श्री चैतन्य महाप्रभु

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लगभग 527 वर्ष पूर्व की बात है। उस समय भारतवर्ष पर मुसलमानों का राज्य था। हिन्दुओं पर अनेक प्रकार के अत्याचार हो रहे थे और वे निर्भीक रूप से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाते थे। किन्तु उससे भी अधिक दयनीय अवस्था वैष्णव-धर्म की थी, क्योंकि मुसलमानों के साथ-साथ पाखण्डी हिन्दु लोग भी वैष्णवों के घोर विरोधी हो गये थे। मुसलमानों का सङ्ग करते-करते उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो चुकी थी तथा उनका आचरण मुसलमानों के जैसा ही हो गया था। वैसे तो उस समय वैष्णव ही गिने-चुने रह गये थे तथा जो थे भी, वे पाखण्डी लोगों द्वारा उपहास तथा अपमान किये जाने के कारण छिपकर ही भजन करते थे। यदि लोगों को पता चल जाता कि यह व्यक्ति वैष्णव है, तो सभी लोग उससे घृणा करते थे तथा समाज से उसका बहिष्कार कर देते थे। उस समय पूर्व भारत में भगवती भागीरथी के सुन्दर तट पर बसा हुआ नवद्वीप-धाम विद्या का प्रधान केन्द्र था। नवद्वीप में विद्या अध्ययन कर लोग स्वयं को धन्य मानते थे। वहाँपर बड़े-बड़े वैदान्तिक तथा नैयायिक पण्डित रहा करते थे, जो गीता-भागवत-पुराण-वेद आदि शास्त्रों के ज्ञाता थे। वे नित्यप्रति भागवत एवं गीता इत्यादि का पाठ करते थे। श्रीमद्भागवत वेदरूप कल्पवृक्ष का रसमय परिपक्व ( पका हुआ) फल है तथा रसिक भक्त उसका आस्वादनकर सदा सर्वदा प्रेम में मत्त रहते हैं, परन्तु आश्चर्य की बात तो यह थी कि नवद्वीप के पण्डित लोग इसकी व्याख्या करते समय कहते कि मुक्ति ही गीता और श्रीमद्भागवत का चरम फल है। यद्यपि सभी शास्त्रों का उद्देश्य भगवद्-भक्ति है, परन्तु वे लोग अपनी व्याख्याओं में कहते कि शास्त्र हमें कर्म, ज्ञान एवं योग की शिक्षा ही प्रदान करते हैं। इस प्रकार भक्ति का विचार प्रायः लुप्त हो चुका था। भक्ति के नाम पर लोग नाक-भौंह सिकोड़ते थे।

Full Novel

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श्री चैतन्य महाप्रभु - 1

लगभग 527 वर्ष पूर्व की बात है। उस समय भारतवर्ष परमुसलमानों का राज्य था। हिन्दुओं पर अनेक प्रकार के हो रहे थे और वे निर्भीक रूप से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाते थे। किन्तु उससे भी अधिक दयनीय अवस्था वैष्णव-धर्म की थी, क्योंकि मुसलमानों के साथ-साथ पाखण्डी हिन्दु लोग भी वैष्णवों के घोर विरोधी हो गये थे। मुसलमानों का सङ्ग करते-करते उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो चुकी थी तथा उनका आचरण मुसलमानों के जैसा ही हो गया था। वैसे तो उस समय वैष्णव ही गिने-चुने रह गये थे तथा जो थे भी, वे पाखण्डी लोगों द्वारा उपहास तथा ...और पढ़े

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श्री चैतन्य महाप्रभु - 2

जन्म-लीलानवद्वीप नगर में समस्त गुणों से विभूषित परम भक्तिमान एक ब्राह्मण निवास करते थे। उनका नाम श्री जगन्नाथ मिश्र उनकी पत्नी का नाम श्री शचीदेवी था। वे भी परम भक्तिमती और पतिव्रता नारी थी। उनके गर्भ से क्रमशः आठ कन्याओं ने जन्म ग्रहण किया, परन्तु वे सभी जन्म के थोड़े-थोड़े समय पश्चात् ही मर गयीं। इससे वे दोनों पति पत्नी बहुत ही दुःखी रहते थे। कालक्रम से श्रीशचीदेवी ने नौवीं बार एक बालक को जन्म दिया। बालक बहुत ही सुन्दर था। उसके शरीर से अद्भुत तेज निकल रहा था। वह स्वयं बलदेव जी का अंश था। एक बार जो ...और पढ़े

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श्री चैतन्य महाप्रभु - 3

दो चोरों पर कृपाअब तो निमाइ ने चलना भी सीख लिया था। इसलिए सारा दिन दूसरे बच्चों के साथ घूमते हुए शरारतें करने लगे। किसी के घर में घुसकर भात खा लेते, तो किसी के घर में रखा हुआ दूध-दही चुराकर खा लेते और यदि किसी के घर में कुछ नहीं मिलता तो गुस्से में भरकर घर में रखे हुए मिट्टी के बर्तनोंको ही तोड़ डालते थे। किसी के घर में बच्चा सो रहा होता, तो उसे रुलाने लगते, जब घर के लोग आ जाते तो सभी बच्चे वहाँ से भाग जाते। और यदि कभी किसी स्त्री की पकड़ ...और पढ़े

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श्री चैतन्य महाप्रभु - 4

तैर्थिक ब्राह्मण पर कृपाएक दिन एक ब्राह्मण तीर्थों में भ्रमण करता हुआ नवद्वीप नगर में उपस्थित हुआ। वह गोपाल के द्वारा श्रीकृष्ण की उपासना करता था। उसने अपने गले में बाल गोपाल एवं शालग्रामशिला को लटकाया हुआ था। उसके शरीर से अद्भुत तेज निकल रहा था तथा वह सब समय अपने मुख से कृष्ण-कृष्ण उच्चारण कर रहा था। वह महाभाग्यवान ब्राह्मण नवद्वीप में घूमते-घूमते जब श्रीजगन्नाथ मिश्र के घर पर उपस्थित हुआ, तो श्रीजगन्नाथ मिश्र उसके अद्भुत तेज को देख झट उठकर खड़े हो गये और उसे प्रणाम किया। तत्पश्चात् उसके हाथ-पैर प्रक्षालन कराकर (धुलवाकर) उसे बैठने के लिए ...और पढ़े

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श्री चैतन्य महाप्रभु - 5

भक्ति विमुख एवं वैष्णव-विद्वेषी ब्राह्मणों को दण्डअब निमाइ कुछ बड़े हो चुके थे, अतः मिश्र ने उन्हें विद्या अध्ययन लिए विद्यालय में भेज दिया। उनकी बुद्धि इतनी तीव्र थी कि एक बार सुनने मात्र से ही उन्हें सब कुछ स्मरण हो जाता था। वे अपने से उच्च कक्षा के छात्रों को भी बातों ही बातों में हरा देते थे। यह देखकर सभी आश्चर्यचकित रहे जाते थे।विद्यालय से वापस आते समय निमाइ अपने मित्रों के साथ गङ्गा में अनेक प्रकार की जल क्रीड़ाएँ करते थे। यदि वे देख लेते कि कोई भक्ति रहित एवं वैष्णव-विद्वेषी ब्राह्मण जल में खड़ा होकर ...और पढ़े

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श्री चैतन्य महाप्रभु - 6

जगन्नाथ मिश्र का स्वप्न तथा परलोक-गमनएक दिन जगन्नाथ मिश्र ने एक स्वप्न देखा। स्वप्न देखकर वे शोक सागरमें डूब शय्या से उठते ही भगवान्‌ को प्रणाम करते हुए कहने लगे– “हे कृष्ण ! हे गोविन्द ! प्रभो ! मैं आपसे केवल एक ही वर चाहता हूँ कि मेरा निमाइ गृहस्थ होकर मेरे घरमें ही रहे।” यह सुनकर शची माता ने चिन्तित होकर पूछा– “क्या बात है, आज आप शय्या से उठते ही अचानक ऐसा वर क्यों माँग रहे हैं?” मिश्र कहने लगे– “आज मैंने एक स्वप्न देखा । निमाइ का सिर मुण्डा हुआ था तथा वह एक अद्भुत संन्यासी ...और पढ़े

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श्री चैतन्य महाप्रभु - 7

महाप्रभु की गया यात्राअब निमाइ को विवाह योग्य देखकर श्रीशची माता ने विष्णुप्रिया नाम की कन्या से उनका विवाह दिया। श्रीगौरसुन्दर के विवाह से शचीमाता निश्चिन्त हो गयीं। अपने पुत्र एवं पुत्रवधु की अपूर्व जोड़ी देखकर वे फूली नहीं समा रही थीं। विष्णुप्रिया ने भी अपनी सेवा एवं मधुर स्वभाव से परिवार के सभी सदस्यों को अपने वश में कर लिया। उनकी सेवा, सरलता एवं उज्ज्वल चरित्र से श्री गौरसुन्दर भी अति प्रसन्न थे।उस समय संसार में भक्ति प्रायः लुप्त हो गयी थी। सर्वत्र ही ज्ञान, कर्म, योग अथवा नास्तिकता का साम्राज्य फैला हुआ था। संसार की नास्तिकता देखकर ...और पढ़े

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श्री चैतन्य महाप्रभु - 8

जगाइ-माधाइ का उद्धारएक दिन प्रभु श्रीगौरसुन्दर ने श्रीहरिदास ठाकुर एवं श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु को घर-घर जाकर लोगों को कृष्ण करने का उपदेश प्रदान करने का आदेश दिया। प्रभु के आदेश को शिरोधार्य कर वे दोनों आनन्द से कृष्ण नाम का प्रचार करने के लिए चल पड़े। प्रचार करते-करते एक दिन उन्होंने एक स्थान पर मार्ग में दो शराबियों को शराब पीकर नशे में धुत्त देखा। कभी वे एक-दूसरे को गाली-गलौज कर रहे थे, कभी एक दूसरे से मारपीट कर रहे थे, तो कभी एक दूसरे का आलिङ्गन कर रहे थे। इस दृश्य को देखकर जब नित्यानन्द प्रभु ने आस ...और पढ़े

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श्री चैतन्य महाप्रभु - 9

काजी का उद्धारगया से लौटने के पश्चात् श्रीगौरसुन्दर ने सङ्कीर्त्तन-धर्म का प्रचार आरम्भ कर दिया था। सर्वप्रथम श्रीवास पण्डित घर में कीर्त्तन प्रारम्भ हुआ। तत्पश्चात् सभी भक्तलोग अपने-अपने घरों में कीर्त्तन करने लगे। यह समाचार जब नवद्वीप के मुसलमान शासक चाँद काजी के पास पहुँचा तो वह क्रोधित होकर अपने सैनिकों के साथ एक भक्त के घर पहुँच गया, जहाँ पर कीर्त्तन हो रहा था। वहाँ पहुँचकर उसने मृदङ्ग को जमीन पर पटककर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये तथा कीर्त्तन में सम्मिलित वैष्णवों को चेतावनी देते हुए बोला— ‘आज तो मैंने मात्र मृदङ्ग ही फोड़ा है। यदि पुनः यहाँ पर ...और पढ़े

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श्री चैतन्य महाप्रभु - 10

सार्वभौम का उद्धार संन्यास ग्रहण करने के पश्चात् प्रभु श्री गौरसुन्दर प्रेम में उन्मत्त होकर वृन्दावन की ओर चल परन्तु नित्यानन्द प्रभु छलपूर्वक उन्हें शान्तिपुर में श्री अद्वैताचार्य के घर ले आए। वहाँ से वे अपनी माँ श्रीशची माता से आज्ञा लेकर कुछ परिकरों के साथ नीलाचल पहुँचे। पुरी से कुछ दूरी पर ही श्रीनित्यानन्द प्रभु ने उनका दण्ड तोड़कर नदी में प्रवाहित कर दिया। इससे श्रीमन् महाप्रभु दुःखित होकर अकेले ही आगे चल पड़े और श्रीमन्दिर में उपस्थित हुए। मन्दिर में श्रीजगन्नाथ देव का दर्शनकर प्रेमाविष्ट होकर वे उन्हें आलिङ्गन करने के लिए दौड़े। परन्तु बीच में ही ...और पढ़े

11

श्री चैतन्य महाप्रभु - 11

बौद्ध आचार्यका उद्धारइस प्रकार जब प्रभु दक्षिण यात्रा के समय मार्ग में लोगों को वैष्णव बनाते जा रहे थे, वहाँ के मायावादी, तार्किक, मीमांसक तथा बौद्ध आदि लोग इसे सह न सके। उन्होंने प्रभु को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। परन्तु प्रभु ने खेल-खेल में ही उनके मतों का खण्डन कर वैष्णव मत (अचिन्त्यभेदाभेद-तत्त्व) की स्थापना की एक दिन एक बौद्ध-आचार्य अपने बहुत से शिष्यों को साथ लेकर श्रीमन् महाप्रभु से शास्त्रार्थ करने आया, परन्तु प्रभु से बुरी तरह पराजित हो गया। यह देखकर वहाँ पर उपस्थित हजारों लोग बौद्ध आचार्य का उपहास करने लगे तथा प्रभु की जय-जयकार करने ...और पढ़े

12

श्री चैतन्य महाप्रभु - 12

गोदावरीके तटपर राय-रामानन्द से मिलनइस प्रकार भट्ट परिवार पर कृपा कर प्रभु गोदावरी के तटपर पहुँचे। गोदावरी का दर्शन उन्हें यमुना का स्मरण हो आया। उन्होंने आनन्द पूर्वक उसमें स्नान किया तथा घाट से कुछ दूरी पर बैठकर कृष्ण नाम-कीर्तन करने लगे उसी समय श्रीराय रामानन्द जी राज वेश में बहुत-से ब्राह्मणों के साथ गोदावरी में स्नान करने के लिए वहाँ पर उपस्थित हुए वे कृष्ण के ऐकान्तिक भक्त थे तथा कृष्ण लीला में श्रीराधा जी की प्रिय सखी श्री विशाखा जी थे प्रभु का दर्शनकर वे मुग्ध हो गये और श्रीमन् महाप्रभु भी उन्हें देखकर पहचान गये कि ...और पढ़े

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श्री चैतन्य महाप्रभु - 13

अमोघ का उद्धाररथयात्रा के कुछ दिन बाद एक दिन सार्वभौम भट्टाचार्यने श्रीमन्महाप्रभु को अपने घरमें प्रसाद पाने के लिए किया। जब महाप्रभु उनके घरमें उपस्थित हुए और प्रसाद पाने के लिए बैठ गये तो भट्टाचार्य ने उनके आगे अन्न एवं अनेक व्यज्जनों का ढेर लगा दिया। यह देखकर महाप्रभु बोले– “भट्टाचार्यजी! यह आप क्या कर रहे हैं? क्या मैं अकेला इतना खा सकता हूँ?”यह सुनकर सार्वभौम भट्टाचार्य हँसते-हँसते कहने लगे– “प्रभो ! जगन्नाथ मन्दिर में तो आप 52 बार सैकड़ों मन अन्न खा जाते हैं तथा द्वारका में 16,108 रानियों के घरोंमें खाते हैं। इसके अतिरिक्त व्रज में अन्नकूट ...और पढ़े

14

श्री चैतन्य महाप्रभु - 14

वाराणसी में मायावादी संन्यासी प्रकाशानन्द द्वारा प्रभु की निन्दा मार्ग में पड़ने वाले गाँवों एवं नगरों को कृष्णप्रेम की में डुबाते हुए श्रीमन्महाप्रभु मायावादियों की नगरी वाराणसी पहुँचे। महाप्रभु जब मणिकर्णिका घाट में स्नान कर रहे थे, उस समय तपन मिश्र ने वहाँ पर प्रभु का दर्शन किया। पहले गृहस्थलीला के समय जब प्रभु बंगदेश की यात्रा पर गये थे, वहाँ पर उन्होंने तपन मिश्र पर कृपा की थी तथा उसे काशी में रहने का आदेश दिया था तथा यह भी कहा था कि मैं तुमसे वहीं मिलूँगा। अतः आज तपन मिश्र ने प्रभु को पहचान लिया। उन्होंने पहले ...और पढ़े

15

श्री चैतन्य महाप्रभु - 15

मथुरा श्रीमन्महाप्रभु का आगमनश्रीमन्महाप्रभु प्रेम में उन्मत्त होकर नृत्य एवं कीर्त्तन करते हुए मथुरा की ओर चले जा रहे ज्यों-ज्यों वे वृन्दावन की ओर बढ़ रहे थे, त्यों-त्यों उनका प्रेम आवेश भी बढ़ रहा था। मार्गमें जहाँपर भी उन्हें यमुना जी का दर्शन होता, वे उसमें कूद पड़ते। तब बड़े कष्ट से बलभद्र तथा उनका सेवक प्रभु को बाहर निकालते थे। इस प्रकार चलते-चलते प्रभु मथुरा पहुँचे। मथुरा पहुँचकर सर्वप्रथम वे विश्रामघाट गये और वहाँ पर स्नान किया। तत्पश्चात् जन्मभूमि और आदिकेशव आदि का दर्शन किया। श्री केशवदेव का दर्शन करते ही वे प्रेममें आविष्ट होकर उद्दण्ड नृत्य करने ...और पढ़े

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श्री चैतन्य महाप्रभु - 16

पठानों पर कृपाबलभद्र भट्टाचार्य लोगों की भीड़ से तङ्ग आ चके थे। इसके अतिरिक्त महाप्रभु कभी-कभी आविष्ट होकर यमुनामें लगा देते थे, उस समय वे बहुत कष्ट से प्रभु को बाहर निकालते थे। अतः वे विचार करने लगे कि यदि कभी प्रभु अकेले रहते समय आविष्ट होकर यमुनामें छलाङ्ग लगा देंगे, तो अनर्थ हो जायेगा। इसलिए उन्होंने प्रभु को वृन्दावन से जगन्नाथ पुरी लौटा ले जाने का विचार किया और प्रभु से वापस चलने की प्रार्थना की। यद्यपि प्रभु की वृन्दावन छोड़ने की इच्छा नहीं हो रही थी, तथापि बलभद्र एवं उसके सेवक की प्रसन्नता के लिए प्रभु ने ...और पढ़े

17

श्री चैतन्य महाप्रभु - 17

प्रकाशानन्द सरस्वती का उद्धारकाशी में सभी मायावादी जहाँ-तहाँ प्रभु की निन्दा कर रहे थे। जिससे तपनमिश्र, चन्द्रशेखर और वह जो श्रीमन्महाप्रभु का दर्शन कर प्रभु का भक्त बन चुका था, बहुत दुःखी होते थे। उस विप्र ने विचार किया कि प्रभु तो स्वयं भगवान् हैं, यदि एक बार वे सब मायावादी संन्यासी प्रभु का दर्शन करें, तो अवश्य ही वे सभी भक्त हो जायेंगे। अतः उन संन्यासियों को प्रभु से मिलाने के लिए उसने एक योजना बनायी। उसने सभी मायावादी संन्यासियों को अपने घर पर आमन्त्रित किया। तत्पश्चात् वह प्रभु के पास गया और उनसे हाथ जोड़कर निवेदन किया– ...और पढ़े

18

श्री चैतन्य महाप्रभु - 18

वैराग्य की शिक्षाभगवान् श्रीचैतन्य महाप्रभु काशी के मायावादियों का उद्धार करने के उपरान्त वापस नीलाचल लौट गये। प्रभु ने वर्ष की आयुमें संन्यास लिया और अड़तालीस वर्ष की आयुमें अपनी प्रकटलीला को सम्वरण कर लिया। संन्यास वेश ग्रहण करने के पश्चात् प्रभु ने पहले छः वर्ष भारतवर्ष के विभिन्न स्थानों में भ्रमण कर लोगों का उद्धार किया।बाकी अठारह वर्ष उन्होंने नीलाचलमें ही रहकर अनेकों लीलाएँ कीं। उनका आचरण अत्यन्त कठोर था। वे बहुत ही त्याग एवं वैराग्यपूर्वक रहते थे। किसी भी मौसममें वे दिनमें तीन बार स्नान करते थे। वे भूमि पर शयन करते थे। जीवों को शिक्षा प्रदान ...और पढ़े

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