1
साँसों का यूँ किराया अदा कर रहा हूँ मैं
होटों पे मुस्कुराहटो को भर रहा हूँ मैं।
पैवंद सिर्फ जिस्म नहीं रूह तक में है
जैसे किसी फकीर की चादर रहा हूँ मैं।
तुम कहे रहे हो सब यहाँ महेफुज है मगर
बेटी को अपनी देखके ही डर रहा हूँ मैं।
तुम साथ धुप में जो चले यूँ लगा मुजे
साये में बादलों के सफ़र कर रहा हूँ मैं।
सहमा हुआ समां भी है दहशत है हर जगा
लगता है अपने साये से भी डर रहा हूँ मैं।
तुम आ गए तो रौनक-ए-हस्ती भी आ गयी
'महेबुब' मेरे अब ख़ुशी से मर रहा हूँ मैं।
***
2
खेत को बेच दिया शहर मैं आने के लिए
घर तो फिर भी न मिला सर को छिपाने के लिए
ज़िन्दगी एक महाजन की तरह पेश आई
कोई महोलत न मिली क़र्ज़ चुकाने के लिए
जिस्म को बेच दिया रूह भी नीलम हुई
आह! क्या क्या न किया सिर्फ कमाने के लिए
बस्तियाँ अपने ही हाथो से उजाड़ी सबने
अब सितमगर को बुलाया है जलाने के लिए
जिंदगी मौत से क्यूँ कर मैं डरूं अय लोगो
शान से आया हूँ मैं शान से जाने के लिए
मेरे महेबूब बहुत जल्द लगे क्यूँ रोने?
आप निकले थे जमाने को हसाने के लिए
***
3
दिलको तुम्हारी यादसे जो दूर कर दिया
मजबूर था कभी उसे माझूर कर दिया
तेरे सिवा न और किसीको वो देखले
आँखोंको इतनी बातपे बेनूर कर दिया
वो शाख्स मेरी जातमे शामिल है अब तलक
हालात ने जिसे था कभी दूर कर दिया
दुनियाने जब खुलूसकी समजी नहीं ज़बाँ।
तब हमने अपने आपको मगरूर कर दिया।
जाना यहाँ किसीने नहीं वक़्त का चलन
बेकैफ़ कर दिया कभी मखमूर कर दिया।
खुदका भी हाल पूछ नही सकता तब से वो
जबसे उसे जमाने ने मशहूर कर दिया
औलाद के हाथों में न आ जाए इसलिए
मयकश ने खुद को जाम से ही दूर कर लिया ।
आयेभी इस तरह से के जानेका गम नहो
"महेबुब" तूने आजभी रंजूर कर दिया
***
4
दिल का आंगन खाली खाली
जेसे तन मन खाली खली
मजबूरी बूढा कर देंगी
सारा योवन खाली खाली
सिर्फ मुझे ही रक्खा कोरा
बरसा सावन खाली खाली
हरी भरी दुनिया है केवल
आवारा मन खाली खाली
जब से मुझसे वो रूठा है
मेरा दरपन खाली खाली
आँखों में सपने ही सपने
फिर भी दामन खाली खाली
***
5
कुछ दिन से तेरे शहर में मरता नही कोई
यूँ लग रहा है जैसे की भूखा नही कोई
दुनिया है क्या? समजने की करते है सब खता
कोशिश हजार करले समजता नही कोई
तू बेसबब सुनाने लगा राज-ए-दिल यहाँ
मतलब परस्त लोग है सुनता नही कोई।
ऐ ख्वाब अश्कबनके मेरी आँख से निकल
अब दिल के इस महल में तो रहेता नही कोई।
तकसीम रहे इश्क में जो खुदको कर दिया
लगने लगा है जैसे पराया नही कोई
इन मुश्किलों में तुम ने मुझे थाम जब लिया।
लगता है दो जहान में तन्हा नही कोई।
महेबुब तुम भी राहे जुनू पर निकल पडे
गिरने के बाद जिसमे सम्भलता नही कोई
***
6
तुम्हारी याद मेरे दोस्त इस कदर आये
फरार कैद से हो कोई जैसे घर आये
गमे हयात तुजे किस तरह छुपाऊं मैं
तू साफ़ साफ़ मेरे शे'र में नजर आये।
उधर तो बाम पे गेसू सवारे जाते है
इधर नसीब मेरा खुद बखुद संवर आये
उदास रहने से तो मुस्कुराना अच्छा है
मैं मुस्कुराने लगु तो भी आँख भर आये
फरेब है ये नजरका या शिद्दते एहसास
हरेक शय में तेरा अक्स ही नजर आये
उड़ान भरने को बस होसला जरुरी है
नजर जमाने को 'महेबुब' सिर्फ' पर' आये।
***
7
दिन को अच्छा न लगे रातको अच्छा न लगे
आज भी गम जो किसीका मुझे अपना न लगे
जिंदगी मैं तो तेरे बोझ से झुक जाता हूँ
लोग कहते है मगर मुझको ये सजदा न लगे।
है कोई जो मेरी नजरो में छुपा बैठा है
वो जो अपना न लगे और पराया न लगे।
आईने से भी गलतफहेमी तो हो सकती है।
मेरे जैसा है मगर ये मेरा चहेरा न लगे।
है कमी कोई या मश्शाक हुआ है महेबुब
इश्क की राह इसे आगका दरिया न लगे।
***
8
मेरी आँखों में तन्हाई की राते ढलने लगती है
जो यादे यारकी रोशन हो मुझ में जलने लगती है।
मैं अपने पाऊँ जब भी देखता हूँ टूट जाता हूँ।
ये राहे जोश मेरा देख कर खुद चलने लगती है।
नई जिस सोच से लगता था हल मिल जायेंगे सारे
वही दो चार दिन में क्यूँ हमे ही खलने लगती है।
शजर आला समज के बुलबुलें ये फ़िक्रे दुनिया की
क्यूँ मुजमें घोसला करती है मुजमें पलने लगतो है।
मेरे महेबुब ये दुनिया मुझे तब क़ैद लगती है
सलाखे सोचकी जब शख्सियत पर डलने लगती है।
***
9
दिखावे की हदो से पार हो जा
नई खुशियों का दावेदार हो जा
मुझे बे घर जमाना कर रहा है
तू मेरी छत दर-ओ-दीवार हो जा
कलम अपना बनाकर शायरी को
तू हक के वास्ते तलवार हो जा
किसी की आँख से गिरते हो मोती
इकठ्ठा कर उन्हें जरदार हो जा
अगर कुछ भी नहो कुछ करले हासिल
अगर कुछ है तो फिर दातार हो जा
तुझे आंसू ही देंगे ख्वाब सारे
मेरे महेबुब तू बेदार हो जा
***
10
डुबोये जिसको जी चाहे जिसे चाहे तिराता है।
तू इस दुनिया को बस अपने इशारों पर नचाता है।
हिमालय सा कोई इंसान शायद हो तेरे अंदर
फिर अपनी ज़ात को तू किस लिए कमतर बताता है।
तुम्हारा इम्तेहाँ मेरे सिवा कोई नही लेगा।
जुबाँ पे दुश्मनों का नाम तू बेकार लाता है?
अगर तू सह नही सकता तो होजा अब जुदा मुझसे
महोब्बत बोझ है ये हर कोई थोड़ी उठाता है।
सुकूँ बढ़ता है मेरा या इलाही ! ये तअजजुब है।
तू मेरी जिंदगी में मुश्किलें जब भी बढाता है।
यहाँ कुछ भी नहीं होता जो सोचा हमने है तो फिर।
हमेशा सोच के इस बोझ को तू क्यूँ उठाता है।
इनायत मुझे पे ये ताउम्र की सोगात जैसी है।
मुझे सारा जहाँ 'महेबुब' ही कह कर बुलाता है।
***
11
बात दिलकी मानके मुश्किल में पड सकता हूँ मैं।
गर नहीं मानु तो खुदसे भी बिछड़ सकता हूँ मैं।
हार जाता हूँ तुम्हारे सामने हर बार मैं।
पर तुम्हारे वास्ते दुनिया से लड़ सकता हूँ मैं।
ए उदासी माँ के जेसा प्यार मत कर तू मुझे
तेरे इस बर्ताव से शायद बिगड़ सकता हूँ मैं।
हार मैंने मान ली है गर्दिश ए हालात से।
आदमी हूँ एड़ियां कितनी रगड़ सकता हूँ मैं
तू सदाकत के लिए उकसा न मुझको ए ज़मीर।
सच कहूँ तो दार पर महेबूब चढ़ सकता हूँ मैं।
***
12
कभी शादाब रहता है कभी रंजूर रहता है।
भला क्यूँ आदमी इस दौर में मजबूर रहता है।
मुझे वो थाम लेता है मेरे गिरने से पहले ही
जमाना जूठ कहता है वो मुझसे दूर रहता है।
मुखालिफ जो भी हो हाकिम का वो सूली पे चढ़ जाए
यही क़ानून है जगका यही दस्तूर रहता है।
तू उसको ढूंढता रहता था सिर्फ ऊँचे आसमानों में।
न कर फ़रियाद अब नादाँ ,वो तुझ से दूर रहता है।
भला नक्काद क्या जाने सुखनवर किसको कहते है।
हमारे जिस्म में दिल की जगह नासूर रहता है।
मुझे कमतर समजने की खता करने दो दुनिया को।
मगर मुझमें भी तो महबूब का ही नूर रहता है।
***
13
सोच की बैसाखियों को बस बदल लेता हूँ मैं
है तो सौ दुशवारियाँ पर हस के चल लेता हूँ मैं।
तीरगी मुझसे उलजने की न जिद करना कभी
खुश्क हो जाये दिये तो खुद ही जल लेता हूँ मैं
जीते रहेने की तलब ने मार डाला है ज़मीर
जैसे भी हालात हों वैसे ही ढल लेता हूँ मैं।
देखले कोई न बहती आंसूओं की धार को
इस तरह बरसात में थोड़ा टहेल लेता हूँ मैं।
आँख पर पट्टी लगाकर दौड़ना शमशीर पर
जिंदगी के रास्ते पे फिर भी चल लेता हूँ मैं।
सत्यावादी हूँ अगर अवसर नहीं मिलता मुझे
सच तो ये है सोच का पैकर बदल लेता हूँ मैं।
जिंदगी 'महेबुब' को तुजसे कोई शिकवा नहीं
जितना तू छलती है मुजको उतना फल लेता हूँ मैं।
***
14
खाक में सारे जमाने ने मिला रक्खा है
तेरी रहमत ने मगर मुझको बचा रक्खा है।
एक बच्चे के तब्बसुम पे मिटी जाती है।
जिंदगी मैंने तेरा नाम दुआ रक्खा है
बेसबब मुझको तलाशे है जमानेवाले।
मैंने खुशबू की तरह अपना पता रक्खा है।
रश्क करता है जहाँ चाक गिरेबाँ पे मेरे
तेरी कुर्बत ने मुझे कैसा सजा रक्खा है।
जबसे जाना के सदाकत है लहू में मेरे
तब से मकतल को खुद ही मैंने सजा रक्खा है....??
अब फरिश्ता कोई रहता नही मेरे अंदर
मैंने दिल कैसा बियाबान बना रक्खा है।
वक्त ऐसे नही दिन रात निचोड़े मुझको
बुन्दभर इत्र कहीं मैंने छुपा रक्खा है
तेरी यादों ने अंधेरों को किया है रोशन।
आंधियो ने ही दिया मेरा बचा रक्खा है।
***
15
सुहाने गीत मैं गाऊं तो कैसे।
दिले नाशाद, बहलाऊं तो कैसे।
अता तूने ही मुझको ग़म किये है
तेरी नेअमत को ठुकराऊं तो कैसे।
है रमखुर्दा मसाफत कर रहा है
मैं दिल का साथ दे पाऊं तो कैसे।
तआकुब कर रहा है मेरा साया
मैं कूद से दूर भी जाऊं तो कैसे
कोई इल्हाम भी आता नहीं है
मैं कोई शेर कह पाऊं तो कैसे।
सरे महफ़िल यहां जश्न ए तरब है
मैं बनके अश्क़सार आऊं तो कैसे।
मयस्सर है मुझे पागल नसीबी।
ये दानाई को समजाऊं तो कैसे।
कबा ए जिस्म मैली हो गयी है
मेरे मेहबूब दिखलाऊं तो कैसे।
***
16
हमारा दिल जो यहाँ हर किसी बला से डरे
तुम्ही बताओ गुनाह क्या है क्यों खता से डरे।
रगों में बहती है अब खुनकी जगह नफरत
खुदके वास्ते अब कोई तो खुदा से डरे।
हमारा दौरे सफर हाल था बहुत हु अजिब
न रेहज़नो से डरे सिर्फ रहनुमा से डरे
हम अपने घर में जलाते है ऐर्फ दिल अपना
बताओ फिर ये दिया क्यों भला हवा से डरे
ये कूंच करने लगा किस तरफ जहां लोगों
हम इस सफर में सदा अपने नक़्श ए पा से डरे
ये क्या तज़ाद है ये ज़िन्दगी बतादें हमें
तेरी रज़ा में जिए पर तेरी रज़ा से डरे
बस एक बार मिले अपने आप से थे हम
फिर उसके बाद सदा अक़्स ओ आईना से डरे
जो राहे इश्क़ में मेहबूब खुदको करदे फना
वो शख्स कैसे भला उसके इंतहा से डरे
***
17
तज़किरा ग़म का ख़ुशी की भी पज़ीराई है।
जिंदगी क्या है फ़क़त अंजुमन आराई है।
चोट सीने पे किसी शख्श ने जब खाई है।
जिंदगी उसकी अजब रंग से भर आई है।
नोच ली हैं मेरी आँखें ही ज़माने भरने
कुछ हसीं ख़्वाब सजाने की सज़ा पाई है।
उसके बस एक तसव्वुर से हुई है रौनक।
कौन कहता है के घर में मेरे तन्हाई है
बाखुशी खुदको ही बरबाद किया करते है।
लोग कुछ है के जिन्हें जौके मसीहाई है।
सिर्फ हसरत ही दबाती है गला इन्सां का।
पेट भरने के कभी काम नहीं आई है।
बात जो तेरे अलावा मैं कोई सोच सकूं
इतनी फुर्सत कहाँ देती मुझे तन्हाई है।
मेरे हाथों में लकीरे ही नहीं अब साहिब
वक़्त से हाथ मिलाने की सजा पाई है।
जिसकी बस एक तज्जली को तरसता है जहाँ।
मेरे महबूब के जलवो में वो रानाई है
***
18
देखिये इश्क में अब कौन सा जादू निकले।
मेरे अंदाज़े बयां से तेरी खुशबू निकले।
आज़माइश पे उतर आये सराबो की अगर
रेत से प्यास को पीते हुए आहू निकले।
हाथ शामिल था मेरे झुर्म में जिन लोगोका।
फैसला करने मेरा उनके तराजू निकले।
दिनको सूरज ने मेरी राह को रौशन रक्खा।
"रात आई तो शजर छोड़ के जुगनू निकले"
उनकी ख़ुश्बू से फ़ज़ा सारी महक उठती है।
जब भी लहराते हुए अपने वो गेसू निकले
नींद जब बोझ बढ़ा देती है पलको पे मेरी:
तब ग़ज़ल कहने के भी ज़हन से पहलू निकले
जब मिरे कान्धे से कन्धे को मिलाये बेटा।
मैंने महसूस किया तब मिरे बाज़ू निकले
ज़िन्दगी मेरी अन्धेरों से निकल सकती है
मेरी यादों के उजालों से अगर तू निकले
जम गया है मेरी पुतली पे कोई यूँ सदमा ।
मैंने चाहा तो बहुत फिर भी न आंसू निकले
मेरे मेहबूब ये हिन्दोस्तान है के जहाँ
एक गुजराती के दीवान से उर्दू निकले।
***
19
माँ की याद दिलाती बेटी
यूँ मुझको समझाती बेटी
अनजाने लोगों के घर को
हंस हंस कर अपनाती बेटी
फूलों को शरमा देती है।
जब भी है मुस्काती बेटी
अपने तो बस ज़ख्म लगते
मरहम सिर्फ लगाती बेटी
कोई झुर्म नहीं है लेकिन
कोख़ में मारी जाती बेटी
फूलों सी बाबुल के अंगना
साजन घर कुम्हलाती बेटी
मजदूरी भी कर लेती है।
बापका क़र्ज़ चुकाती बेटी
अपने सब हो जब बेगाने
किस से आस लगाती बेटी
सुने घर को सुने मन को
खुशियो से भर जाती बेटी।
करना कद्र कभी तो उसकी
किस्मत से मिल पाती बेटी
उसके हक़ का रिज़्क़ है इसमें
कब औरो का खाती बेटी
महबूब इतनी कुर्बानी कर
दुनिया से क्या पाती बेटी
***
20
क़ैद मुठ्ठीमें किये सारा फ़लक लाती है।
ख़ाली हाथों से कोई बेटी कहाँ आती है।
खस्ताहाली पे मेरी अर्श के ये है आंसू
इस ज़माने को जो बरसात नज़र आती है
मैं तलब क्यूँ न करूँ रंजो अलम की दुनिया
सिर्फ मुश्क़िल में ही अल्लाह की याद आती है।
यूँ तो गुमरहियों में खुद ही भटकती है मगर
है यही दुनिया जिसे राहबरी आती है
ज़िन्दगी कैफ से है तर ब तर मेरे महबूब
वक़्त के हाथ मगर सारी उतर जाती है
***
21
कोई जब हुस्न दिलकश शायरी के देख लेता है।
नये अंदाज़ भी वो ज़िंदगी के देख लेता है।
फ़रिश्ते चूम लेते हैं अदब से उसकी आँखों को
कोई जलवे अगर मेरे नबी के देख लेता है।
गुज़र जाता है ग़म की आँधियों से हँस के वो लेकिन।
बहुत रोता है गर आँसू किसी के देख लेता है।
न जाने क्यूँ शिकायत है बहुत एहबाब को उससे
तअज्जुब है कि वो ग़म अजनबी के देख लेता है।
ग़मो के दौर में महबूब घबराता नहीं है वो
सँभलता है ,ज़माने जो ख़ुशी के देख लेता है।
***
22
"ग़मो का तोड़ है तावीज़" कह कर बेचनेवाला
है खुद ही मुब्तिला गम से मुक़द्दर बेचनेवाला?!!
जो पुरखो की निशानी थी, वही घर बेचनेवाला।
बहुत मज़बूर था बाज़ार आ कर बेचनेवाला
तिज़ारत के नए पहलू हमेशा खोज लेता है
जो अपने रंजो ग़म है मुस्कुराकर बेचने वाला।
मुझे तकलीफ कम देती है अब ये नोकरी मेरी
झुलसता धुप में देखा है चादर बेचनेवाला।
ख़ुदा ही जानता है राज़, प्यासा क्यूँ मरा होगा
बसों में बोतलें पानी की दिनभर बेचने वाला।
समज पाता नहीं कोई भी इस अंदाज़ ए दुनिया को
दुआएं अम्न की देता है खंजर बेचनेवाला
उसे मेहमाँ नवाज़ी की अदा हर रस्म करनी थी
बड़ा खुद्दार था घर के कनशतर बेचनेवाला
*कनस्तर बरतन
मेरे महबूब मैं तकदीर पे उसकी बहुत रोया
हुनर मज़बूरियों में था सुखनवर बेचनेवाला
***
23
झूठ का मरतबा आला नहीं देखा जाता
सच के दरबार पे ताला नहीं देखा जाता
हैं सियासत तेरे सब खेल निराले तुझसे।
क्यों गरीबों का निवाला नहीं देखा जाता
जिसने सिखलायी थी हंसने की अदा दुनिया को:
उसके होंटो पे भी नाला नहीं देखा जाता
तेरी आँखों के उजालों में ऐ मेरे हमदम।
अपने किरदार को काला नहीं देखा जाता
हां महोब्बत में कसर रह गयी शायद मुझसे।
क्यों तुझे देखनेवाला नहीं देखा जाता।
कुछ अदीबों ने सुखन को भी कर दिया है मज़ाक।
मुझसे अब कोई रिसाला नहीं देखा जाता
दीद ए मेहबूब की ख्वाहिश में चला पर उनसे।
क्यों मेरे पाँव का छाला नहीं देखा जाता
***
24
जहॉ सर पीटता हो आदमी अपनी जरूरत पर
करे विश्वास कोई किस तरह अच्छे मुहूरत पर।
यहाँ हर शख्स की आँखों में बस आँसू ही आँसू है।
मगर हर शख्स हँसता है किसी रोते की सूरत पर।
तेरे पहलूनशीं होकर दुआ ए मर्ग मांगी थी।
मगर आई नहीं कमबख्त अच्छे से मुहूरत पर।
ये कैसा दौर है भूखों को दाना मिल नहीं पाता।
मगर पकवान चढ़ते है जहाँ सोनेकी मूरत पर
हमे रबने बनाया था सभी से प्यार करने ही।
मगर इंसान तो चलता रहा राह ए कुदूरत पर।
मेरे महबूब गर बच्चा कोई इसकूल जाता है।
नज़ाकत से निकल जाते है उसके खूबसूरत पर।
***
25
निशानी बाप-दादा की जो गिरवी रखने जाएगा
वो अपना आतिश-ए- लाचारगी में दिल जलाएगा
पढे लिक्खों का है ये शह्र वापस लौट जा प्यारे
यहाँ एहसास की बोली कोई न जन पायेगा
वो आँखे बंध करके भी मेरे जजबात पढ़लेगा
मेरा कम-अक्ल दिल कैसे हजारों गम छुपाएगा
यहाँ अरमान भी लोगोके अकसर लुटे जाते है।
तू इस दुनिया में जी कर सोचले क्या और पायेगा।
नही डर आगका होता नही जलने का सोने को
निखरता ही मैं जाऊँगा तू जितना आजमाएगा
हवा के दौश पर चलने लगा झोक-ए-सुखन मेरा
निशाँ फिर बाद मेरे कौन इसका ढूंढ पायेगा
चराग-ए-उम्र हूँ 'महेबूब' बुजके जल न पाउँगा
नहीं हूँ 'बल्ब' के हर-रोज मुजको तू जलाएगा
***