऐसे छटपटा रही थी जैसे कोई पक्षी जाल में फँस गया हो। बड़ी मुश्किल से विनोद जी और उनकी पत्नी ने उसको बैठाया। विनोद जी ने पूणिम को मलिक साहब की तबीयत का हाल बताया। पूणिम पर जैसे किसी ने जलते अंगारे उड़ेल दिए हों। “मुझे किसी ने बताया क्यों नहीं?... रमता तू ही मुझे ढूँढ़ने आ जाता। मैं कौनसा काश्मीर छोड़ गई थी? ... बोल आया क्यों नहीं?... बोल...” वो चिल्ला रही थी। “अब कहाँ हैं वो? मुझे वहीं जाना है। अभी जाना है।” कह कर पूणिम कुर्सी से उठने को हुई। उन दोनों ने फिर उसको कुर्सी पर वापस बैठा दिया। “मुझे छोड़ दीजिए । मुझे अभी उनके पास जाना है। इसी वक़्त।” कह कर वो रो पड़ी। विनोद जी ने बड़े आहिस्ता से कहा, “मलिक साहब अब नहीं रहे।” कह कर वो रो पड़े। पूणिम ने एक दम से सिर उठा कर देखा। उसकी आँखों में सवाल था, के जो उसने सुना क्या वो सच है। पूणिम ने मेरी तरफ देखा मैंने हाँ! में सिर हिलाया और फूट के रो पड़ा। पूणिम वापस कुर्सी पर पीछे को गिर गई। विनोद जी ने बड़ कर उसको सम्भालना चाहा। पर पूणिम निढाल हो कर गिरि थी। उन्होंने जल्दी से पानी मांगा। उनकी पत्नी दौड़ कर पानी लाई। पूणिम के मुँह पर उन्होंने पानी छिड़का पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। विनोद जी ने उसकी नब्ज़ टटोलने के लिए उसका हाथ उठाया और रो पड़े, “पूणिम मलिक साहब के पास चली गई।” उनकी बात सुन कर घर में मातम का अलाम छा गया।

वो पूर्णमासी की रात थी पर इतनी अँधेरी रात मेरी ज़िंदगी में कभी नहीं आई थी। सुबहा पूणिम ने इस घर का दरवाज़ा खटखटाया था और शाम होते तक उसके नाम का दिया घर में जल रहा था। घर में कई जानकार थे पर ऐसा लगता था किसी खण्डहर में हूँ। हर तरफ मायूसी का रंग था। मरसिए की आवाज़। दबे पाँव मैं घर से निकल गया। बाहर आकार मैंने अपने उस मंदिर को प्रणाम किया और फिर एक अंजान सफर पर निकल पड़ा। सब कुछ पीछे छोड़ कर।

इश्क़ इसको कहूँ तो क्या ख़ता करूँ

कि आप समझो क्या बुरा भला करूँ

समझूँ न मर्ज़ जानूँ न हसरत इसे

क्या दवा करूँ तो क्यूँ दुआ करूँ?

कुछ नहीं है ये और आतिश के सिवा

सुलगेगी तब तक जब तक हवा करूँ

सफ़ों के कोरेपन पे दाग़ रंगीं तस्वीरें

बना करूँ जहां वहीं पे मिटा करूँ

आतिश में कुछ न तलब आतिश के सिवा

इश्क़ में जी क्या कहे मैं क्या करूँ

सफ़ों = काग़ज़, कोरेपन = साफ / ताज़गी

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आशा करता हूँ आप भी अपने विचार मुझसे निस्संकोच बांटेंगे।

आभारी

दीपक तलब