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मीराबाई

मीराबाई


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कृष्णभक्ति शाखा की हिंदी की महान कवयित्री मीराबाई का जन्म संवत्१५७३ में जोधपुर में चोकड़ी नामक गाँव में हुआ था। इनका विवाह उदयपुर के महाराणा कुमार भोजराज जी के साथ हुआ था। ये बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं।

विवाह के थोड़े ही दिन के बाद आपके पति का स्वर्गवास हो गया था। पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिनप्रतिदिन बढ़ती गई। ये मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं।

मीराबाई का घर से निकाला जाना

मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह द्वारका और वृंदावन गईं। वह जहाँ जाती थीं, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था। लोग आपको देवियों के जैसा प्यार और सम्मान देते थे। इसी दौरान उन्होंने तुलसीदास को पत्र लिखा था रू

स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषण दूषनहरन गोसाई।

बारहिं बार प्रनाम करहूँ अब हरहूँ सोकसमुदाई।।

घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई।

साधुसग अरु भजन करत माहिं देत कलेस महाई।।

मेरे मातापिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई।

हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई।।

मीराबाई के पत्र का जबाव तुलसी दास ने इस प्रकार दियारू

जाके प्रिय राम बैदेही।

सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेहा।।

नाते सबै राम के मनियत सुह्मद सुसंख्य जहाँ लौ।

अंजन कहा आँखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ।।

मीरा द्वारा रचित ग्रंथ

मीराबाई ने चार ग्रंथों की रचना की——

बरसी का मायरा

गीत गोविंद टीका

राग गोविंद

राग सोरठ के पद

इसके अलावा मीराबाई के गीतों का संकलन ष्मीराबाई की पदावलीश् नामक ग्रन्थ में किया गया है।

मीराबाई की भक्ति

मीरा की भक्ति में माधुर्यभाव काफी हद तक पाया जाता था। वह अपने इष्टदेव कृष्ण की भावना प्रियतम या पति के रुप में करती थी। उनका मानना था कि इस संसार में कृष्ण के अलावा कोई पुरुष है ही नहीं। कृष्ण के रुप की दीवानी थी

बसो मेरे नैनन में नंदलाल।

मोहनी मूरति, साँवरि, सुरति नैना बने विसाल।।

अधर सुधारस मुरली बाजति, उर बैजंती माल।

क्षुद्र घंटिका कटितट सोभित, नूपुर शब्द रसाल।

मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्त बछल गोपाल।।

मीराबाई रैदास को अपना गुरु मानते हुए कहती हैं

गुरु मिलिया रैदास दीन्ही ज्ञान की गुटकी।

इन्होंने अपने बहुत से पदों की रचना राजस्थानी मिश्रित भाषा में ही है। इसके अलावा कुछ विशुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा में भी लिखा है। इन्होंने जन्मजात कवियित्री होने के बावजूद भक्ति की भावना में कवियित्री के रुप में प्रसिद्धि प्रदान की। मीरा के विरह गीतों में समकालीन कवियों की अपेक्षा अधिक स्वाभाविकता पाई जाती है। इन्होंने अपने पदों में श्रृंगार और शांत रस

का प्रयोग विशेष रुप से किया है।

मन रे पासि हरि के चरन।

सुभग सीतल कमलकोमल त्रिविधज्वालाहरन।

जो चरन प्रह्मलाद परसे इंद्रपद्वीहान।।

जिन चरन ध्रुव अटल कींन्हों राखि अपनी सरन।

जिन चरन ब्राह्मांड मेंथ्यों नखसिखौ श्री भरन।।

जिन चरन प्रभु परस लनिहों तरी गौतम धरनि।

जिन चरन धरथो गोबरधन गरबमधवाहरन।।

दास मीरा लाल गिरधर आजम तारन तरन।।

फागुन के दिन चार

फागुन के दिन चार होली खेल मना रे

बिन करताल पखावज बाजै अणहदकी झणकार रे।

बिन सुर राग छतीसूं गावै रोम रोम रणकार रे।

सील संतोखकी केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे।

उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे।

घट के सब पट खोल दिये हैं लोकलाज सब डार रे।

मीरा के प्रभु गिरधर नागर चरणकंवल बलिहार रे

मेरो दरद जाणै कोय (पद)

हे री मैं तो प्रेमदिवानी मेरो दरद जाणै कोय।

घायल की गति घायल जाणै जो कोई घायल होय।

जौहरि की गति जौहरी जाणै की जिन जौहर होय।

सूली ऊपर सेज हमारी सोवण किस बिध होय।

गगन मंडल पर सेज पिया की किस बिध मिलणा होय।

दरद की मारी बनबन डोलूं बैद मिल्या नहिं कोय।

मीरा की प्रभु पीर मिटेगी जद बैद सांवरिया होय।

श्याम पिया मोरी रंग दे चुनरिया ।। टेर ।। (काव्य)

ऐसी वो रंग दे रंग नाई छूटे,

धोबनिया धोये चाहे सारी उमरिया।

बिना रंगाये बाहर ना जाऊँ,

चाहे तो बीत जाए सारी उमरिया।

लाल ओढूँ पीली ओढूँ,

ओढूँगी श्याम तेरी काली कमलिया।

गागर जो भर दे, सिर पे जो धर दे,

चलके बता दे श्याम तेरी नगरिया।

बाई मीरा कहे गिरधर नागर,

हरि के चरण चित्त लागी रे लगनिया।

होरी खेलत हैं गिरधारी।

मुरली चंग बजत डफ न्यारो।

संग जुबती ब्रजनारी।

चंदन केसर छिड़कत मोहन

अपने हाथ बिहारी।

भरि भरि मूठ गुलाल लाल संग

स्यामा प्राण पियारी।

गावत चार धमार राग तहं

दै दै कल करतारी।

फाग जु खेलत रसिक सांवरो

बाढ्यौ रस ब्रज भारी।

मीराकूं प्रभु गिरधर मिलिया

मोहनलाल बिहारी।

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