गांठ... Bhagwan Atlani द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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गांठ...

गांठ

छाती पर घूंसा लगने के कारण नींद खुल जाती है। चौंककर बैठ जाता हूं। कमरे में बल्ब नहीं जल रहा है। इसके बावजूद इतनी रोशनी है कि चारों ओर सब कुछ साफ दिखाई दे रहा है। बैठे-बैठे ही सिर घुमाकर मैं कमरे में हर तरफ निगाह डालता हूं। कोई नहीं है। पलंग के साथ सटे स्टूल पर पानी का जग और गिलास रखे हैं। दरवाज़ा बन्द है। मार्च का महीना होने के कारण खिड़की का कांच का पल्ला खुला है। मच्छरों से बचने के लिये खिड़की का जाली वाला पल्ला बन्द है। पंखा धीरे-धीरे चल रहा है। सब कुछ उसी स्थिति में है, जिसमें हमेशा रहता है। पैरों की तरफ रखी चादर भी अपनी जगह पड़ी है। कुछ दूरी पर सी.डी. प्लेयर, म्यूज़िक सिस्टम और टी.वी. बदस्तूर रखे हैं। मोबाइल में समय देखता हूं। रात के साढे बारह बजे हैं।

कोई नहीं है कमरे में। दरवाज़ा और खिड़की का जाली वाला पल्ला बन्द हैं। सम्भव नहीं है कि बन्द होते हुए भी दरवाज़े या खिड़की में से अन्दर आकर, मेरी छाती पर घूंसा लगाकर, दरवाज़े और खिड़की को भीतर से फिर बन्द करके पलक झपकते कोई बाहर निकल जाये। कौन था? कौन था जिसने छाती पर इतना ज़ोरदार घूंसा मारा कि मेरी नींद खुल गई? दर्द का अहसास अब भी है। आया ज़रूर है कोई अन्दर। लेकिन कैसे आया है? सशरीर नहीं आ सकता कोई। हवा भले ही खिड़की के जाली वाले पल्ले से अन्दर आ जाये, लेकिन सोते हुए व्यक्ति की छाती पर हथौड़े की तरह घूंसा नहीं मार सकती हवा। चार दीवारों में तो तूफान का असर भी घट जाता है। हवा का झोंका आयेगा तो बदन को सुखद लगेगा। आई हुई नींद अधिक गहरी होगी। न चोट लगेगी, न नींद खुलेगी और न चोट का दर्द कायम रहेगा।

सारी ज़िन्दगी कस्टम की नौकरी करते हुए गुज़ारी है। लगभग तीन साल पहले ऊंचे पद से सेवानिवृत्त हुआ हूं। एक वर्ष पहले पत्नी का देहान्त हुआ है। बेटा-बहू साथ रहते हैं। बेटे की आमदनी अच्छी है। मुझे भी ख़ासी पेन्शन मिलती है। सेवानिवृत्ति के समय विपुल राशि मिली। बंगला, कार, संसार के सुख भरपूर मयस्सर हैं। स्वास्थ्य पूरी तरह ठीक है। सोता अकेला ज़रूर हूं मगर नींद के लिये प्रयत्न नहीं करने पड़ते हैं। आज भी टी.वी. देखकर, दूध पीकर करीब ग्यारह बजे सोया था। जल्दी नींद आ गई। केवल डेढ घंटा हुआ है सोए और घूंसा लगने के कारण उठकर बैठ गया हूं। किसने मारा घूंसा? कहां से अन्दर आया? कहां से बाहर गया?

बैडलाइट जलाता हूं। मंद प्रकाश में जो दिखाई दिया था, स्पष्ट रूप से सामने है। स्टूल, पानी का जग और गिलास, सी.डी. प्लेयर, म्यूज़िक सिस्टम, टी.वी., बन्द जाली वाली खिड़की और दरवाज़ा जिस अवस्था में सोने से पहले देखे थे ठीक वैसे ही सामने हैं। छाती पर हाथ रखता हूं। दर्द का अहसास उभरता है। मेरे साथ कभी ऐसा हुआ नहीं है लेकिन सुना है कि नींद में अगर हाथ छाती के ऊपर आ जाता है तो लगता है मानो कोई ऊपर चढ बैठा है। मैं सीधा कभी नहीं सोता हूं। अधिकतर बाईं और कभी-कभी दाईं ओर करवट लेकर सोता हूं। हो सकता है, इसलिये नींद में छाती पर हाथ न गया हो। मुझे याद नहीं है कि जब नींद खुली, मैं सीधा लेटा हुआ था या करवट लेकर सोया था। अगर नींद में शरीर सीधा हो गया हो और हाथ छाती के ऊपर आ गया हो तब भी ऐसा लगना चाहिये था कि कोई छाती पर चढकर बैठा है। नींद खुलने के बाद भले ही देखने में न आये लेकिन घूंसा क्यों लगना चाहिये। किसी ने घूंसा मारा है, केवल इतना महसूस होता तब भी वहम मानकर दरगुज़र किया जा सकता था। घूंसा लगने वाले स्थान पर अब भी हल्का दर्द है। क्या हो सकता है? क्यों हो सकता है? कैसे हो सकता है?

नौकरी के दौरान न जाने कितने और कैसे अपराधियों से वास्ता पड़ता रहा है। ख़ूब धमकियां मिली हैं तो झड़पें भी हुई हैं ग़लत काम करने वालों से। डरता तो खा जाते वे हैवान मुझे। निडर होकर सामना किया है। सुनसान जगहें, मार-पीट, गोलियां सब कुछ हिस्सा रहा है मेरे काम का। भय मुझे छू तक नहीं सका है, ऐसा कहूंगा तो अतिशयोक्ति होगी लेकिन दहलाने वाली स्थितियां भी मेरे इरादों को कमज़ोर नहीं कर सकी हैं। निडर चाहे न होऊं लेकिन मैं डरपोक तो कतई नहीं हूं। इसके बावजूद हल्के डर के आवरण में लिपटे प्रश्न, रहस्य की परछाइयों के साथ गड्डमड्ड होकर मुझे बेचैन कर रहे हैं। इन प्रश्नों के उत्तर मिल नहीं रहे हैं। घटना हुई है। लेकिन रात के इस पहर में बन्द, एकान्त कमरे की चारदीवारी में इस प्रकार की घटना कैसे घटी, इस पहेली के जाल से बाहर निकलना सम्भव नहीं हो पा रहा है मेरे लिये। धुन्ध, गहरी धुन्ध है मन के आसपास।

होगा कुछ! इतना हैरान, परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। सामने आयेगा तो देख लूंगा। कायर की तरह घूंसा मारकर जो ग़ायब हो गया है, न उससे डरने की आवश्यकता है और न उसे ढूंढने की ज़रूरत है। उसके बारे में सोच-सोचकर नींद बरबाद करना बेवकूफी है। सोना चाहिये। रोशनी बुझाकर सोना चाहिये मुझे। वहम होगा तो बात आई-गई हो जायेगी। सच होगा तो सोने के बाद फिर सामने आ जायेगा। बल्ब जलाकर जागने से तो सच आयेगा नहीं सामने। बेमतलब चिन्ताएं, बिना आधार की ऊहापोह, व्यर्थ संशय, सिर-पैर विहीन खयाल और ऊंटपटांग विचार परेशान करते रहेंगे। सामने आये, जिसको आना है। कमजोर महसूस करके असंतुलित होने का मतलब है, खुद को पागल बनाना। भ्रष्ट और भ्रमित बुद्धि विवेकसम्मत राह में कांटे बिछाती है। घूंसा किसने मारा, अन्दर कैसे आया, बाहर कैसे निकला, इन रहस्यमय प्रश्नों के उत्तर ढूंढने की कोशिश मेरे सुख-चैन की बली ले लेगी।

बाथरूम जाता हूं। लौटकर पानी पीता हूं। बैडलाइट बन्द करता हूं। बिस्तर पर लेटकर आंखें बन्द कर लेता हूं। सोने की कोशिश करता हूं। मस्तिष्क को जीवन के प्रिय प्रसंगों की ओर मोड़ने के उद्देश्य से अपनी निडरता, बहादुरी और सफलता की घटनाएं याद करता हूं। एकाएक एक खूंख्वार तस्कर गुमानसिंह का चेहरा मेरे सम्मुख उभरता है। मैंने उसे सप्रमाण गिरफ्तार किया था। बड़ी रकम की लालच कारगर नहीं हुई तो गुमानसिंह ने धमकियां देकर डराने का प्रयत्न किया। उसे सात सालों के लिये सश्रम कारागार की सज़ा मिली थी।

सच कहूं तो जीवन में पहली बार रिश्वत लेकर गुमानसिंह का मामला हल्का करने की लालच पैदा हुई थी मन में और इसका कारण था केवल दो वर्षों के बाद होने वाली सेवानिवृत्ति। यह राशि सेवानिवृत्ति के बाद मेरे लिये बहुत मददगार होगी। आयातित इलेक्ट्रानिक सामान का एक बड़ा शोरूम खोलकर इस राशि को दोगुना - तीन गुना कर सकूंगा। पूरी नौकरी में रिश्वत लेने से बचाया है अपने आपको। विभाग में ईमानदार और परिश्रमी अधिकारी की छवि है। किसी को भनक भी नहीं लगेगी कि सेवानिवृत्ति के कगार पर बैठकर मैंने रिश्वत ली होगी। सुनार की ठक-ठक से बचता रहा हूं हमेशा। लोहार की एक ही चोट कसर पूरी कर देगी।

इन विचारों ने हमला बोला तो मैं दहल गया। कशमकश का दौर चला। क्यों नहीं ली है रिश्वत मैंने आज तक? दूसरों को रिश्वत लेते देखकर, दूसरों को ऐशो इशरत के साधनों का अम्बार लगाते देखकर, दूसरों को इच्छानुसार पैसा उड़ाते देखकर, दूसरों को रुपयों के बल पर आकाश-पाताल की बातें करते देखकर, दूसरों को बच्चों की हरएक जायज़-नाजायज़ मांग पूरी करते देखकर क्या रिश्वत की राह को अपनी ओर मोड़ना मुश्किल काम था मेरे लिये? नहीं मोड़ा तो केवल इसलिये क्योंकि जवाब किसी और को नहीं, अपने आप को देना था मुझे। अब भी गुमानसिंह का मामला कमजोर बनाने के लिये रिश्वत लेने या न लेने का फैसला दूसरे लोग क्या सोचेंगे व कहेंगे, इस आधार पर नहीं लूंगा। अपनी नज़रों में नीचे गिरना मंज़ूर नहीं है मुझे। पूरी कोशिश करके मैंने गुमानसिंह को सज़ा दिलाई। न रुपयों ने ललचाया और न धमकियों ने डराया।

“मगर अब नहीं छोड़ूंगा तुझे मैं। तूने मुझे जेल में ही नहीं भेजा, मेरी जान भी ली है। देखता हूं, अब कौन बचाता है तुझे?” ठहाके लगाता हुआ गुमानसिंह विकराल रूप धारण करके मेरी ओर बढता है।

“तू मुझे मारेगा? देखता हूं, कैसे मारता है तू मुझे?” कहकर गुमानसिंह को पकड़ने के लिये मैं तेज़ी से लपकता हूं। मेरी आंख खुल जाती है। कमरे में कोई नहीं है। सांसें ऊपर-नीचे हो रही हैं।

तो क्या गुमानसिंह मर गया है जेल में? जो काम जीवित रहते वह नहीं कर पाया, क्या मरने के बाद भूत बनकर करना चाहता है? क्या घूंसा गुमानसिंह के भूत ने मारा था मेरी छाती पर?

गुमानसिंह का भूत! अस्तित्व होता भी है क्या भूतों का? कहते हैं, भूत अशरीरी होते हैं और अदृश्य रहकर इन्सान को नुकसान पहुंचा सकते हैं। इन्सान के पास दिमाग और देह दोनों की ताकत है। भूत के पास केवल दिमाग़ी ताकत है। इन्सान से अधिक खतरनाक कैसे हो सकता है एक भूत? अंधकार और अनदेखा, भय का कारक है। मुकाबला करने पर तुल जाये इन्सान तो भूत को भागना पड़ेगा। सिर हथेली पर उठाकर अगर निर्बल भी मरने-मारने पर उतर आये तो कई बार गुंडों और बदमाशों को मैदान छोड़ना पड़ता है। मरने पर आमादा इन्सान का क्या बिगाड़ सकता है कोई? नुकसान का, मारपीट का, मरने का भय ही तो है जो झुकने के लिये विवश करता है। इन बातों की परवाह न हो जिसे, क्या बिगाड़ लेगा शैतान उसका? कौनसा कहर बरपा करेगा भूत उसके ऊपर? मानसिक शक्ति और आत्मबल कमज़ोर हैं जिनके, वे डरें भूतों से! अगर गुमानसिंह मरकर भूत बना है और मुझे परेशान करना चाहता है तो मुकाबला करूंगा उसका। ज़िन्दा गुमानसिंह के सामने ताल ठोककर खड़ा हो सकता हूं तो उसके भूत को भी परास्त करूंगा। देखूं, क्या बिगाड़ता है वह मेरा?

पिछले कुछ समय से मुम्बई में रहने वाला मेरा छोटा भाई परेशान था। उसका कहना था, “हमारे खानदान के कुछ पूर्वपुरूष सद्गति न मिलने के कारण प्रेतयोनि भोग रहे हैं। रात को डराते हैं। भयानक चेहरे रात भर आंखों के सामने घूमते रहते हैं। सोने नहीं देते। अपने साथ ले जाने की धमकी देते हैं। नींद उड़ गई है। पेट खराब हो गया है। डाक्टर की दवाओं का असर नहीं हो रहा है। मनोचिकित्सक ने नींद आने के लिये गोलियां दी हैं। लेता हूं तो नींद नहीं, झपकियां आती हैं। बेचैनी बढ जाती है।”

हररोज़ फोन पर बातचीत होती थी। बहुत समझाया। मन को मज़बूत करने के तरीके बताये। उसके ऊपर कोई असर नहीं हुआ। आखिर उसने किसी तान्त्रिक से हवन कराया, भटकने वालों की सद्गति के लिये। भाई के अनुसार, “अब सब कुछ ठीक है। लेकिन तान्त्रिक का कहना है कि खानदान के पूर्वपुरूषों की मुक्ति का यत्न घर के सबसे बड़े सदस्य को करना चाहिये। परिवार के मुखिया आप हैं। इसलिये आप भी हवन कराइये।”

मैंने खामोशी से उसकी बात सुनी। फोन पर देखना सम्भव नहीं था उसके लिये लेकिन मेरे होंठों पर व्यंग्यपूर्ण मुस्कराहट थी उस समय। इस दर्शन का मज़ाक उड़ाती मुस्कराहट। अगर प्रेतयोनि भोग रहे पुरखों को सद्गति परिवार के मुखिया के यत्न से मिलेगी तो वे छोट भाई को परेशान क्यों कर रहे थे? मेरे पास आने से किसने रोका था उन्हें? तान्त्रिक के अनुसार, हवन सद्गति का वाहन है और अगर सचमुच हवन सद्गति का वाहन है तो पुरखों को पहले ही यह वाहन उपलब्ध करा चुका है मेरा छोटा भाई। मैं हवन कराऊंगा तो दो-दो वाहन हो जायेंगे उनके पास। एक पर सद्गति यात्रा करेंगे और दूसरा गैराज में बेमतलब खड़ा रहकर बेकार जगह घेरेगा। हां, छाती पर घूंसे वाली बात छोटे भाई को बता दूं तो एक क्षण देर किये बिना वह कहेगा, “मैंने पहले ही हवन कराने के लिये निवेदन किया था। मैं नहीं चाहता, आप उन कष्टों को भोगें जिन्हें मैं सह चुका हूं।”

हो सकता है, दिल और दिमाग के किसी कोने में छोटे भाई वाली वारदात घात लगाकर बैठी हो। सम्भव है, घूंसे के रूप में वह अदृश्य गांठ उभर आई हो। सपने देखते हैं तो दिल की गहराइयों में छिपी कई बातें सतह पर आ जाती हैं न? सोते हुए या सपना देखते समय अपना हाथ ज़ोर से छाती पर आ गिरे तो दर्द अनुभव नहीं होगा क्या? घूंसे और दर्द को भूत, गुमानसिंह या प्रेतयोनि में भटक रहे किसी पुरखे के साथ जोड़ना केवल कमज़ोर मानसिकता का परिचायक है। गुमानसिंह का भूत! गुमानसिंह जेल में मर गया होगा!? मुझे भरोसा है, अदृश्य गांठ फटी है इस तरह। पुरखे और गुमानसिंह का भूत मिलकर मुझ पर हमला कर रहे हैं, यह अहसास उस गांठ की पैदाइश है। कल पता लगाऊंगा, गुमानसिंह जीवित है या मर गया। कल क्यों? अभी क्यों नहीं? रात्रि के तीन बजे हैं तो क्या हुआ? जेल का अधीक्षक वही है जो मेरी सेवानिवृत्ति के समय था!

मैं डायरी खोलता हूं, अधीक्षक का फोन नम्बर निकालता हूं और मोबाइल उठाकर उसका नम्बर मिलाने लगता हूं।

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भगवान अटलानी,

डी-183, मालवीय नगर,

जयपुर-302017