पराभव
मधुदीप
भाग - अठारह
"आज किसके लिए पकवान बना रही हो?" रसोई के सामने खड़े होकर श्रद्धा बाबू ने नशे के कारण अपनी लड़खड़ाती आवाज में कहा |
"आपके लिए!" किसी विवाद से बचने के लिए मनोरमा ने हल्की-सी मुसकान के साथ कहा |
"मेरे लिए कभी तुमने पकवान बनाए हैं क्या?" विवाद करने वाला झगड़े का कोई न कोई कारण खोज ही लेते है, "हरामजादी, क्या इस घर में भी तेरे यार आने लगे |" श्रद्धा बाबू ने चीख कर कहा |
"क्या बकते हो, जरा धीरे बोलो |" क्रोध को अन्दर ही अन्दर पीते हुए भी मनोरमा कह गई |
"मैं बकता हूँ?" अपने यारों को घर में बुलाती है | उनके लिए पकवान बनते हैं और मैं बकता हूँ | बता आज कौन आने वाला है, नहीं तो मैं तेरा खून पी जाऊँगा |" क्रोध से उबलते हुए श्रद्धा बाबू ने कहा |
"जरा धीरे बोलो, आपका दोस्त आया है |" मनोरमा ने दबी आवाज में कहा | वह शर्म से गड़ी जा रही थी कि बराबर के कमरे में लेटा रंजन सब कुछ सुनेगा तो क्या सोचेगा |
"अच्छा, तुम्हारा दोस्त आया है |" व्यंग्य से श्रद्धा बाबू ने कहा, "दोस्त क्यों, उसे यार क्यों नहीं कहती?"
"भगवान के लिए चुप हो जाओ, वह सुनेगा तो क्या सोचेगा | मैं आपके सामने हाथ जोड़ती हूँ |" खौलते हुए तेल की कढ़ाही चूल्हे से उतारते हुए उसने कहा |
"अपने घर में ही मैं चुप रहूँ, क्यों? मैं चिल्लाऊँगा, मुझे कोई नहीं रोक सकता |"
"तो चिल्लाओ |" खीजकर मनोरमा ने भी क्रोध से कहा |
"चिल्लाऊँ...|" पत्नी की तेज आवाज सुनकर उसका क्रोध और भी अधिक भड़क उठा | क्रोध से काँपते हुए उसने पास रखी कुत्ते भगाने वाली छड़ी को उठा लिया |
"आज मैं तेरी चमड़ी उधेड़ दूँगा |" पत्नी को छड़ी मारने के लिए हाथ उठाते, हुए उसने कहा |
"नहीं श्रद्धा बाबू, इससे नहीं-यह लो, इससे मारो |" कमरे में से निकलकर आते हुए रंजन ने एक लाठी उसके हाथ में देते हुए कहा | कमरे में लेटे हुए उसकी आँख लग गई थी मगर कमरे के बाहर शोर-गुल सुनकर वह जाग गया | उसने सब कुछ सुन लिया था | बहुत कुछ सहन किया था उसने | अपने प्रति अपमान को भी वह सहन कर गया था मगर श्रद्धा बाबू को मनोरमा पर हाथ उठाते देखकर वह स्वयं पर संयम न रख सका |
"रंजन तुम!" रंजन को सामने देखकर श्रद्धा बाबू का सारा नशा आश्चर्य से हवा हो गया |
"हाँ, श्रद्धा बाबू! मैं ही हूँ भाभी का यार | उस अकेली को क्यों मारते हो, मुझे भी मारो |"
"रंजन, क्या तुम मेरा अपमान करने के लिए ही यहाँ आए हो?" श्रद्धा बाबू का स्वर मन्द पड़ गया |
"जब यहाँ आया था तो आपमें पहले जैसी ही श्रद्धा थी | जो कुछ सुना, उस पर विश्वास भी नहीं आया था लेकिन जो सामने देख रहा हूँ, उससे कैसे आँखें बन्द करूँ?" आपको कैसा सम्मान दूँ, यह मेरी समझ में नहीं आता |" रंजन कह उठा |
"यह मेरा व्यक्तिगत मामला है रंजन, तुम इसके बिच में न पड़ो |" श्रद्धा बाबू ने स्वयं को बचाते हुए कहा |
"बहुत स्वार्थी हो गए हो?"
"स्वार्थी...?"
"हाँ स्वार्थी! जिस समाज निर्माण के लिए आपने अपनी सुख-सुविधाओं को त्यागा, जिस समाज के आप आदर्श थे, उसी समाज के सामने बहुत बड़ा आदर्श पेश कर रहे हो?"
"इस समाज ने ही तो मुझे यह सब कुछ सिखाया है |"
"नहीं श्रद्धा बाबू | समाज ने तुम्हें कुछ नहीं सिखाया | तुम स्वयं ही अपने आदर्शों से कुचले गए हो |" रंजन श्रद्धा बाबू को और अधिक ‘आप’ का सम्बोधन न दे सका, "तुमने महान् बनने के लिए ही यह सब कुछ किया था लेकिन आज अपना आदर्श ही तुमसे सहन नहीं हो रहा है | जब साहस नहीं था तो इतना ऊँचा आदर्श अपनाया था?" रंजन ने व्यंग्य से कहा |
"मुझे क्रोध न दिलाओ रंजन, अन्यथा अनर्थ हो जाएगा |" श्रद्धा बाबू ने धमकी भरे शब्दों में कहा |
"अनर्थ तो हो रहा है श्रद्धा बाबू | अगर इससे भी बढ़कर कोई अनर्थ तुम कर सकते हो तो वह भी मैं देख लेना चाहता हूँ |"
"तुम सब ने मिलकर मुझे ठगा है, मुझे बर्बाद कर दिया है |"
"लेकिन यह बर्बादी चाही किसने थी? किसके कहने से यह सब कुछ हुआ था? केवल तुम्हारे लिए ही हमने अपने संस्कारों और सम्बन्धों को तोड़ा था श्रद्धा बाबू और आज तुम यह कह रहे हो कि हमने तुम्हें ठगा है |"
रंजन क्रोध से कहता जा रहा था | श्रद्धा बाबू उसकी बातों से स्वयं को पराजित महसूस कर रहा था | वह उससे तर्क नहीं कर सकता था क्योंकि तर्क करने के लिए सच्चाई की आवश्यकता होती है और वह तो सचमुच ही अपनी राह से भटक गया था | हारे हुए जुआरी की भाँती वह बौखला गया |
"रंजन, तुम चले जाओ! तुम सबने मुझे दोषी समझा है | ठीक है, मैं दोषी हूँ, पापी हूँ, निष्ठुर हूँ, मुझमें सभी दोष हैं, मगर तुम यहाँ से चले जाओ |" श्रद्धा बाबू ने बौखलाहट में कहा |
रंजन उसकी बात सुनकर भी वहीँ स्थिर खड़ा था |
"चले जाओ रंजन, नहीं तो मैं तुम्हें...|"
"धक्के मारकर निकाल दोगे?" निकाल दो, मैं दोस्ती का यह व्यवहार भी देख लेना चाहता हूँ | लेकिन कान खोलकर सुन लो, भाभी और मुन्ना मेरे साथ जाएँगे |"
"क्यों नहीं, तुम्हारा हक भी तो बनता है | ले जाओ, अवश्य ले जाओ |" कहते हुए श्रद्धा बाबू बाहर निकल गया | रंजन ने उसे रोकना चाहा लेकिन वह रोक नहीं पाया तो वहीँ खड़ा स्थिर दृष्टि से उसे जाते हुए देखता रहा |
"जाने दो रंजन भैया, इस वक्त वे किसी की नहीं सुनेंगे | उनकी बात का बुरा न मानना, क्योंकि इस समय उनके स्थान पर शराब उनके मुँह से बोल रही थी |" मनोरमा ने रसोई से बाहर आते हुए कहा |
"भाभी, मुझे श्रद्धा बाबू से यह आशा न थी |" रंजन कह उठा |
"मैंने सोचा था कि शायद आपकी बात मान लें, इसीलिए तुम्हें बुलाया था | तुम्हें भी व्यर्थ ही कष्ट दिया भैया!"
"तुम मुन्ना को लेकर कुछ दिनों के लिए मेरे साथ शहर चलो भाभी |"
"नहीं भैया, दुल्हन बनकर इस घर में आई थी, अब तो मौत ही मुझे इस घर से निकाल सकती है | अब तो इन्हीं के साथ जीना और मरना है |"
"लेकिन यह एक दिन तुम्हें जिन्दा मार देगा भाभी |"
"जिन्दा तो मैं अब भी नहीं हूँ रंजन | पति के हाथों इस शरीर का अन्त हो जाए तो अच्छा है |"
"भाभी, तुम किस चमड़ी की बनी हो जो चुपचाप यह अत्याचार सहन कर रही हो |"
"हम स्त्रियों में चमड़ी की एक पर्त ऐसी अवश्य होती है भैया!" मनोरमा ने शान्त स्वर में कहा |
"तुम महान् हो भाभी!" रंजन कह उठा |
"चलो खाना खा लो, ठण्डा हो रहा है |"
"नहीं भाभी, खाने का बिलकुल मन नहीं है | बस, मुझे जाने दो | मुझे दुख है भाभी कि मैं तुम्हारे किसी काम न आ सका |"
"तुम बिना खाना खाए चले जाओगे तो मैं समझूँगी, तुम अपनी भाभी से नाराज होकर जा रहे हो |"
"ऐसा कभी न सोचना भाभी! मैं तुमसे नाराज कैसे हो सकता हूँ |"
"तो चलो, खाना खा लो |"
"जिद करती हो तो डाल दो भाभी |" कहते हुए वह मनोरमा के साथ ही रसोई में चला गया |
खाना खाते हुए रंजन ऐसा अनुभव कर रहा था जैसे कि आज की घटना के लिए वह ही पूरी तरह से उत्तरदायी हो | किसी तरह उसने थोड़ा-सा खाना खाया और हाथ धोकर उठ खड़ा हुआ |
रंजन वापस जा रहा था | मनोरमा रसोई से उठकर उसे विदा करने के लिए बाहर आ गई |
"मुझे आज्ञा दो भाभी | कभी आवश्यकता हो तो याद कर लेना, तुम्हारे किसी काम आकर मुझे खुशी होगी भाभी!" कहते हुए रंजन मनोरमा के पाँवों में झुक गया |
"अरे...अरे...यह क्या कर रहे हो रंजन भैया!" आश्चर्य से मनोरमा ने पीछे हटते हुए कहा |
"न जाने फिर कब इन चरणों की धूल मिल पाएगी भाभी |" रंजन की आँखों से दो बूँदों ने टपककर मनोरमा के पाँव धो दिए |
"जा रहे हो अंकल!" बाहर से खेलकर आते हुए कृष्ण ने कहा |
"हाँ बेटा!" रंजन उसे गोद में लेकर प्यार से कह उठा | उसका दिल उसे देखकर भर आया था | कलेजे में एक हुक-सी उठ रही थी | उसने मुन्ना को अपनी गोद में भींच लिया |
कुछ क्षण को वह मुन्ना को स्वयं से चिपटाए यूँ ही खड़ा रहा | बाप का प्यार जोर मार रहा था | मुन्ना को गोद से उतारने की इच्छा नहीं हो रही थी | मन चाह रहा था कि वह उसे लेकर भाग जाए |
लेकिन उसे तो अकेले ही जाना था | मुन्ना पर अब उसका कुछ भी तो अधिकार नहीं था | अपने आँसुओं को बरबस रोकते हुए उसने उसे गोद से उतार दिया |
"अच्छा भाभी |" मुन्ना के हाथ में दस रूपए का एक नोट देते हुए रंजन जाने के लिए मुड़ गया |
"यह थी नहीं है भैया!" मनोरमा कह उठी |
"भाभी, मुन्ना पर मेरा क्या इतना भी हक नहीं है!" बिना मुँह फिराए रंजन ने कहा और जाने के लिए पाँव आगे बढ़ा दिए |
मनोरमा वही खड़ी, ठगी-सी उसे जाते हुए देखती रही |