पराभव - भाग 3 Madhudeep द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

पराभव - भाग 3

पराभव

मधुदीप

भाग - तीन

श्रद्धा बाबू की स्वीकृति लेकर उसकी माँ मास्टर जसवन्त सिंह के पास चल दी | मास्टरजी को क्या देरी थी, उन्होंने उसी समय पण्डित बुलाकर अगले माह में ही विवाह का मुहूर्त निकलवा लिया |

दोनों ओर से विवाह की तैयारियाँ होने लगीं | यधपि मास्टरजी विवाह में लेन-देन के पक्ष में नहीं थे तो भी वे अपनी हैसियत के अनुसार बेटी को सब कुछ दे देना चाहते थे | विवाह से बीस दिन पूर्व वे मनोरमा को लेकर अपने गाँव चले गए थे | वे अपनी बेटी का विवाह अपने पूर्वजों के घर से ही करना चाहते थे |

इधर श्रद्धा बाबू की माँ अपने बेटे का विवाह बड़ी धूमधाम से करना चाहती थी | श्रद्धा बाबू इसे अनुचित समझता था | वह विवाह में व्यर्थ के दिखावे को पसन्द नहीं करता था | वह आर्य समाज के विचारों का समर्थक एवं पालक था और इसी कारण बड़े ही सादे ढंग से विवाह करना चाहता था | इसी बात को लेकर माँ-बेटे में कई बार विवाद हो जाता था | जहाँ तक माँ की समझ में आता वह स्वीकार कर लेती मगर कई बातों के लिए पूर्णरूप से श्रद्धा बाबू को ही झुकना पड़ता था | वह भी विवश था, माँ की ह्रदय को ठेस पहुँचाना उसके वश में न था |

मनोरम इस विवाह से बहुत प्रसन्न थी | बचपन से ही उसने श्रद्धा बाबू जैसे आदर्श पति की कल्पना की थी | इन चार-पाँच वार्षों में और विशेष रूप से विद्यालय में साथ काम करते हुए तीन वार्षों में उसने श्रद्धा बाबू को काफी निकट से जाना और पहचाना था | वह अपने पिता द्वारा किए गए निर्णय से भी अनजान नहीं थी | साथ काम करते हुए उसने कई बार श्रद्धा बाबू पर अपने प्यार को मुखर करना चाहा, मगर लज्जा और संकोचवश कभी ऐसा न कर सकी |

इधर श्रद्धा बाबू ने भी अपने ह्रदय में जिस आदर्श पत्नी की कल्पना सँजो रखी थी, यदि उसमें कभी वह रंग भरने का प्रयास करता तो मनोरमा का ही चित्र उभरता | मनोरमा के सौन्दर्य में एक ऐसा आकर्षण था जो देखनेवाले को एक पल अपनी ओर देखते रहने को विवश कर देता था | भोला, लजाया हुआ सुन्दर मुख और उस पर अपने में सागर की गंहनता समेटे दो नयन कुछ न कहकर भी श्रद्धा बाबू से कई बार बहुत कुछ कह चुके थे | इतने दिनों तक साथ रहकर उसने मनोरमा को मानसिक स्तर पर भी अच्छी तरह जाना परखा था | उसने सदा ही अपने दोनों के विचारों में समानता पाई थी | उसे पूरी तरह विश्वास था कि मनोरमा जैसी लड़की समय पड़ने पर अपने पति की विकास के लिए अपना सर्वस्व त्यागने से भी नहीं हिचकेगी | श्रद्धा बाबू के मन में मनोरमा को पत्नी रूप में स्वीकार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं थी, अपितु वह तो उसको पत्नी रूप में प्राप्त करके प्रसन्न था |

विवाह का दिन भी आ पहुँचा | श्रद्धा बाबू सिर्फ ग्यारह व्यक्तियों को साथ लिए मास्टरजी के गाँव में सादगीपूर्ण ढंग से विवाह रचाने को पहुँच गया | गाँव के आर्य समाज भवन में उन दोनों का विवाह आर्य समाज पद्धति से सम्पन्न हुआ | मास्टरजी के साथ-साथ उसे गाँव के अन्य गण्यमान्य व्यक्तियों ने वर-वधु को आशीर्वाद दिया | मास्टरजी ने अपनी हैसियत से बढ़कर बेटी को विवाह में सामान दिया था | श्रद्धा बाबू तो मनोरमा को सिर्फ पहने हुए कपड़ों में ही विवाह करके ले जाना चाहता था परन्तु मास्टरजी की भावना और आग्रह के समक्ष वह कुछ न कह सका |

पलंग पर बैठी दुल्हिन मनोरमा अपने पति की प्रतीक्षा कर रही थी | पूरे दिन वह श्रद्धा बाबू की एक झलक देखने की लालसा अपने ह्रदय में समेटे रही थी | वह इस गाँव और यहाँ रहनेवालों से अनजान न थी, फिर भी पूरे दिन गाँव की स्त्रियाँ आ-आकर मुँह देखने की रस्म पूरी करती रही थीं | जिस किसी ने भी अब उसे दुल्हिन के श्रुंगार में सजा देखा, वह श्रद्धा बाबू के भाग्य को सराहे बिना न रह सकी |

पलंग के चारों ओर लगे खुबसूरत फूलों की सुगन्ध से सारा कमरा महक रहा था | रात्रि का प्रथम प्रहर प्रतीक्षा में व्यतीत हो चुका था | मनोरमा की अलसाई आँखें पलंग पर झुकी हुई थीं मगर कान द्वार पर सम्भावित आहट की ओर लगे थे | दीवार पर लगे घंटे ने टन-टनाकर उसकी तन्द्रा भंग की | ग्यारह बज रहे थे | श्रद्धा बाबू उसके लिए अपरिचित न थे मगर आज उसी की प्रतीक्षा में उसका ह्रदय न जाने क्यों खुशी और घबराहट से धड़क रहा था |

द्वार पर हुई हल्की-सी थपथपाहट से मनोरमा चौंकी | उसकी प्रतीक्षा की घड़ियाँ समाप्त हो रही थीं | वह पलंग से उतरकर पास ही सिमटकर खड़ी हो गई | द्वार खुलने और बन्द होने की आहट से भी उसकी दृष्टि उधर न उठी | अपनी ओर आती पदचाप को उसने बिना दृष्टि उठाए ही पहचान लिया था | पदचाप उसके समीप आकर रुक गई | वह और अधिक सकुचा गई और इसी सकुचाहट में उसके हाथों ने घूँघट को और अधिक लम्बा खिंच लिया |

टक...टक...टक...दोनों के मध्य फैलते मौन को घंटे की आवाज भंग कर रही थी | श्रद्धा बाबू आज अनजान बनी मनोरमा को मौन खड़ा अपलक ताक रहा था |

"मनोरमा...|" तनिक और पास आते हुए श्रद्धा बाबू ने मौन तोड़ा |

प्रत्युत्तर में मनोरमा मौन ही रही | उसे अपने सारे शरीर में कम्पन-सा अनुभव हो रहा था |

"मनोरमा, कैसा लग रहा है तुम्हें?" श्रद्धा बाबू ने उसके कन्धे पर हल्का-सा स्पर्श देते हुए कहा | मनोरमा एक बार फिर काँपकर रह गई और उसकी यह कंपकंपाहट श्रद्धा बाबू से भी छिपी न रह सकी |

"मनोरमा, तुम्हें अच्छा नहीं लगा क्या?"

इस बार वह स्वयं को रोक न पाई और बिना कुछ बोले एक झटके के साथ उसके पाँवों में झुक गई |

श्रद्धा बाबू ने झुककर उसे अपने पाँवों से अलग कर उठाना चाहा मगर वह उसे वहाँ से उठा न पाया |

"उठो मनोरमा!" उसने बड़ी कठिनाई से दोनों हाथों से पकड़कर उसे उठाया और अपने वक्ष से लगा लिया | मनोरमा का लजाया हुआ मुख उसके चौड़े वक्ष में छुपा हुआ था और वह प्यार से उसकी पीठ सहला रहा था |

स्वयं से तनिक अलग करते हुए श्रद्धा बाबू ने मनोरमा का घूँघट हटाया तो उसकी पलकों में ठहरे दो आँसुओं को देखकर चकित रह गया |

"तुम्हारी आँखों में आँसू! क्या बात है मनोरमा?" वह कह उठा |

"कुछ नहीं, ऐसे ही |" हल्का-सा स्वर उभरा | दृष्टि नीचे जमीन से चिपक गई |

"कोई बात तो अवश्य है मनोरमा! बिना किसी बात के आँसू नहीं आते | तुम्हें कोई दुख हुआ है क्या?"

"इसके विपरीत भी तो हो सकता है |" कहते हुए मनोरमा ने एकबार फिर अपना मुख उसके मजबूत वक्ष में छिपा लिया |

"मैं तो घबरा ही गया था मनोरमा कि कहीं...|"

"आप ऐसा क्यों सोचते हैं स्वामी |" श्रद्धा बाबू की बात बीच में ही काटते हुए हल्का परन्तु मधुर स्वर उभरा |

"यहाँ बैठो |" श्रद्धा बाबू ने उसे बाँहों से थामकर पलंग पर बैठा दिया | ट्यूबलाईट के तीव्र प्रकाश को हल्की हरी रोशनी में परिवर्तित कर वह स्वयं भी पास आ बैठा |

"आराम से बैठो मनोरमा |" कहते हुए वह स्वयं अधलेटा-सा बैठ गया | मनोरमा भी अपने पाँव ऊपर कर पलंग पर बिछी चादर की कढ़ाई में उलझ गई |

संकोच की दिवार ढहती जा रही थी | कुछ देर के लिए अनजान बने दो व्यक्ति धीरे-धीरे पास आते जा रहे थे |

एक विचित्र-सा मौन दोनों के मध्य फैलता जा रहा था | बिना कुछ बोले भी जैसे दोनों एक-दुसरे की अनकही बात को समझ रहे थे, परन्तु फिर भी दोनों एक-दुसरे के बोलने की प्रतीक्षा कर रहे थे | श्रद्धा बाबू स्वयं न जाने किन विचारों में खोया हुआ था | शायद वह उलझन में था कि क्या कहे! कुछ देर यूँ ही शान्ति छाई रही, मगर मौन की इस लम्बी फैलती चादर को मनोरमा अधिक सहन न कर पाई और सकुचाते हुए बोली, "क्या सोच रहे हो?"

"कुछ नहीं|" श्रद्धा बाबू का भी ध्यान टूटा |

"कुछ तो अवश्य सोच रहे थे?"

"सोच रहा था कि देखें पहले कौन बोलता है |" कहते हुए वह खिलखिलाकर हँस पड़ा |

मनोरमा भी अपनी दबी हँसी को न रोक सकी और उसके मुख पर मुसकान फैल गई |

"तुम क्या सोच रही थीं?" मुसकराते हुए श्रद्धा बाबू ने कहा |

"मैं..."कुछ सोचते हुए मनोरमा बोली, "एक बात सोच रही थी |"

"क्या?"

"एक बात बताओगे?"

"पूछो!"

"सच बताओगे?" मनोरमा कह उठी |

"मैं झूठ बोलूँगा...ऐसा क्यों सोचती हो?" प्रत्युत्तर में श्रद्धा बाबू ने कहा |

"आप शादी से बार-बार मना क्यों करते थे?" संकोच से उसने कहा |

"बस, यही सोच रही थी?" हँसते हुए श्रद्धा बाबू ने कहा |

"मैं आपको पसन्द न थी?"

"ऐसा न सोचो मनोरमा! मैं तो तुम्हें बहुत पहले से ही पत्नी रूप में स्वीकार कर चुका था |"

"फिर...|"

"मेरा विचार कुछ ठहरकर विवाह करने का था |"

"सच...|"

"आज की रात अविश्वास की नहीं होती मनोरमा |" श्रद्धा बाबू ने उसकी झुकी दृष्टि को अपनी उँगली से ऊपर उठाते हुए कहा, "मेरी आँखों में तुम्हें अपना विश्वास मिलेगा मनोरमा |"

बातों का सिलसिला देर तक चलता रहा | दोनों ही पिछली कई रातों से नहीं सो पाए थे, मगर आज की रात भी दोनों की आँखों से नींद उड़ चुकी थी | रात्रि ढलती रही और दोनों एक-दुसरे के अंतस् से परिचित होते गए |