पराभव - भाग 4 Madhudeep द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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पराभव - भाग 4

पराभव

मधुदीप

भाग - चार

रविवार का अवकाश था तो भी मास्टर जसवन्त सिंह जी और श्रद्धा बाबू विद्यालय के कार्यालय में बैठे हुए बातें कर रहे थे | स्टाफ का कोई अन्य अध्यापक या अध्यापिका वहाँ उपस्थित न थी | विद्यालय की बातों से हटकर बातों का प्रवाह व्यक्तिगत जीवन पर आ गया था |

"श्रद्धा बेटे, मनोरमा के विवाह के उपरान्त एक बड़ा बोझ मेरे सिर से उतर गया है | जीवन में यही एक इच्छा थी कि बेटी को उपयुक्त वर के हाथों में सौंपकर उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाऊँ | भगवान ने मेरी सुन ली जो मनोरमा को तुम जैसा पति मिला | अब मैं अपने गाँव लौटकर जीवन के शेष दिन वहीँ व्यतीत करना चाहता हूँ |" बातचीत के मध्य मास्टरजी कह रहे थे |

"आपके अभाव में मेरा मार्गदर्शन कौन करेगा गुरूजी!" श्रद्धा बाबू उनके जाने की बात सुनकर चौंका तो नहीं था फिर भी कुछ उदास अवश्य हो गया था |

"अब तुन्हें किसी मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं रही बेटे | तम्हारे अपने पाँव राह पर बढ़ने में सक्षम हैं और तुम्हारे विचारों की सशक्तता तुम्हें राह खोजने में सहायक होगी | मुझे अच्छी तरह विश्वास है कि जो पौधा हमने लगाया है वह तुम्हारी देखभाल में पूर्ण रूप से उन्नति करेगा |"

"अभी कुछ समय और ठहर जाते तो अच्छा था गुरूजी |"

"तुम्हें स्वयं पर विश्वास नहीं है क्या श्रद्धा बेटे?"

"ऐसी बात नहीं है गुरूजी |"

"बेटे, जिस गाँव में लड़की का विवाह किया हो उसमें मेरा रहना शोभा नहीं देता |"

"ये बहुत पुरानी बातें है गुरूजी | क्या आप भी इन्हें मान्यता देते हैं?"

"जीवन में बहुत-सी पुरानी कड़ियों को तोड़ा है श्रद्धा बेटे, लेकिन पला तो मैं भी उन्हीं संस्कारों में हूँ | वैसे भी पुरानी सभी बातें बुरी नहीं होतीं |" मास्टर जसवन्त सिंह ने उसे समझाते हुए कहा |

"आप हमसे किसी बात पर रुष्ट होकर तो नहीं जा रहे हैं गुरूजी?" श्रद्धा बाबू ने मन में उभरी शंका को व्यक्त कर दिया |

"नहीं बेटे, माँ-बाप कभी अपने बच्चों से रुष्ट नहीं होते | तुम कभी ऐसा विचार भी फिर अपने मन में न लाना | अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ | काम तुम नौजवानों के लिए है...मुझे अब प्रभु का भजन करना है | गाँव में जमीन है, गुजारे के लिए वहाँ से उत्पन्न हो ही जाता है | दो कार्यों के लिए मैं यहाँ रुका था-विद्यालय की नींव पक्की करने और मनोरमा की शादी करने के लिए | प्रभु की कृपा से दोनों ही कार्य अब सम्पन्न हो गए हैं |" कहकर मास्टरजी चुप हो गए |

कुछ देर के लिए कमरे में मौन छाया रहा | दोनों ही अपने-अपने विचारों में खोए हुए थे |

तभी मास्टरजी को एक विचार आया और उन्होंने श्रद्धा बाबू से पूछा, "बेटा, शादी को दो मास बीत चुके हैं | अब तुम्हारा क्या विचार है-मनोरमा से विद्यालय में कार्य करवाओगे या नहीं?"

"मैं अपना विचार उस पर लादूँगा नहीं गुरूजी | जैसा वह चाहेगी, मेरी ओर से उसे पूर्ण स्वतन्त्रता रहेगी |"

"मेरी इस विषय में उससे बात हुई थी बेटा | उसने कहा था कि जैसा तुम चाहोगे, वह वैसा ही करेगी |"

"मेरी इच्छा तो यह है कि घर पर ही कम करे | माँ की स्थिति ऐसी नहीं है कि वह घर का काम कर सके |"

"मैं स्वयं भी स्त्रियों के नौकरी करने के पक्ष में विशेष नहीं हूँ | उसका पढ़ा-लिखा होना तो इसलिए आवश्यक है कि वह घर को सुचारू ढंग से सम्भाल सके | वैसे आजकल को पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ घर सम्भालने की अपेक्षा नौकरी करना अधिक पसन्द करती हैं |"

"वे शायद इस तरह से स्वयं को अधिक स्वतन्त्र अनुभव करती हैं |"

"यह उनका भ्रम है बेटा | यह उनकी स्वतन्त्रता नहीं अपितु उस पर अत्याचार है | उन्हें घर का और नौकरी का दोहरा बोझ सहन करना होता है | हमारे शास्त्रों में भी स्त्री को घर का पूर्ण दायित्व सम्भालने की शिक्षा दी गई है |"

"हमारे देश की स्थिति भी स्त्रियों के रोजगार के पक्ष में नहीं है | बेरोजगारी की समस्या को हम अभी तक हल नहीं कर पाए हैं | कितने ही नौजवान नौकरी की खोज में भटक रहे हैं | यदि स्त्रियों के स्थान पर उन्हें रोजगार दिया जाए तो उनकी बेरोजगारी की समस्या का किसी सीमा तक समाधान हो सकता है | मेरा विचार तो यह है कि किसी परिवार की आर्थिक कठिनाई को देखते हुए विशेष परिस्थिति में ही स्त्रियों को नौकरी दी जानी चाहिए |"

"हाँ बेटे, यदि पुरुष कमाता हो और स्त्री घर को सम्भाले तो ही परिवार की खुशियाँ सही अर्थों में स्थिर रह सकती हैं |"

दोनों के ही विचार इस विषय में एक थे | यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि श्रद्धा बाबू पर तो मास्टरजी के विचारों का बहुत अधिक प्रभाव था |

"आप गाँव कब जा रहे हैं?" श्रद्धा बाबू ने पूछा |

"आज रविवार है, सोचता हूँ कि मंगलवार को यहाँ से चल दूँ |"

"क्या इसी मंगलवार को?"

"हाँ, देर करने का कोई कारण भी नहीं हैं |"

"जैसी आपकी इच्छा |" श्रद्धा बाबू ने कहा और इसके साथ ही दोनों वहाँ से उठकर अपने घरों की ओर चल दिए |

मंगलवार प्रातः के सात बजे | गाँव के बहुत से स्त्री-पुरुष, बच्चे, बूढ़े, स्टेशन पर मास्टरजी को विदा करने के लिए एकत्रित थे | मास्टरजी उन सबके मध्य घिरे प्लेटफार्म पर गाड़ी आने की प्रतीक्षा कर रहे थे | श्रद्धा बाबू और मनोरमा विद्यालय के अन्य अध्यापक-अध्यापिकाओं और छात्र-छात्राओं के साथ वहाँ उपस्थित थे |

आज से लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व जब मास्टर जसवन्त सिंह जी इस गाँव में आए थे, उस समय उन्होंने सोच भी न था कि गाँव से उनका इतना अधिक मोह जुड़ जाएगा | आज इस गाँव से जाते हुए उन्हें ऐसा लग रहा थे, जैसे वह अपना गाँव और अपने लोग छोड़कर कहीं अन्यत्र जा रहे हों |

मास्टरजी गाँव के सभी व्यक्तियों से भाव-भरी विदाई ले रहे थे | उनका ह्रदय भरा हुआ था | आँखों से आँसू बहने को थे, मगर उन्हें जाते हुए सन्तोष था कि वह अपने जीवन का कर्तव्य भली प्रकार निबाहकर जा रहे हैं |

सारे प्लेटफार्म को हिलाती हुई गाड़ी वहाँ आकर खड़ी हो गई | मनोरमा ने पिता के चरण छुए | मास्टरजी ने उसे ह्रदय से लगाकर आशीर्वाद दिया |

"बेटी, जो विश्वास और प्यार मुझे इस गाँव से मिला है उसकी मर्यादा का पालन करना | अपना कर्तव्य हमेशा याद रखना...बस...|" गाड़ी की ओर मुड़ते हुए मास्टरजी ने अपनी आँखों में आए आँसुओं को पोंछ लिया और वे डिब्बे में चढ़ गए |

गाड़ी की सीटी के साथ ही गार्ड ने झण्डी दिखाई तो गाड़ी चल पड़ी | समय के साथ-साथ उसकी गति बढ़ती गई और स्टेशन पीछे छूटता गया |