फुलवारी MB (Official) द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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फुलवारी

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अनोखी तरकीब

बहुत पुरानी बात है। एक अमीर व्यापारी के यहाँ चोरी हो गयी। बहुत तलाश करने के बावजूद सामान न मिला और न ही चोर का पता चला। तब अमीर व्यापारी शहर के काजी के पास पहुँचा और चोरी के बारे में बताया।

सब कुछ सुनने के बाद काजी ने व्यापारी के सारे नौकरों और मित्रों को बुलाया। जब सब सामने पहुँच गए तो काजी ने सब को एक—एक छड़ी दी। सभी छडियाँ बराबर थीं। न कोई छोटी न बड़ी।

सब को छड़ी देने के बाद काजी बोला, इन छडियों को आप सब अपने अपने घर ले जाएँ और कल सुबह वापस ले आएँ। इन सभी छडियों की खासियत यह है कि यह चोर के पास जा कर ये एक उँगली के बराबर अपने आप बढ़ जाती हैं। जो चोर नहीं होता, उस की छड़ी ऐसी की ऐसी रहती है। न बढ़ती है, न घटती है। इस तरह मैं चोर और बेगुनाह की पहचान कर लेता हूँ।

काजी की बात सुन कर सभी अपनी अपनी छड़ी ले कर अपने अपने घर चल दिए।

उन्हीं में व्यापारी के यहाँ चोरी करने वाला चोर भी था। जब वह अपने घर पहुँचा तो उस ने सोचा, अगर कल सुबह काजी के सामने मेरी छड़ी एक उँगली बड़ी निकली तो वह मुझे तुरंत पकड़ लेंगे। फिर न जाने वह सब के सामने कैसी सजा दें। इसलिए क्यों न इस विचित्र छड़ी को एक उँगली काट दिया जााए। ताकि काजी को कुछ भी पता नहीं चले।

चोर यह सोच बहुत खुश हुआ और फिर उस ने तुरंत छड़ी को एक उँगली के बराबर काट दिया। फिर उसे घिसघिस कर ऐसा कर दिया कि पता ही न चले कि वह काटी गई है।

अपनी इस चालाकी पर चोर बहुत खुश था और खुशी—खुशी चादर तान कर सो गया। सुबह चोर अपनी छड़ी ले कर खुशी—खुशी काजी के यहाँ पहुँचा। वहाँ पहले से काफी लोग जमा थे।

काजी १—१ कर छड़ी देखने लगे। जब चोर की छड़ी देखी तो वह १ उँगली छोटी पाई गई। उस ने तुरंत चोर को पकड़ लिया। और फिर उस से व्यापारी का सारा माल निकलवा लिया। चोर को जेल में डाल दिया गया।

सभी काजी की इस अनोखी तरकीब की प्रशंसा कर रहे थे। १ सितंबर २००१

— पराग ज्ञानदेव चौधरी

ईमानदारी

विक्की अपने स्कूल में होने वाले स्वतंत्रता दिवस समारोह को ले कर बहुत उत्साहित था। वह भी परेड़ में हिस्सा ले रहा था।

दूसरे दिन वह एकदम सुबह जग गया लेकिन घर में अजीब सी शांति थी। वह दादी के कमरे में गया, लेकिन वह दिखाई नहीं पड़ी।

माँ, दादीजी कहाँ हैं? उसने पूछा।

रात को वह बहुत बीमार हो गई थीं। तुम्हारे पिताजी उन्हें अस्पताल ले गए थे, वह अभी वहीं हैं उनकी हालत काफी खराब है।

विक्की एकाएक उदास हो गया।

उसकी माँ ने पूछा, क्या तुम मेरे साथ दादी जी को देखने चलोगे? चार बजे मैं अस्पताल जा रही हूँ।

विक्की अपनी दादी को बहुत प्यार करता था। उसने तुरंत कहा, हाँ, मैं आप के साथ चलूँगा। वह स्कूल और स्वतंत्रता दिवस के समारोह के बारे में सब कुछ भूल गया।

स्कूल में स्वतंत्रता दिवस समारोह बहुत अच्छी तरह संपन्न हो गया। लेकिन प्राचार्य खुश नहीं थे। उन्होंने ध्यान दिया कि बहुत से छात्र आज अनुपस्थित हैं।

उन्होंने दूसरे दिन सभी अध्यापकों को बुलाया और कहा, मुझे उन विद्यार्थियों के नामों की सूची चाहिए जो समारोह के दिन अनुपस्थित थे।

आधे घंटे के अंदर सभी कक्षाओं के विद्यार्थियों की सूची उन की मेज पर थी। कक्षा छे की सूची बहुत लंबी थी। अतरू वह पहले उसी तरफ मुड़े।

जैसे ही उन्होंने कक्षा छे में कदम रखे, वहाँ चुप्पी सी छा गई। उन्होंने कठोरतापूर्वक कहा, मैंने परसों क्या कहा था?

यही कि हम सब को स्वतंत्रता दिवस समारोह में उपस्थित होना चाहिए, गोलमटोल उषा ने जवाब दिया।

ष्तब बहुत सारे बच्चे अनुपस्थित क्यों थे? उन्होंने नामों की सूची हवा में हिलाते हुए पूछा।

फिर उन्होंने अनुपस्थित हुए विद्यार्थियों के नाम पुकारे, उन्हें डाँटा और अपने डंडे से उनकी हथेलियों पर मार लगाई।

अगर तुम लोग राष्ट्रीय समारोह के प्रति इतने लापरवाह हो तो इसका मतलब यही है कि तुम लोगों को अपनी मातृभूमि से प्यार नहीं है। अगली बार अगर ऐसा हुआ तो मैं तुम सबके नाम स्कूल के रजिस्टर से काट दूँगा।

इतना कह कर वह जाने के लिए मुड़े तभी विक्की आ कर उन के सामने खड़ा हो गया।

क्या बात है?

महोदय, विक्की भयभीत पर दृढ़ था, मैं भी स्वतंत्रता दिवस समारोह में अनुपस्थित था, पर आप ने मेरा नाम नहीं पुकारा। कहते हुए विक्की ने अपनी हथेलियाँ प्राचार्य महोदय के सामने फैला दी।

सारी कक्षा साँस रोक कर उसे देख रही थी।

प्राचार्य कई क्षणों तक उसे देखते रहे। उनका कठोर चेहरा नर्म हो गया और उन के स्वर में क्रोध गायब हो गया।

तुम सजा के हकदार नहीं हो, क्योंकि तुम में सच्चाई कहने की हिम्मत है। मैं तुम से कारण नहीं पूछूँगा, लेकिन तुम्हें वचन देना होगा कि अगली बार राष्ट्रीय समारोह को नहीं भूलोगे। अब तुम अपनी सीट पर जाओ।

विक्की ने जो कुछ किया, इसकी उसे बहुत खुशी थी। १ जनवरी २००२

— चित्रा रामास्वामी

ईमानदारी की जीत

चारों ओर सुंदर वन में उदासी छाई हुई थी। वन को अज्ञात बीमारी ने घेर लिया था। वन के लगभग सभी जानवर इस बीमारी के कारण अपने परिवार का कोई न कोई सदस्य गवाँ चुके थे। बीमारी से मुकाबला करने के लिए सुंदर वन के राजा शेर सिंह ने एक बैठक बुलाई।

बैठक का नेतृत्व खुद शेर सिंह ने किया। बैठक में गज्जू हाथी, लंबू जिराफ, अकड़ू सांप, चिंपू बंदर, गिलू गिलहरी, कीनू खरगोश सहित सभी जंगलवासियों ने हिस्सा लिया। जब सभी जानवर इकठ्‌ठे हो गए, तो शेर सिंह एक ऊँचे पत्थर पर बैठ गया और जंगलवासियों को संबोधित करते हुए कहने लगा, भाइयो, वन में बीमारी फैलने के कारण हम अपने कई साथियों को गवाँ चुके हैं। इसलिए हमें इस बीमारी से बचने के लिए वन में एक अस्पताल खोलना चाहिए, ताकि जंगल में ही बीमार जानवरों का इलाज किया जा सके।श्

इस पर जंगलवासियों ने एतराज जताते हुए पूछा कि अस्पताल के लिए पैसा कहाँ से आएगा और अस्पताल में काम करने के लिए डॉक्टरों की जरूरत भी तो पड़ेगी? इस पर शेर सिंह ने कहा, यह पैसा हम सभी मिलकर इकठ्‌ठा करेंगे।

यह सुनकर कीनू खरगोश खड़ा हो गया और बोला, महाराज! मेरे दो मित्र चंपकवन के अस्पताल में डॉक्टर हैं। मैं उन्हें अपने अस्पताल में ले आऊँगा।

इस फैसले का सभी जंगलवासियों ने समर्थन किया। अगले दिन से ही गज्जू हाथी व लंबू जिराफ ने अस्पताल के लिए पैसा इकठ्‌ठा करना शुरू कर दिया।

जंगलवासियों की मेहनत रंग लाई और जल्दी ही वन में अस्पताल बन गया। कीनू खरगोश ने अपने दोनों डॉक्टर मित्रों वीनू खरगोश और चीनू खरगोश को अपने अस्पताल में बुला लिया।

राजा शेर सिंह ने तय किया कि अस्पताल का आधा खर्च वे स्वयं वहन करेंगे और आधा जंगलवासियों से इकठ्‌ठा किया जाएगा।

इस प्रकार वन में अस्पताल चलने लगा। धीरे—धीरे वन में फैली बीमारी पर काबू पा लिया गया। दोनों डॉक्टर अस्पताल में आने वाले मरीजों की पूरी सेवा करते और मरीज भी ठीक हो कर डाक्टरों को दुआएँ देते हुए जाते। कुछ समय तक सब कुछ ठीक ठाक चलता रहा। परंतु कुछ समय के बाद चीनू खरगोश के मन में लालच बढ़ने लगा। उसने वीनू खरगोश को अपने पास बुलाया और कहने लगा यदि वे दोनों मिल कर अस्पताल की दवाइयाँ दूसरे वन में बेचें तथा रात में जाकर दूसरे वन के मरीजों को देखें तो अच्छी कमाई कर सकते हें और इस बात का किसी को पता भी नहीं लगेगा।

वीनू खरगोश पूरी तरह से ईमानदार था, इसलिए उसे चीनू का प्रस्ताव पसंद नहीं आया और उसने चीनू को भी ऐसा न करने का सुझाव दिया। लेकिन चीनू कब मानने वाला था। उसके ऊपर तो लालच का भूत सवार था। उसने वीनू के सामने तो ईमानदारी से काम करने का नाटक किया। परंतु चोरी—छिपे बेइमानी पर उतर आया। वह जंगलवासियों की मेहनत से खरीदी गई दवाइयों को दूसरे जंगल में ले जाकर बेचने लगा तथा शाम को वहाँ के मरीजों का इलाज करके कमाई करने लगा।

धीरे—धीरे उसका लालच बढ़ता गया। अब वह अस्पताल के कम, दूसरे वन के मरीजों को ज्यादा देखता। इसके विपरीत, डॉक्टर वीनू अधिक ईमानदारी से काम करता। मरीज भी चीनू की अपेक्षा डॉक्टर वीनू के पास जाना अधिक पसंद करते। एक दिन सभी जानवर मिलकर राजा शेर सिंह के पास चीनू की शिकायत लेकर पहुँचे। उन्होंने चीनू खरगोश की कारगुजारियों से राजा को अवगत कराया और उसे दंड देने की माँग की। शेर सिंह ने उनकी बात ध्यान से सुनी और कहा कि सच्चाई अपनी आँखों से देखे बिना वे कोई निर्णय नहीं लेंगे। इसलिए वे पहले चीनू डॉक्टर की जांच कराएँगे, फिर अपना निर्णय देंगे। जांच का काम चालाक लोमड़ी को सौंपा गया, क्योंकि चीनू खरगोश लोमड़ी को नहीं जानता था।

लोमड़ी अगले ही दिन से चीनू के ऊपर नजर रखने लगी। कुछ दिन उस पर नजर रखने के बाद लोमड़ी ने उसे रंगे हाथों पकड़ने की योजना बनाई। उसने इस योजना की सूचना शेर सिंह को भी दी, ताकि वे समय पर पहुँच कर सच्चाई अपनी आँखों से देख सकें। लोमड़ी डॉक्टर चीनू के कमरे में गई और कहा कि वह पास के जंगल से आई है। वहाँ के राजा काफी बीमार हैं, यदि वे तुम्हारी दवाई से ठीक हो गए, तो तुम्हें मालामाल कर देंगे। यह सुनकर चीनू को लालच आ गया। उसने अपना सारा सामान समेटा और लोमड़ी के साथ दूसरे वन के राजा को देखने के लिए चल पड़ा। शेर सिंह जो पास ही छिपकर सारी बातें सुन रहा था, दौड़कर दूसरे जंगल में घुस गया और निर्धारित स्थान पर जाकर लेट गया।

थोड़ी देर बाद लोमड़ी डॉक्टर चीनू को लेकर वहाँ पहुँची, जहाँ शेर सिंह मुँह ढँककर सो रहा था। जैसे ही चीनू ने राजा के मुँह से हाथ हटाया, वह शेर सिंह को वहाँ पाकर सकपका गया और डर से काँपने लगा। उसके हाथ से सारा सामान छूट गया, क्योंकि उसकी बेइमानी का सारा भेद खुल चुका था। तब तक सभी जानवर वहाँ आ गए थे। चीनू खरगोश हाथ जोड़कर अपनी कारगुजारियों की माफी माँगने लगा।

राजा शेर सिंह ने आदेश दिया कि चीनू की बेइमानी से कमाई हुई सारी संपत्ति अस्पताल में मिला ली जाए और उसे धक्के मारकर जंगल से बाहर निकाल दिया जाए। शेर सिंह के आदेशानुसार चीनू खरगोश को धक्के मारकर जंगल से बाहर निकाल दिया गया। इस कार्रवाई को देखकर जंगलवासियों ने जान लिया कि ईमानदारी की हमेशा जीत होती है।

— जीवन जोशी

और चाँद फूट गया

आशीष और रोहित के घर आपस में मिले हुए थे। रविवार के दिन वे दोनों बड़े सवेरे उठते ही बगीचे में आ पहुँचे।

तो आज कौन सा खेल खेलें ? रोहित ने पूछा। वह छह वर्ष का था और पहली कक्षा में पढ़ता था।

कैरम से तो मेरा मन भर गया। क्यों न हम क्रिकेट खेलें ? आशीष ने कहा। वह भी रोहित के साथ पढ़ता था।

मगर उसके लिये तो ढेर सारे साथियों की जरूरत होगी और यहाँ हमारे तुम्हारे सिवा कोई है ही नहीं। रोहित बोला।

वे कुछ देर तक सोचते रहे फिर आशीष ने कहा, चलो गप्पें खेलते हैं।

गप्पें? भला यह कैसा खेल होता है? रोहित को कुछ भी समझ में न आया।

देखो मैं बताता हूँ आशीष ने कहा, हम एक से बढ़ कर एक मजेदार गप्प हाँकेंगे। ऐसी गप्पें जो कहीं से भी सच न हों। बड़ा मजा आता है इस खेल में। चलो मैं ही शुरू करता हूँ यह जो सामने अशोक का पेड़ है ना रात में बगीचे के तालाब की मछलियाँ इस पर लटक कर झूला झूल रही थीं। रंग बिरंगी मछलियों से यह पेड़ ऐसा जगमगा रहा था मानो लाल परी का राजमहल।

अच्छा! रोहित ने आश्चर्य से कहा, और मेरे बगीचे में जो यूकेलिप्टस का पेड़ है ना इ़स पर चाँद सो रहा था। चारों ओर ऐसी प्यारी रोशनी झर रही थी कि तुम्हारे अशोक के पेड़ पर झूला झूलती मछलियों ने गाना गाना शुरू कर दिया।

अच्छा! कौन सा गाना? आशीष ने पूछा। वही चंदामामा दूर के पुए पकाएँ बूर के। रोहित ने जवाब दिया।

अच्छा! फिर क्या हुआ?

फिर क्या होता, मछलियाँ इतने जोर से गा रही थीं कि चाँद की नींद टूट गयी और वह धड़ाम से मेरी छत पर गिर गया।

फिर?

फिर क्या था, वह तो गिरते ही फूट गया।

हाय, सच! चाँद फूट गया तो फिर उसके टुकड़े कहाँ गये? आशीष ने पूछा।

वे तो सब सुबह—सुबह सूरज ने आकर जोड़े और उनपर काले रंग का मलहम लगा दिया। विश्वास न हो तो रात में देख लेना चाँद पर काले धब्बे जरूर दिखाई देंगे।

अच्छा ठीक है मैं रात में देखने की कोशिश करूँगा। आशीष ने कहा। वह एक नयी गप्प सोच रहा था।

हाँ याद आया, आशीष बोला, पिछले साल जब तुम्हारे पापा का ट्रांसफर यहाँ नहीं हुआ था तो एक दिन खूब जोरों की बारिश हुई। इतनी बारिश कि पानी बूँदों की बजाय रस्से की तरह गिर रहा था। पहले तो मैं उसमें नहाया फिर पानी का रस्सा पकड़ कर ऊपर चढ़ गया। पता है वहाँ क्या था?

क्या था? रोहित ने आश्चर्य से पूछा।

वहाँ धूप खिली हुई थी। धूप में नन्हें नन्हें घर थे, इन्द्रधनुष के बने हुए। एक घर के बगीचे में सूरज आराम से हरी—हरी घास पर लेटा आराम कर रहा था और नन्हें—नन्हें सितारे धमाचौकड़ी मचा रहे थे

सितारे भी कभी धमाचौकड़ी मचा सकते हैं? रानी दीदी ने टोंक दिया। न जाने वो कब आशीष और रोहित के पास आ खड़ी हुई थीं और उनकी बातें सुन रही थीं।

अरे दीदी, हम कोई सच बात थोड़ी कह रहे हैं। रोहित ने सफाई दी।

अच्छा तो तुम झूठ बोल रहे हो? रानी ने धमकाया।

नहीं दीदी, हम तो गप्पें खेल रहे हैं और हम खुशी के लिये खेल रहे हैं, किसी का नुक्सान नहीं कर रहे हैं। आशीष ने कहा।

भला ऐसी गप्पें हाँकने से क्या फायदा जिससे किसी का उपकार न हो। मैने एक गप्प हाँकी और दो बच्चों का उपकार भी किया।ष्

ष्वो कैसे ?ष् दोनों बच्चों ने एक साथ पूछा।

अभी अभी तुम दोनों की मम्मियाँ तुम्हें नाश्ते के लिये बुला रही थीं। उन्हें लगा कि तुम लोग बगीचे में खेल रहे होगे लेकिन मैने गप्प मारी कि वे लोग तो मेरे घर में बैठे पढ़ाई कर रहे हैं। उन्होंने मुझसे तुम दोनों को भेजने के लिये कहा हैं।

यह सुनते ही आशीष और रोहित गप्पें भूल कर अपने—अपने घर भागे। उन्हें डर लग रहा था कि मम्मी उनकी पिटाई कर देंगी लेकिन मम्मियों ने तो उन्हें प्यार किया और सुबह—सुबह पढ़ाई करने के लिये शाबशी भी दी। रानी दीदी की गप्प को वे सच मान बैठी थीं।

— पूर्णिमा वर्मन

कौन जोड़ेगा चित्र

सब लोग दीपावली की तैयारियों में व्यस्त थे। माँ मिठाइयाँ बना रही थीं। बाबा पड़ोस के बड़े भैया के सात बाहर के दरवाजे पर तोरण बाँध रहे थे।

घर चमचमा रहा था। दरवाजों पर नए पर्दे लगे थे। बरामदे में सुंदर सी रंगोली बनाकर उसमें दीये लगा दिये गए थे। माँ ने पिछले हफ्ते एक नया चित्र बनाया था उसको लकड़ी के चित्र फलक पर लगाया गया था। दरवाजे से अंदर आते चित्र दिखाई देता था। चित्र में तीन दीये थे और शुभ दीपावली लिखा हुआ था।

सामने वाले पेड़ पर नन्हे नन्हे बल्बों वाली रोशनी कल ही लग गई थी। छत की मुँडेर पर भी दीये लगा दिये गए थे। बस उनको जलाना भर बाकी था। आज शाम को पूजा के बाद बहुत से लोग आने वाले थे। एक बड़ी दावत का इंतजाम जो था।

माँ ने रसोई का काम पूरा कर के नन्हे को आवाज जी, नन्हे जल्दी आओ पहले तुम्हें नए कपड़े पहना दूँ, फिर मुझे भी तैयार होना है। नन्हें अंदर आया और नए कपड़े पहन कर तैयार हो गया। कितने अच्छे लग रहे थन नए कपड़े! नन्हें की पसंद के जो थे। वह भाग कर बाहर आया। लेकिन उसका पैर चित्र—फलक में फँस गया। नन्हें गिर पड़ा साथ ही चित्र—फलक पर रखा चित्र भी गिर गया। गिरते ही चित्र कई टुकड़ों में टूट गया।

नन्हें दुखी हो गया। माँ टूटा चित्र देखकर नाराज होगी उसने सोचा। अब मैं क्या करूँ सारे मेहमान आने वाले हैं चित्र टूटा पड़ा है। नन्हें को घबराया हुआ देखकर बड़े भैया बोले, ष्घबराने की की बात नहीं है नन्हें, इसको जोड़ना तो बहुत ही आसान है। बस माउस से क्लिक क्लिक करते जाओ और यह जुड़ जाएगा।

दोस्तों, टूटे हुए चित्र के सारे टुकड़े नीचे रखे हुए हैं। नन्हें तीन साल का है उसे चित्र जोड़ना नहीं आता। क्या आप उसकी सहायता कर सकते हैं। कोशिश कर के देखिये अगर मुश्किल लगे तो ऊपर वाले चित्र से मदद ले सकते हैं।

— पूर्णिमा वर्मन

गरम जामुन

बहुत समय पहले की बात है, सुंदरवन में वेतू नामक एक बूढ़ा खरगोश रहता था। वह इतनी अच्छी कविता लिखता था कि सारे जंगल के पशु्‌पक्षी उन्हें सुनकर दातों तले उँगली दबा लेते और विद्वान तोता तक उनका लोहा मानता था।

वेतू खरगोश ने शास्त्रार्थ में सुरीली कोयल और विद्वान मैना तक को हरा कर विजय प्राप्त की थी। इसी कारण जंगल का राजा शेर भी उसका आदर करता था। पूरे दरबार में उस जैसा विद्वान कोई दूसरा न था। धीरे—धीरे उसे अपनी विद्वत्ता का बड़ा घमण्ड हो गया।

एक दिन वह बड़े सवेरे खाने की तलाश में निकला। बरसात के दिन थे, काले बादलों ने घिरना शुरू ही किया था। मौसम की पहली बरसात होने ही वाली थी। सड़क के किनारे जामुनों के पेड़ काले—काले जामुनों से भरे झुके हुए थे। बड़े—बड़े, काले, रसीले जामुनों को देखकर वेतू के मुँह में पानी भर आया।

एक बड़े से जामुन के पेड़ के नीचे जाकर उसने आँखें उठाई और ऊपर देखा तो नन्हें तोतों का एक झुण्ड जामुन खाता दिखाई दिया। बूढ़े खरगोश ने नीचे से आवाज दी, प्यारे नातियों मेरे लिये भी थोड़े से जामुन गिरा दो।

उन नन्हें तोतों मे मिठ्‌ठू नाम का एक तोता बड़ा शरारती और चंचल था। वह ऊपर से ही बोला, दादा जी, यह तो बताइये कि आम गरम जामुन खायेंगे या ठंडी?

बेचारा बूढ़ा वेतू खरगोश हैरान होकर बोला, भला जामुन भी कहीं गरम होते हैं? चलो मुझसे मजाक न करो। मुझे थोड़े से जामुन तोड़ दो।

मिठ्‌ठू बोला, अरे दादाजी, आप ठहरे इतने बड़े विद्वान। यह भी नहीं जानते कि जामुन गरम भी होते हैं और ठंडे भी। पहले आप बताइये कि आपको कैसे जामुन चाहिये? भला इसे जाने बिना मैं आपको कैसे जामुन दूँगा?

बूढ़े और विद्वान खरगोश की समझ में बिलकुल भी न आया कि जामुन गरम भला कैसे होंगे? फिर भी वह उस रहस्य को जानना चाहता था इसलिये बोला, बेटा, तुम मुझे गरम जामुन ही खिलाओ ठंडे तो मैंने बहुत खाए हैं।

नन्हें मिठ्‌ठू ने बूढ़े वेतू की यह बात सुनकर जामुन की एक डाली को जोर से हिलाया। पके—पके ढेर से जामुन नीचे धूल में बिछ गये। बूढ़ा वेतू उन्हें उठाकर धूल फूँक—फूँक कर खाने लगा। यह देखकर नन्हें मिठ्‌ठू ने पूछा, क्यों दादाजी, जामुन खूब गरम हैं न?

कहाँ बेटा? ये तो साधारण ठंडे जामुन ही हैं। खरगोश बोला। नन्हें मिठ्‌ठू तोते ने चौंक कर पूछा, क्या कहा ठंडे हैं? तो फिर आप इन्हें फूँक—फूँक कर क्यों खा रहे हैं? इस तरह तो सिर्फ गरम चीजें ही खाई जाती है।

नन्हें मिठ्‌ठू तोते की बात का रहस्य अब जाकर बूढ़े खरगोश की समझ में आया और वह बड़ा शर्मिन्दा हुआ। इतना विद्वान बूढ़ा वेतू खरगोश जरा सी बात में छोटे से तोते के बच्चे से हार गया था। उसका घमण्ड दूर हो गया और उसने एक कविता लिखी —

खूब कड़ा तना शीशम का, बड़े कुल्हाड़े से कट जाता।

लेकिन वो ही बड़ा कुल्हाड़ा, कोमल केले से घिस जाता।

सच है कभी—कभी छोटे भी, ऐसी बड़ी बात कहते हैं।

बहुत बड़े विद्वान गुणी भी, अपना सिर धुनने लगते हैं। १ फरवरी २००३

— पूर्णिमा वर्मन

गल्लू सियार का लालच

गौरव गुप्ता की कहानी

मल्लू और गल्लू सियार भाई—भाई थे। मल्लू सीधा—सादा और भोला था। वह बड़ा ही नेकदिल और दयावान था। दूसरी ओर गल्लू एक नम्बर का धूर्त और चालबाज सियार था। वह किसी भी भोले—भाले जानवर को अपनी चालाकी से बहलाकर उसका काम तमाम कर देता था।

एक दिन गल्लू सियार जंगल में घूम रहा था कि उसे रास्ते में एक चादर मिली। जाड़े के दिन नजदीक थे इसीलिए उसने चादर को उठाकर रख लिया। उसके बाद वह घर की ओर चल दिया।

अगले दिन गल्लू सियार मल्लू के घर गया। ठण्ड की वजह से दरवाजा खोला लेकिन जैसे ही गल्लू अन्दर जाने लगा, तो मल्लू ने दरवाजा बन्द कर लिया। गल्लू को अपने भाई की यह हरकत बहुत बुरी लगी। उसे अपने भाई पर बड़ा क्रोध आया।

भाई के घर से आने के बाद गल्लू नहाने के लिए नदी पर गया। उसको देखकर बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि आज सारे मोटे—मोटे जानवर बड़े बेफिक्र होकर बिना किसी डर के उसके पास से गुजर रहे थे। उसके पानी में घुसने से पहले जैसे ही चादर को उतारा, उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। सारे छोटे—मोटे जानवर अपनी—अपनी जान बचाने के लिए इधर—उधर भागने लगे। चारों ओर हाहाकार मच गया। गल्लू को लगा कि जरूर इस चादर का चमत्कार है। उसके मन में विचार आया कि कहीं यह जादुई तो नहीं। जिसको ओढ़ते ही वह अदृश्य हो जाता हो। तभी उसे याद आया कि मल्लू ने भी दरवाजा खटखटाने की आवाज सुनकर दरवाजा खोला और एकाएक बन्द भी कर लिया, मानो दरवाजे पर कोई हो ही नहीं।

अब उसका शक यकीन में बदल गया और उसे मल्लू पर किसी तरह का क्रोध भी नहीं रहा। वह नहाकर जल्दी से जल्दी अपने भाई मल्लू सियार के पास पहुँचना चाहता था। अतरू लम्बे डग भरता हुआ उसके घर जा पहुँचा। उसने मल्लू को वह चादर दिखाई और प्रसन्न होते हुए बोला ——

देखो भाई, इस जादुई चादर को ओढ़ते ही ओढ़ने वाला अदृश्य हो जाता है। मैंने सोच है कि क्यों न इसकी मदद से मैं जंगल के राजा को मारकर खुद जंगल का राजा बन जाऊँ। अगर तुम मेरा साथ दोगे तो मैं तुम्हें महामंत्री का पद दूंगा।

भाई गल्लू, मुझे महामंत्री पद का कोई लालच नहीं। यदि तुम मुझे राजा भी बना दोगे तो भी मैं नहीं बनूँगा क्योंकि अपने स्वामी से गद्दारी में नहीं कर सकता। मैं तो तुम्हें भी यही सलाह दूंगा कि तुम्हें इस चादर का दुरूपयोग नहीं करना चाहिए।

अपनी सलाह अपने पास ही रखो। मैं भी कितना मूर्ख हूँ जो इस काम में तुम्हारी सहायता लेने की सोच बैठा, गुस्से में भुनभुनाते हुए गल्लू सियार वहाँ से चला गया पर मल्लू सोच में डूब गया।

अगर गल्लू जंगल का राजा बन बैठा तब तो अनर्थ हो जाएगा। एक सियार को जंगल का राजा बना देखकर पड़ोसी राजा हम पर आक्रमण कर देगा। शक्तिशाली राजा के अभाव में हम अवश्य ही हार जायेंगे और हमारी स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाएगी। यह सोच कर मल्लू सियार सिहर उठा और उसने मन ही मन गल्लू की चाल को असफल बनाने की एक योजना बना डाली।

रात के समय जब सब सो रहे थे तब मल्लू अपने घर से निकला और चुपचाप खिड़की के रास्ते गल्लू के मकान में घुस गया। उसने देखा कि गल्लू की चादर उसके पास रखी हुई है। उसने बड़ी ही सावधानी से उसको उठाया और उसके स्थान पर वैसी ही एक अन्य चादर रख दी जो कि बिल्कुल वैसी थी। इसके बाद वह अपने घर आ गया।

सुबह उठकर नहा—धो कर गल्लू सियार शेर को मारने के लिए चादर ओढ़कर प्रसन्नतापूर्वक उसकी माँद की ओर चल पड़ा। आज उसके पाँव धरती पर नहीं पड़ रहे थे। आखिर वह अपने को भावी राजा समझ रहा था। माँद में पहुँचकर उसने देखा कि शेर अभी सो रहा था। गल्लू ने गर्व से उसको एक लात मारी और उसको जगा कर गालियाँ देने लगा। शेर चौंक कर उठ गया। वह भूखा तो था ही, उपर से गल्लू ने उसको क्रोध भी दिलाया था, सो उसने एक ही बार में गल्लू का काम तमाम कर दिया।

मल्लू सियार को जब अपने भाई की यह खबर मिली तो उसको बड़ा दुख हुआ पर उसने सोचा कि इसके अलावा जंगल की स्वतंत्रता को बचाने का कोई रास्ता भी तो नहीं था। उसकी आँखों में आँसू आ गए, वह उठा और उसने उस जादुई चादर को जला डाला ताकि वह किसी और के हाथ में न पड़ जाए।

मल्लू ने अपने भाई की जान देकर अपने राजा के प्राण बचाए थे और जंगल की स्वतंत्रता भी।

१ अप्रैल २००१

गोटू और मोटू

गोटू और मोटू जोकर डंबो सर्कस में काम करते थे। वे दोनों अच्छे मित्र थे। गोटू बहुत लंबा और पतला था, जबकि मोटू छोटा व मोटा था।

एक दिन गोटू और मोटू सर्कस में करतब दिखा रहे थे। गोटू हवा में साबुन के बुलबुलों को पकड़ने की कोशिश कर रहा था। यह देख कर बच्चे हँसते हुए तालियाँ बजाने लगे।

उसी समय अचानक गोटू ने थोड़ासा साबुन वाला पानी जमीन पर उड़ेल दिया। फिर जैसे ही मोटू बुलबुले को पकड़ने के लिए ऊपर की ओर कूदा, फिसल कर नीचे गिर गया।

मोटू दर्द के कारण जोरजोर से चिल्लाने लगा, हाय, मैं मर गया।

गोटू और सर्कस देखने वाले बच्चों ने सोचा कि यह उसका दूसरा करतब है। इसलिए वे जोर जोर से हँसने लगे।

लेकिन मोटू को बहुत चोट आई थी। वह इस कारण भी दुखी था कि गोटू उस पर हँस रहा है। तभी उसने गोटू को सबक सिखाने का निश्चय किया।

शो के बाद उस रात जैसे ही सब लोग रात के खाने के लिए इकठ्‌ठे हुए, मोटू के दिमाग में एक विचार आया। उसने गोटू की प्लेट से २ पूडियाँ चुरा कर अपनी जेब में रख लीं। लेकिन गोटू को इस बात का पता न चला।

अगले दिन जब गोटू चमकीले लाल कपड़ों में शो के लिए तैयार हो रहा था, तभी मोटू ने उस की कमीज के पीछे पूडियों को लटका दिया। फिर उसने गोटू से कहा, जल्दी करो, शो के लिए तुम्हें देर हो रही है।

गोटू जल्दी से अपनी कैप पहन कर तंबू से बाहर आया तो ३—४ कुत्तों ने उसके पीछे चलना शुरू कर दिया। गोटू हड़बड़ाता हुआ शो के लिए चल दिया। साथ ही कुत्ते भी भौंकते हुए उसके पीछे—पीछे चलने लगे। मोटू कोने में खड़ा हँस रहा था। तभी सर्कस मैनेजर ने उन दोनों को आवाज दी, गोटू मोटू तुम जल्दी से रिंग में जाओ।

गोटू ने सर्कस कर्मचारियों की सहायता से कुत्तों से पीछा छुड़ाया और रिंग में पहुँचा। जब बच्चों ने गोटू की कमीज पर पूडियाँ लटकी देखीं तो उन्होंने सोचा कि यह भी उस के करतब का ही अगला भाग है। फिर एक पालतू कुत्ते ने पूडियों को सूँघ कर गुर्राना शुरू कर दिया।

लेकिन गोटू ने अपना खेल जारी रखा। उसने हवा में बुलबुले उड़ाने का करतब शुरू किया। मोटू बुलबुलों को पकड़ने के लिए कूदने लगा। तभी एकलंबा सा बुलबुला गोटू की कैप पर जा कर बैठ गया।

अब मोटू उछलने के बाद भी उसे नहीं पकड़ सका, क्योंकि उसका कद छोटा था। वह बुलबुले को पकड़ने के लिए नई योजना बनाने लगा। बच्चे उस दृश्य को देख कर बहुत खुश हो रहे थे। बाद में मोटू एक सीढ़ी लेकर आया और उसे गोटू के सामने लगा दिया। जब वह सीढ़ी पर चढ़ रहा था, तब एक दूसरा पालतू कुत्ता भीड़ में से बाहर आया और गोटू की कमीज पर लगी पूडियों पर झपटा। उसने गोटू को भी काट लिया।

गोटू दर्द के मारे अपना संतुलन खो बैठा। गोटू, मोटू और कुत्ता सभी धड़ाम से गिर पड़े। अब दोनों जोकर दर्द के मारे चिल्ला रहे थे, जबकि बच्चे यह देख कर हँसने लगे।

फिर गोटू और मोटू जल्दी से रिंग से बाहर आए। दोनों को अस्पताल ले जाया गया।

मोटू ने गोटू से माफी माँगी और कहा, मैं नहीं जानता था कि मेरा यह मजाक हमें इस परेशानी में डाल देगा। अब मोटू और गोटू ने निश्चय किया कि वे फिर ऐसी शरारत कभी नहीं करेंगे।

तभी पीछे से आवाज आई, नहीं नहीं, ऐसा मत कहो। आज तुम दोनों की वजह से सर्कस का यह करतब बहुत कामयाब रहा है, सर्कस का मालिक मोटू और गोटू के लिए गुलदस्ता लिए खड़ा था।

गोटू व मोटू की आँखें खुशी के कारण चमकने लगीं।१ जुलाई २००२

— मीनाक्षी मिश्रा

गोपी लौट आया

जब स्कूल से घर आकर गोपी ने अपना बैग फर्श पर फेंका तो उस में से कुछ फटी हुई कापियाँ और पुस्तकें बाहर निकल कर बिखर गई।

उसकी माताजी, जो पहले ही किसी कारण निराश—सी बैठी थीं, ने जब यह देखा तो उनका पारा चढ़ गया। उन्होंने एकदम उसके गाल पर थप्पड़ जड़ दिया और बोली, श्मॉडल स्कूल में पढते हो। वहाँ यही सब सिखाते हैं क्या? कितने दिन से देख रही हूँ। कभी बैग फेंक देते हो, कभी मोजे और जूते निकालकर इधरउधर मारते हो। सुबह से शाम तक जी तोड़ कर काम करती हूँ। फिर कहीं जाकर मुश्किल से हजार रूपया महीना मिलता है। पता है, कैसे पढ़ा रही हूँ तुझे? देखो तो सही, क्या हालत बनाई हुई कॉपी—किताबों की। शर्म नहीं आती क्या?

गोपी की ऐसी आदतों से उसकी माताजी बहुत परेशान थीं। गोपी के पिताजी की एक हादसे में मृत्यु हो गई थी। घर का गुजारा बड़ी मुश्किल से चल रहा था। उसकी माताजी को यह चिंता भी रहती थी कि गोपी पढ़ाई में कोई दिलचस्पी नहीं लेता।

उधर गोपी को अपनी माँ पर गुस्सा आ रहा था। पलंग पर पड़ा वह रोता रहा। कुछ सोच रहा था। अचानक उसके दिमाग में एक विचार कौंधा, क्यों न मैं पास वाले शहर में अपने दोस्त हैपी के पास चला जाऊँ। माताजी ढूँढेंगी तो परेशान तो होंगी।

बस, फिर क्या था। वह माँ के घर से निकलने का इंतजार करने लगा और जैसे ही वे पड़ोस में किसी काम से गई, वह चुपके से घर से बाहर निकल लिया और बड़—बड़े कदम भरता हुआ चलने लगा। चलने से पहले उसने माँ के पर्स से बीस रूपये का एक नोट भी निकाल लिया।

कुछ देर बाद गोपी की माताजी घर आ गई। जब उन्हें गोपी कहीं नजर नहीं आया तो वे उसे ढूंढने लगीं। फिर उन्होंने सोचा कि वह अपने किसी दोस्त के पास गया होगा, थोड़ी देर में आ जाएगा।

धीरे—धीरे अँधेरा घिरने लगा और रात हो गई। गोपी अभी तक नहीं लौटा था। उसकी माँ की चिंता बढ़ने लगी। वह इस बात से बिलकुल बेखबर थीं कि वह कभी दौड़ता, तो कभी किसी साइकिल या स्कूटर से लिफ्ट लेता हुआ दूसरे शहर पहुँच गया होगा। वह अपने दोस्त हैपी का घर तो जानता ही था। हैपी के माता—पिता को इस शहर में आए दो साल से ज्यादा समय हो गया था। हैपी के पिताजी की इस शहर में बदली हो गई थी। इसलिये वह गोपी का स्कूल छोड़ कर चला गया था।

गोपी अभी हैपी के घर वाली गली में दाखिल हुआ कि उसने देखा, एक लड़का खंभे की ट्यूब की रोशनी में पढ़ने में व्यस्त था। वह उसके पास गया और उसे एकटक देखता रहा। फिर उसने पूछा, क्या कर रहे हो भाई?

उस लड़के ने नजर उठाई और बोला, पढ़ रहा हूँ। यह कहकर वह फिर पढ़ने लगा। गोपी के दूसरे प्रश्न ने उसका ध्यान भंग कर दिया। गोपी का सवाल था,

कौन सी कक्षा में पढ़ते हो?

दसवी कक्षा में। उत्तर मिला।

कौन से स्कूल में? गोपी की उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी।

स्कूल में नहीं प्राइवेट ।

वह लड़का कुछ और पढ़ना चाहता था, लेकिन गोपी के सवालों ने उसका मन उचाट कर दिया। वह अपनी पुस्तकें समेटने लगा। उसका हर रोज रात को साढ़े दस बजे तक पढ़ने का नियम था।

बातों—बातों में गोपी को यह पता चल गया कि उस लड़के के माता—पिता नहीं हैं और वह साइकिल की एक दुकान पर मरम्मत का काम करता है।

गोपी ने उससे और भी कई बातें कीं। इतने मेहनती लड़के की बातें सुनकर गोपी सन्न रह गया। उसे यह भी पता चला कि वह हर साल आधे मूल्य पर पुरानी किताबें खरीदकर पढ़ता है। गोपी ने उसकी पुस्तके देखीं तो मन ही मन उसे शर्म आई। वह सोचने लगा, उसकी माँ तो उसे नई किताबें खरीदकर देती हैं और वह उनका ऐसा हाल बना लेता है जैसे वे दो—तीन साल पुरानी हों।

गोपी के मन को एकदम झटका—सा लगा। अपनी पुस्तकों और शिक्षा के प्रति ऐसा स्नेह? इतनी मेहनत? उसे अपने से ग्लानि—सी होने लगी। वह उस लड़के को दूर तक जाते हुए देखता रहा। फिर वह सोचने लगा, उसने जो कुछ भी किया, अच्छा नहीं किया। उसने फैसला किया कि वह माँ को सारी असलियत बता देगा और माफी माँग लेगा। अब वह अपनी किताबें भी संभाल कर रखेगा। उसकी कोई भी चीज इधर—उधर नहीं बिखरेगी।

गोपी काफी देर तक यही सब सोचता रहा। हालांकि एकबारगी उसका मन हुआ भी कि वह सामने दिख रहे हैपी के घर की घंटी बजा दे, लेकिन न जाने क्या सोच कर उसने ऐसा नहीं किया।

अब उसके कदम तेजी से पीछे की तरफ लौट रहे थे अपने घर की तरफ।

१ जून २००२

— दर्शन सिंह आशट

चतुर बिल्ली

एक चिड़ा पेड़ पर घोंसला बनाकर मजे से रहता था। एक दिन वह दाना पानी के चक्कर में अच्छी फसल वाले खेत में पहुँच गया। वहाँ खाने पीने की मौज से बड़ा ही

खुश हुआ। उस खुशी में रात को वह घर आना भी भूल गया और उसके दिन मजे में वही बीतने लगे।

इधर शाम को एक खरगोश उस पेड़ के पास आया जहाँ चिड्डे का घोंसला था। पेड़ जरा भी ऊँचा नहीं था। इसलिए खरगोश ने उस घोंसलें में झाँक कर देखा तो पता चला कि यह घोंसला खाली पड़ा है। घोंसला अच्छा खासा बड़ा था इतना कि वह उसमें खरगोश आराम से रह सकता था। उसे यह बना बनाया घोंसला पसन्द आ गया और उसने यहीं रहने का फैसला कर लिया।

कुछ दिनों बाद वह चिड्डा खा खा कर मोटा ताजा बन कर अपने घोंसलें की याद आने पर वापस लौटा। उसने देखा कि घोंसलें में खरगोश आराम से बैठा हुआ है। उसे बड़ा गुस्सा आया, उसने खरगोश से कहा, ष्चोर कहीं का, मैं नहीं था तो मेरे घर में घुस गये हो? चलो निकलो मेरे घर से, जरा भी शरम नहीं आयी मेरे घर में रहते हुए?

खरगोश शान्ति से जवाब देने लगा, ष्कहाँ का तुम्हारा घर? कौन सा तुम्हारा घर? यह तो मेरा घर है। पागल हो गये हो तुम। अरे! कुआँ, तालाब या पेड़ एक बार छोड़कर कोई जाता हैं तो अपना हक भी गवाँ देता हैं। यहाँ तो जब तक हम हैं, वह अपना घर है। बाद में तो उसमें कोई भी रह सकता है। अब यह घर मेरा है। बेकार में मुझे तंग मत करो।

यह बात सुनकर चिड्डा कहने लगा, ऐसे बहस करने से कुछ हासिल नहीं होनेवाला। किसी धर्मपण्डित के पास चलते हैं। वह जिसके हक में फैसला सुनायेगा उसे घर मिल जायेगा।

उस पेड़ के पास से एक नदी बहती थी। वहाँ पर एक बड़ी सी बिल्ली बैठी थी। वह कुछ धर्मपाठ करती नजर आ रही थी। वैसे तो यह बिल्ली इन दोनों की जन्मजात शत्रु है लेकिन वहाँ और कोई भी नहीं था इसलिए उन दोनों ने उसके पास जाना और उससे न्याय लेना ही उचित समझा। सावधानी बरतते हुए बिल्ली के पास जा कर उन्होंने अपनी समस्या बतायी।

उन्होंने कहा, ष्हमने अपनी उलझन तो बता दी, अब इसका हल क्या है? इसका जबाब आपसे सुनना चाहते हैं। जो भी सही होगा उसे वह घोंसला मिल जायेगा और जो झूठा होगा उसे आप खा लें।

ष्अरे रे !! यह तुम कैसी बातें कर रहे हो, हिंसा जैसा पाप नहीं इस दुनिया में। दूसरों को मारने वाला खुद नरक में जाता है। मैं तुम्हें न्याय देने में तो मदद करूँगी लेकिन झूठे को खाने की बात है तो वह मुझसे नहीं हो पायेगा। मैं एक बात तुम लोगों को कानों में कहना चाहती हूँ, जरा मेरे करीब आओ तो!!ष्

खरगोश और चिड़ा खुश हो गये कि अब फैसला हो कर रहेगा। और उसके बिलकुल करीब गये। फिर क्या? करीब आये खरगोश को पंजे में पकड़ कर मुँह से चिड्डे को नोच लिया। दोनों का काम तमाम कर दिया। अपने शत्रु को पहचानते हुए भी उस पर विश्वास करने से खरगोश और चिड्डे को अपनी जानें गवाँनीं पड़ीं।

सच है, शत्रु से संभलकर और हो सके तो चार हाथ दूर ही रहने में भलाई होती है।

१ अप्रैल २००२

(पंचतंत्र से)

चालाकी का फल

एक थी बुढिया, बेहद बूढ़ी पूरे नब्बे साल की। एक तो बेचारी को ठीक से दिखाई नहीं पड़ता था ऊपर से उसकी मुर्गियाँ चराने वाली लड़की नौकरी छोड़ कर भाग गयी।

बेचारी बुढिया! सुबह मुर्गियों को चराने के लिये खोलती तो वे पंख फड़फड़ाती हुई सारी की सारी बुढिया के घर की चारदीवारी फाँद कर अड़ोस पड़ोस के घरों में भाग जातीं और कों कों कुड़कुड़ करती हुई सारे मोहल्ले में हल्ला मचाती हुई घूमतीं। कभी वे पड़ोसियों की सब्जियाँ खा जातीं तो कभी पड़ोसी काट कर उन्हीं की सब्जी बना डालते। दोनों ही हालतों में नुकसान बेचारी बुढिया का होता। जिसकी सब्जी बरबाद होती वह बुढिया को भला बुरा कहता और जिसके घर में मुर्गी पकती उससे बुढिया की हमेशा की दुश्मनी हो जाती।

हार कर बुढिया ने सोचा कि बिना नौकर के मुर्गियाँ पालना उसकी जैसी कमजोर बुढिया के बस की बात नहीं। भला वो कहाँ तक डंडा लेकर एक एक मुर्गी हाँकती फिरे? जरा सा काम करने में ही तो उसका दम फूल जाता था। और बुढिया निकल पड़ी लाठी टेकती नौकर की तलाश में।

पहले तो उसने अपनी पुरानी मुर्गियाँ चराने वाली लड़की को ढूँढा। लेकिन उसका कहीं पता नहीं लगा। यहाँ तक कि उसके माँ बाप को भी नहीं मालूम था कि लड़की आखिर गयी तो गयी कहाँ? नालायक और दुष्ट लड़की! कहीं ऐसे भी भागा जाता है? न अता न पता सबको परेशान कर के रख दिया। बुढिया बड़बड़ायी और आगे बढ़ गयी।

थोड़ी दूर पर एक भालू ने बुढिया को बड़बड़ाते हुए सुना तो वह घूम कर सड़क पर आ गया और बुढिया को रोक कर बोला, गु र्र र, बुढिया नानी नमस्कार! आज सुबह सुबह कहाँ जा रही हो? सुना है तुम्हारी मुर्गियाँ चराने वाली लड़की नौकरी छोड़ कर भाग गयी है। न हो तो मुझे ही नौकर रख लो। खूब देखभाल करूँगा तुम्हारी मुर्गियों की।

अरे हट्टो, तुम भी क्या बात करते हो? बुढिया ने खिसिया कर उत्तर दिया, एक तो निरे काले मोटे बदसूरत हो मुर्गियाँ तो तुम्हारी सूरत देखते ही भाग खड़ी होंगी। फिर तुम्हारी बेसुरी आवाज उनके कानों में पड़ी तो वे मुड़कर दड़बे की ओर आएँगी भी नहीं। एक तो मुर्गियों के कारण मुहल्ले भर से मेरी दुश्मनी हो गयी है, दूसरा तुम्हारे जैसा जंगली जानवर और पाल लूँ तो मेरा जीना भी मुश्किल हो जाए। छोड़ो मेरा रास्ता मैं खुद ही ढूँढ लूँगी अपने काम की नौकरानी।

बुढिया आगे बढ़ी तो थोड़ी ही दूर पर एक सियार मिला और बोला, हुआँ हुआँ राम राम बुढिया नानी किसे खोज रही हो? बुढिया खिसिया कर बोली, अरे खोज रहीं हूँ एक भली सी नौकरानी जो मेरी मुर्गियों की देखभाल कर सके। देखो भला मेरी पुरानी नौकरानी इतनी दुष्ट छोरी निकली कि बिना बताए कहीं भाग गयी अब मैं मुर्गियों की देखभाल कैसे करूँ? कोई कायदे की लड़की बताओ जो सौ तक गिनती गिन सके ताकि मेरी सौ मुर्गियों को गिन कर दड़बे में बन्द कर सकें।

यह सुन कर सियार बोला, हुआँ हुआँ, बुढिया नानी ये कौन सी बड़ी बात है? चलो अभी मैं तुम्हें एक लड़की से मिलवाता हूँ। मेरे पड़ोस में ही रहती है। रोज जंगल के स्कूल में पढ़ने जाती है इस लिये सौ तक गिनती उसे जरूर आती होगी। अकल भी उसकी खूब अच्छी है। शेर की मौसी है वो, आओ तुम्हें मिलवा ही दूँ उससे।

बुढिया लड़की की तारीफ सुन कर बड़ी खुश होकर बोली, जुग जुग जियो बेटा, जल्दी बुलाओ उसे कामकाज समझा दूँ। अब मेरा सारा झंझट दूर हो जाएगा। लड़की मुर्गियों की देखभाल करेगी और मैं आराम से बैठकर मक्खन बिलोया करूँगी।

सियार भाग कर गया और अपने पड़ोस में रहने वाली चालाक पूसी बिल्ली को साथ लेकर लौटा। पूसी बिल्ली बुढिया को देखते ही बोली, म्याऊँ, बुढिया नानी नमस्ते। मैं कैसी रहूँगी तुम्हारी नौकरानी के काम के लिये? नौकरानी के लिये लड़की जगह बिल्ली को देखकर बुढिया चौंक गयी। बिगड़ कर बोली, हे भगवान कहीं जानवर भी घरों में नौकर हुआ करते हैं? तुम्हें तो अपना काम भी सलीके से करना नहीं आता होगा। तुम मेरा काम क्या करोगी?

लेकिन पूसी बिल्ली बड़ी चालाक थी। आवाज को मीठी बना कर मुस्कुरा कर बोली, अरे बुढिया नानी तुम तो बेकार ही परेशान होती हो। कोई खाना पकाने का काम तो है नहीं जो मैं न कर सकूँ। आखिर मुर्गियों की ही देखभाल करनी है न? वो तो मैं खूब अच्छी तरह कर लेती हूँ। मेरी माँ ने तो खुद ही मुर्गियाँ पाल रखी हैं। पूरी सौ हैं। गिनकर मैं ही चराती हूँ और मैं ही गिनकर बन्द करती हूँ। विश्वास न हो तो मेरे घर चलकर देख लो।

एक तो पूसी बिल्ली बड़ी अच्छी तरह बात कर रही थी और दूसरे बुढिया काफी थक भी गयी थी इसलिये उसने ज्यादा बहस नहीं की और पूसी बिल्ली को नौकरी पर रख लिया।

पूसी बिल्ली ने पहले दिन मुर्गियों को दड़बे में से निकाला और खूब भाग दौड़ कर पड़ोस में जाने से रोका। बुढिया पूसी बिल्ली की इस भाग—दौड़ से संतुष्ट होकर घर के भीतर आराम करने चली गयी। कई दिनों से दौड़ते भागते बेचारी काफी थक गयी थी तो उसे नींद भी आ गयी।

इधर पूसी बिल्ली ने मौका देखकर पहले ही दिन छे मुर्गियों को मारा और चट कर गयी। बुढिया जब शाम को जागी तो उसे पूसी की इस हरकत का कुछ भी पता न लगा। एक तो उसे ठीक से दिखाई नहीं देता था और उसे सौ तक गिनती भी नहीं आती थी। फिर भला वह इतनी चालाक पूसी बिल्ली की शरारत कैसे जान पाती?

अपनी मीठी मीठी बातोंसे बुढिया को खुश रखती और आराम से मुर्गियाँ चट करती जाती। पड़ोसियों से अब बुढिया की लड़ाई नहीं होती थी क्योंकि मुर्गियाँ अब उनके आहाते में घुस कर शोरगुल नहीं करती थीं। बुढिया को पूसी बिल्ली पर इतना विश्वास हो गया कि उसने मुर्गियों के दड़बे की तरफ जाना छोड़ दिया।

धीरे धीरे एक दिन ऐसा आया जब दड़बे में बीस पच्चीस मुर्गियाँ ही बचीं। उसी समय बुढिया भी टहलती हुई उधर ही आ निकली। इतनी कम मुर्गियाँ देखकर उसने पूसी बिल्ली से पूछा, क्यों री पूसी, बाकी मुर्गियों को तूने चरने के लिये कहाँ भेज दिया? पूसी बिल्ली ने झट से बात बनाई, अरे और कहाँ भेजूँगी बुढिया नानी। सब पहाड़ के ऊपर चली गयी हैं। मैंने बहुत बुलाया लेकिन वे इतनी शरारती हैं कि वापस आती ही नहीं।

ओफ्‌ ओफ्‌ ! ये शरारती मुर्गियाँ। बुढिया का बड़बड़ाना फिर शुरू हो गया, अभी जाकर देखती हूँ कि ये इतनी ढीठ कैसे हो गयी हैं? पहाड़ के ऊपर खुले में घूम रही हैं। कहीं कोई शेर या भेडिया आ ले गया तो बस!

ऊपर पहुँच कर बुढिया को मुर्गियाँ तो नहीं मिलीं। मिलीं सिर्फ उनकी हड्डियाँ और पंखों का ढ़ेर! बुढिया को समझते देर न लगी कि यह सारी करतूत पूसी बिल्ली की है। वो तेजी से नीचे घर की ओर लौटी।

इधर पूसी बिल्ली ने सोचा कि बुढिया तो पहाड़ पर गयी अब वहाँ सिर पकड़ कर रोएगी जल्दी आएगी नहीं। तब तक क्यों न मैं बची—बचाई मुर्गियाँ भी चट कर लूँ? यह सोच कर उसने बाकी मुर्गियों को भी मार डाला। अभी वह बैठी उन्हें खा ही रही थी कि बुढिया वापस लौट आई।

पूसी बिल्ली को मुर्गियाँ खाते देखकर वह गुस्से से आग बबूला हो गयी और उसने पास पड़ी कोयलों की टोकरी उठा कर पूसी के सिर पर दे मारी। पूसी बिल्ली को चोट तो लगी ही, उसका चमकीला सफेद रंग भी काला हो गया। अपनी बदसूरती को देखकर वह रोने लगी।

आज भी लोग इस घटना को नही भूले हैं और रोती हुई काली बिल्ली को डंडा लेकर भगाते हैं। चालाकी का उपयोग बुरे कामों में करने वालों को पूसी बिल्ली जैसा फल भोगना पड़ता है।

१ जून २००१

— पूर्णिमा वर्मन

चिंटू और चीनी

चिंटू और चीनी भाईबहन थे। दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते थे इसलिए एकसाथ आतेजाते थे।चिंटू और चीनी के स्वभाव बिलकुल भिन्न थे। चीनी सीधीसादी थी, जबकि चिंटू को घर में रखी चीजें खाने की बहुत बुरी आदत थी।

बिस्कुट हो या नमकीन, पेस्ट्री हो या चौकलेट वह कुछ नहीं छोड़ता था। अकसर माँ उसे इस बात के लिए डाँटती भी थीं। पर उसपर इन बातों का कोई असर नहीं होता था। एक दिन गुस्से में आकर माँ ने उस अलमारी को ही ताला लगा दिया जिसमें बिस्कुट आदि चीजें रखीं हुई थीं। उस अलमारी में बिस्कुट आदि के अलावा दवाइयाँ व कुछ अन्य सामान भी रखा हुआ था।

एक दिन चिंटू और चीनी स्कूल से लौटे। चीनी की तबीयत आते ही कुछ खराब हो गई। पहले तो चिंटू ने ध्यान नहीं दिया जब पर चीनी की तबीयत कुछ ज्यादा बिगड़ने लगी तो उसने माँ को आफिस फोन किया और उन्हें चीनी की बिगड़ती हुई तबीयत के बारे में बताया।

माँ बोलीं,ृृचिंटू लगता है चीनी को लू लग गई है। तुम अलमारी में रखे ग्लूकोस को घोलकर पिला दो, तब तक मैं डाक्टर को फोन करती हूँ। पर तुुम ग्लूकोस को घोल कर पिलाते रहना वरना मुश्किल हो जाएगी।

चिंटू जल्दी से रिसीवर रखकर अलमारी से ग्लूकोस निकालने के लिए ज्यों ही अलमारी के पास पहुँचा, देखा ताला लगा था। उसने इधर—उधर चाबी ढूँढी पर उसे कहीं न मिली। तब उसने फिर से माँ के अॉफिस फोन किया।

माँ बोलीं,ृृओह बेटा, चाबी तो मेरे पास है।

अब क्या होगा मां, चिंटू फोन पर ही रो पड़ा, अब क्या करूँ?

फिर रोते हुए मम्मीसे बोला,ृृआपने अलमारी को ताला क्यों लगाया। आपको पता था कि उसमें ग्लूकोस है फिर।

पर चिंटू तुम्हें भी तो पता था कि उसमें बिस्कुट पड़े हैं जो तुम रोज चुपचुप खा जाते हो। न तुम बिस्कुट खाते न मैं ताला लगाती और न चीनी का इतना बुरा हाल होता। अच्छा, मैं डाक्टर को लेकर अभी आती हूँ। कह कर माँ ने रिसीवर रख दिया।

चिंटू की हालत खराब! कभी वह चीनी को देखता तो कभी रोता।थोड़ी देर में माँ आ गई।

आप अकेली आई हैं, माँ के घर में घुसते ही चिंटू ने पूछा, आपको पता है चीनी की तबीयत कितनी खराब है।

तभी अंदर से आवाज आई,ृृ मैं तो ठीक—ठाक हूँ भइया।

अरे माँ के आते ही तू ठीक हो गई मेरी बहन, कहकर चिंटू ने चीनी को गले से लगा लिया।

अब मैं कभी चोरी नहीं करूँगा कभी नहीं , कहते हुए चिंटू रो पड़ा।

माँ ने चिंटू और चीनी को गले से लगा लिया।

असल में चीनी और माँ ने ही मिलकर चिंटू को सबक सिखाने की योजना बनाई थी।

१ दिसंबर २००३

— अरुणा घवाना

जादू की छड़ी

एक रात की बात है शालू अपने बिस्तर पर लेटी थी। अचानक उसके कमरे की खिडकी पर बिजली चमकी। शालू घबराकर उठ गई। उसने देखा कि खिडकी के पास एक बुढिया हवा मे उड़ रही थी। बुढिया खिडकी के पास आइ और बोली शालू तुम मुझे अच्छी लड़की हो। इसलिए मैं तुम्हे कुछ देना चाहती हूँ। शालू यह सुनकर बहुत खुश हुई।

बुढिया ने शालू को एक छड़ी देते हुए कहा शालू ये जादू की छड़ी है। तुम इसे जिस भी चीज की तरफ मोड़ कर दो बार घुमाओगी वह चीज गायब हो जाएगी।श्श् अगले दिन सुबह शालू वह छड़ी अपने स्कूल ले गई। वहा उसने शैतानी करना शुरू किया। उसने पहले अपने समने बैठी लड़की की किताब गायब कर दी फिर कइ बच्चों की रबर और पेंसिलें भी गायब कर दीं। किसी को भी पता न चला कि यह शालू की छड़ी की करामात है।

जब वह घर पहुँची तब भी उसकी शरारतें बंद नही हुई। शालू को इस खेल में बडा मजा आ रहा था। रसोई के दरवाजे के सामने एक कुरसी रखी ती। उसने सोचा, क्यों न मै इस कुरसी को गायब कर दूँ। जैसे ही उसने छडी घुमाई वैसे ही शालू की माँ रसोइ से बाहर निकल कर कुरसी के सामने से गुजरीं और कुरसी की जगह शालू की माँ गायब हो गईं।

शालू बहुत घबरा गई और रोने लगी। इतने ही में उसके सामने वह बुढिया पकट हुई। शालू ने बुढिया को सारी बात बताई। बुढिया ने शालू से कहा मै तुम्हारी माँ को वापस ला सकती हू लेकिन उसके बाद मै तुमसे ये जादू की छडी वापस ले लूगी।

शालू बोली ृृतुम्हे जो भी चाहिए ले लो लेकिन मुझे मेरी माँ वापस ला दो। तब बुढिया ने एक जादुई मंत्र पढ़ा और देखते ही देखते शालू की माँ वापस आ गई। शालू ने मुड़ कर बुढिया का शुक्रिया अदा करना चाहा लेकिन तब तक बुढिया बहुत दूर बादलों में जा चुकी थी। शालू अपनी माँ को वापस पाकर बहुत खुश हुई और दौडकर गले से लग गई।

१ फरवरी २००११ जुलाई २००२

— इला प्रवीण

दशहरे का मेला

मौसम बदल रहा था और हल्की—हल्की ठंड पड़ने लगी थी। इसी बीच न जाने कैसे छोटू बीमार पड़ गया। मुहल्ले के सारे बच्चों में उदासी छा गई। सबका दादा और शरारतों की जड़ छोटू अगर बिस्तर में हो तो दशहरे की चहलपहल का मजा तो वैसे ही कम हो जाता। ऊपर से अबकी बार मम्मियों को न जाने क्या हो गया था।

रमा आंटी ने कहा कि अबकी बार मेले में खर्च करने के लिए बीस रूपए से ज्यादा नहीं मिलेंगे, तो सारी की सारी मम्मियों ने बीस रूपए ही मेले का रेट बाँध दिया। मेला न हुआ, आया का इनाम हो गया। बीस रूपए में भला कहीं मेला देखा जा सकता था? यही सब सोचते—सोचते हेमंत धीरे—धीरे जूते पहन रहा था कि नीचे से कंचू ने पुकारा —

हेमंत, हेमंत चौक नहीं चलना है क्या? हेमंत और सोनू भागते हुए नीचे उतरे और जल्दी से मोटर की ओर भागे जहाँ बैठा हुआ स्टैकू पहले ही उनका इंतजार कर रहा था।

दुर्गापूजा की छुट्टियाँ हो गई थीं। मामा जी के घर के सामने वाले पार्क में हर शाम को ड्रामा होता था। हेमंत, कंचू और सोनू इन छुट्टियों में शाम को मामा जी के यहाँ जाते थे, जहाँ वे ममेरे भाई स्टैकू के साथ ड्रामा देखते, घूमते फिरते और मनोरंजन करते।

हर बार सबके नए कपड़े सिलते और घर भर में हंगामा मचा रहता। अबकी बार कंचू ने गुलाबी रंग की रेशमी फ्राक सिलाई थी और ऊँची एड़ी की चप्पलें खरीदी थीं। आशू और स्टैकू मिलकर बार—बार उसकी इस अलबेली सजधज के लिए उसे चिढ़ा देते।

ऊधम और शरारतों की तो कुछ बात ही मत पूछो जब सारे भाई बहन इकठ्‌ठे होते तो इतना हल्ला—गुल्ला मचता कि गर्मी की छुट्टियों की रौनक भी हल्की पड़ जाती। इस साल भी बच्चों का वही नियम शुरू हो गया था। शाम को वे लोग शहर में लगी रंगीन बत्तियों की रौनक देखते हुए चौक पहुँचे और घर में घुसते ही खाने की मेज पर जम गए। मामी ने खाने का जबरदस्त इंतजाम किया था। आशू के पसंद की टिक्कियाँ, कंचू की पसंद के आलू और स्टैकू की पसंद की गर्मागर्म चिवड़े—मूँगफली की खुशबू घर में भरी थी। रवि की पसंद के सफेद रसगुल्ले मेज पर आए तो सबको रवि की याद आ गई।

रवि ओ रवि, नाश्ता करने आओ

मामी ने जोर से आवाज दी।

ष्आया माँष् रवि की आवाज सबसे ऊपर वाले कमरे से आई।

ष्अरे ये रवि ऊपर क्या कर रहा है? कंचू ने अचरज से पूछा।

मामी ने बताया कि अबकी बार नाटक में उसने भी भाग लिया है इसलिए वह ऊपर टींकू के साथ कार्यक्रम की तैयारी और रिहर्सल में लगा हुआ है।

थोड़ी देर में पूरा मेकअप लगाए हुए टींकू नीचे उतरा तो सभी उसे देखकर खिलखिला कर हँस दिए। टींकू ने शरमा कर मुँह फेर लिया। ष्हमें अपने नाटक में नहीं बुलाओगेष् हेमंत ने पूछा।

ष्तो क्या तुम्हें हमारे नाटक के टिकट नहीं मिले? ष् रवि ने अचरज से कहा, ष्टिकट तो सारे स्टैकू के पास थे।ष्

ष्अरे हाँ जल्दी—जल्दी में टिकट मैं तुम्हें देना भूल गया, स्टैकू ने गिनकर तीन टिकट आशु, सोनू और कंचू के लिए निकाले। सोनू ने पूछा, बिना टिकट नाटक देखना मना है क्या? रवि ने कहा मना तो नहीं है लेकिन कुर्सियाँ हमने टिकट के हिसाब से लगाई हैं।

अरे तुम लोगों का अभी तक नाश्ता नहीं खत्म हुआ, देखो, रामदल के बाजे सुनाई पड़ने लगे। नाश्ता खत्म करे बिना घूमने को नहीं मिलेगा। फिर रात के बारह बजे तक तुम लोगों का कोई अतापता नहीं मिलता। मामी ने रसोई में से ही चिल्लाकर कहा।

जल्दी—जल्दी खा—पीकर वे सब ऊपर के छज्जे पर आ गए। मामा जी ने दल पर फेंकने के लिए ढेर—सी फूलों की डालियाँ खरीद ली थी। उन्होंने राम लक्ष्मण पर डालियाँ फेंकी, रामदल का मजा लिया और नीचे आ गए। पार्क में पहुँचे तो नाटक शुरू ही होने वाला था। सबने अपनी—अपनी कुर्सियाँ घेर ली। थोड़ी देर में दर्शकों की भीड़ इतनी बढ़ गई कि पूरा पार्क भर गया। कुर्सियों के आसपास खड़े लोग कुर्सियों पर गिरे पड़ते थे, मानो तिल रखने को भी जगह नहीं थीं। इस सबसे घबराकर सोनू घर चलने की जिद करने लगा। थोड़ी देर तो वे लोग वहाँ बैठे पर जब उसने अधिक जिद की तो वे उठे और भीड़ में से किसी तरह रास्ता बनाते गिरते पड़ते सड़क पर आ गए।

खोमचे वाले हर जगह जमे हुए थे। चूरन, भेलपूड़ी, चाट, आइस्क्रीम और मूँगफली, सबने अपनी छोटी—छोटी ढेर—सी दूकानें खोल ली थीं। मिठाइयों और खिलौनों की भी भरमार थी। सड़क पर खूब हलचल थी और लाउडस्पीकरों पर जोर—जोर से बजते हुए गाने कान फाड़े डालते थे।

आशू ने एक मूँगफली वाले से मुँगफली खरीद कर अपनी सारी जेबें भर लीं और सभी बच्चों ने अपने पसंद की चीजें खरीदीं। वे घर लौट कर आए तो मामा जी ने कहा, अब तुम सब कार में बैठो, मैं तुम्हें घर छोड़ आऊँ?

सिर्फ़ आइस्क्रीम और मूँगफल्ली में ही पंद्रह रुपए खर्च हो गए। फिर बीस रुपए में मेला कैसे देखा जाएगा। मामा जी ने हेमंत को उदास देखकर पूछा, हेमंत बेटे, तुम्हें रोशनी और नाटक देखकर अच्छा नहीं लगा क्या? इतने उदास क्यों हो?

सोनू और कंचू बोले, मामा जी सिर्फ हेमंत ही नहीं, हम सभी बच्चे बहुत उदास हैं। एक तो छोटू को बुखार होने के कारण इस बार दशहरे पर हम अपनी फाइवस्टार सर्कस नहीं कर पा रहे हैं, दूसरे हम सबको मेले के लिए अबकी बार सिर्फ बीस रुपए मिलेंगे। इतने में मेला कैसे देखा जा सकता है?

मामाजी मुस्करा कर बोले, मेले में तुम्हें मिठाइयाँ ही खरीदनी होती हैं न? चलो भाई, अबकी बार मिठाई हम खरीद देंगे। बीस रुपए जमा करके तुम पुस्तकालय के सदस्य बन जाओ और नियमित रूप से पुस्तकें पढ़ो तो साल भर तुम्हारा ज्ञान भी बढ़ेगा और मनोरंजन भी होगा।

सोनू ने पूछा, तो मामा जी, पुस्तकालय में कॉमिक्स भी मिलती हैं क्या?

हाँ, हाँ, सब तरह की किताबें होती हैं वहाँ। कॉमिक्स से लेकर विज्ञान तक हर विषय की। कल सुबह तैयार रहना, तो तुम्हें पुस्तकालय दिखा लाऊँगा।

बच्चे घर लौटे तो मेले की मिठाइयाँ भूलकर पुस्तकालय की बातें करने लगे। सामने दुर्गा जी के मंदिर में अष्टमी की आरती के घंटे बजने शुरू हुए तो दादी जी ने याद दिलाया, आरती लेने नहीं चलोगे क्या? यह पुकार सुन सभी बच्चे दादी जी के साथ आरती लेने चल दिए।

१ अक्तूबर २००१

— कृपूर्णिमा वर्मन

दोस्ती

शहर से दूर जंगल में एक पेड़ पर गोरैया का जोड़ा रहता था। उनके नाम थे, चीकू और चिनमिन। दोनो बहुत खुश रहते थे। सुबह सवेरे दोनो दाना चुगने के लिये निकल जाते। शाम होने पर अपने घोंसले मे लौट जाते। कुछ समय बाद चिनमिन ने अंडे दिये।

चीकू और चिनमिन की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। दानों ही बड़ी बेसब्री से अपने बच्चों के अंडों से बाहर निकलने का इंतजार करने लगे। अब चिनमिन अंडों को सेती थी और चीकू अकेला ही दाना चुनने के लिये जाता था।

एक दिन एक हाथी धूप से बचने के लिये पेड़ के नीचे आ बैठा। मदमस्त हो कर वह अपनी सूँड़ से उस पेड़ को हिलाने लगा। हिलाने से पेड़ की वह डाली टूट गयी, जिस पर चीकू और चिनमिन का घोंसला था। इस तरह घोंसले में रखे अंडे टूट गये।

अपने टूटे अंडों को देख कर चिनमिन जोरों से रोने लगी। उसके रोने की आवाज सुन कर, चीकू और चिनमिन का दोस्त भोलू — उसके पास आये और रोने का कारण पूछने लगे।

चिनमिन से सारी बात सुनकर उन्हें बहुत दुख हुआ। फिर दोनो को धीरज बँधाते हुए भोलू — बोला, अब रोने से क्या फायदा, जो होना था सो हो चुका।

चीकू बोला, भोलू भाई, बात तो तुम ठीक कर रहे हो, परंतु इस दुष्ट हाथी ने घमंड में आ कर हमारे बच्चों की जान ले ली है। इसको तो इसका दंड मिलना ही चाहिये। यदि तुम हमारे सच्चे दोस्त हो तो उसको मारने में हमारी मदद करो।

यह सुनकर थोड़ी देर के लिये तो भोलू दुविधा में पड़ गया कि कहाँ हम छोटे छोटे पक्षी और कहाँ वह विशालकाय जानवर। परंतु फिर बोला, चीकू दोस्त, तुम सच कह रहे हो। इस हाथी को सबक सिखाना ही होगा। अब तुम मेरी अक्ल का कमाल देखो। मैं अपनी दोस्त वीना मक्खी को बुला कर लाता हूँ। इस काम में वह हमारी मदद करेगी। और इतना कह कर वह चला गया।

भोलू ने अपनी दोस्त वीना के पास पहुँच कर उसे सारी बात बता दी। फिर उसने उससे हाथी को मारने का उपाय पूछा। वीना बोली, इससे पहले की हम कोई फैसला करे, अपने मित्र मेघनाद मेंढ़क की भी सलाह ले लूँ तो अच्छा रहेगा। वह बहुत अक्लमंद है। हाथी को मारने के लिये जरूर कोई आसान तरीका बता देगा।

चीकू, भोलू और वीना, तीनों मेघनाद मेंढ़क के पास गये। सारी बात सुन कर मेघनाद बोला, मेरे दिमाग में उसे मारने की एक बहुत ही आसान तरकीब आयी है।

वीना बहन सबसे पहले दोपहर के समय तुम हाथी के पास जा कर मधूर स्वर में एक कान में गुंजन करना। उसे सुन कर वह आनंद से अपनी आँखे बंद कर लेगा। उसी समय भोलू अपनी तीखी चोंच से उसकी दोनो आँखें फोड़ देगा। इस प्रकार अंधा हो कर वह इधर—उधर भटकेगा।

थोड़ी देर बाद उसको प्यास लगेगी तब मैं खाई के पास जा कर अपने परिवार सहित जोर—जोर से टर्—टर् की आवाज करने लगूँगा। हाथी समझेगा की यह आवाज तालाब से आ रही है। वह आवाज की तरफ बढ़ते बढ़ते खाई के पास आयेगा और उसमें जा गिरेगा और खाई में पड़ा पड़ा ही मर जाएगा।

सबको मेघनाद की सलाह बहुत पसंद आयी। जैसा उसने कहा था, वीना और भोलू ने वैसा ही किया। इस तरह छोटे छोटे जीवों ने मिल कर अपनी अक्ल से हाथी जैसे बड़े जीव को मार गिराया और फिर से प्यार से रहने लगे।

१ मई २००१

— प्रमिला गुप्ता

धूर्त भेडिया

ब्रह्मारण्य नामक एक बन था। उसमें कर्पूरतिलक नाम का एक बलशाली हाथी रहता था। देह में और शक्ति में सबसे बड़ा होने से बन में उसका बहुत रौब था। उसे देख सारे बाकी पशु प्राणी उससे दूर ही रहते थे।

जब भी कर्पूरतिलक भूखा होता तो अपनी सूँड़ से पेड़ की टहनी आराम से तोड़ता और पत्ते मजे में खा लेता। तालाब के पास जा कर पानी पीता और पानी में बैठा रहता। एक तरह से वह उस वन का राजा ही था। कहे बिना सब पर उसका रौब था। वैसे ना वह किसी को परेशान करता था ना किसी के काम में दखल देता था फिर भी कुछ जानवर उससे जलते थे।

जंगल के भेडियों को यह बात अच्छी नहीं लगती थी। उन सब ने मिलकर सोचा, किसी तरह इस हाथी को सबक सिखाना चाहिये और इसे अपने रास्ते से हटा देना चाहिये। उसका इतना बड़ा शरीर है, उसे मार कर उसका मांस भी हम काफी दिनों तक खा सकते हैं। लेकिन इतने बड़े हाथी को मारना कोई बच्चों का खेल नहीं। किसमें है यह हिम्मत जो इस हाथी को मार सके?

उनमें से एक भेडिया अपनी गर्दन ऊँची करके कहने लगा, उससे लड़ाई करके तो मैं उसे नहीं मार सकता लेकिन मेरी बुद्धिमत्ता से मैं उसे जरूर मारने में कामयाब हो सकता हूँ। जब यह बात बाकी भेडियों ने सुनी तो सब खुश हो गये। और सबने उसे अपनी करामत दिखाने की इजाजत दे दी।

चतुर भेडिया हाथी कर्पूरतिलक के पास गया और उसे प्रणाम किया। प्रणाम! आपकी कृपा हम पर सदा बनाए रखिये।

कर्पूरतिलक ने पूछा, कौन हो भाई तुम? कहाँ से आये हो? मैं तो तुम्हें नहीं जानता। मेरे पास किस काम से आये हो?

महाराज! मैं एक भेडिया हूँ। मुझे जंगल के सारे प्राणियों ने आपके पास भेजा है। जंगल का राजा ही सबकी देखभाल करता है, उसीसे जंगल की शान होती है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि अपने जंगल में कोई राजा ही नहीं। हम सब ने मिलकर सोचा कि आप जैसे बलवान को ही जंगल का राजा बनाना चाहिये। इसलिये राज्याभि ोक का मुहुर्त हमने निकाला है। यदि आपको कोई आपत्ति नहीं हो तो आप मेरे साथ चल सकते हैं और हमारे जंगल के राजा बन सकते हैं।

ऐसी राजा बनने की बात सुनकर किसे खुशी नहीं होगी? कर्पूरतिलक भी खुश हो गया। अभी थोड़ी देर पहले तो मैं कुछ भी नहीं था और एकदम राजा बन जाऊँगा यह सोचकर उसने तुरन्त हामी भर दी। दोनो चल पडे। भेडिया कहने लगा, मुहुर्त का समय नजदीक आ रहा है, जरा जल्दी चलना होगा हमें।

भेडिया जोर जोर से भागने लगा और उसके पीछे कर्पूरतिलक भी जैसे बन पड़े, भागने की केाशिश में लगा रहा। बीच में एक तालाब आया। उस तालाब में ऊपर ऊपर तो पानी दिखता था। लेकिन नीचे काफी दलदल था। भेडिया छोटा होने के कारण कूद कर तालाब को पार कर गया और पीछे मुड़कर देखने लगा कि कर्पूरतिलक कहाँ तक पहुँचा है।

कर्पूरतिलक अपना भारी शरीर लेकर जैसे ही तालाब में जाने लगा तो दलदल में फंसता ही चला गया। निकल न पाने के कारण में वह भेडिये को आवाज लगा रहा था, अरे! दोस्त, मुझे जरा मदद करोगे? मैं इस दलदल से निकल नहीं पा रहा हूँ।

लेकिन भेडिये का जवाब तो अलग ही आया, अरे! मूर्ख हाथी, मुझ जैसे भेडिये पर तुमने यकीन तो किया लेकिन अब भुगतो और अपनी मौत की

घडियाँ गिनते रहो, मैं तो चला! यह कहकर भेडिया खुशी से अपने साथियों को यह खुशखबरी देने के लिये दौड़ पड़ा।

बेचारा कर्पूरतिलक!

इसीलिये कहा गया है कि एकदम से किसी पर यकीन ना करने में ही भलाई होती है।

१ मई २००२

— पंचतंत्र से

नए साल का उत्सव

इला प्रवीण की कहानी

सीमा और सनी अच्छे दोस्त थे। आज नए साल की पार्टी में उनका घर परिवार के ढेर से दोस्तों और रिश्तेदारों से घर भरा हुआ था। पार्टी में नाच गाना था, खाना पीना था। हॉल में बड़े लोग थे और बच्चों का इंतजाम बगीचे में था।

सीमा और सनी भी एक गीत की धुन पर नाचने लगे। तभी सनी का पैर फिसला और वह गिर पड़ा। सीमा घबरा गई, उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। सनी रोने लगा था शायद उसे जोर की चोट लगी थी। वह माँ को देखने हॉल की ओर दौड़ी।

हॉल में काफी भीड़ थी। उस भीड़ में सीमा को अपनी माँ तो नहीं दिखीं पर शालू आंटी दिख गईं। सीमा ने शालू आंटी से पूछा, आंटी सनी गिर गया है। उसके पैर में चोट लगी है। क्या आपने उसकी या मेरी माँ को देखा है?

शालू आंटी बोलीं, नहीं, देखा तो नहीं पर मैं उन्हें खोज कर यह बात बता देती हूँ। सीमा दौड़ कर सनी के पास वापस आई और उसने सोचा अब मुझे ही कुछ करना होगा।

उसने सनी को दिलासा देते हुए कहा, रो मत सनी। अभी माँ आ जाएगी और फिर हम डाक्टर के पास चलेंगे। तुम तो मेरे बहादुर दोस्त हो। बहादुर बच्चे कभी नहीं रोते। सीमा की ये बातें सुनकर सनी को बहुत अच्छा लगा।

तभी माँ आ गईं। पार्टी में जगन काका भी थे। वो डाक्टर हैं। सभी काका की क्लीनिक पर गए। काका ने सनी को देखा और बताया, इसे ज्यादा चोट नहीं आई है। बस एक बाम और यह बैंड एड। फिर सब लोग पार्टी में आ गए।

लोग अभी भी नाच गा रहे थे। डाक्टर काका ने कहा सनी को दो तीन घंटे आराम करना चाहिए ताकि तकलीफ ना बढ़े। सीमा और सनी पास पड़ी कुर्सियों पर बैठ कर बातें करने लगे।

पुण्यकोटि गाय

कन्नड़ लोक कथा

कलिंग नामक एक ग्वाला पहाड़ के निकट अपनी गायों के साथ बहुत सुख—सन्तो ा से रहता था। उसकी गायों में पुण्यकोटि नाम की एक गाय थी, जो अपने बछड़े को बहुत प्यार करती थी। प्रतिदिन संध्या समय वह रंभाती और दौड़ती हुई घर लौट आती थी।

उसी पहाड़ में एक शेर भी रहता था। एक बार बहुत दिनों तक उसे कुछ खाने को नहीं मिला। उसने एक दिन शाम को पुण्यकोटि गाय को रोक कर कहा —— मैं तुम्हें अपना आहार बनाऊँगा।

पुण्यकोटि ने शेर से विनय के साथ कहा — मुझे घर जाने दो, बछड़े को दूध पिलाने के बाद मैं स्वयं तुम्हारे सम्मुख हाजिर हो जाउंगी।

पहले तो शेर ने उसकी बात न मानी, पर जब पुण्यकोटि ने विश्वास दिलाया कि वह निश्चय ही वापस आने का वचन दे रही है, तो शेर ने कहा —— अच्छा, तुम जा सकती हो, लेकिन अपना वचन निभाना न भूलना।

गौशाला में बछड़े को दूध पिलाते समय पुण्यकोटि ने उसको वह समाचार दिया और आँखों में आँसू भर कर अपने बछड़े से विदा ली। बाहर निकलते समय उसने बछड़े से कहा —— बेटा, सावधानी से और नम्र भाव से रहना।

फिर पुण्यकोटि ने अन्य गायों से कहा —— बहनों, मैं तो जा रही हूँ, लेकिन मेरे बछड़े को अपना बच्चा समझकर इसका ध्यान रखना।

फिर पुण्यकोटि ने शेर के पास जाकर कहा —— लो, मुझे खा लो।

शेर ने सोचा कि इतनी अच्छी गाय को अपना आहार बना लेना तो बहुत बुरा होगा। यह सोचकर उसने उस गाय को छोड़ दिया और आगे के लिए अन्य सब गायों को भी अभयदान दे दिया। १ जनवरी २००३ १ अप्रैल २००१

बंटी की आइसक्रीम

— अंजलि राजगुरू

बंटी आज जब स्कूल से आया तो फिर उसने घर पर ताला देखा। घर की सीढियों पर वह अपना बैग रख कर बैठ गया। उसे भूख लगी थी और वह थका हुआ भी था। वह सोचने लगा, काश मेरी माँ भी राजू की माँ की तरह ही घर पर ही होती।

मैं स्कूल से आता तो मुझे स्कूल के हाल—चाल पूछती, मेरे लिये गरम—गरम खाना बनाती और मुझे प्यार से खिलाती। सचमुच कितना खुशनसीब है राजू! इन्ही विचारों में खोए बंटी की न जाने कब आँख लग गयी। वह वहीं बैठे—बैठे ऊँघने लगा। कुछ देर में माँ दफ्तर से आई और बोली, बंटी, उठो बेटे, चलो अंदर चलो । बंटी उकताए हुए स्वर में बोला, ओफ—ओ माँ, तुमने कितनी देर लगा दी, मैं कब से तुम्हारा इन्तजार कर रहा हूँ। तुम्हे मालूम है, मुझे कितनी जोरों की भूख लगी है। मेरे पेट में चूहे दौड़ रहे हैं ।

माँ बंटी को पुचकारते हुए बोली, देखो, मैं अभी तुम्हारी थकावट दूर करती हूँ। खाना गरम कर के अभी परोसती हूँ । ऐसा कहते हुए माँ ने ताला खोला, जल्दी से अपना पर्स सोफे पर फेंकत हुए माँ किचन में जा घुसी। बंटी, जल्दी से कपड़े बदलो, दो मिनट में खाना आ रहा है । बंटी सोफे पर फिर से ऊँघने लगा। माँ ने आ कर बंटी को उठाया और उसे बाथरूम में धकेला।

बंटी ने हाथ— मुँह धोए और खाने की मेज पर जा बैठा। खाना खाते—खाते बंटी कुछ सोचने लगा। उसे वे दिन याद आने लगे जब पापा भी थे। घर खुशियों का फव्वारा बना रहता था। पापा की हँसी, पापा के चुटकुले सारे घर को रंगीन बना देते थे। पापा प्यार से उसे मिठ्‌ठू बुलाते थे। बंटी की कोई भी परेशानी होती, पापा के पास सब के हल होते, मानो परेशानियाँ पापा के सामने जाने से डरती हों। कितने बहादुर थे पापा। एक बार उसे याद है जब पापा दफ्तर से आईस्क्रीम ले कर आए थे। तीनों की अलग—अलग फ्लेवर वाली आईस्क्रीम! घर तक आते—आते आईस्क्रीम पिघल चुकी थी और माँ ने कहा था, तुम भी बस...! क्या इतनी गर्मी में आईस्क्रीम यूँ ही जमी रहेगी ? और पापा ने तीनों आईस्क्रीमों को मिला कर नए फ्लेवर वाला मिल्क—शेक बनाया था।

अचानक माँ का कोमल हाथ उसके बालों को सहलाने लगा। वह मानो नींद से जाग उठा हो। माँ ने कहा, क्या बात है? आज तुम बड़े गुम—सुम से दिखाई दे रहे हो। कहीं आज फिर से तो अजय से झगड़ा नहीं हुआ, या फिर तुम्हारी टीम क्रिकेट के मैच में हार गई ?

बंटी ने कहा, माँ, पता नहीं क्यों आज मुझे पापा की बड़ी याद आ रही है। पापा को भगवान ने अपने पास क्यों बुला लिया?

इतना सुनते ही माँ ने जोर से बंटी को गले से लगा लिया और उसकी आँखें आसुँओं से लबा—लब भर गइंर्। माँ की सिसकियाँ बंद होने का नाम ही नहीं ले रही थीं। यह देख कर बंटी का उदास मन कुछ और उदास हो गया। उसे लगा जैसे इसी क्षण वह बहुत बड़ा हो गया है और माँ का उत्तरदायित्व उसी के कन्धे पर आ गिरा है। उसने ठान लिया कि वह अपने आसुँओं से माँ को कमजोर नहीं होने देगा। कितनी मेहनती है माँ! घर का, बाहर का सारा काम कर के वह उसे हमेशा खुश रखने की कोशिश करती है। अब वह कभी नहीं रोयेगा। वह पापा की तरह बनेगा, हमेशा खुशियाँ बाँटने वाला और तकलीफों पर पाँव रख कर आगे बढ़ने वाला। वह माँ को बहुत सुख देगा। उसे हमेशा खुश रखेगा। इतना सोचते—सोचते वह जल्दी—जल्दी खाना खाने लगा।

अगले दिन उठ कर बंटी ने अपनी गुल्लक से पाँच रूपये का नोट निकाला। माँ से छिपाकर, जेब में डालते हुए वह स्कूल की ओर चल पड़ा। ये पैसे वह ऐरो—मॉडलिंग के लिये बचा रहा था। उसे नये—नये छोटे—छोटे लड़ाकू विमान बनाने का बहुत शौक था। पर आज यह पैसे किसी और मकसद के लिये थे। स्कूल से आ कर वह माँ से बोला, माँ देखो तो मैं तुम्हारे लिये क्या लाया हूँ! ये रही तुम्हारी फ्रूट एैंड नट आईस्क्रीम और मेरी चॉकलेट आईस्क्रीम। लिफाफा आगे बढ़ाया तो देखा, दोनो आईस्क्रीमें घुल कर एक हो गई थीं। माँ ने कहा, तुम भी बस... क्या इतनी गर्मी में... । और बंटी ने वाक्य पूरा करते हुए कहा, आईस्क्रीम यूँ ही जमी रहेगी? और दोनों जोर से खिलखिलाकर हँस दिये।

बेंजी का बड़ा दिन

— नीलिमा सिन्हा

बड़े दिन की पूर्व संध्या थी। गलियाँ और बाजार परियों की नगरी जैसे सजे हुए थे। बाजार में सब दुकानों पर लाल, नीली, हरी, पीली बत्तियाँ तारों की तरह टिमटिमा रही थीं। सभी दुकानें जगमगा रही थीं। उनमें सजाया हुआ बड़े दिन का सामान मन को लुभा रहा था।

वहाँ तीन दुकानें ऐसी थीं जो क्रिस्मस पेड़ बेच रहीं थीं। छोटे, बड़े सभी तरह के पेड़ थे। उनमें कुछ असली थे, कुछ बनावटी भी थे। ये पेड़ बड़े आकर् ाक ढँग से सजे हुए थे। सब चाँदी और सोने के रिबनों, रंगीन चमकदार गेंदों से सजे झिलमिला रहे थे।

बेंजी एक दुकान के बाहर खड़ा होकर एक पेड़ को देखने लगा। उसने सोचा, काश! किसी तरह मुझे यह पेड़ मिल जाये। सैमी और रूथ पेड़ पाकर कितनी खुश होंगी। फिर उनका यह सबसे बेहतर क्रिस्मस होगा।श् उसे ध्यान आया उस पेड़ का जो उसने सबसे बड़ी दुकान में देखा था। मुझे वही खरीदना है यह सोचकर वह अन्दर गया। उसने मालिक से उस पेड़ की ओर इशारा करते हुए दाम पूछे। दुकान के मालिक मोटे और गंजे मि. अब्राहम ने पहले ऊपर से नीचे तक बेंजी को देखा। फिर बेंजी की कमीज के दाई ओर पर बने छेद को एकटक देखने लगा। उस पर पड़ती दुकानदार की नजर बेंजी से छिपी नहीं रही। उसने अपने दोनों हाथ कुछ इस मुद्रा में उठाए कि दाएँ हाथ के नीचे वह छेद दब गया। वैसे भी। उसने सोचा, मेरे पास पूरे अठ्‌ठाईस रूपये हैं। इससे क्या फर्क पड़ता है कि मेरी कमीज में एक छेद है ।

यह पैंतीस रूपये का है। क्या तुम खरीदना चाहते हो? दुकानदार के मुँह से यह बात सुनकर बेंजी का सारा विश्वास छिन्न—भिन्न हो गया। उसे यह अहसास हो गया था जो पेड़ उसे इतना पसन्द आया है उसे वह खरीद नहीं सकता है। ये अठ्‌ठाईस रूपये जो उसने पूरे सप्ताह नुक्कड़ के ढाबे पर कठिन परिश्रम करके कमाए थे वे काफी नहीं थे।

उसने घंटो तक सैंकड़ो ग्राहकों को भाग—भाग कर भोजन परोसा था। वह अपनी छोटी बहनों सैमी और रूथ के लिए पेड़ खरीदना चाहता था। वह तो समझ रहा था कि पेड़ पच्चीस रूपये में ही आ जाएगा। बाकी तीन रूपये उसे और सजाने में काम आएँगे।

क्या कह रहे हैं, मि. अब्राहम, पिछली बार तो यह केवल पच्चीस रूपये का ही था, बेंजी ने झिझकते हुए कहा।

जरूर था। पिछले साल पच्चीस रूपये का ही था। पर तुम्हें मालूम है न तब से अब तक महँगाई कितनी बढ़ गई है। मेरी दुकान में कोई भी पेड़ पैंतीस रूपये से कम नहीं हैं। मि. अब्राहम से कहा और पूछा, जल्दी बोलो, तुम्हें लेना है या नहीं?

दुकानदार की बात सुनकर बेंजी का चेहरा शर्म से लाल हो गया। कितना कठोर आदमी है सोचते हुए वह खिन्न मन से बाहर निकल आया। अपनी परेशानी में दरवाजे के पास रखी रेत की बालटी से भी टकराते—टकराते बचा। जब दुकान में लोग उसके सारे पेड़ खरीद रहे हैं तो ऐसे में दुकानदार भला उसकी क्या परवाह करेगा। दुकान में भीड़ थी। माता—पिता और बच्चे आपस में चिल्लाकर बात कर रहे थे कि उन्हें कौन—सा पेड़ पसन्द है।

अब मैं कहाँ से बाकी के सात रूपये लाऊँ बेंजी ने सोचा। उसे दुख यह था कि इस बार उसके छोटे से घर में कोई पेड़ नहीं होगा। उसे अपनी बहनों का विचार भी परेशान कर रहा था। उसने उन्हें अब की बार बड़े दिन का पेड़ लाने और उसे खूब सजाने के लिए, पूर्ण विश्वास के साथ, सामान लाने का वायदा किया था। यदि वह पेड़ नहीं ले गया तो उनके मन पर क्या बीतेगी। बल्कि उसने तो अपने मित्रों को भी आज रात खाने पर आने का निमंत्रण दिया था। पेड़ के बिना वह क्या मुँह लेकर घर जाएगा, और क्या अपने मित्रों को दिखाएगा।

शहर के दूसरे छोर पर बेंजी का छोटा—सा दो कमरों का घर था। वहाँ ऐसी दुकानों और सजावट कहाँ थी। बेंजी उदास मन लिए जेब में हाथ डाले जूते से पत्थरों को ठोकर मरता हुआ इधर से उधर घूमने लगा। बाजार के एक सिरे पर एक आधी बनी हुई इमारत खड़ी थी। शाम होने के कारण वहाँ बहुत वीरानी छाई हुई थी। बेंजी थोड़ी देर के लिए एक रेत के टीले पर जा बैठा। ठंड के मारे वह काँप रहा था। फिर उठकर बाजार में आ गया। सोचा, दुबारा पूछे। हो सकता है उन्होंने दाम गलत बता दिये हों। पर तभी दिमाग ने झटका दिया कि नहीं। वास्तव में सबसे छोटे पेड़ का मूल्य पैंतीस रूपये ही था।

बस सात ही रूपये तो कम थे। मैंने क्यों नहीं पिछले हफ्ते और सात रूपये कमा लिये? और दो—चार दिन ढाबे में ज्यादा काम कर लेता तो कमा ही लेता। इसी तरह अपने ऊपर झल्लाते, पैर पटकते, उसने फिर अपने आपको उसी दुकान के सामने खड़े पाया। उसने खिड़की में से देखा, वह पेड़ अभी तक वहीं खड़ा था।

अचानक, उसने मिस्टर अब्राहम को दुकान से बाहर आते हुए देखा। वह अपने दोनों हाथ खुशी से मल रहे थे और काफी सन्तु ट लग रहे थे। वह दुकान के बाहर खड़े होकर लोगों को आते—जाते हुए देखने लगे।

जैसे ही बेंजी ने उधर देखा, दुकान के ऊपर लगा बड़ा निअॉन साईन बोर्ड जो हरे और लाल रंग में टिमटिमा, टिमटिमा कर कह रहा था पेड़ बिक्री के लिए वह धीरे—धीरे नीचे सरक रहा है। बेंजी ने आव देखा न ताव, उछल कर मिस्टर अब्राहम को धक्का दिया और उन्हें पीछे की ओर धकेल दिया। इस गुत्थम—गुत्था में दोनों जमीन पर लोटपोट हो गए। तभी वह बोर्ड धड़ाम से गिरा और टुकड़े—टुकड़े हो बिखर गया।

क्या हुआ क्या? दुकानदार एकदम घबरा गया था।

ओह, बेंजी चिल्लाया, तारों में से चिन्गारी निकल रही है। जैसे ही वह कूदा तार एक गत्ते के डिब्बे से छू गये जो वहीं पड़े थे और तुरंत ही आग भड़क उठी। ओह, ओह, आग! आग, सहमे से मि. अब्राहम चिल्लाये। वह अभी तक जमीन पर बैठे थे।

आग शब्द सुनते ही कुछ ही क्षणों में भीड़ एकत्रित हो गई। बेंजी एक झटके से उठा। उसे दुकान के पास रखी रेत की बालटी का ध्यान आया। वही बालटी जिससे वह पहले भी टकराया था। उसने बालटी की रेत आग पर फेंकनी शुरू कर दी और लोगों ने भी ऐसी ही बालटियाँ उठा लीं। कई लोग चिल्ला भी रहे थे कि आग बुझाने वालों को बुलाओ। इतनी भागदौड़ और गड़बड़ी के बाद खतरा टल गया। लोग उत्तेजित होकर बात कर रहे थे। किसी की आवाज सुनाई पड़ी, यह वही लड़का है जिसने मिस्टर अब्राहम की जान बचाई। कितना चतुर है यह। इशारा बेंजी की ओर था।

और आग बुझाने में भी इसने कितनी फुर्ती से काम लिया, किसी दूसरे ने कहा।

सारी बात सुन समझ कर मिस्टर अब्राहम भी मन ही मन बेंजी का गुणगान कर रहे थे।

भारी मन से उन्होंने बेंजी का कंधा दबा दिया। बोले, मैं तुम्हारा किस तरह से धन्यवाद करूँ। तुमने आज मेरी जान बचाई है।

नहीं, नहीं, ऐसा न कहिए मिस्टर अब्राहम, आप सुरक्षित है यही मेरे लिए बहुत खुशी की बात है। वह कुछ—कुछ शर्मिन्दा महसूस कर रहा था। अब मुझे घर जाने की अनुमति दे, वह मुड़ने ही लगा था कि मि. अब्राहम ने शांत स्वर में कहा, मुझे याद है, तुम कुछ घंटे पहले यहाँ आये थे। जो पेड़ बेंजी लेना चाहता था उसी की ओर इशारा करते हुए उन्होंने पूछा, तुम यही पेड़ लेना चाहते थे न? बेंजी चुप था। मैं तुम्हें यह पेड़ उपहार स्वरूप देना चाहता हूँ। देखो इसे स्वीकार कर लो। इससे मुझे बहुत खुशी होगी।

बेंजी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। अपने शरीर पर उसने दो—तीन जगह चिकोटी काट कर देखा कि वह सपना तो नहीं देख रहा था। उसकी आँखों में चमक आ गई। धन्यवाद सर, पर आप को यह पैसे अवश्य लेने पड़ेंगे और बाकी पैसे मैं कुछ ही दिनों मे लौटा दूँगा।

नहीं, नहीं पैसे की बात करके तुम मुझे शर्मिन्दा मत करो, मि. अब्राहम ने कहा। मैं तुम्हें इसे उपहार के रूप में देना चाहता हूँ। मैं जानता हूँ मेरी जान बचाने के बदले यह कुछ भी नहीं है, पर क्योंकि तुम्हें यह पसन्द आया था इसीलिए, कहते—कहते वह रूक गए।

ओह धन्यवाद सर, मेरी छोटी बहनें बहुत खुश होंगी। मैंने उनको आज रात पेड़ लाकर देने का वायदा किया था।

तब तो तुम्हें अवश्य ही उन्हें निराश नहीं करना चाहिए, मि. अब्राहम ने मुस्कराते हुए कहा। एक मिनट रूको, कहते हुए वह अपनी दुकान के पीछे बने एक छोटे से कमरे में गायब हो गये। अगले ही क्षण वह अपने हाथ में एक गत्ते का डिब्बा लेकर वापस आये। इसे भी पेड़ के साथ ले जाओ, इसमें कुछ सजावट का सामान है। और मेरी गाड़ी तुम्हें तुम्हारे घर तक छोड़ आयेगी। नहीं तो फिर कोई समस्या आ खड़ी होगी।

बेंजी जब घर पहुँचा तो उसे लगा जो गली अभी कुछ घंटों पहले तक ठंडी व वीरान लग रही थी अब खुशियों से भर गई है। उसे लगा कि हरी और लाल बत्तियाँ उसके हृदय को छू रही हैं। पेड़ उतारने के बाद, बेंजी ने ड्राइवर को एक पल के लिए रूकने को कहा, मैं मि. अब्राहम के लिए कुछ भेजना चाहता हूँ। घर के अन्दर तेजी से जा कर बेंजी ने एक कागज पर कुछ लिखा और एक लिफाफे में डालकर उसे बंद कर दिया और मि. अब्राहम को देने के लिए ड्राइवर को दे दिया। फिर सुख की सांस ली।

उस रात जब अमर और राहुल चले गये, और उसकी दोनों बहनें शाम के उत्साह से भरी सो गई, तब बेंजी उस पेड़ को देखने लगा जिसका प्रकाश पूरे कमरे में फैल रहा था। इतनी सारी सजावट थी, सुनहरी और चांदी के रंग के काँच के गोले, लाल, नीली, हरी और पीली बत्तियाँ, रंग—बिरंगे रिबन। पर सबसे अच्छा तो उसे चमकीला सितारा लगा था जो उन्हें उस गत्ते के डिब्बे में मिला था। जब भी वह झिलमिलाता था तो लगता कह रहा हो, मैं यहाँ खुश हूँ।

जब मि. अब्राहम ने वह लिफाफा खोला तो उन्हें उसमें कुछ रूपये और एक पुर्जा मिला। कृपया यह अठ्‌ठाईस रूपये स्वीकार कीजियेगा। पिछले साल पेड़ की यही कीमत थी। मैंने ज्यादा काम नहीं किया था, आपका बहुत—बहुत धन्यवाद। क्रिस्मस की बधाई।

भगवान के भरोसे

— वीरेन्द्र सिंह

सूर्य अस्त हो चला था। आकाश में बादल छाए हुए थे। नीम के एक पेड़ पर ढेर सारे कौवे रात बिताने के लिए बैठे हुए थे। कौवे अपनी आदत के अनुसार, आपस में एक—दूसरे से काँव—काँव करते हुए झगड़ रहे थे। उसी समय एक मैना आई और रात बिताने के लिए नीम के उस पेड़ की एक डाल पर बैठ गई। मैना को देखकर सभी कौवे उसकी ओर देखने लगे।

बेचारी मैना सहम गई। डरते हुए बोली, अँधेरा हो गया है। आसमान मे बादल छाए हुए है। किसी भी समय पानी बरस सकता है। मैं अपना ठिकाना भूल गई हूँ। आज रात भर मुझे भी इस पेड़ की एक डाल के एक कोने में रात बिता लेने दो।

कौवे भला कब उसकी बात मानते। उन्होंने कहा, यह नहीं हो सकता। यह पेड़ हमारा है। तुम इस पेड़ नहीं बैठ सकती हो। भागो यहाँ से।

कौवों की बात सुनकर बड़े ही दीन स्वर में मैना बोली, पेड़ तो सभी भगवान के हैं। यदि बरसात होने लगी और ओले पड़ने लगे, तो भगवान ही सबको बचा सकता है। मैं बहुत छोटी हूँ। तुम लोगों की बहन हूँ। मेरे ऊपर दया करके रात बिता लेने दो।

मैना की बात सुनकर सभी कौवे हँसने लगे। फिर बोले, हम लोगों को तेरी जैसी बहन की कोई जरूरत नहीं है। तू भगवान का नाम बहुत ले रही है, तो भगवान के सहारे यहाँ से जाती क्यों नहीं? यदि तू यहाँ से नहीं जाएगी, तो हम सब मिलकर तुझे मार भगाएँगे। और सभी कौवे मैना को मारने के लिए उसकी ओर दौड़ पड़े।

कौवों को काँव—काँव करते हुए अपनी ओर आते देखकर मैना वहाँ से जान बचाकर भागी। वहाँ से थोड़ी दूर एक आम के पेड़ पर अकेले ही रात बिताने के लिए मैना एक कोने में छिपकर बैठ गई।

रात में तेज हवा चली। कुछ देर बाद बादल बरसने लगे और इसके साथ ही बड़े—बड़े ओले भी पड़ने लगे। ओलों की मार से बहुत से कौवे घायल होकर जमीन पर गिरने लगे। कुछ तो मर भी गए।

मैना आम के जिस पेड़ पर बैठी थी, उस पेड़ की एक डाल टूट गई। आम की वह डाल अन्दर से खोखली थी। डाल टूटने की वजह से डाल के अन्दर के खाली स्थान में मैना छिप गई। डाल में छिप जाने की वजह से मैना को न तो हवा लगी और न ही ओले ही उसका कुछ बिगाड़ पाए। वह रात भर आराम से बैठी रही।

सवेरा होने पर जब सूरज निकला, तो मैना उस खोह से निकली और खुशी से गाती—नाचती हुई ईश्वर को प्रणाम किया। फिर आकाश में उड़ चली। मैना को आराम से उड़ते हुए देखकर, जमीन पर पड़े घायल कौवों ने कहा, अरी मैना बहन, तुम रात को कहाँ थीं? तुम्हें ओलों की मार से किसने बचाया?

मैना बोली, मैं आम की डाली पर बैठी ईश्वर से प्रार्थना कर रही थी कि हे ईश्वर! दुखी और असहाय लोगों की रक्षा करना। उसने मेरी प्रार्थना सुन ली और उसी ने मेरी भी रक्षा की।

मैना फिर बोली, हे कौवों सुनो, भगवान ने केवल मेरी रक्षा ही नहीं की। वह तो जो भी उस पर विश्वास करता है और उसकी प्रार्थना करता है, उसे याद करता है, तथा भरोसा करता है, ईश्वर उसकी रक्षा अवश्य ही करता है और कठिन समय में उसे बचाता भी है।

रघु और मैं

— नीलिमा सिंह

दीवाली की रात थी। सारे मुहल्ले में रंग—बिरंगी बत्तियां झिलमिल—झिलमिल कर रही थीं। मैं अपनी छत पर खड़ा देख रहा था। वह दृश्य मेरे मन को मुग्ध कर रहा था।

सामने वाला घर तेल के दीयों और मोमबत्तियों के प्रकाश से जगमगा रहा था। उसके छज्जे पर खड़ा लड़का एक के बाद एक पटाखे छोड़ता जा रहा था। उसने अनार जलाया जिससे रंग—बिरंगा फव्वारा फूट पड़ा। फिर एक रॉकेट छोड़ा। वह आवाज करता हुआ सर्र से ऊपर उड़ा। वह बहुत ऊँचाई पर जाकर आकाश में फटा तो उसमें से रंग—बिरंगे तारे निकलकर चारों ओर फैल गए।

मैं भी रॉकेट छोड़ना चाहता था। मैं भी अनार जलाना चाहता था और चमकती हुई फुलझड़ी को हाथ में लेने को उत्सुक था। मैं ललचाए मन से उसकी ओर देख रहा था कि उसने मुझे अपनी ओर घूरते हुए देख लिया।

तुम भी पटाखे चलाओगे? उसके पूछते ही मैंने हाँ में सिर हिलाया।

उसने एक पुराने कागज में कुछ लपेटा और मेरी ओर फेंक दिया। उसमें कई तरह के पटाखे और एक माचिस की डिब्बी थी। मैंने एक के बाद एक पटाखे छोड़ने शुरू कर दिए। बड़ा मजा आ रहा था।

तुम्हारा नाम क्या है? लड़के ने पूछा।

अशरफ।

मेरा नाम रघु है, उसने कहा और इस प्रकार रघु और मै मित्र बन गए।

हम पड़ोसी थे। आमने—सामने के घरों में रहते थे। बस एक गली बीच में थी। न जाने क्यों, हमारे माता—पिता कभी आपस में नहीं मिलते थे। शायद एक—दूसरे को जानते भी न हों। लेकिन हमारी मित्रता दिन पर दिन गहरी होती जा रही थी। दोपहर को जब दोनों घरों में माता—पिता आराम करते, हम दोनों गुल्ली—डंडा, कंचे खेल रहे होते। यह हमारा रोज का नियम बन गया था।

रघु को मिठाई बहुत पसन्द थी। जब ईद आयी तो मैंने उसे बताया कि मेरी अम्मी बहुत स्वादिष्ट सेंवई बनाती हैं। सेंवई में डाले गये बादाम, किशमिश और ऊपर से लगाये चाँदी के वर्क से सजे होने की बात सुनकर उसके मुँह में पानी भर आया।

तुम सेंवई खाने अवश्य आना, मैंने रघु को आमंत्रित किया।

लेकिन आऊंगा कैसे? अम्मा आने नहीं देगी, रघु बोला।

अपनी अम्मा को मत बताना बस। वह मान गया।

ईद के दिन नया रेशमी कुरता और कसीदा कढ़ी हुई टोपी पहन कर मैं चमक रहा था। ये दोनों चीजें अब्बा कश्मीर से आज के दिन पहनने के लिए ही लाए थे। मैं अपनी सजधज रघु को दिखाने के लिए बेचौन था।

दोपहर में घंटी बजते ही मैंने लपक कर द्वार खोला। रघु था। अम्मी रसोई में अपनी सहेलियों के साथ व्यस्त थीं। उनकी एक सहेली ने पूछा, कोन है? तो मैंने तपाक से उत्तर दिया, रघु।

वही रघु जो हमारे घर के सामने रहता है।

अच्छा उन सामने वालों का लड़का है। लेकिन हमारा उनसे क्या वास्ता। उसे कहो कि वह चला जाये, अम्मी की सहेली ने कहा।

लेकिन क्यों?

बहस मत करो। जो कहा है, करो।

इससे पहले कि मैं कुछ कहता, रघु मुड़कर आगे बढ़ गया। अम्मी की पुकार को अनसुनी करते हुए मैं उसके पीछे दौड़ा। सुनो, मैं तुम्हारे लिए सेंवई ला रहा हूँ।

मुझे नहीं चाहिए, उसने कहा।

मैं उसे जाने नहीं देना चाहता था। मैंने लपक कर उसको पकड़ लिया।

मगर मैं चाहता हूँ कि तुम खाओ। ऐसा करो तुम स्टेशन के सामने वाले पार्क में आ जाओ। हम वहीं मिलेंगे और दोनों सेंवई खायेंगे।

तुम बहुत जिद्दी हो, अशरफ, हँसते हुए रघु ने कहा।

मैंने अपने स्कूल के टिफिन बॉक्स में सेंवई भरीं और पार्क में जा पहुँचा। हम दोनों ने खूब चटखारे ले लेकर सेंवईं खाई। देखते ही देखते टिफिन बिलकुल साफ हो गया।

मुझे समझ नहीं आता कि हमारे परिवार एक—दूसरे से बात क्यों नहीं करते? रघु ने चिन्तित स्वर में पूछा।

मुझे लगता है कोई पुराना झगड़ा है, मुगल काल के जमाने से ही हमारे पूर्वज यहाँ रहते आ रहे हैं। हमारे भी। वे यहाँ गदर के समय से हैं।

इतनी पुरानी शत्रुता बनाये रखना क्या मूर्खता नहीं है?

हाँ, है तो।

इतने में हमारा ध्यान शोर से भंग हुआ। जहाँ से आवाज आ रही थी वहाँ पर भीड़ जमा थी। सफेद धोती, कुरता और टोपी पहने एक आदमी भाषण दे रहा था। तभी उसने गुस्से से मुक्का दिखाया, जिससे भीड़ ताली बजाने लगी। भाषण जैसे—जैसे जोर पकड़ता जा रहा था, भीड़ में भी उत्तेजना बढ़ती जा रही थी। भाषण खतम होते ही भीड़ उस आदमी के पीछे चल पड़ी।

वे किधर जा रहे है? हम दोनों एक साथ चिल्ला उठे।

रास्ता चलते एक व्यक्ति ने चेतावनी—सी दी, ऐ बच्चे घर भाग जाओ। यह उत्तेजित भीड़ अवश्य ही कुछ हंगामा करेगी। हम फौरन उठे और घर की ओर भागने लगे। भीड़ को उधर ही आते हुए देखकर हमें घबराहट होने लगी। हमने रास्ता काटकर पगडंडी पकड़ी ताकि भीड़ से पहले अपनी गली में पहुँच जाएं।

दुकानदार जल्दी—जल्दी दुकानें बन्द कर रहे थे। औरतें अपने—अपने बच्चों को पुकार रहीं थीं। गली में एकदम सन्नाटा छा गया था। बस हम दोनों ही वहाँ रह गए थे।

अशरफ, रघु ने मुझे रोकते हुए कहा, भीड़ थोड़ी देर में इधर आ जायेगी। ऐसा लग रहा है कि वे लोग लूटपाट करना चाहते हैं। हमें उन्हें आगे बढ़ने से रोकना होगा।

तुम पागल हो गए हो? वे क्या तुम्हारी बात सुनेंगे? मैंने चिल्लाते हुए पूछा।

उन्हें सुननी ही पड़ेगी हमारी बात रघु ने दृढ़ता से कहा। उन्हें समझना पड़ेगा। जब हम दोनों बच्चे होकर भी मिलकर दीवाली और ईद मना सकते हैं तो वे बड़े और समझदार होकर भी हमारी तरह दोस्त क्यों नहीं बन सकते।

रघु ने कसकर मेरा हाथ पकड़ा और मुझे ले चला और जाकर गली के मोड़ पर खड़ा हो गया। मुझे डरता देख उसने पूछा, क्यों अशरफ तुमने गांधी फिल्म देखी थी न?

हाँ। पर...

बापू कभी नहीं डरे थे। तब भी नहीं जब उन पर लाठियां बरस रही थीं।

जब भीड़ हमारे करीब आई तो हम एक—दूसरे का हाथ पकड़कर खड़े हो गये। हम चिल्लाये। भीड़ एकाएक अचकचा कर रूक गई।

बच्चो! रास्ता छोड़ दो, उनका नेता गुर्राया। औरों ने भी हमें धमकाते हुए रास्ता छोड़ने और मार्ग से हटने को कहा।

हमने भी उसी तरह पूरा जोर लगाकर और चिल्लाकर कहा, इस गली में हमारे घर हैं। हम तुम्हें अन्दर नहीं घुसने देंगे।

क्या, ये गुस्ताखी?

हमने पत्थर उठा लिए और चिल्लाये, चले जाओ यहाँ से, इससे पहले कि हम तुम्हें मारें।

उनके नेता ने आगे बढ़कर पूछा, क्या बात है? तुम हमें क्यों रोक रहे हो? हमें आगे बढ़ने दो।

नहीं, कभी नहीं। हमने दृढ़तापूर्वक कहा।

अचानक एक गुण्डे किस्म के नौजवान ने रघु को जोर से धक्का दिया। वह मुँह के बल धरती पर जा गिरा। उसका सिर एक पत्थर से टकराया और माथे से खून बहने लगा। नेता ने उसे उठाया और पूछा, चोट लगी है न? तुम्हारा नाम क्या है?

रघु की चोट देखकर मैं आग बबूला हो गया। रघु उसकी बात का उत्तर देता इससे पहले ही मैं उस पर झपटा और दोनों हाथों से उसपर घूँसे बरसाने लगा। और घूँसे मारते—मारते उसकी बात का उत्तर देने लगा, यह रघु है, मेरा मित्र। और मेरा नाम है अशरफ। हम दोनों इस गली में रहते हैं। और हम तुम्हें इस गली में कोई उत्पात नहीं मचाने देंगे।

यह कहते हुए मुझे लग रहा था कि पूरी भीड़ मुझ पर टूट पड़ेगी। लेकिन भीड़ मूर्तिवत खड़ी थी। उनका नेता बुदबुदाया, रघु और अशरफ! फिर भीड़ की ओर मुड़कर बोला, जब ये दोनों दोस्त हो सकते हैं तो हम क्यों नहीं हो सकते? चलो, सब लोग अपने—अपने घरों को लौट जाओ। मैं जा रहा हूँ इन दोनों के माता—पिता के पास यह बताने कि कितने बहादुर और बुद्धिमान हैं, उनके ये दोनों बच्चे।

१ नवंबर २००१

लाल गुब्बारा

—पूर्णिमा वर्मन

गली में गुब्बारेवाला था। नैना ने उसकी आवाज सुनी और दौड़ कर बाहर आई।

गुब्बारे वाले के हाथ में पाँच गुब्बारे थे। दो लाल, एक पीला, एक हरा और एक गुलाबी। एक गाड़ी भी थी। गाड़ी पर पीली छतरी थी। छतरी बड़ी थी। सबको छाया देती थी। गाड़ी में रंग ृृबिरंगे गुब्बारे भरे हुए थे।

नैना ने सोचा वह अपनी फ्राक जैसा लाल गुब्बारा लेगी।

मुझे एक गुब्बारा चाहिये। नैना ने कहा।

क्या तुम्हारे पास पैसे हैं? गुब्बारेवाले ने पूछा।

लाल गुब्बारा कितने का है? मैं माँ से पैसे ले कर आती हूँ। नैना ने कहा।

दो रूपये ले कर आना। गुब्बारेवाले ने कहा।

नैना माँ के पास से पैसे लेकर आई। गुब्बारे वाले को पैसे दिये और लाल गुब्बारा खरीदा।

गुब्बारा लेकर नैना गली में खेलने लगी। गली में भीड़ नहीं थी। लाल गुब्बारा पतंग की तरह लहरा रहा था। नैना धागे को उँगली पर लपेट लेती तो गुब्बारा उसके पास आ जाता। वह उसको गाल से लगाती तो नरम नरम लगता। रगड़ती तो मजेदार आवाज करता। वह धागे को छोड़ देती तो लाल गुब्बारा फिर से दूर आसमान में उड़ने लगता। वह दौड़ती तो गुब्बारा भी साथ साथ ऊपर चलता।

गली में खेलना नैना को अच्छा लगता था। खेल में बड़ा मजा था। नैना देर तक खेलती रही। लाल गुब्बारा उसका दोस्त बन गया। उसने लाल गुब्बारे का नाम श्लालूश् रख दिया।

बहुत देर हो गयी नैना, खेलना बंद करो और खाना खा लो। माँ ने भीतर से आवाज दी।

नैना को भी भूख लग रही थी। आती हूँ माँ, नैना ने जवाब दिया।

लेकिन वो लाल गुब्बारे के साथ खाना कैसे खाएगी, नैना ने सोचा। उसने गुब्बारे के धागे को दरवाजे की कुंडी से बाँध दिया।

लालू, मैं खाना खा लूँ तब तक तुम यहीं रहना। बाद में हम दोनों मिल कर फिर खेलेंगे। नैना ने कहा।

शायद नैना ठीक से बाँध नहीं पायी। धागा खुल गया और लाल गुब्बारा आसमान में उड़ गया।

नैना उसको पकड़ने के लिये दौड़ी पर वह ऊपर जा चुका था। नैना धागा नहीं पकड़ पाई। उसकी आँखों में आँसू आ गए। वह रोने लगी।

माँ ने कहा, रो मत। कल नया गुब्बारा ले लेना।

१ नवंबर २००३

साहसी की सदा विजय

ओम प्रकाश कश्यप

एक बकरी थी। एक उसका मेमना। दोनों जंगल में चर रहे थे। चरते — चरते बकरी को प्यास लगी। मेमने को भी प्यास लगी। बकरी बोली — चलो, पानी पी आएँ। मेमने ने भी जोड़ा, हाँ माँ! चलो पानी पी आएँ।

पानी पीने के लिए बकरी नदी की ओर चल दी। मेमना भी पानी पीने के लिए नदी की ओर चल पड़ा।

दोनों चले। बोलते—बतियाते। हँसते—गाते। टब्बक—टब्बक। टब्बक—टब्बक। बातों—बातों में बकरी ने मेमने को बताया — साहस से काम लो तो संकट टल जाता है। धैर्य यदि बना रहे तो विपत्ति से बचाव का रास्ता निकल ही आता है।

माँ की सीख मेमने ने गाँठ बाँध ली। दोनों नदी तट पर पहुँचे। वहाँ पहुँचकर बकरी ने नदी को प्रणाम किया। मेमने ने भी नदी को प्रणाम किया। नदी ने दोनों का स्वागत कर उन्हें सूचना दी, भेडिया आने ही वाला है। पानी पीकर फौरन घर की राह लो।

भेडिया गंदा है। वह मुझ जैसे छोटे जीवों पर रौब झाड़ता है। उन्हें मारकर खा जाता है। वह घमंडी भी है। तुम उसे अपने पास क्यों आने देती हो। पानी पीने से मना क्यों नही कर देती। मेमने ने नदी से कहा। नदी मुस्कुराई। बोली— मैं जानती हूँ कि भेडिया गंदा है। अपने से छोटे जीवों को सताने की उसकी आदत मुझे जरा भी पसंद नहीं है। पर क्या करूँ। वह जब भी मेरे पास आता है, प्यासा होता है। प्यास बुझाना मेरा धर्म हैं। मैं उसे मना नहीं कर सकती।

बकरी को बहुत जोर की प्यास लगी थी। मेमने को भी बहुत जोर की प्यास लगी थी। दोनों नदी पर झुके। नदी का पानी शीतल था। साथ में मीठा भी। बकरी ने खूब पानी पिया। मेमने ने भी खूब पानी पिया।

पानी पीकर बकरी ने डकार ली। पानी पीकर मेमने को भी डकार आई।

डकार से पेट हल्का हुआ तो दोनों फिर नदी पर झुक गए। पानी पीने लगे। नदी उनसे कुछ कहना चाहती थी। मगर दोनों को पानी पीते देख चुप रही। बकरी ने उठकर पानी पिया। मेमने ने भी उठकर पानी पिया। पानी पीकर बकरी मुड़ी तो उसे जोर का झटका लगा। लाल आँखों, राक्षसी डील—डौल वाला भेडिया सामने खड़ा था। उसके शरीर का रक्त जम—सा गया।

मेमना भी भेडिये को देख घबराया। थोड़ी देर तक दोनों को कुछ न सूझा।

अरे वाह! आज तो ठंडे जल के साथ गरमागरम भोजन भी है। अच्छा हुआ जो तुम दोनों यहाँ मिल गए। बड़ी जोर की भूख लगी है। अब मैं तुम्हें खाकर पहले अपनी भूख मिटाऊँगा। पानी बाद में पिऊँगा।

तब तक बकरी संभल चुकी थी। मेमना भी संभल चुका था।

छिय छिय कितने गंदे हो तुम। मुँह पर मक्खियाँ भिनभिना रही है। लगता है महीनों से मुँह नहीं धोया। मेमना बोला। भेडिया सकपकाया। बगले झाँकने लगा।

जाने दे बेटा। ये ठहरे जंगल के मंत्री। बड़ों की बड़ी बातें। हम उन्हें कैसे समझ सकते हैं। हो सकता है भेडिया दादा ने मुँह न धोने के लिए कसम उठा रखी हो। बकरी ने बात बढ़ाई।

क्या बकती है। थोड़ी देर पहले ही तो रेत में रगड़कर मुँह साफ किया है। भेडिया गुर्राया।

झूठे कहीं के। मुँह धोया होता तो क्या ऐसे ही दिखते। तनिक नदी में झाँक कर देखो। असलियत मालूम पड़ जाएगी। हिम्मत बटोर कर मेमने ने कहा।

भेडिया सोचने लगा। बकरी बड़ी है। उसका भरोसा नहीं। यह नन्हाँ मेमना भला क्या झूठ बोलेगा। रेत से रगड़ा था, हो भी सकता है वहीं पर गंदी मिट्टी से मुँह सन गया हो । ऐसे में इन्हें खाऊँगा तो नाहक गंदगी पेट में जाएगी। फिर नदी तक जाकर उसमें झाँककर देखने में भी कोई हर्जा नहीं है। ऐसा संभव नहीं कि मैं पानी में झाँकू और ये दोनों भाग जाएँ। ष्ऊँह, भागकर जाएँगे भी कहाँ। एक झपट्टे में पकड़ लूँगा।

देखो! मैं मुँह धोने जा रहा हूँ। भागने की कोशिश मत करना। वरना बुरी मौत मारूँगा। भेडिया ने धमकी दी। बकरी हाथ जोड़कर कहने लगी, हमारा तो जन्म ही आप जैसों की भूख मिटाने के लिए हुआ है। हमारा शरीर जंगल के मंत्री की भूख मिटानै के काम आए हमारे लिए इससे ज्यादा बड़ी बात भला और क्या हो सकती है। आप तसल्ली से मुँह धो लें। यहाँ से बीस कदम आगे नदी का पानी बिल्कुल साफ है। वहाँ जाकर मुँह धोएँ। विश्वास न हो तो मैं भी साथ में चलती हूँ।

भेडिये को बात भा गई। वह उस ओर बढ़ा जिधर बकरी ने इशारा किया था। वहाँ पर पानी काफी गहरा था। किनारे चिकने। जैसे ही भेडि़ये ने अपना चेहरा देखने के लिए नदी में झाँका, पीछे से बकरी ने अपनी पूरी ताकत समेटकर जोर का धक्का दिया। भेडिया अपने भारी भरकम शरीर को संभाल न पाया और धप से नदी में जा गिरा। उसके गिरते ही बकरी ने वापस जंगल की दिशा में दौड़ना शुरू कर दिया। उसके पीछे मेमना भी था।

दोनों नदी से काफी दूर निकल आए। सुरक्षित स्थान पर पहुँचकर बकरी रुकी। मेमना भी रुका। बकरी ने लाड़ से मेमने को देखा। मेमने ने विजेता के से दर्प साथ अपनी माँ की आँखों में झाँका। दोनों के चेहरों से आत्मविश्वास झलक रहा था। बकरी बोली —

‘कुछ समझे?

हाँ समझा।

क्या ?

साहस से काम लो तो खतरा टल जाता है।

और?

धैर्य यदि बना रहे तो विपत्ति से बचने का रास्ता निकल ही आता है।

शाबाश! बकरी बोली। इसी के साथ वह हँसने लगी। माँ के साथ—साथ मेमना भी हँसने लगा।

१ अगस्त २००१

सैर

— पूर्णिमा वर्मन

रविवार का दिन था। सबकी छुट्टी थी। आसमान साफ था और ठंडी—ठंडी हवा बह रही थी। सूरज की किरणें शहर के ऊपर बिखरी थीं। धूप में गरमी नहीं थी। मौसम सुहावना था। बिलकुल वैसा जैसा एक पिकनिक के लिए होना चाहिये। मन्नू सोचने लगा, काश! आज हम कहीं घूमने जा सकते।

मन्नू रसोई में आया। माँ बेसिन में बर्तन धो रही थी।

ष्माँ क्या आज हम कहीं घूमने चल सकते हैं? मन्नू ने पूछा।

ष्क्यों नही, अगर तुम्हारा स्कूल का काम पूरा हो गया तो हम जरूर घूमने चलेंगे।ष् माँ ने कहा।

मैं आधे घंटे के अंदर स्कूल का काम पूरा कर सकता हूँ। मन्नू ने कहा।

मन्नू स्कूल का काम करने बैठ गया।

हम कहाँ घूमने चलेंगे? मन्नू ने पूछा।

बाबा और मुन्नी ने गांधी पार्क का कार्यक्रम बनाया है। माँ ने बताया।

यह पार्क तो हमने पहले कभी नहीं देखा? मन्नू ने पूछा।

हाँ, इसीलिये तो। माँ ने उत्तर दिया।

मन्नू काम पूरा कर के बाहर आ गया।

क्या गांधी पार्क बहुत दूर है? मुन्नी ने पूछा।

हाँ, हमें कार से लम्बा सफर करना होगा। बाबा ने बताया।

सुबह के काम पूरे कर के सब लोग तैयार हुए। माँ ने खाने पीने की कुछ चीजें साथ में ली और वे सब कार में बैठ कर सैर को निकल पड़े।

रास्ता मजेदार था। सड़क के दोनो ओर पेड़ थे। हरी घास सुंदर दिखती थी। सड़क पर यातायात बहुत कम था। सफेद रंग के बादल आसमान में उड़ रहे थे। बाबा कार चला रहे थे। मुन्नी ने मीठी पिपरमिंट सबको बांट दी। कार में गाने सुनते हुए रास्ता कब पार हो गया उन्हें पता ही नहीं चला। बाबा ने कार रोकी। माँ ने कहा सामान बाहर निकालो अब हम उतरेंगे।

गांधी पार्क में अंदर जा कर मुन्नी ने देखा चारों तरफ हरियाली थी। वह इधर—उधर घूमने लगी। बहुत से पेड़ थे। कुछ दूर पर एक नहर भी थी। नहर के ऊपर पुल था। उसने पुल के ऊपर चढ़ कर देखा। बड़ा सा बाग था। एक तरफ फूलों की क्यारियाँ थीं। थोड़ा आगे चल कर मुन्नी ने देखा गाँधी जी की एक मूर्ति भी थी।

घूमते—घूमते मुन्नी को प्यास लगने लगी। माँ ने मुन्नी को गिलास में संतरे का जूस दिया। माँ और बाबा पार्क के बीच में बने लंबे रास्ते पर टहलने लगे। मुन्नी फूलों की क्यारियों के पास तितलियाँ पकड़ने लगी। तितलियाँ तेजी से उड़ती थीं और आसानी से पकड़ में नहीं आती थीं। तितलियों के पीछे दौड़ते—दौड़ते जब वह थक गयी तो एक पेड़ के नीचे सुस्ताने बैठ गयी।

उसने देखा पार्क में थोड़ी दूर पर झूले लगे थे। मन्नू एक फिसलपट्टी के ऊपर से मुन्नी को पुकार रहा था,

मुन्नी मुन्नी यहाँ आकर देखो कितना मजा आ रहा है।

मुन्नी आराम करना भूल कर झूलों के पास चली गयी। वे दोनों अलग अलग तरह के झूलों का मजा लेते रहे।

मन्नू — मुन्नी बहुत देर हो गयी? घर नहीं चलना है क्या?

माँ और बाबा बच्चों से पूछ रहे थे।

दोनों बच्चे भाग कर पास आ गए।

पार्क कैसा लगा बच्चों? माँ ने पूछा।

बहुत बढिया मन्नू और मुन्नी ने कहा। वे खुश दिखाई देते थे।

चलो, अब वापस चलें, फिर किसी दिन दुबारा आ जाएँगे। बाबा ने कहा।

सफर मजेदार था। दिन सफल हो गया। बच्चों ने सोचा।

सब लोग कार में बैठ गए। बाबा ने कार मोड़ी और घर की ओर ले ली। मौसम अभी भी बढि़या था। मुन्नी फिर से सबको मीठी पिपरमिंट देना नहीं भूली। सैर की सफलता के बाद सब घर लौट रहे थे।

१ अक्तूबर २००३

सोनिया का संकोच

दिनेश चौमोला शैलेश की कहानी

एक लड़की थी— सोनिया। वह बहुत कम बोलती थी, लड़ाई—झगड़ा तो रही दूर की बात, वह अपनी कक्षा में अध्यापक से भी कोई प्रश्न नहीं करती। इसीलिए सभी उसे संकोची लड़की के नाम से जानते। वैसे तो उसकी कक्षा में अन्य संकोची लड़कियाँ भी थीं, लेकिन बिल्कुल शांत रहने के कारण संकोची कहते ही जिसकी तसवीर उभरती वह सोनिया ही थी। उसके माता—पिता भी उसके इस स्वभाव से चिंतित रहते।

सोनिया के पिता सरकारी अधिकार थे। उनका सिर्फ दफ्तर में ही नहीं, समाज में भी दबदबा था। वह सोनिया के स्वभाव को लेकर चिंतित तो थे, लेकिन वह सोचते कि शायद यह उसका पैतृक गुण हो। क्योंकि वह खुद भी शुरू में बहुत संकोची थे, और बाद में ही मुखर हो सके थे।

जब छटी कक्षा तक संकोच ने सोनिया का पीछा नहीं छोड़ा तो उसकी माँ की चिंता बढ़ गई। क्योंकि लोग सोनिया को सीधी—सादी लड़की कहतें, तो माँ समझ जातीं कि वे उसे दब्बू व मूर्ख कहना चाहते हैं। एक दिन काजल की माँ ने व्यंग्य भरे लहजे में सोनिया की माँ से कहा, सोनिया की मम्मी, इस बात को गंभीरता से लो। लड़की का संकोची होना अच्छी बात नहीं है। आज की दुनिया तो ऐसी भोली लड़की की चौन से नहीं जीने देती। आप इसे किसी मनोचिकित्सक को दिखाएँ। जिनके घर में विचार—विमर्श, लिखने—पढ़ने का माहौल न हो, उनके बच्चे ऐसे हों तो कोई बात नहीं, लेकिन आपके घर में ।

नहीं—नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, बच्चों का अपना—अपना स्वभाव होता हैं। आगे चलकर यह भी तेज हो जाएगी। कहकर सोनिया की माँ ने काजल की माँ को टालना चाहा। उन्हें काजल की माँ की बात अच्छी नहीं लगी थी।

सोनिया अपनी कक्षा में बोलने में जितनी संकोची थी, उतनी ही पढ़ाई—लिखाई में होशियार थी। यह बात उसके घर वालों के साथ—साथ अध्यापकों को भी पता थी। कक्षा की अधिकांश लड़कियों का ध्यान पढ़ने में कम, दूसरी बातों में अधिक रहता। कक्षा में भी वे पढ़ाई की कम और इधर—उधर की बातें ज्यादा करतीं। वे अपने अध्यापक—अध्यापिकाओं की नकल उतारती रहतीं। इन्हीं लड़कियों में से नीरू, सीमा और पर्णिका सोनिया की सहेलियाँ बन गई।

अध्यापक जब ब्लैक बोर्ड पर सवाल लिखने खड़े होते तो सीमा व नीरू अपने—अपने बस्तों से कागज की लंबी पूँछ निकालने लग जातीं। जब बच्चे अध्यापक के प्रश्न का उत्तर देने खड़े होते तो उनके पीछे कागज की पूँछ देखकर पूरी कक्षा में ठहाका लगता। सोनिया को यह बुरा तो लगता, लेकिन अपने संकोची स्वभाव के कारण उनकी शिकायत नहीं कर पाती थी। वैसे वो अध्यापक भी सोनिया की इन सहेलियों को मुँह नहीं लगना चाहते थे। वे जब—तब अध्यापकों को भी भला—बुरा कहने में न हिचकिचाती थीं। इसलिए कोई भी अध्यापक उनसे कुछ भी न पूछता था। इससे निर्भय होकर उनकी शरारतें और भी बढ़ गई थीं।

एक दिन सोनिया की माँ को कहीं नीरू और पर्णिका मिल गई। वे दोनों लगीं सोनिया की बुराई करने लगीं, आंटी, सोनिया बिल्कुल भी नहीं पढ़ती। जब सर उससे कुछ पूछते हैं तो वह जवाब भी नहीं देती। बस रोने बैठ जाती है। वह स्कूल का काम भी पूरा नहीं करतीं, टेस्ट में उसका सी आता है। डर के मारे वह ठीक से चल भी नहीं पाती। वह इतना धीरे चलती हैं कि चलने में भी संकोच लगता है। वह बहुत डरपोक हैं, आंटी।

सोनिया की माँ ने उसके पिता से उसकी सहेलियों की बात बताई। सोनिया भी वहीं थीं, लेकिन उसने कोई प्रतिवाद नहीं किया। पिता ने जब सोनिया की रिपोर्ट—बुक देखी तो उसे किसी भी विषय में सी ग्रेड नहीं मिला था। वह हर विषय में अच्छे नंबर लाई थी।

आखिरकार सोनिया के पिता ने सोनिया को अपने पास बुलाया और कहा, देखो बेटी, तुम पढ़ने में तेज हो, तुम्हारा स्वास्थ्य अच्छा है, तुम किसी से कम नहीं हो, फिर तुम इन लड़कियों की बकवास बातों का प्रतिरोध क्यों नहीं करती हो? इनके सामने चुप मत रहो, इन्हें समझाओ कि वे गलत कर रही हैं, अगर नहीं मानती तो इनसे किनारा कर लो।

सबसे अच्छी मित्र तो किताबें ही होती हैं, जो आगे बढ़ने का रास्ता दिखाती हैं। जबकि तुम्हारी ऐसी सहेलियाँ कभी नहीं चाहेंगी कि तुम अपना नाम रोशन करो। डरती तुम नहीं, डरती तो वे हैं। उन्हें इस बात का डर है कि तुम्हारे अगर अच्छे नंबर आएँगे तो उनकी पोल खुलेगी। तुम्हें किस बात का डर? न तो तुमने कोई चोरी की है, न किसी से उधार लिया है। तुम क्यों डरोगी? बस तुम्हें मुखर होना है, अपनी इन सहेलियों से पढ़ाई का कोई न कोई प्रश्न करती रहोगी तो वे या तो पढ़ने में रूचि लेंगी या फिर खुद तुमसे दूर हो जाएँगी। कोई गलत बात कहता है तो तकोर्ं का सहारा लो। तुम्हारे पास ज्ञान का भंडार है, फिर संकोच कैसा?

पिता की बात का सोनिया पर गहरा असर हुआ था। वह बोली, पापा, आप यह समझिए कि मेरे डर और संकोच का यह आखिरी दिन हैं। अब अगर कोई मेरे बारे में ऐसी बात करेगा तो मैं उसे देख लूँगी। पढ़ाई—लिखाई में मैं उन लड़कियों से ज्यादा तेज हूँ, मुझे उनसे ज्यादा बोलना आता है। एक दिन मैं आपको कुछ बनकर दिखाऊँगी। सोनिया के चेहरे से आत्मविश्वास फूट रहा था। सोनिया की माँ ने उसे सीने से लगा लिया।