पराभव - भाग 16 Madhudeep द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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पराभव - भाग 16

पराभव

मधुदीप

भाग - सोलह

श्रद्धा बाबू को देखकर गाँव के लोग आश्चर्य करते थे | एक श्रद्धा बाबू वह था, जिस पर लोग गर्व करते थे और जिससे मिलना और बातें करना वे गौरव समझते थे | एक शराबी श्रद्धा बाबू यह था जो कि आम आदमी से भी बहुत अधिक बदतर हो गया था | किसी को भी इसका कारण समझ में नहीं आ रहा था | कोई भी तो नहीं जानता था की श्रद्धा बाबू जैसा आदर्श व्यक्ति क्यों अपनी राह से भटक गया है |

उससे इर्ष्या करने वाले अब कहने लगे थे, "बड़ा आया था नेता बनने वाला अब पता चल रहा है उसके कुकर्मों का |"

गाँव में कुछ व्यक्तियों को उसके साथ सच्ची सहानुभूति भी थी | वे उसे प्यार से अपने पास बिठाकर समझाने का प्रयास भी करते मगर उसके दिल का दर्द उनमें से कोई भी नहीं जानता था | उनमें से कोई भी यह नहीं जानता था कि श्रद्धा बाबू शराब क्यों पीता है | जिस आदर्शवादिता की भावना में बहकर उसने वह कदम उठाया था, वह आदर्श अब सहन कर पाने में वह स्वयं को असमर्थ महसूस करता था | उसने काफी प्रयास किया मगर वह अपने दिल में बच्चे के प्रति अपनत्व का भाव उत्पन्न न कर सका | जब भी बालक कृष्ण और मनोरमा उसके सामने आते, उसे अपना अपंग पौरुष सामने खड़ा मुँह चिढ़ाता महसूस होता | उसके दिल में इस कमजोरी और दर्द ने अपना स्थायी घर कर लिया था और वह इसी दर्द से स्वयं को मुक्त करने के लिए शराब पीता था | शराब से वह उस दर्द से मुक्ति नहीं पाता तो उसकी झुँझलाहट मनोरमा और बच्चे पर उतरती | घर में कलह ने अपना डेरा जमा लिया था |

आर्यसमाज के सदस्यों से भी श्रद्धा बाबू का यह आचरण छिपा नहीं रह सका था | विद्यालय के लिए उसके योगदान को देखकर प्रबन्धकों ने उसे प्रारम्भ में काफी समझाया | वे उसे विद्यालय से निकालना नहीं चाहते थे मगर जब पानी सिर से ऊपर गुजर गया और उसके भ्रष्ट आचरण का असर बच्चों पर पड़ने लगा तो उन्हें विवश होकर उससे त्याग-पत्र माँगना पड़ा | त्याग-पत्र माँगना महज एक औपचारिकता है, अन्यथा प्रबन्धक उसे विद्यालय से निकालना चाहते हैं, इस बात को श्रद्धा बाबू भी समझता था | अपमान से बचने के लिए उसने विद्यालय से अपना त्याग-पत्र दे दिया जिसे स्वीकार करने की औपचारिकता भी शीघ्र ही पूरी हो गई |

अब वह सारा दिन व्यर्थ गालियों में इधर से उधर एक आवारा व्यक्ति की तरह भटकने लगा | करने के लिए अब उसके पास कोई काम न था | वह शराब पीने के लिए मनोरमा से पैसे माँगता | उसके पैसे न देने पर घर में झगड़ा होता |

अब तक तो मनोरमा किसी तरह पुराने संचित धन से घर का खर्चा चला रही थी, मगर वह राशी इतनी अधिक तो थी नहीं, जिस पर निश्चिन्त होकर बैठा जा सकता | वह आस-पड़ोस से सिलाई का काम भी करने लगी थी | जैसे-तैसे गुजारा चल रहा था, परन्तु भविष्य के प्रति उसका मन हमेशा ही आशंकित रहता था |

आज श्रद्धा बाबू घर से बाहर निकला तो बालक कृष्ण ने उसका रास्ता रोक लिया, "पापा हमारे लिए पतंग लाना |"

"नहीं, पतंग नहीं उड़ाते, गन्दी बात होती है |" कहते हुए हाथ छुड़ाकर वह जाने लगा मगर कृष्ण ने उसका हाथ न छोड़ा |

"शराब पीना भी तो गन्दा होता है पापा |"

"क्या कहा?" सुनकर श्रद्धा बाबू क्रोध से स्वयं पर संयम न रख सका और उसने तेज आवाज में कहा |

"मुझे क्या मालूम, मम्मी ही तो कहती है |" कृष्ण उसकी तेज आवाज सुनकर सहम गया था |

"मम्मी के बच्चे! ठहर, अभी बताता हूँ | मुझे शराबी कहता है हरामजादे!" कहते हुए उसने कृष्ण को पिट दिया |

"क्यों इस निर्दोष को पिट रहे हो, इसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?"

अन्दर से भागकर आती हुई मनोरमा ने बच्चे को अपनी गोद में ले लिया |

"हरामजादा मुझे शराबी कहता है |" कहते हुए वह आगे बढ़ गया |

मनोरमा घर के बाहर खड़ी पति को जाते देखती रही | उसके लिए ऐसी घटना कोई नई बात न रह गई थी, फिर भी घटना के घटने पर उसे दुख तो होता ही था | आँसू न बहें, मगर दिल तो रोता ही था |

"पापा हमें क्यों मारते हैं मम्मी?"

"पता नहीं बेटा!" बच्चे के पूछने पर मनोरमा उदास मन से कह उठी |

"मैं भी बड़ा होकर पापा को खूब मारूँगा |" कृष्ण ने भोलेपन से कहा था मगर उसके मुख पर क्रोध के चिह्न स्पष्ट झलक रहे थे |

"नहीं बेटा, ऐसा नहीं कहते |"

मनोरमा स्वयं अपने पति से घृणा करने लगी थी मगर बालक के मुख से पति के प्रति घृणा सुनकर उसके मन को ठेस लगी थी | पिता के व्यवहार को देख-देखकर बालक के मन में विद्रोह जन्म लेने लगा था और इसी के कारण वह जिद्दी और झगड़ालू होता जा रहा था |

कृष्ण को साथ लिए जब मनोरमा अन्दर कमरे में पहुँची तो सामने अपने खुले ट्रंक को देखकर चौंक उठी | ट्रंक के पास ही खुला-टूटा ताला रखा था और सारे कपड़े बाहर पड़े थे |

कृष्ण को छोड़कर मनोरमा ने झटपट कपड़ों को उलट-पुलट कर अपने पर्स को सँभाला लेकिन उसमें तो अब एक पैसा भी नहीं था | व्यर्थ ही वह पर्स की जेबें टटोलती रही |

बड़ी मुश्किल से उसने कृष्ण का स्वेटर बनाने के लिए तिस रूपए सँभालकर रखे थे | सर्दियों का मौसम शुरू होने को था और उसकी बड़ी इच्छा भी कृष्ण का नया स्वेटर बनाने की | पिछ्ले दस दिन से वह रोज शहर से ऊन मँगाने की सोचती थी मगर अभी तक कोई उपयुक्त अवसर हाथ नहीं लगा था |

आज इस ऊन के पैसे को उसका पति शराब के लिए ले गया था | वह खड़ी-खड़ी फटी आँखों से उस ट्रंक को देखती रह गई |

"हाय री शराब! तेरा सत्यानाश हो |" एक आह मनोरमा के मुँह से निकली और वह वहीँ माथा पकड़कर बैठ गई |

वह पास खड़े कृष्ण को एकटक देख रही थी | उसे लगा जैसे कि वह ठण्ड से काँप रहा है और वह उसे अपनी गोद में लेकर गर्माने लगी |