IAS
की तैयारी
अशोक मिश्र
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गांव से छोटे भाई का फोन आया कि कंधई काका ने आपको बुलाया है। मैंने छोटे भाई से पूछा भी कि कोई खास बात है क्या? उसने कहा, मुझे मालूम नहीं है। मैं अगले दिन सुबह ही गांव के लिए रवाना हो गया। शाम को पांच बजे गांव पहुंचा, तो छोटे भाई ने कहा, ‘अब आप आ ही गए हैं, तो कंधई काका के दरवाजे पर भी हो आइए।'
आपको बता दें, कंधई काका हमारे पट्टीदार हैं। मेरे बाबा और कंधई काका के पिता दोनों सगे भाई थे। काका के दरवाजे पर पहुंचकर उनके पैर छुए, तो आशीर्वाद देते हुए सामने बैठे कुछ लोगों को सुनाते हुए कहा, ‘जुग—जुग जियो बेटा! यह बचवा तो बचपन से ही बहुत काबिल रहा। पढने में इसका कोई मुकाबला नहीं था। दिन—रात... जब देखो, पढ़ता ही रहता था। यह तो बाद में पता चला कि यह ससुरा.. भूगोल और साइंस की बड़ी—बड़ी कापियों के बीच उपन्यास रखकर पढ़ता था। हां, फेल कभी नहीं हुआ। मनीसवा तो इसका गुन गाते अघाता नहीं, लेकिन किस्मत देखो। बेचारा परेस मा काम करता है। जब बडका भइया (मेरे पिता जी) को इसके परेस में काम करने की बात पता चली, तो बेचारे बहुत चिंतित हो गए। कहने लगे कि इतना नालायक निकला मेरा बेटा कि परेस मा नौकरी करता है। कोई दूसरी नौकरी नहीं मिली थी, इसे करने को। पूरे खानदान का नाक कटा दिया। हमने बडके भइया को समझाते हुए कहा था, चलो कोई बात नहीं। कोई धंधा छोटा—बड़ा नहीं होता। परेस ही तो करता है, कोई चोरी—चकारी तो नहीं करता।'
मेरे छोटे भाई ने बीच में कंधई काका की बात काट दी, ‘काका! परेस नहीं..प्रेस! भइया, पत्रकार हैं। राजधानी दिल्ली में। अखबार में नौकरी करते हैं।'
‘हां..हां..वही तो मैं भी बता रहा हूं सुकुल जी से। परेस में काम करता है..येहकर नाम बहुत छपत है अखबारों मा। सुकुल जी! बड़ा होनहार लरिका है यह हमरे गांव का। जब छोट रहा, तो बड़ा सरारती रहा। सुना है, अभी अखबार मा भी सरारत (शरारत) लिखता रहता है।'
काका की बात सुनकर मैं झेंप गया। मैं पांव छूने की रस्म अदा करके किनारे हट गया। छोटे भाई से पूछा, ‘माजरा क्या है?'
छोटा भाई कान में फुसफुसाया, ‘मनीष भइया के वीडीओ आए हैं।'
‘वीडीओ..क्या मतलब?'
‘आप समझे नहीं! वर देखुआ अधिकारी..।'
मैंने चारों ओर नजर दौड़ाई। दरवाजे के सामने गांव के ही चुन्नान बाबा का ट्रैक्टर खड़ा हुआ था। थोड़ी दूर पर ही नई रखी गई नांदों में दो भैंसें, एक गाय, चार बैल भूसा—पानी खा—पी रहे थे। मैं समझ गया कि कंधई काका वर देखुआ
अधिकारियों पर रौब डालने के लिए गांव भर से ट्रैक्टर, ट्राली, गाय—भैंस मंगनी पर लाए हैं।
मैंने कान लगाया। काका सामने बैठे अपने होने वाले समधी शुक्ल जी से कह रहे थे, ‘आप जानते हैं सुकुल जी! जब ई लरिकवा पढ़त रहा, तौ अपने इस्कूल मां फट्ट (फर्स्ट) आवा रहा। हमार मनीसवा तौ दसवीं कच्छा (कक्षा) मा बिलाऊजी मा सगरौ जिला टॉप किया रहा।'
काका की बात सुनकर मैंने अपने भाई की ओर निरीह भाव से देखा और धीरे से पूछा, ‘यह बिलाऊजी कौन सा सब्जेक्ट है दसवीं में। कोई नया सब्जेक्ट जोड़ा गया है?'
मेरी बात सुनकर मेरा छोटा भाई पहले तो झुंझलाया और फिर ठहाका लगाकर हंस पड़ा, ‘आप भी न भइया! इकदमै घोंचू हैं। बिलाऊजी मतलब बॉयलोजी..जीव विज्ञान।'
‘बिलाऊजी' का अर्थ समझते ही मेरी भी हंसी छूट गई। मैंने ध्यान दिया। कंधई काका कह रहे थे, ‘मनीसवा तो अबही सादी करने को तैयार ही नहीं है। अब आप आए हैं, तो हम मना नहीं कर सकते हैं। आप मनीसवा के मामा के साढू हैं। हम मना भी कर दें, तो मनीसवा की अम्मा नहीं मानेगी। लेकिन एक बात बताए दें, चार लाख नगदी लिए बिना तो हम यहां से हिलेंगे भी नहीं। हमरा मनीसवा इतना हुसियार है कि आज नहीं तो कल, आईएएस होइ ही जाई। अब अगर कहीं डीएम..फीएम लग गवा, तो मारे रुपये के ढेर लगा देगा। अब डीएम—कलक्टर दामाद चाहिए, तो पैसा खर्च करना ही पड़ेगा... कि नहीं? नगदी से ही मुझे मतलब है। लडिकवा चार पहिए की गाड़ी मांगत रहा। अगर दै देहो, तो उस पर हम दूनो परानी (दोनों लोग यानी मियां—बीवी) चढ़बै नहीं। घूमै—फिरै तो तोहार बिटिया—दामाद ही जाएंगे।'
यह बात हो ही रही थी कि अंदर से निकलकर मनीष बाहर आया। मुझे देखते ही उसने मेरा पांव छूते हुए पूछा, ‘भइया! आप कब आए? और सब ठीक है न!'
मैंने कहा, ‘हां मनीष! यह बताओ, इन दिनों तुम क्या कर रहे हो?'
मनीष ने तपाक से जोरदार आवाज में जवाब दिया, ‘आईएएस की तैयार कर रहा हूं न, भइया! पिछले दो साल से इलाहाबाद में रहकर कोचिंग कर रहा हूं। आप बप्पा को समझाइए न! अबही सादी—वादी के झंझट मा हमका न फंसावै। यू नो भइया! इन बातों से कंसंट्रेट डैमेज (उसके कहने का मतलब ध्यान भंग होने से था) होता है।'
उसकी बात सुनकर कंधई काका ने सुकुल जी को सुनाते हुए कहा, ‘अरे..ई मनीसवा..तौ एक बार डीएम साहब से अंगरेजी मां इतना बात किहिस कि वे भौंचक रह गए। डीएम साहब आए रहा गांव की पुलिया का उद्घाटन करै। ऊ कौनो सबद अंगरेजी मा गलत बोले। ई मनीसवा, वहीं खड़ा
रहा। इससे बर्दाश्त नहीं हुआ। टोक दिया डीएम साहब को। फिर क्या हुआ। दोनों लोग लगे अंगरेजी मा गिटिर—पिटिर करै। पूरा जवार तो मुंह बाए कभी मनीसवा को देखें, तो कभी डीएम साहब को। बाद मा जाते समय डीएम साहब बोले, ई लरिका बहुत आगे जाई। बड़ा तेज लरिका है। कहीं का डीएम—कलक्टर बनेगा।'
यह बात सुनकर शुक्ल जी ने अपने साथ आए लोगों को उठने का इशारा किया। उन्होंने थोड़ी देर आपस में विचार विमर्श किया और फिर कंधई काका से बोले, ‘हमें अपनी बेटी सुधन्या के लिए लडका पसंद है। लेकिन आप मांग बहुत रहे हैं। हम गाड़ी और गहना—गुरिया तो दे देंगे, लेकिन चार लाख बहुत हैं। तीन लाख पर मान जाइए, तो बात पक्की समझिए।'
काफी ना—नुकुर, मोल—तोल के बाद साढ़े तीन लाख पर बात फाइनल हो गई। उस शादी में मैं भी जोर देकर बुलाया गया। शादी में कंधई काका अपने समधी पर आईएएस का बाप होने का रौब झाड़ते रहे। समधियाने का कोई भी आदमी कुछ पूछता या कहता तो उसे डपट देते। धीरे—धीरे उनका व्यवहार सबके साथ यही होने लगा। कुछ महीने बाद जब मैं दोबारा गांव गया, तो अम्मा ने यों ही चर्चा होने पर बताया कि मनीस की बहुरिया जब विदा होकर आई, तो उसने अपनी सास, जेठानी और अन्य रिश्तेदार महिलाओं से सीधे मुंह बात नहीं की। कोई कुछ कहता, तो वह कहती कि मैं किसी से दबकर नहीं रहूंगी। उनको कलक्टर बनने दो, फिर यहां पांव भी नहीं धरूंगी। मेरे बच्चे सोने की थाली में खाना रखकर चांदी के चम्मच से खाएंगे। जो बहू पहले कोई बात दबी—जुबान से कहती थी, कुछ साल बाद वह गुर्राकर कहने लगी। कई बार तो उसने कंधई काका को भी किसी बात पर दुत्कार दिया। अम्मा ने यह भी बताया, उसके मायके वालों ने पहले से ही सिखा—पढ़ाकर भेजा था कि शादी में झउवा भर (माने ढेर सारा) रुपया दहेज दिया है, सो तुम्हें दबकर रहने की जरूरत नहीं है।
शादी के बाद कुछ साल तक तो मनीष आईएएस की तैयारी करते रहे। कभी इलाहाबाद, कभी लखनऊ, तो कभी कोटा तक कोचिंग संस्थानों की खाक छानते रहे। सुनने में आया कि पांच साल की तैयारी के बाद एक दो बार यूपीएससी की परीक्षा में भी बैठे, लेकिन रिजल्ट क्या रहा? यह मालूम नहीं चल सका। हां, उनके बप्पा यानी मेरे कंधई काका अपना हाड़—मांस गलाकर भी उनको रुपया भेजते रहे। पहले तो दहेज में से बचाए गए रुपये में से, बाद में अपनी कमाई से। उनके दूसरे बच्चे पीठ पीछे कंधई काका को खूब गालियां देते रहते थे। कुछ साल बाद एक दफा लखनऊ में मनीष से मुलाकात हुई, तो उसकी आईएएस की तैयारी के बारे में जिज्ञासावश पूछ लिया, उसने नजरें चुराते हुए कहा, ‘बस भइया..इस बार काफी जोर—शोर से तैयारी की है। इस बार निकल जाने की पूरी उम्मीद है। वैसे भी यह आखिरी चांस है। सब कुछ तो अच्छा ही करके आता हूं, पर पता नहीं कहां किस्मत अटक जाती है।'
जैसे—जैसे मनीष की उम्र बढ़ती गई, वह समझौतावादी होता गया। आईएएस बनने की संभावना क्षीण होते ही वह किसी सरकारी विभाग में क्लर्की की उम्मीद में परीक्षाएं देने लगा। वहां भी उसकी किस्मत ने साथ नहीं दिया। आजकल तो सुना है, मनीष किसी प्राइवेट स्कूल में प्राइमरी कक्षा के बच्चों को पढ़ाकर भावी आईएएस तैयार कर रहे हैं।