पराभव - भाग 17 Madhudeep द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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पराभव - भाग 17

पराभव

मधुदीप

भाग - सत्रह

मनोरमा चारों ओर से निराश हो चुकी थी | हारकर उसने शहर से रंजन को बुलाने के लिए पत्र लिखा था | रंजन को इस गाँव में आए चार वर्ष से भी अधिक समय हो गया था | मनोरमा के साथ सम्बन्ध स्थापित करने के बाद वह स्वयं भी अपने को दोषी अनुभव करने लगा था | मित्रता के कारण वह श्रद्धा बाबू की बात को ठुकरा नहीं सका था मगर अपने संस्कारों के कारण वह अपने आपको पतित महसूस करने लगा था | थोड़े दिन बाद ही जब उसका ट्रांसफर एक दूर के शहर में हो गया तो उसने वहाँ जाकर एक चैन की साँस ली थी | दूसरे शहर में जाकर सिर्फ पत्रों का ही सम्बन्ध रह गया था और धीरे-धीरे वह भी दोनों तरफ से समाप्त-सा हो गया था | अभी दो महीने पूर्व ही वह फिर इस शहर में वापस लौट कर आया था | इस बिच उसने कई बार गाँव आकर उनसे मिलने की सोची मगर आने का साहस न जुटा सका | वह शायद गाँव आने के लिए स्वयं को तैयार भी न कर पाता मगर इसी मध्य मनोरमा का पत्र पाकर वह स्वयं को रोक नहीं सका |

प्रातः के ग्यारह बज रहे थे | मनोरमा कृष्ण को नहाने के बाद उसे कपड़े पहना रही थी कि दरवाजे पर थपथपाहट सुनकर वह दरवाजा खोलने के लिए चल दी |

"आप...!" रंजन को सामने खड़ा देखकर वह आश्चर्य से कह उठी |

"नमस्ते भाभी!"

"आओ, अन्दर आ जाओ |" कहती हुई मनोरमा अन्दर जाने को मुड़ी तो रंजन उसके पीछे हो लिया |

"अंकल को नमस्ते करो बेटा!" उसने कृष्ण को कहा तो कृष्ण ने रंजन के सामने अपने दोनों हाथ जोड़ दिए और बाहर निकल गया |

रंजन मनोरमा को ध्यान से देख रहा था | चार वर्ष पूर्व वाली मनोरमा उसे कहीं दिखाई नहीं दे रही थी |

"तुम तो एकदम बदल गई हो भाभी |" आखिर रंजन कह ही उठा |

मनोरमा ने एक पल रंजन को दृष्टि उठाकर देखा मगर तत्काल ही उसकी आँखें झुक गईं |

"मनुष्य प्रति क्षण बदलता रहता है भैया!" वह सिर्फ इतना ही कह सकी |

मनोरमा के मुख से अपने लिए भैया का सम्बोधन सुनकर रंजन को अजीब-सा लगा मगर दूसरे पल ही उसने स्वयं को मनोरमा के और भी अधिक समीप महसूस किया |

"यह बदलना तो नहीं है भाभी, यह तो बिगड़ना है | तुम्हें यह हो क्या गया है?" कमरे में पड़ी कुर्सी पर बैठते हुए रंजन ने कहा |

"बदलने में कोई बनता है तो कोई बिगड़ता भी है | अपने भाग्य में यही लिखा था भैया |" मनोरमा ने कहते हुए गहरी साँस ली |

रंजन बातों को अधिक बोझिल नहीं बनाना चाहता था इसलिए बात को बदलते हुए उसने कहा, "श्रद्धा बाबू कहाँ गए हैं? आज तो रविवार है, घर पर ही होने चाहिए थे |"

"बाजार तक गए हैं |" मनोरमा स्वयं भी नहीं जानती थी कि उसका पति कहाँ होगा मगर रंजन से अपनी अनभिज्ञता छुपाते हुए उसने झूठ बोल दिया |

एक पल को कमरे में मौन छा गया |

"तुम कुछ देर बैठो, मैं चाय बनाकर लाती हूँ |"

"जाने दो भाभी |" इच्छा होते हुए भी रंजन ने ओपचारिकतावश कहा |

"नहीं, सफर में थकान हो गई होगी | एक कप चाय लोगे तो थकान मिट जाएगी |" कहती हुई मनोरमा रसोई में चली गई |

रसोई में आकर उसने चीनी के डिब्बे को देखा तो वह खाली पड़ा था | कल दस पैसे की चाय की पुड़िया मँगाई थी, वह पुड़िया भी खाली पड़ी थी | हाँ, दूध कृष्ण का अवश्य रखा हुआ था |

मनोरमा एक क्षण तो अपने चाय के आग्रह के लिए पछताई मगर फिर एक कटोरी को धोती के पल्लू से छिपाती हुई बाहर निकल गई |

कमरे में बैठे रंजन से सब कुछ देख लिया था | फटी और मैली धोती में लिपटी मनोरमा को देखकर वह पहले ही बहुत कुछ समझ गया था | घर की हालत उसकी आँखों के सामने थी लेकिन इसका कारण उसकी समझ में नहीं आ रहा था |

कुछ देर पश्चात् मनोरमा चाय बनाकर ले आई | कृष्ण भी बाहर से कमरे में आ गया था | मनोरमा ने उसको भी एक कटोरी में चाय दे दी |

चाय का अन्तिम घूँट भरकर रंजन ने प्याला जमीन पर रख दिया | जेब से सिगरेट का पैकिट निकालकर उसने एक सिगरेट होंठों में दबाते हुए सुलगा ली |

"मुन्ना तो काफी बड़ा हो गया है |" पास खड़े कृष्ण की ओर देखते हुए रंजन ने कहा |

"मैंने मुन्ने के लिए ही तुम्हें शहर से बुलाया है रंजन |" कप-प्लेट उठाते हुए मनोरमा ने कहा |

"मुन्ने के लिए? मैं कुछ समझा नहीं |" आश्चर्य से रंजन ने कहा |

"रंजन भैया, हर तरफ से निराश होकर मैंने तुम्हें बुलाया है |" कप-प्लेट वापस वहीँ रखते हुए मनोरमा ने कहा | कृष्ण का कोई साथी बाहर से उसे पुकार रहा था | वह उसके साथ बाहर चला गया |

"मैं हर तरह से तुम्हारी सहायता करूँगा भाभी |" रंजन कह उठा |

"तुम पर विश्वास करके ही मैंने तुम्हें यहाँ बुलाया है रंजन | यह बच्चा अब मेरे लिए संकट बन गया है |"

"क्यों, क्या हुआ?" रंजन बहुत कुछ समझ गया था परन्तु विश्वास न करके उसने प्रश्न किया था |

"तुम तो सब कुछ जानते हो रंजन | सास की इच्छा, इनके वंश की वृद्धि और इन्हें पिता बनाकर समाज में उचित स्थान दिलाने के लिए ही मैंने सब कुछ किया था | उस समय भी मेरे मन में बहुत-सी शंकाएँ उठी थीं | आज की स्थिति की कल्पना भी मैंने की थी लेकिन इनकी खुशी और अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए मैंने उन्हें भुला दिया था | मैं नहीं जानती रंजन भैया कि मैंने उसे समय कोई पाप किया था अथवा अपने कर्तव्य का पालन |" कहकर मनोरमा चुप हो गई |

"तुम तो एक देवी हो भाभी | तुमने तो नारी जाती के समक्ष पति की आज्ञा का पालन करके एक आदर्श प्रस्तुत किया है, तुम्हारी तो पूजा की जानी चाहिए |" रंजन मनोरमा के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त कर उठा |

"बहुत पूजा हुई है मेरी रंजन | इस बालक के आते ही मेरे जीवन के बुरे दिन शुरू हो गए थे | मुझे पहले भी यह आशंका थी कि ये इस बच्चे को सहन नहीं कर पाएँगे | उस समय आदर्शवादी बनकर इन्होंने मुझे ऐसा करने का आदेश दिया था | मैंने भी सोचा था कि शायद इस अभाव की पूर्ति से इनके जीवन की घुटन कम हो जाए; मगर हुआ इसके विपरीत | ये अपने आदर्श को सहन न कर सके और अन्दर ही अन्दर और भी अधिक टूट गए | बच्चा होने के पश्चात् दिन-प्रतिदिन बच्चे के प्रति इनकी घृणा बढ़ती ही गई | मैं इस बच्चे को कैसे त्याग देती, मैंने तो इसे जन्म दिया था | मेरा बच्चे के प्रति लगाव भी इनसे सहन नहीं होता और मेरे प्रति भी उनकी घृणा स्थायी हो गई है | हर रोज शराब पीकर मार-पिट करना इनकी आदत बन गई है और अब तो इन्होंने स्कूल से नौकरी भी छोड़ दी है?" कहकर मनोरमा चुप हो गई |

"स्कूल से नौकरी भी छोड़ दी?" आश्चर्य से रंजन ने पूछा, "अब घर का खर्च कैसे चलता है?"

"घर की हालत तो तुम देख ही रहे हो तो भी घर को किसी तरह चला ही रही हूँ, मगर इनकी शराब का खर्च मैं कहाँ से पूरा करूँ | रोजाना ये घर से कुछ न कुछ निकाल कर ले जाते हैं |"

"श्रद्धा बाबू जैसा व्यक्ति यह सब कुछ कर सकता है, सुनकर विश्वास नहीं आता भाभी |"

"उनसे मिलोगे तो विश्वास आ जाएगा |" मनोरमा कह गई |

"तुम चिन्ता न करो भाभी, उन्हें आने दो | मैं उन्हें समझाऊँगा, शायद वे राह पर आ जाएँ |" रंजन ने उसे आश्वासन देते हुए कहा |

"इसी विश्वास से तो मैंने तुम्हें यहाँ बुलाया है भैया |"

‘तुम महान् हो भाभी! भारतीय इतिहास में तुम्हारा पत्नी-आदर्श युगों-युगों तक अमर रहेगा | ’ रंजन मन ही मन कह उठा और श्रद्धा से उसकी आँखों में आँसू आ गए |

"रो रहे हो रंजन भैया!"

"मेरे दो आँसुओं की कीमत ही क्या है भाभी! तुमने मुझे अपना समझा है, इसका मुझे गर्व है | मैं तो तुम्हारे दर्शन पाकर ही धन्य हो गया हूँ |"

"तुम आराम करो, मैं तुम्हारे लिए खाना बनाती हूँ |" कहते हुए वह वहाँ से उठ गई और रंजन ने पलंग पर अपने पैर फैला दिए |

अपना दुख रंजन पर व्यक्त करके मनोरमा बहुत हल्की हो गई थी |